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भावनावाद ] प्रथम परिच्छेद
[ १०३ 'प्रेषणाद्धयेषणयोरेव हि प्रतीति:-'तदप्रतीतौ नियुक्तत्वाप्रतिपत्तेः। नियुक्तत्वं च नाम 'कार्ये व्यापारितत्वम् । कार्ये 'व्यापृततामवस्थां प्रतिपद्य नियोजको' नियुङ्क्ते । सा च तस्य भाविन्यवस्था न स्वरूपेण साक्षात्कर्तुं शक्या । स्वरूपसाक्षात्करणे हि12 सर्वं तदैव13 सिद्धमिति न नियोगः14 स्यात्सफलः । ततः प्रयोजको बाध्यमानप्रतीतिक एव । तदुक्तम् ।
यथा प्रयोजकस्तत्र बाध्यमानप्रतीतिकः । 17 प्रयोज्योपि 18तथैव 1 स्याच्छब्दो 2 °बुद्धयर्थवाचकः॥ यथैव हि प्रयोजकस्य शब्दस्य प्रयोज्येन पुरुषेण स्वव्यापारशून्यमात्मानं प्रतीयता प्रयोजकत्व
नियोज्य-पुरुष का कार्य में व्यापार कराना ही नियुक्तत्व है। कार्य में व्यापृत-प्रवृत्त हुई अवस्था को जान करके नियोजक-शब्द नियुक्त करता है और वह उस नियोजक की भाविनी-भविष्य में होने वाली अवस्था है उसका स्वरूप से साक्षात्कार करना शक्य नहीं है। क्योंकि स्वरूप का साक्षात्कार कर लेने पर तो सभी उस काल में ही सिद्ध हो जावेंगे। अर्थात् “अग्निष्टोम" इत्यादि वाक्यों से यज्ञादि का करना और स्वर्ग को प्राप्त कराने के लिए निमित्तभूत पुण्य का उपार्जन ये सब कार्य उस काल में निष्पन्न ही हैं; पुनः नियोग का मानना सफल नहीं हो सकेगा इसलिये प्रयोजक बाध्यमान प्रतीति वाला ही है । यहाँ नियोग शब्द से प्रेरणा रूप भावना ग्रहण करना चाहिये । कहा भी है
श्लोकार्थ-जिस प्रकार से भावीकार्य से व्यापृत अवस्था वाले नियोज्य में बाध्यमान प्रतीतिवाला प्रयोजक है उसी प्रकार से प्रयोज्य-पुरुष भी बाध्यमान प्रतीतिक-काल्पनिक ही है क्योंकि शब्द बुद्धि से परिकल्पित ही अर्थ का वाचक है ।।
जिस प्रकार से प्रयोजक (प्रेरक) शब्द में यागविषयक स्वव्यापार से शून्य आत्मा का निश्चय कराते हुए प्रयोज्य पुरुष के द्वारा प्रयोजकत्व की प्रतीति बाध्यमान होती हुई निरालंबन है उसी प्रकार से प्रयोज्यत्व प्रतीति भी बाध्यमान होती हुई निरालंबन है तथा यज्ञलक्षण स्वव्यापार में अप्रविष्ट आत्मा का निश्चय न कराते हुए प्रयोज्य पुरुष के द्वारा ही वह बाधित हो जाती है। अथवा टिप्पणी
1 लिङर्थयोः। 2 सत्कारपूर्वकव्यापार । (ब्या० प्र०) 3 कर्मणिस्वरूपं । (ब्या० प्र०) 4 नत्वर्थस्य । (ब्या० प्र०) 5 नियोज्यस्य । (ब्या० प्र०)6नियोज्यस्य। 7 व्यापप्तामवस्थामिति खपाठः। 8 आत्मना स्वीकृत्य । 9 शब्दव्यापारापरपर्यायप्रेरणादिरूपः शब्दः। 10 अर्थे नियोज्यं । (ब्या० प्र०) 11 नियोजकस्य। 12 व्यापता वस्त्वकार्य चेति । (ब्या० प्र०) 13 अग्निष्टोमेन यागादिकरणं स्वर्गप्रापणनिमित्तपूण्योपार्जनं च सर्व निष्पन्नमेव तस्मिन्नेव काले । 14 स्वव्यापारे अविशिष्टं सहितमित्यर्थः । नियोगे शब्देनात्र प्रेरणारूपभावना ग्राह्या । (ब्या० प्र०) 15 शब्दव्यापारापरपर्याय: प्रेरणादिरूपः शब्दः। (व्या० प्र०) 16 भाविकार्यव्यापृततावति नियोज्ये । (ब्या० प्र०) 17 पुरुषः। 18 काल्पनिकः। 19 किञ्च शब्दात् प्रेषणादिप्रतीतिरपि न युक्ता । कुत इत्याह। 20 बुद्धिपरि कल्पितो यतः। 21 प्रेरकस्य। 22 यागविषय । स्वव्यापाराविष्टमात्मानमप्रतीयतेति पाठान्तरम् ।
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