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विधिवाद ]
प्रथम परिच्छेद
[ विधेः सदसदादिरूपाभ्युपगमे दोषानाह ] किञ्च' यदि विधिः सन्नेव तदा न कस्यचिद्विधेयः पुरुषस्वरूपवत् । अथासन्नेव तथापि न विधेयः खरविषाणवत्' । अथ पुरुषरूपतया सन् दर्शनादिरूपतया त्वसन्निति विधेयः स्यात् तदोभयरूप'तापत्तिः । न सन्नाप्यसन् विधिरिति चेत् तदिदं व्याहतम् - सर्वथा सत्त्वप्रतिषेधे सर्वथैवासत्त्वविधिप्रसंगात्त न्निषेधे वा सर्वथा सत्त्वविधानानुषङ्गात् ।
[ विधि को सत् असत् आदि रूप मानने में दोषारोपण ] (१) यदि सर्वथा सत् रूप ही विधि होगी तब तो विधि किसी भी पुरुष को विधेय-करने योग्य नहीं होगी, पुरुष के स्वरूप के समान । अर्थात् "विधिः कस्यचित् मनुष्यस्य विधेयो न भवति सत्त्वात् । यः सन् स न कस्यचित् विधेयो यथा पुरुषः, संश्चायं तस्माद् न कस्यचिद् विधेयः" इत्यर्थः । विधिब्रह्म किसी को करने योग्य नहीं है क्योंकि वह सत् रूप ही है, जो सत् रूप है वह किसी का विधेय नहीं होता है । जैसे आत्मा सत् रूप है अतः वह किसी के लिये करने योग्य-विधेय नहीं है और यह ब्रह्म सत् रूप है इसलिये किसी को विधेय नहीं है। अर्थात् जो सर्वथा सत् रूप होता है वह किसी के करने योग्य नहीं हो सकता है।
(२) असत् ही मानो तो भी वह विधि खरविषाण के समान किसी के लिये भी विधेय नहीं होगी। अर्थात् असत् रूप होने से वह विधि किसी को विधेय-करने योग्य नहीं हो सकती। जैसे खरशृंग किसी का विधेय-करने योग्य नहीं है ।
(३) यदि कहो कि पुरुष रूप से तो वह विधि सत् रूप है किंतु "दृष्टव्योरेऽयमात्मा" इत्यादि दृश्यत्व, कर्तव्य आदि रूप से असत् रूप है इसलिये वह विधेय हो जावेगी तब तो उस विधि के उभय रूप हो जाने से द्वैत का प्रसंग आ जावेगा अर्थात् स्वसिद्धांत का भी व्याघात हो जावेगा, क्योंकि वेदांतवादियों ने तो विधि को सर्वथा सत् रूप माना है असत् रूप से माना ही नहीं है । एवं सर्वथा निरंश, सन्मात्र स्वरूप ब्रह्म के दो रूप की प्राप्ति का विरोध स्पष्ट है।
(४) वह विधि न सत् रूप है न असत् रूप। ऐसा चतुर्थ पक्ष लेने पर तो विरुद्ध ही हो जाता
1 विधिः सन्नेव वाऽसन्नेव वा उभयरूपो वानुभयरूपो वेति विकल्पक्रमेण दूषयति । 2 विधिः पक्षः कस्यचिन्नुविधेयो न भवतीति साध्यो धर्म:-सत्त्वात् । यः सन् स न कस्यचिद्विधेयो यथा पुरुषः। संश्चायं तस्मान्न कस्यचिद्विधेयः (कर्तव्यः)। 3 द्वितीयविकल्पानुमानम्-विधि: पक्षः कस्यचिद्विधेयो न भवतीति साध्यः-असत्त्वात् । यदसत्तन्न कस्यचिद्विधेयं यथा खरविषाणम् । असंश्चायं तस्मान्न कस्यचिद्विधेयः। 4 दृष्टव्यो रेयमात्मेत्यादिदृश्यत्वकर्तव्यत्वादिना। 5 विधिरिति शेषः। 6 ततः स्वसिद्धान्तव्याघातः-विधेः सर्वथासत्त्वाभ्युपगमात्-असद्रूपस्य कस्यापि वेदान्तिनानभ्युपगमात् । 7 द्वैतापत्तिः। 8 सर्वथा निरंशस्य सन्मात्रदेहस्य विधेः रूपद्वयप्राप्तिविरोधः । (ब्या० प्र०) 9 विरुद्धम् । 10 सर्वथा असत्त्वनिषेधे ।
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