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विधिवाद ] प्रथम परिच्छेद
[ ७७ नियुक्तोहमिति प्रतीतिर्न विद्यते येन नियोगः प्रतिक्षिप्यते ? सा प्रतीतिरप्रमाणमिति चेत् विधिप्रतीतिः कथमप्रमाणं न स्यात् ? विधिप्रतीतेः पुरुषदोषरहितवेदवचनेन जनितत्वादिति चेत्तत एव नियोगप्रतीतिरप्यप्रमाणं मा भूत्—सर्वथाप्यविशेषात् । तथापि नियोगस्य विषयधर्मस्यासम्भवे विधेरपि तद्धर्मस्य न सम्भवः । शब्दस्य विधायकस्य धर्मो विधिरित्यपि न निश्चेतुं शक्यम् --नियोगस्यापि नियोक्तृशब्दधर्मत्वप्रतिघाताभावा
विधिवादी-वह प्रतीति अप्रमाण है । भाट्ट-पुनः विधि की प्रतीति भी अप्रमाण क्यों नहीं हो जावे ?
विधिवादी-विधि की प्रतीति तो पुरुष के दोष से रहित अपौरुषेय वेदवाक्यों से उत्पन्न होती है अतः प्रमाण है।
भाट्ट-उसी हेतु से ही नियोग की प्रतीति भी अप्रमाण मत होवे, सर्वथा भी दोनों में समानता है अर्थात् विधि की प्रतीति और नियोग की प्रतीति दोनों भी अपौरुषेय वेदवाक्यों से उत्पन्न होती हैं अतः दोनों ही प्रमाण हो सकती हैं दोनों में कोई अंतर नहीं है फिर भी यदि आप कहें कि नियोग विषय का धर्म नहीं है तो विधि भी विषय का धर्म नहीं है।
भावार्थ-विधिवादी कहता है कि दृष्टव्य, मन्तव्य, सोहं इत्यादि वाक्यों से मुझको आत्मदर्शनादि की विधि हो चुकी है अतः उसका खंडन नहीं किया जा सकता है इस पर भाट्ट कहता है कि अग्निहोत्र, विश्वजित् आदि यज्ञों के कहने वाले वाक्यों से "मैं यज्ञादि विषयों में नियुक्त हुआ है" इस प्रतीति को आप अप्रमाण नहीं कह सकते हैं यदि आप विधिवादी कहें कि राग द्वेष अज्ञानादि दोषों से रहित अनादि, अनिधन वेदवाक्यों से उत्पन्न हुई विधि प्रमाणभूत है तब तो अपौरुषेय वेदवाक्यों से ही तो प्रभाकर नियोग को प्रमाण मानता है। यहाँ तक तो नियुक्त होने योग्य पुरुष को नियोग कहना या यज्ञ स्वरूप पुरुष के धर्म को नियोग कहने में आप विधिवादी जो बाधा देते हैं आपके यहाँ भी विधि कराने योग्य-पुरुष को विधि कहने में या विधेय के धर्म को विधि-ब्रह्मरूप करने में वे ही बाधायें समान रूप से आ जाती हैं अतः नियोग और विधि में यहाँ तक संपूर्ण अंशों में सदृश दोषारोपण किया गया है।
विधिवादी-शब्द-विधायक का धर्म विधि है।
भाट्ट-यह निश्चय करना भी शक्य नहीं है अन्यथा नियोग भी नियोक्ता शब्द का धर्म हो जावेगा उसका आप अभाव नहीं कर सकेंगे शब्द तो सिद्ध रूप हैं पुनः उनका धर्म नियोग असिद्ध कैसे रहेगा कि जिससे यह वेदवाक्य से अनुष्ठेय है ऐसा प्रतिपादन किया जा सके। ऐसा भी नहीं मानना
1 विधिप्रतीतिनियोग प्रतीत्योर्द्वयोरपि पुरुषदोषरहितवेदवचनजनितत्वेन कृत्वा सर्वथापि विशेषाभावात् । 2 दष्टव्योरेयमित्यादिकस्य । (ब्या० प्र०) 3 विधिलक्षणार्थप्रतिपादकस्य । 4 विधिवाद्याह ।-विदधातीति विधायको द्रष्टव्योरेयमात्मेत्यादिवारूप: शब्दस्तस्य धर्मे विधिरपि विधायक इति । 5 अन्यथा ।
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