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नियोगवाद ]
प्रथम परिच्छेद प्रेरणा-प्रवर्तक लक्षण वेदवाक्य का धर्म इन दोनों से रहित भोग्य-स्वर्ग (भविष्यत्काल में भोगने योग्य पदार्थ) की व्यवस्था नहीं बन सकती है।
(११) एवं ग्यारहवें पक्ष में माना गया "पुरुष का स्वभाव नियोग है" यह कथन भी घटित नहीं होता है । अन्यथा यदि पुरुष के स्वभाव को ही नियोग मानोगे तो पुरुष का स्वभाव तो शाश्वतिक है पुनः वह नियोग भी शाश्वतिक हो जावेगा। पुरुषमात्र के अस्तित्व को ही "नियोग" कहने पर तो वेदान्तवाद की प्राप्ति हो जाने से नियोगवाद नाम ही कैसे रह सकेगा?
___ इस प्रकार आप प्रभाकर द्वारा मान्य ११ प्रकार का नियोग कथमपि सिद्ध नहीं होता है विचार कोटि में रखने पर वह विधिवाद में ही चला जाता है एवं आगे विधिवाद का भी निराकरण कर देने से अपौरुषेय वेदवाक्य एवं उसमें मान्य नियोग, विधि आदि सभी समाप्त हो जाते हैं।
नियोगवाद के खंडन का सारांश
मीमांसक वेद को अपौरुषेय मानते हैं और उन्हीं के यहाँ जो भेद प्रभेद हैं उनके अर्थ में अनेक की कल्पना करके परस्पर में विसंवाद करते हैं । प्रभाकर मतानुयायी वेदवाक्य का अर्थ नियोग करते हैं, भाट्ट भावना अर्थ करते हैं और वेदान्ती वेदवाक्य का अर्थ विधि करते हैं ।
सर्वप्रथम नियोगवादी का पक्ष स्थापित करके भावनावादी भाट्ट दोष दिखाता है
भावनावादी—आप प्रभाकर ने वेदवाक्य का अर्थ नियोग किया है सो ठीक नहीं है उसमें अनेक बाधायें सम्भव हैं "अग्निष्टोमादि वाक्य से मैं नियुक्त हुआ हूँ" इस प्रकार से निरवशेष योग को नियोग कहते हैं वहाँ भी किंचित् चिद् भावना रूप कार्य सम्भव नहीं है क्योंकि आपके यहाँ नियोग का अर्थ अनेक वक्ताओं ने ग्यारह प्रकार से किया है।
(१) कोई कहते हैं कि जो लिङ्, लोट् और तव्य प्रत्यय का अर्थ है, शुद्ध है, अन्यनिरपेक्ष है, एवं कार्यरूप (यज्ञरूप) है वही नियोग है।
(२) वाक्यांतर्गत कर्मादि अवयवों से निरपेक्ष शुद्ध प्रेरणा ही नियोग है। (३) प्रेरणा सहित कार्य ही नियोग है।
(४) कार्य सहित प्रेरणा को नियोग कहते हैं क्योंकि कार्य के बिना कोई पुरुष प्रेरित नहीं होता है।
(५) कार्य को ही उपचार से प्रवर्तक कहकर उसे नियोग कहते हैं । (६) प्रेरणा और कार्य का सम्बन्ध ही नियोग है। (७) प्रेरणा और कार्य का समुदाय ही नियोग है। (८) इन दोनों से विनिर्मुक्त स्वभाव ही नियोग है । (६) यंत्रारूढ-यागलक्षण कार्य में लगा हुआ जो पुरुष है वही नियोग है।
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