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अष्टसहस्री
[ कारिका ३
प्रेर्यमाणपुरुष'निरपेक्षयोः सम्बन्ध्यात्मनोरपि कार्यप्रेरणयोनियोगत्वानुपपत्तेः । तत्समुदायनियोगवादोप्यनेन' प्रत्याख्यातः । कार्यप्रेरणाविनिर्मुक्तस्तु नियोगो न विधिवादमतिशेते । यत्पुनः स्वर्गकामः पुरुषोऽग्निहोत्रादिवाक्यनियोगे सति यागलक्षणं विषयमारूढमात्मानं मन्यमानः प्रवर्तते इति यन्त्रारूढनियोगवचनं तदपि न परमात्मवादप्रतिकूलम्-'पुरुषाभिमानमात्रस्य नियोगत्ववचनात्, 'तस्य चाविद्योदयनिबन्धनत्वात् । भोग्यरूपो नियोग इति चायुक्तम्-10नियोक्त प्रेरणाशून्यस्य 12भोग्यस्य तद्भावानुपपत्तेः । पुरुषस्वभावो हि न नियोगो घटते 14तस्य 1 शाश्वतिकत्वेन नियोगस्य शाश्वतिकत्वप्रसङ्गात् । 1"पुरुषमात्रविधेरेव "तथाभिधाने वेदान्तवादपरिसमाप्ते:18 कुतो नियोगवादो नाम ।
नहीं हो सकता एवं कार्य और प्रेरणा रूप सम्बन्धियों से अभिन्न तदात्मक हो रहा सम्बन्ध जब तक श्रोता-पूरुष की अपेक्षा नहीं रखेगा तब तक कथमपि नियोग नहीं हो सकता। शिष्य की अपेक्षा नहीं रखकर अध्ययन करने की प्रेरणा करना बहुत ही कठिन है सम्बन्धियों के साथ सम्बन्ध का भेद अथवा अभेद इन दोनों पक्षों में नियोग व्यवस्थित नहीं होता है।
(७) "उन दोनों का तादात्म्य समुदाय ही नियोग है" उपर्युक्त भिन्न अभिन्न पक्ष उठाने से यह पक्ष भी निरस्त हो जाता है क्योंकि पुरुष के बिना उन दोनों के समुदाय को नियोग कहना उनित नहीं है।
(८) कार्य और प्रेरणा से रहित भी नियोग विधिवाद का उलंघन नहीं कर सकता है किन्तु विधिवाद ही आ जाता है। तुच्छाभाव को न मानने से आप प्रभाकरों के यहाँ कार्य और प्रेरणा से रहित नियोग वेदान्तवादी के ब्रह्माद्वैतवाद का ही आश्रय ले लेता है।
(६) जो आपने कहा है कि स्वर्ग की इच्छा करने वाला पुरुष अग्निहोत्रादि वाक्यों से नियुक्त होने पर अपने को याग लक्षण विषय में आरूढ़ मानता हुआ प्रवृत्ति करता है इस प्रकार से "यंत्रारूढ़ नियोग वचन ही नियोग है" यह कथन भी परमात्म-ब्रह्मवाद के प्रतिकूल नहीं है । वहाँ विधिवाद में भी पुरुष के अभिप्राय मात्र को नियोग कहा है और पुरुष का अभिमान-अभिप्राय भो तो अविद्या के उदय से ही होता है।
(१०) "भोग्य रूप नियोग है" यह कथन भी अयुक्त है क्योंकि नियोक्ता-वेदवाक्य और
1 यसः (कर्मधारयः)। 2 संबंधात्मनोः इति पा० । (ब्या० प्र०) 3. तादात्म्यम् । 4 ततो भिन्नस्येत्यादिना । 5 नातिशयं प्राप्नोति । नातिक्रामति । किन्तु विधिवाद एवायातः। 6 विधिवाद। 7 अभिप्रायः । ४ तत्संवेदनविवर्तस्तु नियुक्तोहमिति अभिमानरूपो नियोग इति नायं पुरुषादन्यः प्रतीयते। (ब्या० प्र०) 9 पुरुषस्याभिमानाभावादित्युक्ते आह। पुरुषाभिमानमात्रस्य। 10 वेदवाक्य । 11 प्रवर्तकलक्षणो वाक्यधर्मः। 12 स्वर्गस्य । 13 पुरुषस्वभावोपीति खपुस्तकपाठः । 14 अन्यथा। तस्य पुरुषस्वभावस्य। 15 नित्यत्वेन। 16 अस्तित्वस्य । 17 नियोग इति। 18 प्राप्तेः ।
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