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नियोगवाद ]
प्रथम परिच्छेद
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तर्हि वेदवचनादपि नियुक्तः प्रत्यवायपरिहाराय प्रवर्तताम् – " " नित्यनैमित्तिके कुर्यात्प्रत्यवायजिहासये" ति वचनात् । ' कथमिदानीं / स्वर्गकाम' इति वचनमवतिष्ठते - 'जुहु - याज्जुहोतु होतव्यमिति लिङ्लोट्तव्यप्रत्ययान्त" निर्देशमात्रादेव नियोगमात्रस्य सिद्धेस्तत एव च प्रवृत्तिसम्भवात् " । यदि पुनः फलसहितो नियोग इति पक्षस्तदा फलार्थितैव प्रवृत्तिका न नियोगः – 2 तमन्तरेणापि फलार्थिनां प्रवृत्तिदर्शनात् । 1 " पुरुषवचनान्नियोगे 4यमुपालम्भो" "नापौरुषेयादग्निहोत्रादिवाक्यात् - " तस्यानुपालम्भत्वादिति चेत्, “सर्वं वै
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" नित्यनैमित्तिके कुर्यात् प्रत्यवायजिहासया । अकुर्वन् विहितं कर्म प्रत्यवायेन लिप्यते ॥''
ऐसा श्रुतिवाक्य है ।
भाट्ट - पुनः विघ्नों के परिहार रूप फल का प्रतिपादन करते समय "स्वर्गकामः" यह वचन कैसे सिद्ध हो सकेगा ? अर्थात् यदि विघ्न का परिहार करने के लिये यज्ञ किया जाता है तब "स्वर्ग की इच्छा करने वाला पुरुष" इस शब्द से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ?
" जुहुयात्, जुहोतु होतव्यं" इस प्रकार से लिङ्, लोट् और तव्य प्रत्यय जिसके अंत में हैं ऐसे शब्द के निर्देश कर देने मात्र से हो नियोग मात्र सिद्ध है और उसी से ही प्रवृत्ति संभव है । अर्थात् इस संसार में लौकिक विघ्नों को दूर करने की इच्छा रखता हुआ पुरुष होम क्रिया प्रवृत्त होवे न कि स्वर्ग की इच्छा करने वाला मनुष्य, क्योंकि लिङ्, लोट् और तव्य प्रत्यय स्वरूप हो नियोग है इसलिए स्वर्ग की इच्छा के बिना ही यज्ञादि कर्म में प्रवृत्ति संभव है अतः आप नियोगवादियों को पूर्वापर विरुद्ध दो प्रकार के वचन नहीं कहना चाहिये क्योंकि पाप का परिहार करने के लिए यज्ञादि कर्म हैं पुनः वे यज्ञादि कर्म स्वर्ग की प्राप्ति कैसे करावेंगे ? अतः "स्वर्गकामः" यह शब्द संभव है ऐसा नहीं कहना चाहिये । यदि पुनः आप दूसरा पक्ष लेवें कि फल सहित ही नियोग है तब तो फल की इच्छा होना ही प्रवर्तिका प्रवर्तन कराने वाली है न कि नियोग, क्योंकि उस नियोग के बिना भी फलार्थी - फल की इच्छा करने वाले जनों की प्रवृत्ति देखी जाती है ।
1 प्रभाकरः । 2 पापपरिहारफलाय । अवश्यं विघ्न आयाति धर्मकार्ये तन्निवारणाय । 3 त्रिकालं सन्ध्योपासनजपदेवर्षिपितृतर्पणादिकमित्याद्यनुष्ठानम् । 4 दर्शपौर्णमासीग्रहग्रहणादिषु क्रियमाणं नैमित्तिकानुष्ठानम् । 5 अकुर्वन् विहितं कर्म प्रत्यवायेन लिप्यते इति श्रुतेः । 6 भावनावादी । 7 प्रत्यवायपरिहारस्य फलत्वप्रतिपादनकाले । 8 दि विघ्नविनाशनाय यज्ञः क्रियते तर्हि स्वर्गकाम इत्यनेन वचनेन किं प्रयोजनम् ? । 9 इहलोकप्रत्यवायपरिहारार्थी पुमान् जुहुयादिति प्रवर्ततां न तु स्वर्गकाम इति । 10 प्रत्ययस्वरूप एव नियोगः । 11 ततः स्वर्गकामनिरपेक्षतया यागे प्रवर्त्ततां नाम | 12 नियोगं विनापि । 13 अत्राह नियोगवादी । 14 पूर्वोक्तः सर्वः । 15 दूषणम् । 16 अग्निटोमं स्वर्गकामो यजेतेत्याद्यपौरुषेयादग्निहोत्रादिवाक्यान्नियोगे दूषणं न तस्य वाक्यस्यादूष्यत्वात् । 17 अनुपालभ्यत्वात् इति पा० । अदूष्यत्वात् । (ब्या० प्र० ) ।
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