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नियोगवाद ]
प्रथम परिच्छेद
(८) तदुभयस्वभावविनिर्मुक्तो' नियोग इति चान्ये ।
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2 सिद्धमेकं यतो ब्रह्मगतमाम्नायतः सदा । सिद्धत्वेन न तत्कार्यं प्रेरकं कुत एव तत् ॥१०॥ [ प्रमाणवार्तिकालंकार पृ० ३० ]
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(६) 'यंत्रारूढो' नियोग इति कश्चित् ।
* कामी यत्रैव यः कश्चिन्नियोगे 10 सति तत्र सः । 11 विषयारूढमात्मानं मन्यमानः प्रवर्तते ॥११॥ [ प्रमाणवार्तिकालंकार पृ० ३० ]
(७) "उन प्रेरणा और कार्य का समुदाय ही नियोग है" ऐसा कोई कहते हैं ।
श्लोकार्थ - परस्पर में अविनाभूत ये दोनों तादात्म्य रूप से प्रतीति में आते हैं अतः कार्य और प्रेरणा का समुदाय ही नियोग माना गया है ॥ ६ ॥
(८) कार्य और प्रेरणा इन उभय स्वभाव से विनिर्मुक्त ही नियोग है, ऐसा कोई कहते हैं ।
श्लोकार्थ — क्योंकि एक ब्रह्म आम्नाय से सदा सिद्ध है और सिद्ध होने से ही नियोग उसका कार्य नहीं हो सकता है पुनः वह प्रेरक कैसे होगा ? अर्थात् कार्य रूप ही जो कुछ होता है वह अपनी निष्पत्ति के लिये प्रेरक होता है किन्तु यह ब्रह्म तो नित्य रूप होने से कार्य रूप नहीं है अतः प्रेरक भी नहीं है । "अग्निष्टोमादि" वाक्य में कार्य एवं प्रेरणा से निरपेक्ष होकर जो अवभास है अथवा जो परमात्म स्वभाव है वही एक ब्रह्म रूप से सिद्ध है, निरंश है और वेदवाक्य से जाना जाता है एवं सदा सिद्ध रूप होने से वह कार्य नहीं है पुनः वह प्रेरक कैसे होगा ? ॥ १० ॥
(६) यन्त्रारूढ़ - याग कर्म में लगा हुआ जो पुरुष है वही नियोग है ऐसा कोई कहते हैं ।
श्लोकार्थ - स्वर्ग की इच्छा करने वाला पुरुष ( प्रवर्तक वाक्य रूप ) नियोग के होने पर जिस यज्ञ कार्य में नियुक्त है वह वहाँ पर - यागलक्षण विषय में अपने को आरूढ़ मानता हुआ प्रवृत्त होता है, वही नियोग है । अर्थात् यंत्रों में आरूढ़ होने के समान यज्ञादि कार्यों में आरूढ़ हो जाना नियोग है जैसे झूला या यन्त्र से चलने वाले घोड़े आदि पर आरूढ़ हुआ पुरुष उन्हीं भावों में रंगा हुआ प्रवर्त रहा है उसी प्रकार से जिस पुरुष को जिस विषय की लगन लग रही है वह पुरुष उसी में अपने को रंगा हुआ मानकर प्रवृत्ति करता है ॥११॥
1 कार्यरूपमेव हि यत्किञ्चन स्वनिष्पत्यं प्रेरकं स्यादस्य तु ब्रह्मणो नित्यत्वेन कार्यरूपत्वाभावात् प्रेरकत्वं न भवतीत्यर्थः । 2 अग्निष्टोमादिवाक्ये कार्यप्रेरणानिरपेक्षतयावभासः परमात्मस्वभावो वा । 3 निरंशम् । 4 वेदात् ।
5 कुत: ? यतः । 6 यागकर्म । 7 पुरुषः । 8 स्वर्गकामी । 9 यागमणि । 10 प्रवर्त्तकवाक्ये सति । 11 यागलक्षण | स्वर्ग ।
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