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अष्टसहस्री
[ कारिका ३वाक्यस्य पुरुष एव श्रुतिवाक्यमिति स एव प्रमाणम् । तत्संवेदनविवर्त्तस्तु नियुक्तोहमित्यभिमानरूपो' नियोगः प्रमेयत्वमिति नायं पुरुषादन्यः प्रतीयते यतो वेदान्तवादिमतप्रवेशोऽस्मिन्नपि पक्षे न भवेत् ।
(३) तहि प्रमाणप्रमेयरूपो नियोगो भवत्वित्यप्ययुक्तम् संविद्विवर्त्तत्वापत्तेः अन्यथा' प्रमाणप्रमेयरूपतानुपपत्तेः । तथा च स एव चिदात्मोभयस्वभावतयात्मानमा दर्शयन्नियोग इति सिद्धो ब्रह्मवादः ।
प्रभाकर-श्रुति-वेदवाक्य तो प्रमाण हैं और नियोग प्रमेय है हम ऐसा मानते हैं।
भाट्ट-ऐसा भी आप नहीं कह सकते क्योंकि वेदवाक्यों के अचिदात्मक होने से उनमें प्रमाणता घटित नहीं होती है और यदि मानेंगे भी तो उपचार के सिवाय वस्तुतः वे प्रमाण नहीं हो सकेंगे। यदि उन वेदवाक्यों को आप चिदात्मक-ज्ञानात्मक मानेंगे तब तो पुरुष ही श्रुति वाक्य है इस प्रकार से वह पुरुष-परब्रह्म ही प्रमाण सिद्ध हुआ और उस संवेदन की पर्याय-ब्रह्म की पर्याय ही "नियुक्तोऽहं" इस प्रकार के अभिमान-अभिप्राय रूप नियोग है और वही प्रमेय है इस प्रकार से तो यह प्रमेय रूप नियोग पुरुष से भिन्न कोई प्रतोति में नहीं आता है कि जिससे इस पक्ष के मानने पर वेदांतवादी के मत में प्रवेश न हो जावे अर्थात् यदि आप नियोग को प्रमेय रूप मानते हैं तो भी आप वेदांतवादी बन जावेंगे।
(३) प्रभाकर--तब तो प्रमाण और प्रमेय इन उभय रूप नियोग को मानना यह तृतीय पक्ष ही उचित है।
भाद्र-यह कथन भी अयुक्त है क्योंकि वह नियोग ज्ञान की पर्याय हो जावेगा अन्यथा प्रमाण और प्रमेय रूपता ही घटित नहीं होगी। अर्थात् नियोग ज्ञान की पर्याय हो जाता है क्योंकि सामान्य से "मैं नियुक्त हूं" इस प्रकार के अभिप्राय को स्वीकार किया है अन्यथा ज्ञान पर्याय न मानने पर वह नियोग प्रमाण नहीं हो सकेगा और अप्रकाशमान होने से प्रमेय रूप भी नहीं हो सकेगा क्योंकि जो वस्तु प्रमाण, प्रमेय रूप से उभयरूप है वह चैतन्यात्मक अवश्य है । पुनः वह सत्, चिद्, आनन्द स्वरूप आत्मा ही प्रमाण प्रमेय रूप सिद्ध होता है और यही तो ब्रह्माद्वैतवाद सिद्धान्त है। इसलिये वह चिदात्मा ही उभय स्वभाव रूप से अपने स्वरूप को प्रकाशित करता हुआ नियोग कहलाता है। इस प्रकार से नियोग ब्रह्मवाद रूप ही सिद्ध हो जाता है।
1 परब्रह्म पश्चात् कार्यं कुर्यात् । 2 पर्यायः । 3 विशेषणमिदं नियोगस्य संवेदनपिर्तत्वसमर्थनार्थम् । 4 ज्ञानपर्यायप्राप्तत्वानियोगस्य सामान्येन नियुक्तोहमित्यभिमानरूपत्वाभ्युपगमादन्यथा ज्ञानपर्यायप्राप्त्यभावे प्रमाणरूपत्वं नोपपद्यते, अप्रकाशमानत्वेन प्रमेयरूपत्वं च न घटते इति भावः। 5 स्वरूपम् । 6 प्रकाशयन् ।
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