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नियोगवाद ] प्रथम परिच्छेद
[ ३५ (४) अनुभयस्वभावो नियोग इति चेतहि संवेदनमात्रमेव पारमार्थिक तस्य' कदाचिदप्यहेयत्वादनुभयस्वभावत्वसम्भवात् । प्रमाणप्रमेयत्वव्यवस्थाभेदविकलस्य सन्मात्रदेहतया' तस्य वेदान्तवादिभिनिरूपितत्वात्तन्मतप्रवेश एव ।।
(५) यदि पुनः "शब्दव्यापारो नियोग इति मतं तदा भट्टमतानुसरणमस्य" दुनिवारम्शब्दव्यापारस्य" शब्दभावनारूपत्वात् ।।
(६) अथ पुरुषव्यापारो नियोगस्तदापि परमतानुसरणम्-पुरुषव्यापारस्यापि 13भावनास्वभावत्वात् शब्दात्मव्यापारभेदेन भावनायाः परेण 14 विध्याभिधानात् ।
(४) प्रभाकर-अनुभय स्वभाव ही नियोग है।
भाट्ट-तब तो आपका नियोग प्रमाण और प्रमेय इन दोनों रूपों का त्याग कर देने से तो केवल शुद्ध संवेदन मात्र ही पारमाथिक रूप होगा क्योंकि वह संवेदन मात्र कदाचित भो अहेय-त्यागने योग्य न होने से वही अनुभय स्वभाव हो सकता है । उस संवेदन मात्र को छोड़कर अन्य कोई अनुभय स्वभाव हो ही नहीं सकता है। वेदांतवादियों ने भी ऐसा ही निरूपण किया है कि "प्रमाण प्रमेय भेद की व्यवस्था से रहित सन्मात्र देहरूप से वह संवेदन मात्र परब्रह्म रूप सिद्ध है । "इसलिये चतुर्थ पक्ष के मानने पर भी आप उस वेदांतवादी के मत में ही प्रविष्ट हो जाते हैं अर्थात् "न उभयः अनुभयः" नञ् समास का पर्युदास अर्थ करने से सर्वथा प्रमाण प्रमेय रूप उपाधियों से रहित शुद्ध प्रतिभास ही ग्रहण हो जाता है जो कि 'सत्स्वरूप" इतने मात्र शरीर को धारण करने वाले ब्रह्म का ही द्योतक है ।
(५) प्रभाकर-"अग्निष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत" इत्यादि रूप से शब्द का व्यापार ही नियोग है।
भाट्ट-तब तो आपको हमारे मत का ही अनुसरण दुनिवार है क्योंकि हमारे यहाँ शब्द का व्यापार शब्द की भावना रूप है । शब्द भावक हैं और उसका व्यापार भावना स्वरूप है।
(६) प्रभाकर -तब तो हम पुरुष के व्यापार को नियोग कहेंगे।
भाट्ट-तो भी आपको पर-हमारे मत का ही अनुसरण करना पड़ेगा क्योंकि पुरुष का व्यापार भी भावना स्वभाव है। हम भाट्टों ने शब्द-व्यापार और आत्म-व्यापार के भेद से भावना के दो भेद मानें हैं।
1 प्रमाणप्रमेयरूपत्यागे। 2 संवेदनमात्रादन्यस्य कस्यचिदनुभयस्वभावत्वाधटनात्। 3 पारमार्थिकत्वं कुतः ? । 4 संवेदनमात्रस्य । । कुतः । 6 अनुभयस्वभावत्वं कुतः । 7 सत्स्वरूपतया। 8 संवेदनमात्रस्य । 9 अग्निष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत इत्यादिशब्दव्यापारः । 10 प्रभाकरस्य। 11 शब्दरूपार्थरूपा चेति भावना द्वेधा। 12 तदेव (पूर्वोक्तमेव) इति खपुस्तकपाठः । 13 अर्थभावना। 14 शब्दभावना आत्म (अर्थ) भावना च। .
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