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अष्टसहस्री
[ कारिका ३(७) तदुभयरूपो' नियोग इति चेतहि पर्यायेण युगपद्वा ? यदि पर्यायेण स एव दोष:--क्वचित्कदाचिच्छब्दव्यापारस्य पुरुषव्यापारस्य च भावनास्वभावस्य नियोग इति नामकरणात् । युगपदुभयस्वभावत्वं पुनरेकत्र विरुद्धं न शक्यं व्यवस्थापयितुम् ।
(८) तहि तदनुभयव्यापाररूपो नियोगोङ्गीकर्तव्य इति चेत् सोपि विषयस्वभावो वा स्यात् फलस्वभावो वा स्यान्निस्स्वभावो वा ? गत्यन्तराभावात् । विषयस्वभाव इति चेत् । कः पुनरसौ विषयः ? अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकाम इत्यादिवाक्यस्यार्थो यागादिविषय इति चेत्' स तद्वाक्यकाले स्वयमविद्यमानो विद्यमानो वा ? यद्यविद्यमानस्तदा तत्स्वभावो
(७) प्रभाकर-शब्द व्यापार और पुरुष व्यापार ऐसे उभय के व्यापार को हम नियोग कहते हैं।
भाट्ट-तब तो आप पर्याय से-क्रम से कहते हैं या युगपत् ? यदि पर्याय-क्रम से कहें तब तो वही पूर्वोक्त हमारे मत का अनुसरण करने रूप दोष आता है क्योंकि कहीं पर किसी काल में आपने शब्द व्यापार रूप और कहीं पर पुरुष व्यापार रूप भावना के स्वभाव को ही नियोग यह नाम कर दिया है । यदि युगपत् उभय स्वभाव कहो तो एक जगह विरुद्ध दो धर्मों को व्यवस्थापित करना शक्य नहीं है अर्थात् शब्द व्यापार प्रेरणा रूप है और पुरुष व्यापार क्रिया रूप है एवं प्रेरणा तो अतीतकाल संबंधी है तथा क्रिया भविष्यत्काल संबंधी है । जैसे प्रकाश और अंधकार एक जगह नहीं रह सकते हैं वैसे ही ये दोनों विरुद्ध धर्म एक जगह एक काल में नहीं रह सकते हैं।
(८) प्रभाकर-तब तो उन दोनों के अनुभय व्यापार को नियोग भानना ठीक है । अर्थात् आठवें पक्ष के अनुसार वह नियोग शब्द व्यापार और पुरुष व्यापार इन दोनों ही व्यापारों से रहित
भाट्ट–यदि आप ऐसा कहें तो भी हम आपसे नञ् समास का पर्युदास पक्ष लेकर प्रश्न करते हैं कि वह अनुभय व्यापार रूप भी नियोग विषय (यज्ञादि कर्म रूप) स्वभाव है, या फल (स्वर्गादि) स्वभाव है अथवा (प्रसज्य निषेध पक्ष लेने पर) निःस्वभाव है ? इन तीनों विकल्पों के सिवाय और अन्य कोई प्रकार संभव नहीं है । यदि विषय स्वभाव मानों तब तो यह विषय क्या है ? यह बतलाइये।
प्रभाकर-"स्वर्ग की इच्छा करने वाला अग्निष्टोम से यज्ञ करे" इत्यादि वाक्य का अर्थ जो यागादि रूप है वही विषय है।
1 शब्दव्यापारेण पुरुषव्यापारेण च । 2 तहि । भद्रमतानुसरणलक्षण: पूर्वोक्तः। 3 प्रेरणाया अतीतकालत्वं क्रियाया भविष्यत्कालत्वं यतः पूर्व प्रेरितः पश्चात् कार्य करोति । 4 यथा तेजस्तमसोरक्यमेकत्र स्थातुं न शक्यम् । 5 विषयो यागादिकर्म । 6 पर्युदासवृत्त्या द्वौ विकल्पो प्रसज्यवृत्त्या त्वेकः (निःस्वभावः)। 7 विषयः। 8 वेदवाक्यकाले । 9 विषयस्वभावः ।
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