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[ कारिका ३
तस्य' च परब्रह्मत्वात्ळे । प्रतिभासमात्राद्धि पृथग्विधिः ' कार्यरूपतया न प्रतीयते घटादिवत्' । प्रेरकतया वा 'नानुभूयते ' वचनादिवत् । 'कर्मकरणसाधनतया हि तत्प्रतीत कार्यता प्रेरकताप्रत्ययो युक्तो " नान्यथा । किं तर्हि "दृष्टव्योरेयमात्मा श्रोतःयोऽनुमंतव्यपो 14 15 निदिध्यासितव्य" इत्यादिशब्दश्रवणादवस्थान्तरविलक्षक्षणेन 7 प्रेरितोहमिति
अष्टसहस्री
प्रतीति में नहीं आता है । जैसे घट प्रतिभासमात्र से कार्य रूप से पृथक् अनुभव में आता है, वैसे ही विधि प्रतिभास मात्र स्वरूप से भिन्न रूप पृथक् अनुभव में नहीं आती है ।
अथवा प्रेरक रूप से भी वह विधि अनुभव में नहीं आती है, वचनादि के समान । अर्थात् जैसे वचनादि प्रेरक रूप से प्रतिभास मात्र से पृथक् अनुभव में आते हैं, उस प्रकार विधि अनुभव में नहीं आती है, क्योंकि कर्म और करण साधन रूप से उस विधि का अनुभव मानने पर तो कार्यता प्रत्यय् और प्रेरकता प्रत्यय मानना युक्त है अन्यथा नहीं । अर्थात् जो किये जावें, बनाये जावे वे कर्म हैं, जैसे घटादि । जो पुरुष अपने कार्य में जिसके द्वारा प्रेरित किया जावे - नियुक्त किया जावे वह प्रेरक-वचन करण है । इन कर्म और करण रूप से यदि विधि का अनुभव आवे तब तो उसे कार्य और प्रेरकपना मानना अन्यथा कैसे मानना ! मतलब "विधीयते यत् या विधीयतेऽनेन" इस प्रकार for द्वारा विधि शब्द कर्म साधन या करण साधन में नहीं बनता है अतः कर्म करण साधन के बिना हो शुद्ध सन्मात्र विधि का ज्ञान पाया जाता है पुनः उसे कार्य या प्रेरक नहीं माना जा सकता है । तब तो उस विधि का स्वरूप क्या ? ऐसा प्रश्न होने पर सुनिये ! अरे ! यह आत्मा "देखने योग्य है, सुनने योग्य है और ध्यान करने योग्य है" इत्यादि शब्दों के सुनने से अवस्थांतर विलक्षण ---- अन्य अवस्थाओं से विलक्षण दर्शनादि के द्वारा "मैं प्रेरित हुआ हूँ" इस प्रकार के अभिप्राय से सहित अहं कार रूप से स्वयं आत्मा ही प्रतिभासित होती है और वही विधि है ऐसा वेदांतवादियों का कहना है । ब्रह्मा में तात्पर्य का निश्चय करना श्रोतव्य है । सुने हुये अर्थ का युक्ति से विचार करना अनुमन्तव्य है
1 प्रतिभासमात्रस्य । 2 प्रतिभासश्चान्यो विधिश्चान्य इत्युक्त आह । 3 कर्त्तव्य । 4 व्यतिरेकदृष्टान्तः । यथा घटः प्रतिभासमात्रात् कार्यरूपतया पृथक् प्रतीयते न तथा विधिः प्रतिभासमात्रात् स्वरूपात् पृथक् प्रतीयते । 5 नानुमीयते इत्यपि खपाठः । 6 व्यतिरेकदृष्टान्तः । 7 अंगुलिसंज्ञा । ८ यथा वचनादिः प्रेरकतय प्रतिभासमात्रात् पृथगनुभूयते । तथा विधिर्नानुभूयते । 9 उभयरूपतया विधिर्नानुभूयते इत्युक्त आह । क्रियते निष्पाद्यते इति कर्म घटादि । प्रेर्यते नियुज्यते पुरुषः स्वकृत्येऽनेनेति प्रेरकं वचनं करणम् । 10 विधिप्रतीतो । 11 कर्मकरणसाधनत्वाभावेन विधिप्रतीतो कार्यताप्रेरकताज्ञानं युक्त' न स्यात् । 12 तर्हि कि स्वरूपं विधेरित्युक्त आह द्रष्टव्येत्यादि । 13 " श्रोतव्यः श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तितः । मत्त्वा च सततं ध्येय एते दर्शन हेतवः" । 14 ब्रह्मणि तात्पर्यावधारणं श्रोतव्यं । श्रुतार्थस्य युक्त्या विचारणमनुमन्तव्यम् (ब्या० प्र० ) 15 परब्रह्मस्वरूपेण ध्यातव्यः । 16 श्रवणमननाभ्यां निश्चतार्थमनवरतं मनसा परिचितनं निदिध्यासितव्यम् (ब्या० प्र० ) । 17 अवस्था दर्शनादिः अवस्थान्तरमदर्शनादिस्तेन विलक्षणो दर्शनादिस्तेन ।
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