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कारिका ३-नियोगवाद ।
प्रथम परिच्छेद
[ २५ [भत्र भाट्टो नियोगवादनिराकरणार्थं तस्य पूर्वपक्षं स्पष्टयति ] ननु च भावनावाक्यार्थ इति सम्प्रदायःश्रेयान् नियोगो न, नियोगे बाधकसद्भावात् । नियुक्तोहमनेनाग्निष्टोमादिवाक्येनेति निरवशेषो योगो हि नियोगस्तत्र मनागप्ययोगस्य सम्भवाभावात् स चानेकविधः प्रवक्तृमतभेदात् ।
[ एकादशधा नियोगस्य क्रमशः वर्णनम् । ] (१) केषाञ्चिल्लिङादि प्रत्ययार्थः 'शुद्धोन्यनिरपेक्ष: कार्यरूपो नियोगः ।
[ यहाँ पर भावनावादी भाट्ट प्रभाकर द्वारा मान्य नियोगवाद के खंडन हेतु पहले उसका पूर्वपक्ष रखते हैं। ]
__ भाट्ट-वेदवाक्यों का अर्थ भावना ही है नियोग नहीं है, और यही संप्रदाय श्रेयस्कर है क्योंकि यदि आप वेदवाक्य का अर्थ नियोग करेंगे तब तो नियोग में बाधा का सद्भाव देखा जाता है। "इस अग्निष्टोमादि वाक्य से मैं नियुक्त हुआ हूँ" इस प्रकार निरवशेष योग को नियोग कहते हैं क्योंकि वहाँ पर किंचित् भी अयोग (अप्रेरकत्व असंघटमान चिद्भावना रूप) कार्य संभव नहीं है और वह नियोग अनेक प्रकार का है क्योंकि नियोग के कथन करने वाले प्रवक्ता लोग भिन्न-भिन्न अभिप्राय को लिए हुये हैं।
भावार्थ-"अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकामः" मैं इस वाक्य से नियुक्त हो गया हूँ इस प्रकार "नि" निरवशेष तथा "योग" अर्थात् मन, वचन, काय और आत्मा की एकाग्रता होकर प्रवृत्ति हो जाना नियोग है। नियुक्त किये गये व्यक्ति का अपने नियोज्य कार्य में परिपूर्ण योग लग रहा है जैसे कि स्वामिभक्त सेवक या गुरु-भक्त शिष्य को स्वामी या गुरु विवक्षित कार्य करने की आज्ञा दे देते हैं कि तुम जयपुर से पुखराज रत्न लेते आना, अथवा तुम अष्टसहस्री पढ़ो तो सेवक एवं शिष्य उन कार्यों में परिपूर्ण रूप से नियुक्त हो जाते हैं। कार्य होने तक उनको उठते, बैठते, सोते, जागते शांति नहीं मिलती है सदा उसी कार्य में परिपूर्ण योग लगा रहता है। इसी प्रकार प्रभाकर लोग "यजेत" इत्यादि वाक्यों को सुनकर नियोग से आक्रांत हो जाते हैं । जन्मोत्सव, विवाह, प्रतिष्ठा आदि के
1 अत्राह भावनावादी भद्रः। 2 अग्निष्टोमं स्वर्गकामो यजेतानेन वादिनो मते लिङ्लोट्तव्यप्रत्ययस्वरूपः । 3 अप्रेरकत्वस्य, असंघटमानस्य, चिद्भावनारूपस्य कार्यस्य । 3 अभिप्राय । 4 अनेन लिङ्लोट्तव्यप्रत्ययार्थः सूच्यते न तु लडादिप्रत्ययार्थः। 5 "जातिय॑क्तिश्च लिङ्गच प्रकृत्यर्थोभिधीयते । संख्या च कारकं चेति प्रत्ययार्थः प्रतीयते" 6 पूर्वकारिकायां वाक्यार्थ एव नियोगः प्रतिपादितः इदानी प्रत्ययार्थः प्रतिपाद्यते । तहि विरोधमिति नाशंकनीयं, गुणमुख्यभावात् नियोगस्तावत्प्रत्ययेन विहितः तस्मात्तदर्थमुख्यत्वं प्रत्ययार्थरूपस्येति सूत्रेण नियोगार्थे लिङ्गादिप्रत्यया भवन्ति (ब्या० प्र०)। 7 अग्निहोत्रादिविशेषणरहितः । 8 धात्वर्थनिरपेक्षः। 9 अवश्यं करणीयः ।
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