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अष्टसहस्री
[ कारिका ३तर्हि तीर्थकृत्सम्प्रदायेन' स्तुत्योहं महानिति भगवदाक्षेपप्रवृत्ताविव साक्षादाहुः
तीर्थकृत्समयानां च परस्परविरोधतः । "सर्वेषामाप्तता नास्ति 'कश्चिदेव भवेद्गुरुः ॥३॥
अतिशय हैं वे रागादिमान् देवों में असंभव हैं अतः कारिका के अर्थ में वक्रोक्ति के द्वारा अर्थ करके प्रश्नवाचक कर देने से, मतलब ये विग्रहादि महोदय रागादिमान देवों में हो सकते हैं क्या? अर्थात् नहीं हो सकते हैं ऐसा अर्थ कर देने से आगम में भी बाधा नहीं आती है । इस समाधान पर भी श्री विद्यानन्द स्वामी कहते हैं कि यह हेतु आगमाश्रित होने से अनैकांतिक ही है। इस पर किसी का कहना है कि आप जैन प्रमाण संप्लव को मानते हैं अतः प्रमाण से प्रसिद्ध प्रमाणता वाले आगम प्रमाण से भगवान् का महत्व सिद्ध करो, पुनः प्रसिद्ध हेतु से उत्पन्न हुये अनुमान प्रमाण से भी भगवान का महत्व सिद्ध करो, इस प्रकार से आप जैनों के यहाँ तो कोई भी बाधा नहीं है अर्थात् बहुत से प्रमाणों का एक ही साध्य को सिद्ध करने में प्रवृत्त हो जाना प्रमाण संप्लव कहलाता है । जैसे किसी पुस्तक में पढ़ा कि जहाँ-जहाँ धूम होता है वहाँ-वहाँ अग्नि अवश्य होती है। पुनः सामने के पर्वत पर धूम को देखकर अनुमान से जाना कि यहाँ अग्नि अवश्य है, तदनंतर कदाचित् उसी पर्वत पर चढ़ गये अथवा रसोईघर में गये एवं अग्नि को प्रत्यक्ष चक्षुइंद्रिय से देखा। इस अग्निरूप साध्य को सिद्ध करने में आगम, अनुमान एवं प्रत्यक्ष ऐसे तीन प्रमाण प्रवृत्त हुये हैं। कोई-कोई इस विषय में आगे के प्रमाण को अपूर्वार्थग्राही न होने से दोष मानते हैं किन्तु जैनाचार्य इसे दोष नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि प्रत्येक प्रमाण आगे-आगे कछ विशेष-विशेष अंगों को ग्रहण करते है
गे कुछ विशेष-विशेष अंशों को ग्रहण करने वाले होने से अपूर्वार्थग्राही ही हैं इत्यादि। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि हम प्रयोजन के बिना ही प्रमाण संप्लव को नहीं मानते हैं। जहाँ प्रयोजन विशेष होता है वहीं पर मानते हैं, नहीं तो एक बार अग्नि को प्रत्यक्ष से देखकर भी उसका अनुमान लगाते बैठेंगे।
उत्थानिका—तब तो देवों में भी असंभवी ऐसे आगम रूप तीर्थकृत् संप्रदाय के द्वारा तो मैं अवश्य ही स्तुति करने योग्य महान् हूँ, इस प्रकार मानों भगवान् के साक्षात् प्रश्न करने पर ही श्री समन्तभद्र स्वामी प्रत्युत्तर देते हुए के समान ही कहते हैं :
कारिकार्थ-परमागम लक्षण तीर्थ को करने वाले तीर्थकृत् कहलाते हैं। उनके समय अर्थात्
1 दिवौकस्स्वप्यसम्भविना आगमेन । 2 प्रश्नप्रवृत्तौ सत्याम् । 3 तीर्थं परमागमलक्षणं कुर्वन्ति ये ते तीर्थकृतो जैनव्यतिरिक्तवादिनः कपिलादयस्तेषां समया आगमास्तेषाम् । 4 स्वकीयस्वकीयभिन्नाभिप्रायेण । 5 मीमांसक, सांख्य, सौगत, नैयायिक, चार्वाक, तत्वोपप्लववादि, योग, ब्रह्माद्वैतवादि, पुरुषाद्वैतवादि, चित्राद्वैतवादी, शब्दाद्वैतवादि, ज्ञानाद्वैतवादिप्रमुखाणां वादिनामेकान्तमताश्रयिणाम् । 6 यथाभूतार्थोपदेष्टुत्वम्। 7 परमतापेक्षया काक्का व्याख्यानं, कश्चित्कि गुरुर्भवेदपितु न कश्चिद्गुरुर्भवेदिति । जनमतापेक्षयायमर्थो ग्राह्योऽस्या: कारिकायाः, कः परमात्मा चिदेवाहन केवल्येवाप्तो भवेन्नान्यः । भवं यन्ति ये ते भवेतः संसारिणस्तेषां गुरुर्भवेद्गुरुरित्येकपदं ज्ञेयम् । चार्वाकमते बहस्पतेग्रहणं ज्ञेयम् ।
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