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आप्त की परीक्षा ]
प्रथम परिच्छेद
[ १७
दागमात्साध्यसिद्धावपि तत्प्रसिद्धसाधनजनितानुमानात्पुनस्तत्प्रतिपत्तिरविरुद्ध वेति चेन्न, उपयोगविशेषस्याभावे प्रमाणसंप्लवस्यानभ्युपगमात् । सति हि प्रतिपत्तुरुपयोगविशेषे देशादिविशेषसमवधानादागमात्प्रत्तिपन्नमपि हिरण्यरेतसं स पुनरनुमानात्प्रतिपित्सते । तत्प्रतिबद्धधूमादिसाक्षात्करणात्त्रतिपत्तिविशेष घटनात् पुनस्तमेव प्रत्यक्षतो बुभुत्सते । 'तत्करणसम्बन्धात्तद्विशेष'प्रतिभाससिद्धेः । न चैवमागममात्रगम्ये साध्ये साधने च 10तत्प्रतिपत्तिविशेषोस्तीति 'किमकारणमत्र प्रमाणसंप्लवोभ्युपगम्यते प्रत्यक्षनिश्चतेग्नौ धूमे च तदभ्युपगमप्रसंगात् । सर्वथा विशेषाभावात् । ततो देवागमनभोयानवामरादिविभूतिभिरिवान्तरंगबहिरंगविग्रहादिमहोदयेनापि न स्तोत्रं भगवान् परमात्माईति ।
तो प्रमाण सम्प्लववादी हैं, अतः प्रमाण से प्रसिद्ध है प्रमाणता जिसकी, ऐसे आगम से साध्य की सिद्धि, अर्थात् भगवान् का महत्व सिद्ध हो जाने पर भी आगम से प्रसिद्ध हेतु से उत्पन्न होने वाले अनुमान प्रमाण से पुनरपि साध्य की सिद्धि होने में कोई बाधा नहीं है । आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना ठीक नहीं है । क्योंकि उपयोग विशेष के अभाव में हमने प्रमाण सम्प्लव को स्वीकार नहीं किया है।
जानने वाले ज्ञाता का उपयोग-प्रयोजन विशेष होने पर ही देश, कालादि विशेष से निर्णीत आगम से निश्चित जाने गये भी अग्नि को अनुमान विशेष से जानना चाहता है, एवं साध्य से सम्बद्ध धूमादि के साक्षात् करण से ज्ञान विशेष होता है, पुन: वह ज्ञाता उस साध्य अग्नि आदि को प्रत्यक्ष से जानना चाहता है, क्योंकि साध्य 'अग्नि' का चक्षु इन्द्रिय आदि के सम्बन्ध से उनका विशेष पीत वर्ण रूप भासुराकार प्रतिभास सिद्ध होता है। इस प्रकार प्रमाण संप्लव के द्वारा आगम मात्र गम्य साध्य और साधन में साध्य का परिज्ञान विशेष नहीं हो सकता है।
अतः यहाँ पर व्यर्थ ही प्रमाण संप्लव को स्वीकार करने की क्या आवश्यकता है ? अर्थात कुछ भी नहीं है । यदि कारण के बिना भी प्रमाण-संप्लव स्वीकार करेंगे तो प्रत्यक्ष से निश्चित हुई अग्नि और धूम में भी प्रमाण-सम्प्लव मानने का प्रसंग आयेगा। सर्वथा यहाँ पर भी विशेष का अभाव है, इसलिए 'देवागम नभोयान चामरादि विभूतिमत्व' के समान अन्तरंग, बहिरंग विग्रहादि महोदय के द्वारा भी आप भगवान्-परमात्मा स्तवन करने योग्य नहीं हैं।
. भावार्थ - पुनरपि ग्रंथकर्ता "विग्रहादि महोदयत्व" हेतु से भी भगवान् को महान् मानने को तैयार नहीं है । इस पर भी कोई तटस्थ जैन कहता है कि घाति कर्म के क्षय से होने वाले जो दिव्य
1 महत्ता। 2 परिच्छित्ति। 3 कालस्वरूपम् । 4 निर्णयात् । 5 पुनः स प्रतिपत्ता तं हिरण्यरेतसं साक्षाबोद्ध मिच्छति । कस्मात् ? अग्निनेन्द्रियसंयोगात्साध्यविशेषप्रतिभासः सिद्धचति यतः। 6 इन्द्रियेण । 7 पिङ्गभासुराकार। 8 विशेष प्रतिभाससिद्धेरिति वा पाठः। 9 अग्निप्रकारेण । 10 प्रमाणसंप्लवेन तस्य साध्यस्य प नास्ति । 11 किमिति किमर्थम् । 12 कारणं विना। 13 साध्ये । 14 अग्नी धूमे च प्रत्यक्षं निश्चिते सति तस्य प्रमाणसंप्लवस्याङ्गीकारप्रसङ्गो घटते।
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