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आप्त की परीक्षा ] प्रथम परिच्छेद
[ २१ भावना' यदि वाक्यार्थो नियोगो नेति का प्रमा' । तावुभौ यदि वाक्यार्थो हतौ भट्टप्रभाकरौ ॥१॥इति कार्येर्थे चोदनाज्ञानं स्वरूपे किन्न तत्प्रमा। द्वियोश्चेद्धन्त तौ नष्टौ भट्टवेदान्तवादिनौ ॥२॥इति
जाता है कि जगत में कहीं पर भी कोई सर्वज्ञ भगवान् है ही नहीं। हमारे द्वारा अपौरुषेय वेद से ही धर्म अधर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान सिद्ध हो जाता है। अतः किसी पुरुष को सर्वज्ञ मानने की आवश्यकता ही नहीं है । इस पर जैनाचार्यों ने इस अन्तिमचरण का प्रथम तो यह अर्थ किया है कि कोई एक ही गुरु हो सकता है पुनः उसी से यह अर्थ भी कर दिया है कि क:-परमात्मा, चित्अहंत भगवान्, एव-ही भवेत्, भव-संसार का जो इत्-प्राप्त हैं वे भवेत् हैं उन संसारी जीवों के गुरुभगवान् महान् केवली आप्त ही हो सकते हैं, अन्य कोई भी नहीं हो सकते हैं।
श्लोकार्थ-यदि वेदवाक्य का अर्थ भावना है नियोग नहीं है इसमें क्या प्रमाण है ? यदि वे दोनों ही वाक्य के अर्थ हैं तो भट्ट और प्रभाकर दोनों ही नष्ट हो जाते हैं ॥१॥ नियोगरूप कार्य के अर्थ में वेद का ज्ञान प्रमाण है तो स्वरूप-विधि में वह प्रमाण क्यों नहीं है ? यदि कार्य और स्वरूप दोनों में ही वह वेदणाक्य प्रमाण होवे तब तो खेद है कि भट्ट और वेदांतवादी दोनों ही नष्ट हो गये ॥२॥
विशेषार्थ--जैनाचार्य अपौरुषेय वेद में भी परस्पर विरोध को दिखलाते हुये दूषण देते हैं। "अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्ग कामः' इत्यदि वाक्यों में जो “यजेत" पद विधि लिङ् है, अद्वैतवादी लोग इसका अर्थ विधिरूप एक अद्वितीय परमब्रह्म ही करते हैं. नियोगवादी प्रभाकर इसी: अर्थ "मैं इस वाक्य से यज्ञ कार्य में नियुक्त हुआ हूँ" ऐसा नियोग रूप करते हैं तथा भावनावादी भाट्ट इसी वेद का अर्थ भावना रूप करते हैं। "यः सर्वज्ञः स सर्ववित्" इन वेद वाक्यों से नैयायिक लोग ईश्वर का सर्वज्ञत्व अर्थ निकालते हैं एवं इसी वाक्य से मीमांसक लोग कर्मकांड की स्तुति करने वाला अर्थवाद वाक्य मानते हैं और चार्वाक "अन्नाद्वै पुरुषः" आदि श्रुतियों से अपना मत पुष्ट करते हुये कहते हैं कि अन्नादि भूत चतुष्टय से ही आत्मा का निर्माण होता है। कामधेनु के समान इन वेदवाक्यों से भिन्नभिन्न मतावलम्बी जन भिन्न-भिन्न ही अर्थ की कल्पना करके अपना-अपना मत पुष्ट कर रहे हैं। इस प्रकार सभी के मतों में परस्पर में एक दूसरे से विरोध आता है। मीमांसक तो सर्वज्ञ को मानते ही नहीं हैं। ये वेदवाक्य स्वयं तो कहते नहीं हैं कि मेरा यह अर्थ प्रमाण है एवं यह अर्थ अप्रमाण है। तथा उस वेद के व्याख्याता पुरुष भी रागी द्वेषी ही मिलेंगे। इसलिये "ये ही अर्थप्रमाण हैं" ऐसी अंध परम्परा से अर्थ का निर्णय होना नहीं बनेगा। एक अंधे ने दूसरे अंधे का एवं दूसरे ने तीसरे का इत्यादि रूप से सैकड़ों अंधे हाथ पकड़कर पंक्ति से खड़े हो जावें तो क्या सबको दीखने लगेगा ? अर्थात् नहीं दीखेगा और न वे अंधे अभीष्ट स्थान को ही प्राप्त कर सकेंगे और यदि उन अंधों की पंक्ति में आगे एक चक्षुष्मान् व्यक्ति जुड़ जावेगा तो कदाचित् सभी को
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1 किं केन कथमित्यंशत्रयवती भावना-भाव्यकरण कर्तव्यता रुपमंशवयं (ब्या० प्र०)। 2 नियुक्तोहमित्याकूतं यस्माद्भवति स एव नियोग इत्यर्थः। 3 सर्व वै खल्विद् ब्रह्मेत्यादिविधिस्वरूपप्रतिपादने वेदवाक्यं कथं न प्रमाणम् । 4 भावनारूपे यागे (ब्या० प्र०)। 5 कार्यस्वरूपयोः ।
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