________________
प्रस्तावना
का हिन्दी विवेचन लिखा है। इसका प्रकाशन श्री शान्तिवीर दि० जैन संस्थान द्वारा सन् १९७० में हुआ है।
'तत्त्वदीपिका' नामक प्रस्तुत व्याख्या ___ आप्तमीमांसाकी तत्त्वदीपिका नामक प्रस्तुत हिन्दी व्याख्यामें आप्तमीमांसा, अष्टशती और अष्टसहस्रीमें समाविष्ट तत्त्वों ( विवेचनीय विषयों) का सुचारुरूपसे प्रतिपादन किया गया है। यह व्याख्या न तो अष्टशतीका अनुवाद है और न अष्टसहस्रीका। किन्तु इस व्याख्यामें इस बातका पूर्ण ध्यान रखा गया है कि अष्टशती और अष्टसहस्रीमें प्रतिपादित कोई भी मुख्य तत्त्व (विषय ) छूटने न पाये। जो व्यक्ति संस्कृत नहीं जानते हैं तथा जिनका दर्शनशास्त्रमें प्रवेश नहीं है, वे भी इस व्याख्याको पढ़कर अष्टशती और अष्टसहस्रीके हार्दको सरलता पूर्वक समझ सकते हैं। __ 'तीर्थकृत्समयानां च परस्परविरोधतः' इस कारिकामें बुद्ध, कपिल आदि तीर्थङ्करोंके समयों ( आगमों )में पारस्परिक विरोधकी बात कही गयी है। अतः उक्त विरोधका स्पष्टरूपसे प्रतिपादन करनेके लिए इस कारिकाकी व्याख्यामें न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त, बौद्ध, चार्वाक, तत्त्वोपप्लववादी और वैनयिकके सिद्धान्तोंका संक्षिप्त विवेचन कर दिया गया है। ऐसा करनेसे आचार्य विद्यानन्दकी निम्नलिखित उक्ति
. श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः ।
विज्ञायते ययैव स्वसमयपरसमयसद्भावः ।। चरितार्थ हो जाती है। अर्थात् जिज्ञासुओंको उक्त कारिकाकी व्याख्या में प्रतिपादित न्याय आदि दर्शनोंके मूल सिद्धान्तोंका बोध सरलतासे हो सकता है। अतः कारिका संख्या ३ की व्याख्याको पढ़कर स्वसमय ( अनेकान्तशासन ) और परसमय ( न्याय आदि दर्शन )का संक्षेपमें किन्तु स्पष्ट बोध प्राप्त किया जा सकता है। वैसे तो आप्तमीमांसाकी प्रत्येक कारिकामें स्वसमय और परसमयका प्रतिपादन करके स्याद्वादन्यायके अनुसार स्वसमयकी स्थापना की गयी है। इस दृष्टिसे प्रत्येक कारिकाकी व्याख्या द्वारा उसमें प्रतिपादित किसी विशिष्ट स्वसमयका स्पष्ट ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । अतः न्यायशास्त्रके जिज्ञासुओं के लिए अष्टसहस्रीकी तरह 'तत्त्वदीपिका'का अध्ययन भी लाभप्रद
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org