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[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] प्रमाण अवगाहना होती है और उत्कृष्ट कुछ अधिक सहस्र योजन प्रमाण (अपजत्तयाणं जहरणे ण अंगुलस्त असंखे आइभागं, उकासेगां अंगुलस्त असंखेजइभाग) अपर्याप्त जीवों के शरीरों की जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार की अवगाहना अंगुल के असंख्यातभाग प्रमाण हो होतो है : (पज तयाणं जहरणे यालस असंखेजइभाग, उक्कोसेणं साइरेगं जोयणसहस्स) पर्याप्त जीवों के शरीरों की अवगाहना जघन्य अगुल के असंख्यात भाग प्रमाण
और उत्कृष्ट किंचित् अधिक सहस्र योजन प्रमाण प्रतिपादन की गई है। ___भावार्थ-प्रथम औधिक पृथ्वीकायिक जीवों की ? औधिक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक २, अपर्याप्त ३, पर्याप्त ४, औधिक नारक पृथ्वीकायिक जीवों की ५, अपर्याप्त है, तथा पर्याप्त ७, इन सप्त स्थानों की जघन्योत्कृष्ट अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण अवगाहना प्रतिपादन की गई है। इसी प्रकार प्रकायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों की अवगाहना है । वनस्पतिकायिक जीवों के सप्त स्थानों में तो जघन्य अवगाहना प्राग्वत् ही है, बादर में उत्कृष्ट जीवों की अवगाहना किंचित् अधिक सहस्र योजन प्रमाण समुद्र में कमल नालिकादि की अपेक्षा से है। इस तरह एकेन्द्रियों के पांच दण्डकों की अवगाहना कथन की गई है। अब द्वीन्द्रिय श्रादि जीवों के विषय में कहते हैं
श्रय त्रिविकलेन्द्रिय विषय । एवं बेइंदियाणं पुच्छ, गोयमा ! जहण्गोणं अंगुलम्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं बारस जोयणाइं; अपजत्तयाणं जहणणेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेजइ भागं; पज्जत्तयाणं जहणोणं अंगुलस्स असंखेजहभाग, उक्कोसेणं बारस जोयणाई । तेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहरणोणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं तिगिण गाउयाइं; अपजत्तयाणं जहणणेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग, उक्कोसेण विअंगुलस्स असंखेज्जइभाग; पजत्तयाणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं तिषिण गाउयाई । चउरिदियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणणेणं
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