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[ श्रीमदनुयोगद्वार सूत्रम् ]
सयसहस्i) एक लाख योजन (श्रयामविक्वं भेग, लम्बा चौड़ा हो, और (तिरिण जोयणसयसहस्साइं ) तीन लाख ( सोलह सहस्साएं दोरिण सतावी से जोयगसए) सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन (तिरिण थ कोसे) और तीन कोश (श्रद्धा च धणुस ) एक सौ अट्ठाईस धनुष (तेरस य अंगुलाई श्रद्ध* अंगुलं च) साढ़े तेरह अलसे (किचि विसेसा हिश्रं) कुछ अधिक (परिक्खेवेणं पण्णत्ते) परिधि प्रतिपादन की गई है, पश्चात् (से णं पल्ले) उस पल्य को (सिद्धत्थमाणं भरिए) सर्षपों से भर दिया जाय, (तणं तेहिं सिद्धत्थए हिं) फिर उन सर्पपों से ( दीवसमुद्दा ) द्वीप और समुद्रों का (उद्धारो घेप्पड़ ) उद्धार प्रमाण निकाला जाता है, जैसे कि - ( एगो दीवे एगो समुद्दो) एक २ द्वीप में और एक २ समुद्र ( एवं निहिं ) इस प्रकार प्रक्षेप करते -- फेंकते हुए ( जावइया दीवसमुरा ) जितने द्वीप समुद्र हैं, (तेहिं सियहिं) उन सरसों से (अष्फुरणा) भर जायं ( एस णं एवइए खेत्ते पल्ले) इतने क्षेत्र पल्य का ( आइट्ठा पडमा सलाना ) प्रथम शलाका होता है, (एवइया णं सलागाणं) इतने शलाकों के ( अमंलप्पा लोगा ) अकथनीय लोक (भरिया,) भरे हुए हैं, (ताव ) तो भी वे (उक्कोसयं संखेज्जयं) उत्कृष्ट संख्येयक को ( न पाव) प्राप्त नहीं होते ( जहा को दितो ?) जैसे कोई दृष्टान्त भी है ? ( से जहानामए) तद्यथा नामक - जैसे कि (मंचे मिश्रा) मञ्च - चार पार्टी हो या स्थान विशेष हो. जो कि - ( श्रमल वा भरिए) यांवलों से भरी हुई हो (तत्व) तदनन्तर (एंगे श्रामलए ) एक आँवला ( पक्खित्ते ) डाला ( से मा) वह भी समा गया ( गणेऽनि पक्वि) अन्य अन्य भी डाला (सेविते) वह भी समा गया, ( अन्नेऽवि पक्वित्ते ) दूसरा और भी डाला (सेऽवि माते) वह भी
कहते !
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* यहां पर मूल सूत्रकार ने ३१६२२७ योजन, ३ कोश, १२८ धनुष और १३ ॥ अङ्गुल की जो परिधि प्रतिपादन की है, उसे जम्बूदीप दी जानना चाहिये । वृत्तिकार का भी यही अभिप्राय है । यथा-
"परिही तिलक्ख सोलस, सहस्स दो य सय सत्तावीस ऽहिया । कोसतिय अट्टवी, धणुसय तेरंगुलदहियं ॥ १ ॥”
परिधिस्त्रयो लक्षाः षोडश सहस्रा शते सप्तविंशत्यधिके ।
क्रोशत्रिकमष्टाविंशं धनुःशतं त्रयोदशाङ्गुलानि श्रर्थाधिकानि ॥ २ ॥
* क्योंकि वह पल्य चोटि तक भरा हुआ नहीं है इस लिये उसे उत्कृष्ट संख्येयक नहीं
+ शिखा के बिना भी लौकिक रूढि है कि यह मंच चोटी तक भर गया है ।
+ कल्पना की जाय कि कोई देव उस पल्य में से उन सरसों को एक २ द्वीप और एक २
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