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[ उत्तरार्धम् ]
२४६ गुणा करके एक रूप न्यून कर दिया जाय तब उत्कृष्ट परीत अनन्तक होता है, अथवा जघन्य युक्तानन्तक में से यदि एक रूप न्यून कर दें तब भी उत्कृष्ट परीत अनन्तक हो जाता है।
___ तथा-जघन्य परीत अनन्तक राशि को उसी के साथ गुणा करें तो प्रतिपूर्ण युक्तानन्तक होता है, अथवा उत्कृष्ट परीत अनन्तक में एक और प्रक्षेप कर दें तो भी जघन्य युक्तानन्तक ही होता है । तथा उतनी ही अभव्य जीवों की राशि जानना चाहिये । तत्पश्चात् जहां तक उत्कृष्ट युक्त अनन्तक नहीं होता वहां तक मध्यम युक्त अनन्तक ही रहता है।
यदि जघन्य यक्त अनन्तों की राशि को अभव्यों की राशि के साथ पर. स्पर गुणा करके उसमें से एक रूप न्यून कर दे तब उत्कृष्ट युक्त अनन्तक होता है, अथवा जघन्य अनन्त अनन्त की राशि में से यदि एक रूप न्यून कर दिया जाय तो भी उत्कृष्ट युक्त अनन्तक होता है।
जघन्य यक्त अनन्तक की राशि के साथ अभव्य जीवों की राशि को परस्पर गुणा करने से प्रतिपूर्ण जघन्य अनन्तानन्त होता है, अथवा यदि उत्कृष्ट यक्त अनंत की राशि में एक रूप और प्रक्षेप कर दिया जाय तो भी जघन्य अनंतानंत होता है, तत्पश्चात् अजघन्योकृष्ट-मध्यम अनन्तानन्त ही होता है, उत्कृष्ट अनंतानंत नहीं होता। इस प्रकार मूल सूत्र से सिद्ध है । लेकिन--
किसी २ प्राचार्य का मत है कि-जघन्स अनन्तों का तीन वार वर्ग करके फिर उसमें षट् अंक अनंतों के प्रक्षेप करने चाहिये । जैसे कि
सिद्धा निगोयजीव, वणस्सई कालपुग्गला चेव । सब्बमलोगागासं, छप्पेतऽणंतपक्खेवा ॥१॥
सिद्ध १, निगोद के जीव २, वनस्पति ३, तीनों कालो के समय ४, सर्व पुद्गल ५, और अलोकाकाश ६, ये षट् प्रक्षेप करना चाहिये । फिर सब राशि का तीन वार वर्ग करना चाहिये, तो भी उत्कष्ट अनन्तानन्तक नहीं होता यदि उसमें केवल ज्ञान और केवल दर्शन के पर्याय प्रक्षप कर दिये जाय तब उत्कृष्ट अनन्तानन्तक हो जाता है । इस प्रकार सब पदार्थों को केवल ज्ञान और केवल दर्शन के अन्तर्गत कर दिया है, कोई भी पदार्थ इससे बाहिर नहीं है। __लेकिन सूत्र में उत्कृष्ट अनन्तानन्त प्रतिपादन नहीं किया गया है, वहां पर तो मध्यम अनन्तानन्तक पर्यन्त ही गणन संख्या की पूर्ति कर दी है, यही
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