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[ श्रोमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] १४ वचनभिन्न-जहां पर वचन विपरीत हैं वहाँ वचनभिन्न दोष होता है, जैसे वृक्षा ऋतौ पुष्पितः।
१५ विभक्तिभिन्न-विभक्ति का ठीक न होना, जैसे कि-'वृक्ष पश्य' या वृक्षः पश्य, पेसा कहना विभक्तिभिन्न दोष होता है।
१६ लिंगभिन्न-लिंग के विपरीत होना, जैसे कि-'अयं स्त्री'
१७ अनभिहित दोष -- स्वसिद्धान्त ने जो पदार्थ नहीं ग्रहण किये उन का उपदेश करना, जैसे कि-लप्तमः पदार्थो वैशेषकस्य, प्रकृतिपुरुषाभ्यधिक सांख्यस्य, दुःखसमुदायमार्गनिरोधलक्षणचतुरार्यसत्यातिरिक्त बुद्धस्य ।
१८ अपददोष-अन्य छंद स्थान पर अन्य छंद उच्चारण करना वह अप. ददोष होता है, जैसे कि-प्रार्णपदे अभिधातव्ये वैतालीयं परमभिध्यात् है अर्थात् आर्या छन्द की एवज में वैतालीय पद कहना ।
१६ स्वभावहीनदोष-जिप पदार्थ का जो स्वभाव है उससे विरुद्ध प्रति पादन करना, जैसे कि-शं तो वह्निः, मूर्तिमदाकाशम् अर्थात् अग्नि शीत है, आकाश मूर्तिमान है, ये दोनो ही स्वभाव से हीन हैं।
२० व्यवहितदोष--जिसका प्रारम्भ किया हुआ है उसे छोड़ कर जिस का प्रारम्भ नहीं किया उसकी व्याख्या करके फिर प्रथम प्रारम्भ किए हुए को व्याख्या करना व्यवहितदोष हो जाता है।
२१ कालदोष भूतकाल के वचन को वर्तमान काल से उच्चारण करना । जैसे कि रामो वनं प्रविवेशेति वक्तव्ये, रामो वनं प्रविशति इत्यादि, अर्थात् रामचन्द्रजी ने बन में प्रवेश किया, पेसा कहने के बदले रामचन्द्र जी बन में प्रवेश करते हैं। ___ २२ यतिदोष-बिना स्थान विरति करना। - २३ छविदोष-अलंकारों से शून्य ऐसे पदों का उच्चारण करना अर्थात् नो पद उच्चारण किये जायँ वे अलंकार पूर्वक होने चाहिये।
२४ समयविरुद्ध दोष-स्व सिद्धान्त से विरुद्ध प्रतिपादन करना, जैसे कि-सांख्यस्यासत्कारणे कार्ये वैशेषिकस्य वा सदिति ।
२५ वचनमात्र दोष--निर्हेतुक वचन उच्चारण करना, जैसे कि - कश्चद्यथेच्छया कश्चित्प्रदेशं लोकमध्यतया जनेभ्यः प्ररूपयति, अथात् कोई पुरुष अपनी इच्छा पूर्वक किसी स्थान पर भूमि का मध्य भाग सिद्ध करे ।
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