________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
[ श्रोमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
-३११ ( वत्थूनो संकमणं हाइ ) वस्तु का इन्द्रादि में संक्रमण होता है, अर्थात् जिस नय के मत में शब्दानुकूल अर्थ होते हैं और जितने शब्द हो उतने ही अर्थ होते हैं, यदि इन्द्र शब्द को पुरन्दर कहा जाय तब जिस नय के मत में (अवत्थू) अवस्तु हो जाता है, ( नए समभिल्टे) उसे स निरूढ ना कहते हैं।
(वंजण ) शब्द ( अत्थ ) शब्द की अभिधेय वस्तु ( तदुभए , व्यंजन और अर्थ दोनों ही ( एवंभूयो ) चेष्टारूप को जो प्राप्त हो गया हो उसे एवम्भूत नय कहते हैं । ( विसेसेइ ॥ ४॥) यही इस नय का विशेष है ॥४॥
अब ज्ञान क्रिया दोनों ही युगपत् मोक्ष का कारण है, इस विषय में कहते हैं
(णायंमि ) सम्यक जानकर ही ( गिहिग्रव्ये ' ग्रहण करने वाले अर्थ में (चेय) और (अगिरिहग्रव्यं मि) अग्रहणीय ( *[ २ .'मि ) अर्थ में भी होता है सो इस लोक सम्बन्धी अर्थके विषय वा परलोक सम्बन्धी अर्थ के विषय (जइयत्वमेव) यत्न करना चाहिये ( इइ जो) इस प्रकार जो सद्व्यबहार के ज्ञान का कारण (उवएसो) उपदेश है, (सो नरो नाम ५॥) वह प्रस्ताव से ज्ञान नय कहा जाता है।
अब इसी विषय में कहते हैं
(सव्वेसिपि) सो सभो (नयाणं) नयों के (बहुविहां वक्तव्वयं) नाना प्रकार की वक्त. व्यताओं को (निसामित्ता) सुनकर (सव्वनर्यावसुद्ध) सत्र नयों में विशुद्ध (तं) वही है, (जं) जो (साह्र) साधु (चरण) चारित्र और ( गुणटियो ) ज्ञान के विषय स्थित है
* एव शब्द अवधारण अर्थ में ग्रहण किया है।
+नाम शब्द शिष्य के आमन्त्रण अर्थ में ग्रहण किया गया है। सारांश केवल इतना ही है कि ज्ञानद्वार। उपादेय, हेय, ज्ञेय परार्थों का बोध होता है, फिर तादृश यत्न किया जाता है, ऐसा जो उपदेश है उसी को ज्ञान नय कहते हैं । और क्रियावादी इस गाथा का अर्थ केवल क्रिया में ही करता है,जैसे कि--उपादेय पदार्थो को जान कर जो यत्न करता है वह गौण रूप है । इस प्रकार जो उपदेश करे वह क्रिया नय हो जाता है। तब कोई एक ही मोक्ष का कारण नहीं होता, लेकिन दोनों एकत्रित होकर मोक्ष का कारण हो जाते हैं । अपि शब्द समुच्चय अर्थ में है।
For Private and Personal Use Only