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[ उत्तरार्धम् ]
( * संगहिय) सम्यग् प्रकार से जिसने ग्रहण किया है, ( पिंडिया ) पिंडितार्थ. अर्थात् जिस नय से सामान्य प्रकार से एक जाति रूप अर्थ ग्रहण किया है (संग्रह) संगृहीत - पिंडितर्थि वचन (समास) संक्षेप से (वित्ति) श्रीतीर्थंकरदेव संग्रह का वचन कहते हैं
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(विणिच्छत्थं) दूर हो गया है सामान्य रूप जिस का अर्थात् सामान्य का भाव जिस में (च ) वर्तता है, पृथक २ स्वरूप के विषय उपयोग जिसका अर्थात् पृथक २ वस्तु का स्वरूप माना जाता है जिस में उसी को व्यवहार नय कहते हैं और विशेष स्वरूप से ( ववहारो) व्यवहार से विशेष स्वरूप देखा जाता है ( |॥२॥ ) सर्व द्रव्यों ॥ २ ॥
( पप्पाही ) वर्तमान काल को ही ग्रहण करने वाला ( उज्जुसुग्री ) ऋजुसूत्र नय है, (गयविही) ऋजुसूत्र की नय विधि (पुणे) जानना चाहिये ।
यह ऋजुसूत्र नय (विसेसियतरं ) विशेषतर है और ( पच्च परणे) वर्तमान काल को (इच्छ) मानता है । ( गयो सहो ॥ ३ ॥ ) वह शब्द नय है ॥ ३ ॥
* यह पत्रादिक सूत्र है, "ग्रासज्ज उ सोयारं नए नयविसार श्री वृया " " M तु श्रोतारं नयान् नयविशारदो ब्रूयात् ।”
श्रपि प्रकम् - "पहनाएं तो दया प्रथमं ज्ञानं तो दया ।" ग्रागम में भी कहा है -- प्रथम ज्ञान पश्चात् दया |
“जं अन्नाणी कम्मं खबेई”, जैसे कि ज्ञानी कितने ही काल के कर्म को तय करता है । "पात्राको वियत्ती पत्ता तह य कुसलपक्खग्मि । विग्ग्यस्स य पडिवत्ती, तिन्निविना समाप्यति ॥ १ ॥” “पापाद्विनिवृत्ति: प्रवर्त्तना तथा च कुशलपक्षे ।। विनयस्य च प्रतिपत्तिः, त्रीण्यपि ज्ञानात् समाप्यन्ते ॥ १ ॥ "
" गीयत्थो य विहारी, बीग्रो गीयत्थमीसिश्रो भणिश्रो ! इतो तइयविहारो, नान्नायो जिनवरेहिं ॥ १ ॥” "गीतार्थश्च विहारो, द्वितीयो गोतार्थमिश्रितो भणितः । ताम्यां तृतीयो बिहारी, नानुज्ञातो जिनवरैः ॥ १ ॥
भाव
साधु दोनों मिलकर मोक्ष का साधन होते हैं, एकर मोक्ष के साधन नहीं होते, साधु वही है, जो दोनों के स्वरूप में स्थित है ।
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