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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् |
३१६ द्रव्य नय के पश्चात् चार पर्याय नयों का यह भन्तव्य है कि ऋजुसूत्र नय वर्तमान काल को सुख को सुख दुःख को दुःख स्वीकार करता है और अन्य द्रव्य के उत्थप करने से ऋजुसूधाभास हो जाता है । इस नय के मानने वाला बौद्ध दर्शन है जो कि एकान्त वर्तमान काल की पर्याय में आरूढ है कालादि के भेद होने से शब्द के अर्थ का भेद होता है उसे ही शब्द नय कहते हैं किन्तु उस अर्थभेद को एकान्त भिन्न रूप मानने से शब्द नयाभास हो जाता है। पर्याय के अनुकूल अर्थ का मानना समभिरूढ नय का मन्तव्य है । जैसे कि--इन्दनात् इन्द्रः, शकनात् शक्रः, पुर्दारणात् पुरंदरः इत्यादि। यदि इन्हीं शब्दों को एकान्त रूप से भिन्न २ पदाथ माने जाये तब समभिरूढ नयाभास हो जाता है । शब्द के अनुकूल क्रिया का होना एवंभूत नयाभीष्ट है जैसे कि--इदका स्वरूप अनुभव करने से इन्द्र कहा जाता है, शकनयुक्त होने से शक है, (दत्यों के ) पुर (नमर) विदारण से पुरंदर है इत्यादि । यदि क्रिया रहित वस्तु को उस २.०६ से न उच्चारण करना चाहिये ऐसा एकान्त निषेध करे तब एवंभूत नयामास होता है । जैसे कि--विशिष्ट चेष्टा शून्य घट रूप वस्तु को घट न कहना।
इन सात नयों में प्रथम चार अर्थ नय कहे जाते हैं पिछले तीन नए शब्द रूप से माने जाते हैं और सातों नयों का उत्तरोत्तर विषय अल्प है जैसे कि-- नैगम नय से संग्रह नय का विषय अल्प है और संग्रह नय से व्यवहार नय का विषय स्तोक है । इसी प्रकार लमभिरूढ नय से पबभूत नय का विषय स्वल्प है इसका कारण पीछे कहा जा चुका है इसी लिये उसी अपेक्षा से जानना चाहिये और इन्ही नय वाक्यों से सप्तभंगी की सिद्धि होती है अतः सप्तभंगी का स्वरूप अन्य जैन न्याय ग्रन्थों से जानना चाहिये ।
_तृतीय द्वार प्रमाण का है । सो प्रमाण के मुख्य दो भेद है-प्रत्यक्ष और परोक्ष फिर सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और निश्चयिक प्रत्यक्ष, इस प्रकार प्रत्यक्ष के दो भेद कहे गये है फिर इन्द्रिय प्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष, इस प्रकार सांव्यवहारिक के दो भेद होते हैं किन्तु इनके भी अग्रह, ईहा, अवाय अंर धारणा, इस प्रकार चार भेद बन जाते हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण क्षयोपशमिक और क्षायिक भाव से होता है। अवधिज्ञान और मन:पर्यायवान वायोपशमिक भाव से उत्पन्न है। केवल शान नायिक भाव
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