Book Title: Anuyogdwar Sutram Uttararddh
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Murarilalji Charndasji Jain

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Page 326
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२१ [ श्रीमानुयोगद्वारसूत्रम् ] नया निश्चय नय, व्यवरार नय; शब्द नय, अर्थ नय त्यादि नयोंके अनेक भेद है। तथापि सर्व अध्ययन का विचार शान नय और क्रिया से करना चाहिये क्योंकि ये मोक्ष के कारण हैं। इसी लिये हम यहां अब शान और क्रिया के विषय में कुछ कहते हैं । क्योंकि इस समय इन दोनों की ही उपयोगिता है, अन्य नयों का प्रस्ताव नहीं है। पदार्थों के स्वरूप को जो “ उपादेय" हो उसे प्रहण करना चाहिये, जो "हेय रूप हो उन्हें हांग करना चाहिये और जो "शेय" रूप (जानने योग्य) हो उन्हें मध्यस्थ भाव से देखना चाहिये । इस लोक सम्रन्धी पुस्खादि सामग्री ग्रहण योग्य है, विषादि पनार्थ त्यागने योग्य है और तृणादि पदार्थ उपेक्षणीय हैं । यदि परलोक सम्बन्धी विचार किया जाय तब सम्यग दर्श नादि ग्रहण करने योग्य है, मिथ्यात्वानि क्रिया त्यागने योग्य हैं और स्वर्गीय सुख उपेक्षणीय हैं । इस प्रकार तीनों प्रकारके अर्थों में यत्न करना चाहिये। क्योंकि ज्ञान नय का मन्तव्य है कि-हे मार्यो ! जान बिना किसी भी कार्य की सिद्धि नहीं होती । हानी पुरुष ही मोत के फल को अनुभव कर सकते हैं। अन्ध पुरुष अन्ध के पश्चात् गमन करने से वांछित अर्थ को प्राप्त नहीं कर सकता । जैसे बीज बिना अंकुरोत्पत्ति नहीं है इसी प्रकार ज्ञान बिना पुरुगर्य की सिद्धि नहीं है फिर शान से सववत, देशवन, क्षायिक सम्यक्त मादि अमूल्य पदार्थों की प्राप्ति हो मकनी है अत एव सर्व का मूल कारण हान ही है । क्रिया नय का मन्तव्य है कि सर्व का मुख्य कारण क्रिया हो है जैसे कि-तीनों प्रकार के अर्थों का जान कर उन में फिर यत्न करना हमी कथन मे क्रिया को पिद्धि की गई है। शान तो क्रिया को उपकरण है इसलिये क्रिया मुख्य और ज्ञान गौण रूप है । इस प्रकार किया नय का उपदेश है कि क्रिया ही मुख्य है जैसे कि क्रिया से रहित ज्ञान खर के समान चन्दन के मारवत् है नथा ज्ञान से जीव सुख नहीं पाते तथा ज्ञान से पुत्रोत्पत्ति नहीं हो सकती, नोर्थकर देव भी अन्तिम समय पर्यन्त क्रिया के हो प्राश्रित रहते हैं। बीज को भी बाहिर की सामग्री की अत्यन्त प्रावश्यकता है तबही अंकुरोत्पनि होती है। इसलिये सब का मुख्य कारण क्रिया हो है । इस प्र. कार किया नय का मन्तव्य है किन्तु एकान्न पक्ष में मोक्ष प्राप्ति का प्रभाव है । इसलिये अब मान्य पक्ष के विषय में कहते हैं कि सर्व नयों के नाना प्रकार के वक्तव्य को सुनकर सम्यव सामायिक पौर श्रत सामायिक को शान प्रधान नय मानते हैं, अन्य दोनों के मत में गौण रूप हैं. इस प्रकार नयों के परस्पर विरोध जनक भाव को सुनकर जो पाधु शान और क्रिया में स्थित है वही मोक्ष का साधक होता है। कारण कि एकान्त पन मिथ्या रूप है । इस लिये शान और क्रिया युगपत् मोत के साधक हैं क्योंकि केवल शान से और केवल क्रिया से कार्यसिद्धि नहीं होती। जैसे कि अन्नादि के ज्ञान से भी बिना क्रिया किये उदरपोषणादि नहीं हो सकते । इस वास्ते श्रीतीर्थ कर केवलहान और यथाख्यात चरित्रयुक्त होते हैं। फिर केवल क्रिया से भी कार्य सिद्धि नहीं होती तथा For Private and Personal Use Only

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