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[उत्तरार्धम्] जब क्रिया हो जाती है तब उस का ज्ञान प्रथम ही होता है इसलिए किया झानपूर्वक होना सिद्ध हुओ। इसलिवे सिद्ध शकि-मान और क्रिया दोनों के समकालीन होने पर ही मोक्ष के फल की प्राटिनोती है। जैसे कि-क्रिश से रहित ज्ञान निष्फल हो जाता है, क्रिया ज्ञान से रहित होने से शून्य हो जाती है, तो वोचित सिद्धि नहीं हो सकती जैसे कि-पंगुला और बंध भागते एए सुमार्ग को नहीं प्राप्त होते तया वृक्ष के फल को नहीं ले सकतम जैसे एक चक्र से शकट नगर को प्राप्त नहीं हो सकता हलो प्रकार अमेले सार और अकेले किया से सिद्धि नहीं, अपि तु दोनों से सिद्धि होती है। . यहां यदि ऐसी शका को जाय कि जब में पृथक २ भाव मुक्तिसाधन को शक्ति नहीं है तो युगपत् में वह शक्ति कहाँ से डरसन होमी १हर का र है कि ज्ञान और कि पृथक् २ मात्र में देम उरकारी होने हैं, दुगाव मिलने से सर्व उपकारी बन जाते हैं। जैसे एक सर्पर तैन की प्रामा पल नहीं कर सकता और यदि सर्पयों का समूह हो जाय तो तेग की गाथा पूर्ण हो. जाती है। इसी प्रकार ज्ञान और क्रिया दो में से मोक्ष की प्रालि हो जाती है, एक २ से नहीं । इस प्रकार मानने और ग्रहण करने से भारसाधु होता है।
. इस तरह नय द्वार की समाहित होते हुए चतुर्थ अनुयोगदार को भी समाप्ति होती है। चतुर्थ अनुयोगद्वार के पूर्ण होने से श्रीमनुशागद्वारसूत्र को भी पूर्ति होती है क्यों कि.अनुयोगद्वार सूत्र के चार भुवन द्वार हैं तो चारों की पूर्ति होने से अनुमोगद्वार सूत्र की पूर्ति हो गई।
कतिपय प्रतियों में अनुयोगद्वार सूत्र की पूर्ति के पश्चात् निम्न लिखित दो गाथाएं भी लिखी हुई मिलती हैं
"सोलसयाणि चउरुत्तराणि होति उदमंमि गाहाणं । दुसहस्समदमछंदवित्तपमाणमो. भणियो। १॥ णयरमहादरा इव उवकमदराणुप्रोगबरदारा । अस्वरबिंदुगमता लिहिया दुक्सानहाए ॥२॥
इन गाथाओं का सारांश इतना ही है कि श्रीमरमुरोगद्वार सू की, १६०१ गाथाएं हैं और २.८५ अनुष्ट छन्द हैं ॥१॥ जैसे महानगर के मुश मुखर चार द्वार होते हैं उसी प्रकार श्रीमनु गेगद्वार सूत्र. के. उरकमारिकार द्वार हैं और इस सूत्र का अनर, बिंदु और मात्रायें जो लिखी गई है वे सर्व दुखों के क्षय करने के वास्ते ही हैं।
. यद्यपि ये गाथायें मूल स्त्र में नहीं हैं, वृत्तिकारों ने इन की वृति-भोः नहीं लिखी है तथापि इन का सारांश अब्छा हाने से तथाकतिपय प्रतियो में ये गाथायें लिखी हुई हैं इसलिये मैं ने भी यहां परमिककी है।
यदि प्रमाद वश अज्ञान भाव से सूत्र से किंचित मात्र भी मेरे से पिर लिखा गया हो तो मैं "मिच्छामि दुकार" प्रहण करता।
इति श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रस्य दिलीपराध मालामा
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