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4
ROGRe-CELLERS
* अहम् .
2
श्रीमद् अनुयोगद्वार सूत्र
.98
(उत्तरार्ध)
-RAKASR2--
64
फफफफफफफफा 5555555) MALEDEEG
हिन्दी-अनुवाद कर्ताजनमुनि उपाध्याय श्रीआत्मारामजी महाराज
(पंजाबी)
555LF45'691556959596959596595595
गली भा, वीर निर्वाण सं० सकता है। प्रथम संस्करण। विक्रम संवत् ११नुवाद करने के ईस्वी सन् १९३के और फिर ५००
त्र से सुशाभित कर
सदुपयोग
15555555555555
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प्रकाशकश्रीमान् (भक्त) लाला मुरारीलालजी-चरणदासजी जैन;
पटियाला स्टेट ।
RTAN
पद्मसिंह जैन अध्यक्ष श्रीमज्जैन शास्त्रोद्धार प्रिंटिंग
जौहरी बाजार
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प्राक पक्तियां। प्रिय मुज्ञ पुरुषो!
मनुष्य पर्याय पाकर जीव ने यदि प्रात्मकल्याण-आत्म संशोधन-आत्मोनति--परमात्मपदप्रतिष्ठान नहीं किया, जिसे कि उसने आजतक नहीं किया है और भोगोपभोगों में ही सर्वथा-सर्वदा व्यस्त रहा, जैसा कि अनादिकाल से वह प्राण रहता चला आया है, तो कहना चाहिये कि एक तरह से उस ने कुछ भी नहीं किया
और इस मनुष्य पर्याय को, जो कि सर्व पर्यायों में श्रेष्ठ है तथा जिस के लिये इन्द्रादि देव भी तरसते रहते हैं, व्यर्थ हो गँवाया। मनुष्य पर्याय को व्यर्थ गँवा देना ठीक वैसा ही है जैसा कि एक मणि के टुकड़े को समुद्र में डाल देना। एक बार हाथ में पाए हुर मणि कण का समुद्र में पटक देने से जैसे उस को पुनः मिलना दुर्लभ है, वैसे ही मनुष्य पर्याय को भी एक बार पाकर उसका सदुपयोग न करना व समुद्र में डाल देने के बराबर है, वहां से उस का पुनः प्राप्त करना दुर्लभ है ।
यात्मविकास आत्मा तभी कर सकता है, जब उसे मात्मा का स्वरूप, आत्म विकास के साधन आदि ज्ञात हों। आत्मा का स्वरूप भोर भात्मविकास के साधनों का ज्ञान प्रात्मा को अध्यात्म साहित्य के अवलोकन, पठन-पाठन, मनन आदि से हो हो सकता है । देश-विदेश के समाचारों का ज्ञान मनुष्य का जैसे समाचार पत्रों से होता है, कृषि का ज्ञान मनुष्य को जैसे कृषि शास्त्र से होता है; काम की
ज्ञान मनुष्य को जैसे कामशास्त्र से हाता है; उसी तरह आत्माट कार और 'नति के साधनों का ज्ञान मनुष्य को अध्यात्मशास्त्र से ।
प्रन्थ -'श्रीमदनुयोगद्वार सूत्र' अध्यात्म ग्रन्थ हा है। अध्यात्म प्रेस रचा गया। प्रन्य कठिन नहीं है। हालांकि लोगों को वह कठिन
यतीत होने का तो कारण यह है कि जिस विषा को श्रार लोगों को रुचि
- काहीतो, वह उन्हें कठिन ही प्रतीत होता है। और जिवर प्रीति
सरल प्रतीत हाता है - उसको कठिनाइयाँ फिर कठिनाइयाँ नहीं १३तना लिख कर इम इन पंक्तियों को यहाँ समाप्त करते हैं किप्रत्येक
स्वकाय जावन सम्यग् दशन भोर सम्यग चरित्र से अनंकन
1 सूत्र में सम्यग ज्ञान और दर्शन का भलो भांति स्वरूप वर्णित किया गया है
संक्षेप में सम्यग् चारित्र का भी वर्णन किया गया है।
से पूर्व इस सूत्र का अध्ययन करना चाहिये । चार प्रमाण, नव प्रतः वाद, तथा
नाना प्रकार के विषयों के अध्ययन करने से सम्यग ज्ञान और सम्यग् दर्श
मेली भांति प्राप्ति हो सकती है। और निज भात्ना का विशद
नुवाद करने का तात्पर्य यही है कि प्रत्येक प्राणो इस सूत्रज्ञान का अनुभा का
के
अ
और फिर स्वकीय शात्मा को सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यान से सुशोभित कर मोक्षाधिकारी बन सके ।
भवदीयःजैनमुनि उपाध्याय आत्माराम
होती है, वह वि रहतीं । अन्त
करना
प्रकार से
सकता है।
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धन्यवाद ।
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--::
'श्री श्वेताम्बर - स्थानकवासी - श्राल इण्डिया जैन कान्फ्रेन्स' के सिकन्दराबाद वाले अधिवेशन में स्वर्गीय राजाबहादुर लालाजी श्रीमान् सुखदेवसहायजी ने जैन सिद्धान्तों को प्रकाशित करने के लिए 'कान्फ्रेन्स' को जिस समय एक प्रेस दिलाया था उस समय 'कान्फन्स' की सूवनानुसार जैनमुनि उपाध्याय श्री आत्मारामजी महाराज ने श्रीमद्नुयोगद्वार सूत्र का हिन्दी अनुवाद करके 'कान्फरेन्स' को समर्पण किया था । 'कान्फ्रेन्स' ने उस का कुछ हिस्सा 'पूर्वार्ध' के नाम से प्रकाशित करके 'कान्फेन्स प्रकाश' के ग्राहकों को उपहार में वितरण किया और उस का शेष भाग यही रख छोड़ा। इस बात को १३-१४ वर्ष होने आये ।
सूत्र के अप्रकाशित भाग को 'कान्फ्रेन्स' से हम ने मँगा लिया। लेकिन वह हमारे पास भी बहुत समय तक यों ही रक्खा रहा । एक अवसर पर इस के प्रका शक महोदय ने इस को प्रकाशित करने के लिए ५००) रुपयों की उदारता दिखाई. थी । लेकिन इतना बड़ा काम इतने से रुपयों में होना अशक्य था । श्रतएव उस समय भी हमें ठहरना पड़ा ।
एक समय आगरा निवासी श्रीयुत बाबू पद्मसिंहजा जैन, अध्यक्ष - 'श्रीमज्जैनशास्त्रो द्वार प्रिंटिंग प्रेस' और प्रकाशक- 'श्रीजैनपथ-प्रदर्शक' 'आगरा महाराज श्री के दर्शनों के लिए यहाँ आए। महाराजजी ने यह बात उन के सामने रक्खी। घर का प्रेस होते के कारण आप ने इस कार्य को शीघ्र पूरा प्रकाशित कर सकने का वचन दिया । तदनुसार उक्त ग्रन्थ आप को दिया गया और आप ने तत्काल कार्य आरम्भ कर दिया. 1. लेकिन थोड़े ही दिनों बाद आप पर भी कई कठिनाइयाँ ऐसी आन पड़ीं कि जिन के कारण ग्रन्थ के प्रकाशित होने में फिर भी विलम्ब हो गया ।
श्रीयुत बाबू पद्मसिंहजी को जिस समय यह प्रन्थ छापने के लिए दिया गया था उस समय इसे लगभग ३०-३२ फार्म का समझा गया था परन्तु छपने पर यह ४० फार्म का बैठा । लेकिन फिर भी उक्त महानुभाव ने अपने वचनानुसार इसे पूर्ण ही छाप कर प्रकाशित किया । एतदर्थ आप को धन्यवाद है ।
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दूसरा धन्यवाद श्रीमान् (भक्त) लाला मुरारीलालजी व श्रीमान् लाला चरणदासजो को है । ये दोनों भाई पटियाला निवासी श्रीमान् लाला जगतरामजी के भतीजे हैं।
श्रीमान् लाला जगतरामजी के एक छोटे भाई लाला कुन्दनलालजी थे । श्रीमान् भक्त लाला मुरारीलालजी और श्रीमान लाला चरणदासजी उन्हीं के सुपुत्र हैं । श्रीमान भक्त लाला मुरारीलाजी के सुपुत्र श्रीमान् श्यामलालजी हैं।
श्रीमान लाला जगतरामजी एक प्रसिद्ध व्यापारी थे। श्राप की आजकल विभिन्न स्थानों में पाँच दुकानें चल रही हैं। आप एक माननीय जैन गृहस्थ थे।
पाठकों को जान कर आनन्द होगा कि श्रीमदनुयोगद्वार सूत्र का यह शेषांश "उत्तरार्ध' के नाम से उन्हीं श्रीमान् लाला जगतरामजी को स्मृति में उन के भतीजे श्रीमान (भक्त) लाला मुरारीलालजी और श्रीमान् लाला चरणदासजी ने प्रकाशित करवा कर परम पुण्य उपार्जन किया है।
एतदर्थ हम श्रीमान लाला (भक्त) मुरारीलालजी और श्रीमान् लाला चरणदासजी को हार्दिक भावों से धन्यवाद देते हैं और साथ ही प्रत्येक जैन बन्धु से सानुरोध निवेदन करते हैं कि वे उक्त महानुभावों का अनुकरण करके श्रीभगवद्भाषित शास्त्रों का जनता में प्रचार करके मोक्षादि के अधिकारी बने।
इस सूत्र का पूर्वार्द्व आज से १०-१२ वर्ष पहिले जिस रंग ढंग से प्रकाशित हुआ था उसी रंग ढंग से उसके उत्तरार्द्ध को भी प्रकाशित किया गया है । और आगे जो सूत्र उपाध्यायजा लिख रहे हैं वे सब मूल पाठ, संस्कृत छाया, शब्दाथ, भावार्थ, सरल हिन्दी विशषार्थ और टिप्पणी आदि सहित लिख रहे हैं । इस समय श्रादशवैकालिकसूत्र तो हैदराबाद निवासी लालाजी ज्वालाप्रसादजी को उदारता से छप रहा है और 'श्रीउत्तराध्ययन सूत्र' भी लिखा रखा है। श्राशा है कोई धर्मसाहित्य प्रेमो उस के प्रकाशित कराने का भार लाला कालाप्रसादजी के समान लेकर अपने धर्मप्रेम और साहित्यप्रेम का परिचय देंगे । अन्त में विदन है कि
इस सूत्र में दृष्टि दोष से पृफसंशोधकों की भूल से या असवज्ञता के कारण कोई .. दोष रह गया हो तो विद्वान् सूचित करने की कृपा करें, जिस से भविष्य में उस के सुधार का ध्यान रखा जाय ।
__ भवदीयदीपावली
गूजरमल प्यारेलाल जैन, सं० १६८८ वि. (
) . . . . . . . चौड़ा बाजार-लुधियाना।
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* श्रीवर्धमान नमः * श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ।
(उत्तरार्धम् ) प्रधधमाण विषय ।
-~::-- से किं तं प्रमाणे ? चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ दव्वप्पमाणे, २ खेत्तप्पमाणे, ३ कालप्पमाणे, ४ भावप्पमाणे। से किं तं दव्वप्पमाणे ? दवप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा पदेसनिप्फन्न, विभागनिष्फन्ने य । से किं तं पदेसनिष्फन्ने ? परमाणुपोग्गले दुपएसिए जाव दसपएसिए संखिज्जपएसिए असंखिज्जपएसिए अणंतपएसिए से तं पदेसनिष्फन्ने । से किं तं विभागनिप्फन्ने? पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-माणे १,उम्माणे २, अवमाणे ३, गणिमे ४, पडिमाणे ५ । से किं तं माणे ? दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ धन्नप्पमाणे, २ रसप्पमाणे य सेकि तं धन्नप्पमाणे । दो असईओ पसइ, दो पसईओ सेतिया, चत्तारि सेइआओ कुलो, चत्तारि कुलया पत्थो, चत्तारि पत्थया ओढगं, चत्तारि आढगा दोणी, सटिआढगाइं जहन्नकुंभे, असीति आढयाई मज्झिमकुभे, आढयसयं उक्कोसए कुभे, अट्टयअठयसत्तिए वाहे । एएणं धन्नमाणप्पमाणेणं किं पउयणं ? एएणं धन्नप्पमागणं मुत्तोलिमुखइदुरअलिंदअवयाणं संसियाणं धरणाणं धरप्पमाणप्पमाणनिव्वतिलक्षणं भवइ, से तं धनमाणप्पमाणे ।
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
य
पदार्थ - (से किं तं प्यमाणे ? चडलिहे पत्रत्ते, तं जहा ) प्रमाण किसे कहते हैं ? 'परिमीयते परिच्छिद्यते धान्यद्रव्याद्यनेनेति प्रमाणमसतिप्रसृत्यादि' || जिसके द्वारा धान्यादि वस्तुओं का प्रमाण किया जाय उसे 'प्रमाण' कहते हैं । अथवा प्रत्येक पदार्थों का जिसके द्वारा प्रमाण किया जाता है उसे 'प्रमाण कहते हैं । यह करणसाधन है और चार प्रकार से प्रतिपादन किया गया है। जैसे कि - ( दव्वप्यमाणे ) द्रव्य के विषय में जो प्रमाण किया जाय उसे 'द्रव्य प्रमाण' कहते हैं । इसी प्रकार ( खेत्तप्पमाणे) क्षेत्र प्रमाण ( कालप्यमाणे ) काल प्रमाण ( भावप्पमाणे ) भाव प्रमाण (से किं तंत्रमाणे ? दुविहे पत्रत्ते, तं जहा ) द्रव्य प्रमाण किसे कहते हैं ? द्रव्यों का जो प्रमाण किया जाय उसे 'द्रव्य प्रमाण' कहते हैं । वह दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है। जैसे कि-- ( परसनिष्फन विभागनिष्कत्र ेय ) प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न (से किं तं परसनिन ) प्रदेशनिष्पन्न किसे कहते हैं ? जो प्रदेशों के द्वारा निष्पन्न हो । जैसे कि - (परमाणु पग्ले) परमाणु पुद्गल और (दुपएसए) द्विप्रदेशिक निष्पन्न स्कन्ध (दतपरसिए जान) दशप्रदेशिक स्कन्ध ( संखेज्नपएसिए) संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध (असंखेज्जपएसिए) असंख्यात प्रदेशिक स्कंध (अप एसिए) अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध (से से पएस (निप्फत्र) सो इसे ही 'प्रदेश निष्पन्न' कहते हैं । ( से किं तं विभागनिष्फल ? पंचविहं पण्णत्ते, तं जहा ) विभागनिष्पन्न किसे कहते हैं ? जो विशिष्ट प्रकारों तथा नाना प्रकार के असति प्रसृत्यादि द्वारा विभाग किया जाय वह 'विभागनिष्पन्न' होता है । वह पांच प्रकार से प्रतिपादन किया गया है। जैसे कि - (माणे १, उम्माणे २, श्रवमाणे ३, गणिमे ४, परिमाणे ५) मान प्रमाण १, उन्मान प्रमाण २, अवमान प्रमाण ३, गणित प्रमाण ४ और प्रतिमान प्रमाण ५, (से किं तं माणे ? दुविहं पण्णत्ते, जहा ) मान प्रमाण कितने प्रकारका है ? मान प्रमाण दो प्रकार का है। जैसे कि -- ( धनमाणे ) धान्यमान प्रमाण और (रसनाथ ) रसमान प्रमाण अर्थात् जिसके द्वारा धान्योंका प्रमाण किया जाय वह 'धान्यमान प्रमाण' और जिसके द्वारा रसों का प्रमाण किया जाय वह । 'रसमान प्रमाण' है (से किं तं धण्णमा य ? ) धान्य प्रमाण किस प्रकार से किया जाता है ? (दो असइयो पसइ) दो असृति की एक प्रसृति होती है । सृति उसे कहते हैं जो एक हथेली भर में धान्य आजावे अथवा एक मुष्टि प्रमाण । यह अति सर्व मानोंकी आदिभूत होती है । दो सृतियों की एक प्रसृति होती है अर्थात् एक प्राञ्जलि अथवा दोनों हाथों का नावाकार जो संपुट होता है उसे 'प्रसृति ' कहते हैं । सो इसी प्रकार ( दो पसइओ सेईय ) दो प्रसृतियों की एक 'सेतिका' होती है ( चत्तारि लेडया श्री ओ) चार सेतियों का एक 'कुडव' होता है ( चत्तारि कुलयो पत्थो ) और चार कुड़वों
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[ उत्तरार्धम् ] का एक 'प्रस्थ'-'पाथा' होता है (चतारि पन्था आढगा ) चार पाथोंका एक 'आढक' होता है और ( चत्तारि आढगाई दोणी ) चार आढक की एक 'द्रोणो' होती है ( सटिभादगाई जहन्नए कुभे ) साठ आढक का एक 'जघन्य कुभ होता है और (असीए पाटगाई मज्झिमए कुभे) अस्सी आढकों का एक 'मध्यम कुभ' होता है (पाढगसयं उकोसए कुभे ) और सौ आढकों का एक 'उत्कृष्ट कुंभ' होता है (अट्टयपाढयसइए वाद)
आठ सौ श्राढकों का एक 'वोह' होता है ( एएणं धत्रमाणामाणेणं किं पउयणं ? ) इस धान्यमान प्रमाण के वर्णन करने का क्या प्रयोजन है ? (एएणं धनप्पमाणेणं ) इस धान्यमान प्रमाण के द्वारा (मुत्तोलि मुख) मुक्तोली मुख (इंदुर) इंदुर (अनिन्द) आलिंद (अपपार ) अपचार ( संसियाणं ) इनके आश्रित (धन्नाणं ) धान्यों का (धरणमाणप्पमाण ) धान्य मान प्रमाण की (निवत्तिलक्षणं भवर) निर्वृत्ति लक्षण होती है अर्थात् उक्त प्रकार से धान्यों के परिज्ञान की सिद्धि उत्पन्न होती है । ( से तं धनमाणप्पमाणे ) वही 'धान्य मान प्रमाण' है।
भावार्थ-जिसके द्वारा वस्तुओका प्रमाण किया जाय उसको 'प्रमाण' कहते हैं । वह चार प्रकार का है। जैसे-द्रव्य प्रमाण १, क्षेत्र प्रमाण २, काल प्रमाण ३, भाव प्रमाण ४। द्रव्य प्रमाण दो प्रकार का है--एक प्रदेशनिष्पन्न, द्वितीय विभागनिष्पन्न । एक प्रदेशी परमाणु पुद्गल से लेकर अनन्त प्रदेशी स्कंध पर्यन्त सर्व प्रदेशनिष्पन्न होता है। विभागनिष्पन्न पांच प्रकार का है। जैसे कि--मान प्रमाण १, उन्मान प्रमाण २, अवमान प्रमाण ३, गणित प्रमाण ४, प्रतिमान प्रमाण ५ । मान प्रमाण दो प्रकार का है। जैसे कि-धान्यमान प्रमाण
और रसमान प्रमाण । धान्यमान प्रमाण के उदाहरण निम्न प्रकार हैं:-दो असृतियों की (दो हथेलियों की) एक प्रसृति' होती है । संपुटाअलि नावाकार दो प्रमृतियों की एक 'सेतिका' होती है। चार सेतियों का एक 'कुड़व', चार कुड़वों का एक पाथा' (प्रस्थ ) होता है। और चार पाथों का एक 'पाढक'
और चार आढकों की एक 'द्रोणी' होती है । साठ पाढकोंका एक 'जघन्य कुंभ' होता है। अस्सी प्राढकों का एक 'मध्यम कुभ' और सौ श्राढकों का एक 'उत्कृष्ट कुंभ' होता है और आठसौ आढकों की एक 'वाह' होती है। ये सब प्रमाण मगध देश की अपेक्षा से कहा गया है । इस का प्रयोजन केवल इतना ही है कि जो धान्यों की कोठी, जिसका मुख ऊपर विस्तीर्ण नहीं होता, मध्य विस्तीर्ण होता है अथवा वंशमय पात्र अथवा दीर्घ कोटी इत्यादि स्थानों में उक्त प्रमाणों से धान्यों का प्रमाण किया जाता है। फिर उस के शान की निष्पत्ति होती है । इसे ही धान्यमान प्रमाण कहते हैं ।
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[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
ग्रथ रस प्रमाण विषय |
से किं तं रसमाप्रमाणे ? धन्नमाणप्पमाणओ चउभागविवडिए भित्तर सिहाजुत्ते रसमाण पमाणे विहिज्जइ तं जहा - चउसट्टिया ४, बत्तीसिया ८, सोलसिया १६, अट्टभाइया ३२, चउभाइया ६४, श्रद्धमाणी १२८, माणी २५६, दो चउसट्टियाउ बत्तीसिया, दो बत्तीसियाओ सोलसिया, दो सोलसियाओ अभाइया, दो अट्टभाइयाश्रो चउभाइया, दो चउभाइयाश्रो श्रद्धमाणी, दो अद्धमाणीश्र माणी। एएणं रसमाणप्यमाणेणं किं पत्रोय ? एएणं रसमाणप्पमाणेणं वारक १, घडक २, करक ३, कलस ४, कक्करिय५, दइय६, कुंडिए ७ करोड ८, संसियां रसागं रसमारगप्पमाणनिव्वत्तिलक्खणं भवइ । से तं रसमाप्यमाणे, से तं भाणे |
पदार्थ - ( से किराया ? ) रसमान प्रमाण किसे कहते हैं ? जैसे ( धत्रमण्यमाणशी ) धान्यमान प्रमाण से ( चरमा वेव) चतुर भाग अधिक और (त्रिसिहाजु भवइ ) अभ्यन्तर शिखा युक्त होता है क्योंकि रसमान प्रमाण द्रवीभूत होने से अभ्यन्तर शिखा युक्त ही होता है । इसको बाहर शिखा नहीं होती वह (रसमाणप्पमाणे) रस मान प्रमाण से चतुर्भागाधिक अभ्यन्तर शिखायुक्त होता है जैसे कि -- ( चउट्टिया ४ ) चार पल प्रमाण 'चतुष्वष्ठिका होती है (बत्तीसिया ८ :) आठ पल प्रमाण 'द्वात्रिंशिका' होती है ( सोलसिया १६ ) सोलह पल प्रमाण ' षोडशिका' और ( भाइया) द्वात्रिंशत् पल प्रमाण 'अष्ठभागिका' होती है ( चउभाइया ) चौंसठ पल प्रमाण 'चतुर्भागिका' ( श्रमणी ) एक सौ अट्ठाईस पल प्रमाण 'अर्द्धमानी' होती है और दो सौ छप्पन पल प्रमाण 'माणी' होती है । ( दो चउसट्ठियाम बत्तीसिया ) दो चतुःषष्टिका से एक 'बत्तीसी' होती है अर्थात् माणी का बत्तीसवां भाग होता है ( दो बत्तीसियाओ ) दो बत्तीसियों से ( सोलसिया ) मारणी का सोलहवां भाग होता है और ( दो सोलसिया श्री राभाइया) दो षोडशिकाओं से माणी
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[ उत्तरार्धम् ] का आठवां भाग होता है ( दो अठभाइयानो चरभाइया ) दो आठ भागिकाओं से एक चतुर्भागिका होती है ( दो चउभाइयाओ) दो चतुर्भागिकाओं से ( ग्रहमाणी ) अर्द्धमाणी होती है और (दो श्रदमाणीओ) दो अर्द्धमाणी से ( माणी) दो सौ छप्पन पल प्रमाण की एक माणी होती है ( एएणं रसमाणप्पमाणेणं किं पोयणं ? ) इस रस मान प्रमाण के कथन करने का प्रयोजन क्या है ? (एएणं रसमाणप्यमाणेणं वारक १, घडगर, करक ३, कलस ४, ककारिय ५, दइए ६, कुडिय ७, करोडिसंसियाणं रसाणं रसमागष्पमाणनिव्वत्तिलक्खणं भवइ, से तं रसमाणपमाणे । से तं माणे ) इस रसमान प्रमाणसे वारक घट, कलश, करक, गर्गरो-गागर, दृतिक-चम मयभाजन-मशक, कुडिका और कुडा इत्यादि के आश्रय भूत जो रस हैं उन रसों के रसमान प्रमाण की उक्त प्रमाण से ही सिद्धि होती है । इसी लिये इसे 'रस मान प्रमाण' कहते हैं ।
भावार्थ-रसमान प्रमाण धान्यमान प्रमाण से चतुर्भागाधिक होता है और उसकी श्राभ्यन्तर ही शिखा होती है । उसके लिये निम्नलिखित प्रमाण कथन किया गया है। जैसे कि चार पल प्रमाण चतुःषष्ठिका होती है, आट पल प्रमाण द्वात्रिंशिका, षोडश पल प्रमाण षोडशिका, द्वात्रिंशत् पल प्रमाण अष्टभागिका, १२८ पल प्रमाण अर्द्धमाणी और २५६ पल प्रमाण माणी होती है । अतः दो चतुः षष्ठिका की एक द्वात्रिंशिका और दो द्वात्रिंशिका की एक षोडशिका होती है। फिर दो षोडशिकाओं की एक अष्टभागिका, दो अष्टभागिकाओं की एक चतुर्भागिका, दो चतुर्भागिकाओं की एक अर्द्धमाणी और दो अर्द्धमाणियों की एक माणी होती है । यह सब मान मगध देश की अपेक्षा से है । इसका मुख्य प्रयोजन वारक, घट, करक, कलश, गर्गरी, दृति, कुडिका और कुडादि में जो रस भरा र हता है उसकी नाप जानना है । इसीलिये इसे 'रसमान प्रमाण' कहते हैं।
अथ उन्मान प्रमाणा विषय ।
से किंतं उम्माणे ? जगणं उम्मिणिजइ, तं जहा-अद्ध करिसो १, करिसो २, अद्धपलं ३, पलं ?, अद्धतुला ५, तुला ६, अद्धभारो ७, भारो ८, दो अद्धकरिसो करिसो, दो करिसो श्रद्धपलं, पंचुत्तर पलसइया तुला, दस तुलाईओअद्ध भारो,वीसं तुलाओ भारो,एएणं उम्माणप्पमाणेणं किं पोयणं?
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[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] एएणं उम्माणप्पमाणेणं पत्ता १, अगर २, तगर ३, चोयए ४, कुंकुम ५, खंड ६, गुल ७, मच्छंडियाइणं ८, दव्वाणं निव्वत्तिलक्खणं भवइ, से तं उम्माणे ।
पदार्थ--(से किं तें उम्माणे ? जएण उम्मिणिज्जाइ, तं जहा) उन्मान किसे कहते हैं ? जिस करके उन्मान किया जाता है उसे ही उन्मान कहते हैं। उसका प्रमाण निम्न प्रकार है:--( अहकरिसो १, करिसो २ ) पल के आठवें भाग को अर्द्ध कर्ष कहते हैं, पल के चौथे भाग का नाम कर्ष है और ( अदपलं पलं ) पल के अर्द्ध भाग का अर्द्ध पल कहते हैं और ( अहतुला तुला) अर्द्ध तुला, तुला ( श्रदभारो भारो) अद्ध भार और भार , ये सर्व अनुक्रम पूर्वक इस प्रकार हैं। जैसे कि--( दो भद करिसो करिसो) दो अर्द्ध कों का एक कर्ष (दो करिसो अपलं ) दो वर्षों का अर्द्ध पल
और ( दो अपिलं पतं ) दो अपलों का एक पल होता है अतः (पंचुत्तरपलस्सया तुला) १०५ पल की एक तुला होती है ( दसतुलाइयो अदभारो) दश तुला का अर्ध भार
और ( वीसंतुलाओ भारो) बीस तुला का एक भार होता है। (एएणं उम्माणप्पमाणेण किं पज्यणं) ? इस उन्मान प्रमाण के कथन करने का क्या प्रयोजन है ? (एएणं उम्माणप्पनाणेणं पता अार तगर चाय! कुंभ संड गुड मच्छडियाइण दवाणं) इस उन्मान प्रमाण से पत्र, अगर, तगर, चोक-औषधविशेष-कुंकुम, केशर, खांड़, गुड़, मिसरी,
आदि द्रव्यों की ( उन्माणप्रमाणनिवत्तिलक्खा भवइ ) उन्मान प्रमाण से सिद्ध होती है ( से तं उम्माणे ) उसे ही उन्मान प्रमाण कहते हैं ।
भावार्थ-उन्मान प्रमाण उसका नाम है जिसके द्वारा पदार्थों का उन्मान किया जाता है और पदार्थ उन्मान प्रमाण में स्थापन किये जाते हैं। जैसे कि-- अद्धकर्ष १, कर्ष २, अर्द्ध पल , पल ४, अर्द्ध तुला ५, तुला ६, अर्द्धभार ७, भार = दो अर्द्धकर्षों का एक कर्ष होता है, दो कर्षों का अर्द्ध पल होता है, दो अलपलों का एक पल होता है, १०५ पलों का एक तुला होता है और दश तुलाओंका अर्द्ध भार होता है । सो इस प्रमाण का मुख्य प्रयोजन यह है कि-जो पत्र, अगर, तगर, चोक, कुकुम, खांड, गुड़, मिसरी आदि द्रव्य हैं उनके प्रमाण की सिद्धि की जाती है । इसी लिये इसे उन्मान प्रमाण कहते हैं।
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[ उत्तरार्धम् ] अथ ग्रवमान और गणित प्रमाण विषय |
से किं तं प्रवमाणे ? जराणं अवमिणिज्जइ, तं जहां हत्थेण वा १, दंडेण वा २, धगुण वा ३, जुगेण वा ४, नालि या वा ५ अक्खेण वा ६, मूसलेण वा ७, दंडं धरण जुगनालियं अक्खमुसलं च चउहत्थं दस नालियं च रज्जु बिया -
ओ उम्माणसंन्नाए १ वत्थुमिहत्थमिज्जं च्छेत्तं दंडं धणुं च पत्थमिखायं च नालिए वियाण उम्माणसंन्नाए । एएणं वाणपमाणेणं किं पउयणं । एएवं प्रवमाणप्पमागेणं खायचियकरकवियक डपडभित्तिपरिक् वेव संसि - याणं दव्वाणं श्रवमाणपमाणनिव्वत्तिलक्खणं भवइ, से तं अत्रमाणे । से किं तं गणिमे ? जेणं गणिज्जइ, तं जहा - एगो - दस सय सहस्सं दससहस्सं सहसहस्सं दस सय सहस्साई कोडी । एए कम्मे गणिमप्पमाणेणं किं पउयणं । एए गणिमप्यमाणं भयगभइभत्तवेयणश्रायव्वयनिस्सि
याणं दव्वाणं गणिमप्पमाणेणं निव्वत्तिलक्खणं भवइ, सेतं गणि ॥ ४ ॥
पदार्थ - (से किं तं अत्रमाणे ? जत्र अवमिणिज्नद्द, तं जहा ) अवमान किसे कहते हैं ? जिसके द्वारा श्रवमान किया जाय उसे अवमान कहते हैं । यह सर्व कथन कर्मसाधन अपेक्षा से किया जाता है। जैसे कि -- (हत्थे वा ) चतुविंशति अंगुल प्रमाण हस्त होता है उस हस्त करके पदार्थों का अवमान किया जाता है ( दंडे वा ) चार हस्त प्रमाण दंड होता है, उस दंड करके अथवा ( धणुए 1) धनुष करके ( जुगेण वा ) युग करके ( नालियाए वा ) नालिका करके ( अक्खेण वा ) अक्ष करके ( मूसले वा) मुशल करके, सो यह सर्व (दंडं धणुं जुग नालि । श्रक्ख मुसलं व चउहृत्थं) दंड, धनुष, युग, नालिका, अक्ष, मुशल, इन छहों की एक ही संज्ञा है, और ये सर्व चार हस्त प्रमाण होते हैं, अथवा धनुष के छह नाम हैं । ये सर्व ८६ अंगुलप्रमाण
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[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] होते हैं और ( दसनालिये च रजतु ) दश नालिका से एक रज्जु उत्पन्न होती है । अर्थात रन्जु दश नालिका प्रमोण होती है 'सो (वियाण अवमाणसंनाए ? ) इस प्रकार से जानना चाहिये । यही अवमान की संज्ञा है। ( वधुमिहत्थमिज्नं ) हाट, वास्तु, घर, यावन्मात्र भूमि गृह हैं । वे सर्व भूमि गृह हस्तादि से गिने जाते हैं । इसलिये सूत्र में हस्त शब्द आया है और (च्छेतं दंड) क्षेत्र कृषि कर्मादि विषयक भूमि का मान दंड से किया जाता है । (धणुं च पंथमि ) धनुष से पंथादि का मान किया जाता है, जैसे कि जब मार्ग का प्रमाण किया जाता है तब धनुष आदि के द्वारा ही मान करते हैं और ( खायं च नालियाए) खाई कूप आदि का प्रमाण नालिका से किया जाता है तथा नालिका प्रमाण दंड से किया जाता है (वियाण अवमाणसंनाए ) इस प्रकार अवमान प्रमाण में दंडादि का प्रमाण जानना चाहिये । अवमान संज्ञा इन्हींकी जाननी चाहिये । (एएणं अवमाणमाणेणं किं पयोयणं)? इस अवमान प्रमाण के कहने का क्या प्रयाजन है, (एएणं अवमा एपमार्णण ) इस अवमान प्रमाण से (खाय) खाई कूपादि (चय ) इट्टादि वित प्रासाद ( करकावय ) करवत से विदारित काष्ठादि (कड) कट मंचादि ( पड ) वस्त्र (भित्त) भात (परि. क्खेव ) नगरादि की परिधि (संसियाणं दवाणं अवमाणप्पमाणनिव्वत्तिलक्खणं भवड ) इत्यादि के आश्रित द्रव्यां के अवमान की जो सिद्धि निष्पन्न होती हैं ( से तं अवमाणे) वही अवमान प्रमाण है अर्थात् उक्त स्थानों में जो भूमि वा द्रव्य हैं उनका नाप उक्त प्रमाण से किया जाता है, इसीलिये इसे अवमाण प्रमाण कहते हैं और उक्त पदार्थों के ज्ञान को प्राप्त होना, यही इसका लक्षण है (से किं तं गाणमे ? जेणं गणिज्जइ, तं जहा) गणिम प्रमाण किसे कहते हैं ? गगिम प्रमाणके द्वारा गणना की जाती है । यह कथन भी कर्मसाधन की अपेक्षा से ही है। जैसे कि (एगो दस सय) एक-६,दश-१०,सौ-१००, ( दससहस्सं ) दश सहस्र १०००० (सयसहस्सं ) एक लाख १००००० (दससयसहस्साई) दश लक्ष १०००००० (कोडी) क्रोड १०००००००, ये सब गणनाएँ दशगुणा करने से होतो हैं ( एएणं कम्मेणं गणिमप्पमाणेणं किं परएणं ? ) इस अनुक्रम गणिम प्रमाण से क्या प्रयोजन है ? ( एएणं गणिमप्पमाणेणं ) इस गणिम प्रमाण से ( भयगभइभत्तवेयण) भृतक वृत्ति, भोजन देना और वेतन देना अथवा (आयव्यय) आमदनी और खर्च (निस्सियाणं दवाणं गणिमप्पमाणेणं निव्वत्तिलक्खणं भवा , से तं गणिम) इनके आश्रित जो भृतकों को वेतनादि जो दिये जाते हैं वे सर्व गणिम प्रमाण के द्वारा ही कार्य सिद्ध होते हैं तथा आय व्यय का जो मूल साधन है वह भी गणिम प्रमाण के द्वारा ही सिद्ध है और सांसारिक व्यवहार सर्व गणिम प्रमाण के ही आश्रित हैं। सूत्र में करोड पर्यन्त गणना की गई है किन्तु सर्व सख्या १९४ अक्षर पर्यन्त है।
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[ उत्तरार्धम् ]
भावार्थ-- श्रवमान प्रमाण के द्वारा वस्तुओं का प्रमाण किया जाता है । जैसे कि - हस्त से १ दंड से २, धनुष से ३, युग से ४, नालिका से ५, अक्ष से ६, ओर मुशल से ७ । हस्त का प्रमाण २४ अंगुल का होता है और दंडादि छों, चार हस्त प्रमाण होते हैं । भूमि, गृह आदि का हस्तादि सेवमान किया जाता है । क्षेत्र कृषि कार्यादि के वास्ते दंडादि से प्रमाण किया जाता है। राजमार्ग को धनुषके द्वारा मान करते हैं। खाई और कृपादि स्थान का नाना नालिका से किया जाता है। अतः इनके कथन का मुख्य प्रयोजन यही है कि खाई, इष्टकादि से प्रासाद का बनाना, काष्ठादि का विदारण, कट, पट, भीति, परिधि इत्यादि की सिद्धि अवमान प्रमाण के द्वारा की जाती है तथा उक्त स्थानों में जो द्रव्य आश्रित हैं उनका प्रमाण भी उक्त प्रमाण के ही द्वारा होता है। इसी को अवमान प्रमाण कहते हैं । और गणिम प्रमाण निम्न प्रकार से है । जैसे कि एकर, दश १०, सौ १००, सहस्र १०००, दश सहस्र १००००, लक्ष १०००००, दश लक्ष १०००००२, कोटि १०००००००, इनको उत्तरोत्तर दशगुणा करने से निश्चितार्थ की सिद्धि होती है और इसका मुख्य प्रयोजन | भृतक आदिकों को वेतन देना और अपनी आय व्यय की सँभाल करना है । इसी का गणिम प्रमाण कहते हैं । तथा यावन् मात्र द्रव्य हैं उनकी भी संख्या उक्त प्रमाण द्वारा हो की जाती है ।
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अथ प्रतिमान प्रमाण विषय |
से किं तं पडिमा ? जपणं पडिमिणिज्जइ, तं जहा गुंजा १, कांगणी २, शिफावो ३, कम्ममास ४. मंडलो ५, सुवन्नो ६, पंच गु ंजा कम्ममास, चत्तारि कांगणी
कम्ममा तिरिण निफ्फावो कम्ममासझो, एवं च उको कम्ममास, वारस कम्ममास मंडल, एवं भडयासाय कांगली मंडलो, सोलस्स कम्ममासगा सुवन्नो, एवं चउसट्टिए कांगणी सुवन्नो, एएं पडिमा -
माणं किं पयणं । एएणं पडिमाणप्पमाणेणं सुवण १,
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[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] रजत २, तंब ३, मणि ४, मोत्तिा ५, संक्ख ६, सिलप्पवालाइयाणं ७ दव्वाणं पडिमाणप्पमाणनिव्वत्तिलक्खणं भवइ । सेतं पडिमाणे से तं विभाग निप्फन्ने । से तं दव्वप्पमाणे॥
पदार्थ-(से कि तं पडिमाणे ? जएणं पडिमिणिज्जइ, सं जहा-) पूतिमान किसे कहते हैं ? जिस करके सुवर्ण आदि पदार्थों का मान किया जाता है उसे 'प्रतिमान' कहते हैं जैसे कि-(गुजा) रक्तिका १ ( कागणी ) सपाद गुजा को 'काकणो' कहते हैं २, ( निप्फावो) त्रिभागोन दो गुजाओं के प्रमाण को 'निष्पाव' कहते हैं ३, (कम्ममासो) तीन निष्पावों का एक 'कर्ममाषक' होता है , ( मंडन श्री ) द्वादश कर्ममापकों का एक 'मंडल' होता है ५, ( सुवन्नो ) षोडश कर्म माषकों का एक 'सुवर्ण' होता है अर्थात् षोडश कर्ममाषकों का एक सोनईया होता है ६ । उक्त अर्थो को सूत्र ही विस्तारपूर्वक कहता है जैसे कि--(पंचगुंजायो काममासनो) पांच रक्तिकाओं का एक कर्म मापक होता है अथवा ( चत्तारि कांगरणीनो कम्ममासओ) चार कांकणियों का एक कर्ममापक होता है, (तिरिण निप्फावो कम्ममासो) तोनों निष्पावों का एक कममाषक होता है ( एवं चउको कम्ममासो) इसी प्रकार चार कांकणिओंका एककर्ममाषकहोता है । ऊपर जो तीनों प्रकार से कर्ममाषक का विवरण किया गया है उसमें जिस कर्ममाषक को कहने को वक्ता की इच्छा हो उसे ही ग्रहण करके एक इष्ट कार्य की सिद्धि कर लेता है। इसीलिये अर्थ के भेद न होने से उसे चतुष्क कर्ममाषक' कहते हैं। ( वारसकाममासमो मंडलो) द्वादश कममाषकों का एक 'मंडलक' होता है (एवं अडयालीसाय कांगणिो मंडली ) इसी प्रकार अड़तालीस कांकणियों का भी एक मंडलक होता है (सोलस काममासगो सुवन्नो) षोडश कर्ममाषक का एक सुवर्ण होता है (एपं चउठिए कांगणोनी मुवन्नो ) इसो प्रकार चौंसठ काकणियों का भी एक सुवर्ण हाता है ( एएणं पडिमाणप्पमाणेणं किं पयोयणं ? ) इस प्रतिमान प्रमाण के वर्णन करने का क्या प्रयोजन है ? ( एएणं पडिमाणप्पमाणे ) इस प्रतिमान के द्वारा ( सुवराण ) सुवर्ण ( स्यय ) रजत (तब ) ताम्र ( मणि ) मणि चन्द्रकान्तादि ( मोत्तिय ) मोती ( संक्ख ) संख (सिलप्पवालाइयाणं) शिला-राजपट्टक गंध, प्रवाल आदि ( दव्याण पडिमाणप्पमाणनियत्तिलक्खणं भवइ ) द्रव्यों के प्रतिमान प्रमाण की सिद्धि की लक्ष्यता होती है और यही इसकी सिद्धि का लक्षण होता है ( स तं पाहमा ) इसे ही प्रतिमान प्रमाण कहते हैं (से तं विभागनिष्फन
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[ उत्तरार्धम् ] यही विभाग निष्पन्न प्रमाण है और (से तं दवप्पमाणे) यही द्रव्य प्रमाण का विवरण है अर्थात् पांच विध से विभागनिष्पन्न द्रव्य प्रमाण का समर्थन किया गया।
भावार्थ-प्रतिमान प्रमाण उसे कहते हैं जिसके द्वारा सुवर्णादि पदार्थों का मान किया जाता है। जैसे कि-गुजा १, कांगणी २, निष्पाव ३,कर्ममाषक ४, मंडलक ५,सुवर्ण ६ । इनका प्रमाण निम्न प्रकार से है-पांच गुजा का कर्ममाषक होता है तथा चार कांगणी का भी कर्ममाषक होता है तथा तीनों प्रमाणों से गृहीत वक्ता की इच्छानुसार चतुर्थ संशक कर्म माषक है तथा चार कांकणी प्रमाण जो कर्ममाषक वर्णन किया गया है उन द्वादश कर्ममाषकों का एक मण्डलक होता है अड़तालीस कांकणियों को एक मंडल होता है और षोडश कर्म माषको का एक सुवर्ण ( सोनइया ) होता है अथवा चौसठ कांकणियों का एक सुवर्ण होता है। इस प्रमाण के कथन करने का मुख्य प्रयोजन सुवर्ण १, रजत २, ताम्र ३ मणि ४, मोती ५, संख ६ आदि पदार्थों के मान करने का ही है इसे प्रतिमान प्रमाण कहते हैं। इसे ही विभागनिष्पन्न प्रमाण कहते हैं * ।
नोट:-किन्तु यह प्रमाण मगध देश के अनुसार कहा गया है । इरा लिये चरक, सुश्रत, बाग्म',
भावप्रकाश श्रादि के अनुसार मगधदेश का मान जो शाङ्ग धर ने प्रहण किया है उसको भी हम यहां पर उद्ध त करते हैं । यथा:
औषधों के मान की परिभाषा। न मानेन विना युक्तिव्याणां ज्ञायते कचित् ।
अतः प्रयोगकार्यार्थ मानमत्रोच्यते मया ॥ १४ ॥ अर्थ-मान परिमाण के विना औषधों की युक्ति-कर्तव्य विधि कहीं नहीं होती । अतएव औषध बनाने के लिये मान-तोलने श्रादि की विधि इस संहिता में कही जाती है:
त्रसरेणु का परिमाण । त्रसरेणुर्बुधैः प्रोक्तस्त्रिंशता परमाणुभिः ।
त्रसरेणस्तु पर्यायनाम्ना वंशी निगद्यते ॥ १५ ॥ अर्थ-तीस परमाणुओं का 'त्रसरेणु' होता है और उसी को 'वंशी' भी कहते हैं । अन्यत्र भी कहा गया है कि-'जालान्तर्गतैः सूर्यकरवंशी विलोक्यते' अर्थात् जाली झरोखों में जो सूर्य की किरणों में रज उड़ती हुई दीखती हैं उसको वंशी कहते हैं । वे नेत्रों करके नहीं जाने जाते ।
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१२
[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
परमाणु के लक्षण । जालान्तर्गते भानौ यत्सूक्ष्मं दृश्यते रजः ।
तस्य त्रिंशत्तमो भागः परमाणुः सः उच्यते ॥ १६ ॥ अर्थ-जाली झरोखे में सूर्य की किरण उड़ते हुए दीखते हैं उस रज के तीसवें भाग को 'परमाणु' कहते हैं ।
मरीचि आदि का परिमाण । षड्वंशीभिर्मरीची स्यात्ताभिः पभिस्तु राजिका ।
तिसभी राजकाभिश्च सर्पपः पोच्यते बुधैः। ___ यवोऽष्टसर्पपैः प्रोक्तो गुजा स्याच्च चतुष्टयम् ॥ १७ ।। अर्थ-छह वंशी की एक 'मरीची', जो रेतीली जमीन में धल के बारीक कण सूर्य की किरणों से चमकते हैं, होती है । छह मरीचियों की एक 'राई', तीन राई को एक सफेद सरसों होती है, अाठ सफेद सरसों का एक 'यव' होता है और चार यव की एक 'गुञ्जा'-'रत्ती'-'घोघची' होती है।
मासे का परिमाण । पभिस्त रत्तिकाभिस्स्यान्माषको हेमधान्यको । अर्थ-छह रत्ती का एक 'मासा' होता है* । उसको 'हम' और 'धान्यक' भी कहते हैं।
शाण और कोल का परिमाण । मायुश्चतभिः शाणः स्यात् हरणः स निगद्यते ॥ १८ ॥ टंकः स एव कथितस्तवयं कोल उच्यते।
तद्रभो चटकश्चैव द्रंक्षणः स निगद्यते ॥१६॥ अर्थ-चार मासे का 'शाण' होता है उसको 'हरण', 'टंक' भी कहते हैं । जहां जहां मासा श्रावे वहां वहां छह रत्तीका मासा जानना । दो शाण का एक 'कोल होता है। उसको 'क्षुद्रम', 'वटक', और 'क्षण' भी कहते हैं। कोल नाम वेर का है, उसके बराबर होने से इस मान की कोल संशा रक्खी है। नोटः-कोई पांच रत्ती का, कोई सात रत्ती का और कोई दस रसी का भी ‘मासा'
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[ उत्तरार्धम् ]
कर्ष का परिमाण । कोलद्वयं च कर्षः स्यात् स प्रोक्तः पाणिमानिका । अत्तपिचुः पाणितलं किंचित् पाणिश्च तिन्दुकम् ॥२०॥ विडालपदकं चैव तथा षोडशिका मता।
करमध्यं हंसपदं सुवर्णकवलग्रहम् । ___ उदुंबरं च पर्यायैः कर्ष एव निगद्यते ॥ २१ ॥
अर्थ-दो कोल का का एक 'कर्ष' होता है, उसको 'पाणिमानिका', 'अक्षपिचु', 'पाणितल', 'किंचित्पाणि', 'तिंदुक', 'विडालपदक', पोडशिका', 'करमध्य', 'हंसपदक', 'सुवर्ण', 'कवल' और 'उदुयर' भी कहते हैं अर्थात् यह १३ नाम उसी कर्ष के हैं । अक्ष नाम बहेड़े का है, उसके बराबर होने से इसे कर्ष को अत कहते हैं । तेंदु के फल समान होने से उसकी तेंदुक संशा है । हथेली भरकी पाणितल संशा है । तीन अंगुली करके ग्राह्य है, अतएव इसकी विडालपद संज्ञा है । सोलह मासे का होता है, इस कारण इसकी पोडशिका संज्ञा होती है और गूलर के समान होने से इस कर्ष की उदुवर संशा श्राचार्यों ने की है। इसी प्रकार जितनी संज्ञा इस परिभाषा में है, वे सब सार्थक है। आजकल व्यवहार में उस कर्ष को 'तोला' कहते हैं। सोने, चांदी, हीरा, मोती आदि बह मूल्य चीजें इससे तोली जाती हैं, इसलिये; अथवा मन, सेर, छटांक आदि तोलने के बांट इसी के आधार से बनाये जाते हैं, इसलिये भी इसको तोला' कहते हैं।
अर्द्ध पल और पल का परिमाण । स्यात् कर्षाभ्यामर्द्ध पलं शुक्तिरष्टमिका सथा। शुक्तिभ्यां च पलं शेयं मुष्टिरानं चतुर्थिका ।
प्रकुचः षोडशी विरूपं पलमेवात्र कीत्यते ॥२२॥ अर्थ-दो कर्ष का एक 'श्रीपल' होता है, उसी को शुक्ति-सीप और 'अष्टमिका' कहते हैं। दो शक्ति का पल होता है। उसको 'मुष्टि', 'श्राम्र', 'श्राम्रफल', 'चतुर्थिका', 'प्रकुञ्च', 'षोडशी' और 'बिल्व' भी कहते हैं ।
प्रस्मृति से मानिका पर्यन्त को परिमाण । पलाभ्यां प्रसूतिज्ञेया अमृतश्च निगद्यते । प्रमृतिभ्यामञ्जलिः स्यात् कुडवो अर्द्धशरावकः ॥२३॥
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१५
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम ] अष्टमानं च संशेयं कुडघाभ्यां व मानिका ।
शरावोऽष्टपलं तद्वज्ज्ञ यमत्र विचक्षणः ॥ २४ ॥ अर्थ-दो पल की 'प्रसूति' होती है । उसी को प्रसृत भी कहते हैं। दो प्रसतिकी एक 'अञ्जलि' होती है। उसी को 'कुडव', 'पाव सेर' 'अर्धशरावक' और 'अष्टमाननी' कहते हैं । दो कुडव की एक 'मानिका' होती है । उसको 'शराव' + और 'अष्टपल' भी कहते हैं।
प्रस्थ और आढक का परिमाण । शरावाभ्यां भवेत्तस्थः चतुःप्रस्थैस्तथाढकम् । .
भाजनं कंसपात्रं च चतःषष्टिपलं च तत् ।। २५ ।। अर्थ-दो शराव का एक 'प्रस्थ'-सेर होता है । चार सेर का एक 'आढक' होता है । उसको 'भाजन' और 'कंसपात्र' भी कहते हैं । यह चौसठ पल का होता है। द्रोण से लेकर द्रोणी पर्यन्त का परिमाण ।
चतुर्भिराढोणः कलशोनल्बणोन्मनौ । उन्मातश्च घटो राशिट्टैणपयायसंज्ञकाः ॥ २६ ॥ द्रोणोभ्यां शूर्पकुम्भी च चतःषष्टिशरावकाः ।
शूपाभ्यां च भवेद्रोणी वाहो गोणी च सा स्मृता ।। २७॥ अर्थ-चार आढक का एक 'द्रोण' होता है । उसको 'कलश', 'घट' और 'राशिभी कहते हैं । दो द्रोण का 'सूर्प'-सूप होता है। उसको 'कुभ' भी कहते हैं। उस सूर्पके चौंसठ शराव होते हैं । एव दो सूर्प की एक 'द्रोणी' होती है । उसको 'वाह' और 'गोणी' भी कहते हैं !
खारी का परिमाण । द्रोणीचतुष्टय' खारी कथिता मूक्ष्मबुद्धिभिः ।
चतुःसहस्रपलिका पएणबत्यधिका च सा ॥ २८ ॥ अर्थ--चार द्रोणी की एक 'खारी' होती है। उसके चार हजार छयानवे पल होते हैं।
भार और तुला का परिमाण । पलानां द्विसहस्र च भार एकः प्रकीर्तितः ।
तुला * पलशतज्ञ या सर्वत्र वैष निश्चयः॥ २६ ॥ नोट+:-१२८ टंक का एक शराव होता है। नोट:-तुला पलशतं तासां विंश, तर्भार उच्यते । खारी भारद्वये नैव स्मृता षड् भाजनाधिका ॥
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१५
[ उत्तरार्धम् ] अर्थ-दो हजार पल का एक 'भार' होता है और सौ पल की एक 'तुला' होती है । यह तोल केवल मगध देश में ही नहीं किन्तु सम्पूर्ण देश में मानी जाती है।
सब मानों का परिमाण । मापटंकाक्षविल्वानि कुडवः प्रस्थमाढकम् ।
राशिर्गोणी खारिकेति यथोत्तरचतुर्गुणा ॥ ३० ॥ अर्थ--मासे से लेकर खारी पर्यन्त एक से दूसरी तोल चौगुनी जाननी चाहिये । जैसे ४ मासे का एक शाण, ४ शाण को एक कर्ष, ४ कर्ष का एक बिल्व, ४ विल्व की एक अञ्जलि, ४ अञ्जलि का एक प्रस्थ.४ प्रस्थ का एक आढक, ४ आढक की एक राशि, ४ राशि की एक गोणी, ४ गोणी की एक खारी और इसी प्रकार आगे भी एक मान से दूसरी तौल चौगुनी जाननी चाहिये । गीली, सूखी और दूध आदि पतली वस्तुओं का परिमाण
गुजादिमानमारभ्य यावत्स्यात्कुडवस्थितिः । द्रवाशुष्कद्र ब्याणां तावन्मानं समं मतम् ।। ३१ ॥ प्रस्थादि मानमारभ्य द्विगुणं तवाद्योः ।
मानं तथा तुलायास्तु द्विगुणं न कचिन्मतम् ॥ ३२ ॥ अर्थ-जल श्रादि पतले पदार्थ तथा गीली औषधि लेनी हो तो प्रस्थ से लेकर तुला पर्यन्त इनकी तोल सूखी औषधि की अपेक्षा दुगुनी लेवे तथा तुला से लेकर द्रोण पर्यन्त इनको दुगुना लेवे, अतएव इनका मान सूखी औषधि के समान लेवे । इस अभिप्राय को स्नेहपाक में प्रायः मानते हैं। तत्काल की लाई हूई औषधि को गीली कहते हैं । जो धूप में सुखा ली हो अथवा बहुत दिन की रक्खी हुई हो उस औषधि को शुष्क कहते हैं ।
कुडव पात्र बनाने की रीति । मृ दस्तुबेणुलोहादेर्भाण्डं यच्चतुरङ गुलम् ।
‘विस्तीर्णं च तथेच्चं च तन्मानं कुडवं बदेत् ॥ ३३ ।। नोट:-रक्तिकादिषु मानेषु यावत्र कुलयो भवेत ! शुष्कदव्यागोस्तावत्ता मानं प्रकीर्तिम् ॥१॥
प्रस्थादिमानमारभ्य द्रव्यादिगिगारिला । कुतोऽपि कचिद् हः यथा दन्ती धृते मतः ॥२॥ शुप्कद्रव्यस्य या मात्रा वा स्य द्विगुणा हि सा । शुष्कस्य गुरुतीक्ष्णत्वात्तस्माद) प्रयोजयेत् ॥३॥
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[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] अथ क्षेत्र प्रमाणा विषय।
से किं तं खेत्तप्पमाणे ? दुविहे पण्णत्ते तं जहा-पएस णिप्फणेय विभागणिप्फणेय। से किं तं पएसनिप्फन्ने ? एगपए सोगाढे, दुपएसोगाडे, संखिज्जप०, असंखिज्जप. से तं पएसनिप्पन्ने। से कि तं विभागनिप्पन्ने ? अगुल विहत्थी रयणी कुत्थी गाउयं च बोधव्वं जोयण सेढीपरं लोगम लोगे वियतहेव ॥२॥
पदार्थ-(मे कि तं खेत्तप्पमाणे? दुविहे पण्णते, तं जहा। क्षेत्र प्रमाण किसे कहते हैं? क्षेत्र प्रमाण दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, जैसे कि-(पएसनिप्फन य विभागणिकत्र य) प्रदेश निष्पन्न और विभाग निष्पन्न (से कि त पएसनिप्फनय ? एगपएसोगाई दुपर सो गाहे संखिजपएसोगाडे असंखेजपरसोगाडे, से तं पर सनिप्फत्र) प्रदेश निष्पन्न किस प्रकार से होता है ? जैसे कि-एक प्रदेशावगाही पुद्गल, द्विप्रदेशावगाहो, संख्यात प्रदेशावगाहो, असंख्यात प्रदेशावगाही द्रव्य । ये सर्व प्रदेशनिष्पन्न हैं। क्यों कि प्रदेश निर्विभाग है । उस में द्रब्य यावन्नात्र प्रदेशों पर ठहरता है । इस अपेक्षा से प्रदेश निष्पन्न क्षेत्र प्रमाण होता है । (से किं तं विभागनिप्फन्ने ? अगुल विहत्थी रयणी कुत्थी) विभाग निष्पन्न किसे कहते हैं ? जो क्षेत्र के विभाग से उत्पन्न हो, उसे विभाग रूप क्षेत्र कहते हैं। जैसे कि-अंगुलो प्रमाण जो क्षेत्र है, उसे अंगुल कहते हैं इसी प्रकार वितस्ती हस्त कुक्ष (गाउयं च बोधव्वं) और कोश भी जानना चाहिये
अर्थ-चार अंगुल लम्बा, चार अंगुल चोंडा तथा चार अंगुल गहरा, बांस अथवा लोह आदि के पात्र को 'कुडव' कहते हैं । श्रादि शब्द से यहां पर सोना, चांदी, तांबा, जस्त, रांग, कांसा, शीशा, चाम, सींग, दांत भी लिये जाते हैं । इसके द्वारा दूध, जल, तेल, घृत नापा जाता है।
औषधों का नामकरण । यदौषधं त प्रथमं यस्य योगस्य कथ्यते ।
तन्नाम्नैव स योगो हि कथ्यतेऽसो विनिश्चयः ॥ ३२ ।। अर्थ--जिस प्रयोग में जो प्रथम औषधि है उसी औषधि के नाम से वह प्रयोग कहलाता है । जैसे क्षुद्रादि, गुडूच्यादि क्वाथ । इनमें प्रथम कटेरी, रास्ता और गिलोय है । इसी कारण क्षुद्रादि काढ़ा, रास्तादि काढ़ा और गुडच्यादि काढ़ा कहलाता है । इसी प्रकार चंदनादि तैल, कूष्मांड पाक, हिंग्वष्टक चूर्ण आदि में भी जानना चाहिये।
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[ उत्तरार्धम् ] तथा (जोजण) योजन (सेढी) श्रेणि (पयरं) प्रतर (लोग) लोक (अलोगे वि य तहेब) अलौक । अपिशब्द समुच्चय अर्थ में हैं । इसलिये लोकालोक भो इसो प्रकार जानना चाहिए ।
भावार्थ-क्षेत्र प्रमाण दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है। जैसे कि प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न । एक प्रदेश-अवगाही परमाणु से लेकर असंख्यात-प्रदेश अवगाही द्रव्यपर्यन्त प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्र प्रमाण होता है । यद्यपि द्रव्य स्वगुण में प्रमेय है तथापि क्षेत्र सम्बन्ध को अपेक्षा से उसे क्षेत्र प्रमाण ही कहा जाता है। विभागनिष्पन्न-अंगुल १, वितस्ती २, हस्त ३, कुक्ष ४, धनुष ५, कोश ६, योजन ७, श्रेणि ८, प्रतर ६, लोक १०, और अलोक ११, ये सब विभागनिष्पन्न क्षेत्र प्रमाण के उदाहरण है।
अक अंगुल विषय। से किं तं अंगुले ? तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-आर्यगुले उस्सेहंगुले पमाणंगुले । से किं तं आयंगुले ? जेणंजया मणुस्सा भवंति, तेसिणं तयाअप्पाअंगुलेणं. दुवालसअंगुलाइं मुह, नवमुहाइं पुरिसेपमाणजुत्तेभवइ,दोरिणए पुरिसे माणजुत्ते भवइ, अद्धभारं तुल्लमाणे पुरिसे उम्माणजुत्ते भवइ, माणुम्माणप्पमाणजुत्तालक्खणवंजणगुणेहिं उववेया। उत्तमकुलप्पसूया उत्तमपुरिसा मुणेयव्वा ॥ हुंति पुण अहियपुरिसा अट्ठसयं अंगुलाण उच्चिद्धा। छण्णउइ अहम्म पुरिसा, चउत्तरं मज्झिमिल्लाओ॥ हीणा वा अहिया वाजे खलु सरसत्तसारपरिहीणा । ते उत्तमपुरिसाणं अवसा पेसत्तणमुवेंति॥एएणं अंगुलपमाणेणं छ अंगुलाई पायो, दो पायाउ विहत्थी, दो विहत्थीओ रयणी, दो रयणीओ कुच्छी,
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] दो कुच्छीओ दंडं, धणुजुगेनालियाअक्खमूसले, दो धणुसहस्साई गाउयं, चत्तारि गाउमाई जोअणं । एएणं अंगुलप्पमाणेणं किं पयोयणं ? एएणं अंगुलेणं जे णं जया मणुस्सा हवंति तेसि णं तया णं आयंगुलेणं अगडतलागदहनदीवाविपुक्खरिणीदीहियगुंजालियाओ सरसरपंतिआयो विलपंतिआयो आरामुज्जाणकाणणवणवणसंडवणराईओ देउलसभापवाथूभखाइअपरिहानो पागारअट्टालयचरियदारगोपुरपासायघरसरणलयणश्रावणसिंघाडगतिगचउक्कचउमुहमहापहपहासडगरहजारगजुग्गागिल्लिथिल्लिसिवेयसंदमाणिआयो लोहीलोहकडाहकडिल्लयभंडमत्तोवगरणमाईणि, अज्जकालियाई च जोयणाई मविज्जति, से समासो तिविहे पण्णते, तं जहा-सूईअंगुले, पयरंगुले, घणंगुले, अंगुलायया एगपएसिया सेढी सूईअंगुले, सूई सूई गुणिया पयरंगुले. पयरं सूइए गुणियं घणअंगुले, एएसि णं सूईअंगुलं पयरंगुलं, घणअंगुलाणं कयरे कयरे हिंतो अप्पा वा बहु वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? सवत्थोवे सूईअंगुले, पयरंगुले असंखेज्जगुणे, घणअंगुले असंखेज्जगुणे, से तं आयंगुले ॥ . पदार्थ-(से कि तं अंगुले ? तिविहे पएणते, तं जहा-) अंगुल कितने प्रकार से वर्णित है ? तीन प्रकार से वर्णन किया गया है। जैसे कि-(प्रायंगुले १, उम्सेहं गुले २, पमाणंगुले ३) आत्मांगुल १, उत्सेधांगुल २, और प्रमाणांगुल ३ (से किं तं भायंगुले ? ) आत्मांगुल किसे कहते हैं ? (जे णं जया मणुस्सा हवंति) जिस काल में जो
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[ उत्तरार्धम् ]
भरत सगर आदि प्रमाणयुक्त मनुष्य होते हैं, उस काल को अपेक्षा से उनका आत्मांगुल ग्रहण होता है। क्योंकि-'आत्मनामंगुलमात्मांगुलम्' जो आत्मा का अंगुल है वहो आत्मांगुल होता है । तात्पर्य-जिस काल में जोजोव उत्पन्न होते हैं उस काल में उनका आत्मांगुल कहा जाता है। ( तेसिंणं तया अप्पणो अंगुलेणं दुवालस्स अंगुलाई मुहं ) उन भरत सगरादि मनुष्यों का अपने अपने अंगुल से द्वादश अंगुल प्रमाण मुख होता है (मत्रमुहाई पमाणजुत्ते पुरिसे भवइ ) नव-मुख-प्रमाण-युक्त पुरुष होता है अर्थात् एकसौ आठ अंगुल प्रमाण पुरुष होता है । (दोरिणए पुरिसे माण जुत्ते भवड ) मान युक्त उसे कहते हैं, जैसे-किसी व्यक्ति को एक विस्तार पूर्वक मानोपेत जलकुण्ड में बैठा दिया, फिर उसके अनन्तर द्रोणिक प्रमाण जल उस कुण्ड से निकाल लिया, उसे 'द्रोणिक पुरुप' कहते हैं। तथा द्रोण परिमाण न्यून जल कुण्डिका में पुरुष के प्रवेश होने पर कुण्डिका पूर्ण हो जाती है । इससे भी उसे 'द्रोणिक पुरुष' कहते हैं ।
अथ उन्मान पमाणा विषय ।
(अदभार तुल्नमाणे पुरिसे उःमाण नुत्ते भवड) जिसका शरीर शुभ पुद्गलों से रचित है, उसको तुला में रोपित किया हुआ यदि अर्द्ध भार के प्रमाण वह पुरुष हो तो वह पुरुष उन्मान प्रमाण युक्त होता है । ( माणु-माणामागजुत्ता ) मान उन्मान प्रमाणयुक्त चक्रवर्त्यादि पुरुष जो (लकवण) लक्षण-शंख, स्वस्तिकादि ( वंजण ) व्यंजन-तिल मागदि ( गणेहिं ) गुण-क्षमादि करके ( उववेया ) उपेत-संयुक्त ( उत्तमकुलप्पसूया)
और उग्रादि उत्तम कुलों में जो उत्पन्न हुआ है उसे (उत्तमपुरिसा मुणेयब्बा ) उत्तम पुरुष जानना चाहिये । ( टुंति पुण अहियपुरिसा) अधिक अंगुल प्रमाण उत्तम पुरुष होते हैं, जैसे (अट्टतयं अंगुलाणं उच्चिद्वा) एकसौ आठ अंगुल के आत्मांगुल से ऊंचे । (छन्नउ अहम्मपुरिसा) आत्मांगुल के प्रमाण से जो छयानवे अंगुल ऊंचा हो वह अधम पुरुष होता है (चउरुत्तम मजि कमिल्लाउ) जो एकसौ चार अंगुल प्रमाण ऊंचा हो वह मध्यम पुरुष होता है। (हीणा वा अहिया वा) उक्त प्रमाण से अर्थात् १०८ अंगुल से जो हीन वा अधिक और (जे खलु सरसत्तसारपरिहीण ) जो निश्चय ही आदेय स्वर
और सत्त्व अथवा शारीरिक शक्ति, इन गुणों से रहित होता है, (ते उत्तम पुरिसाणं ) वह, उत्तम पुरुषों के ( अवसा पेसत्तणमुति ) अपने कर्मों के वश होते हुए दास भाव को प्राप्त होते हैं। अंगुलप्रमाणेणं छ अंगुलाई पायो) इन अंगुलों के प्रमाण
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[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] से छह अंगुल प्रमाण ‘पाद' होता है । (दोपायायो विहत्थी) दो पादों की एक 'वितस्तो' होती है (दो विहत्थीयो रयणी ) दो वितस्तियों को एक 'रत्नो'-'हाथ' होता है । (दो रयणीयो कुच्छी ) दो रनियों की एक 'कुक्षि' होती है ( दो कुच्छिश्रो दंडं ) दो कुत्तियों का एक दंड होता है। ( घणुजुगेनालियाअक्खमूसले ). धनुष्, युग, नालिका, अक्ष, मुशल, ये सब छयानवे अंगुल प्रमाण होते हैं (दो धणुसहस्साई गाउयं ) दो सहस्र धनुष का एक 'गव्य'-कोस होता है ( चत्तारि गाउयाई जोअणं ) चार कोसों का एक योजन' होता है (एएणं अंगुलप्पनाणेणं किं पयोयणं ?) इस अंगुल प्रमाण का क्या प्रयोजन है ? (एएणं अंगुलप्पमाणेणं ) इस अंगुल प्रमाण से (जे णं जया मणुस्सा हवन्ति) जो जिस काल में मनुष्य होते हैं (तेसिं णं तया अारामुज्जाणं) उनके बाग, आराम, उद्यान सब आत्मांगुल से मान किये जाते हैं (काणणवण ) सामान्य वृक्ष युक्त अथवा अटवी पवत युक्त जो वन है उसको 'कानन' कहते हैं।
और जिस स्थान में एक जाति के वृक्ष हों उसको 'वन' कहते हैं (वणसंडवणराइनो) एक जाति के वृक्षों से आकीर्ण वनको 'वनखण्ड' और वन पंक्ति को 'वनराजि' कहते हैं ( श्रगडतलागदह ) कूप, तड़ाग, हृद, ( नदीवात्रि ) नदी, वापी (पोक्खरिणं ) वृत्त जलाशय को 'पुष्करिणी' कहते हैं तथा कमलों से युक्त ( दीहिय ) दीर्घ जलाशय (गुजालियायो ) वक्र गुजालिका-जलाशय विशेष (सर) स्वयं संभूत जलाशय (सरपंतीप्रानो) सर पंक्ति रूप किए हुए, जैसे कि एक सर से पानी द्वितीय तृतीयादि सरों में चला जावे ( सरसरपंतियाउ) सरसरपंक्तियाँ एक सर से द्वितीय तृतीय आदि में पानो वा पुरुषों का संचार हो सके, कपाटादि के द्वारा वा अन्य प्रकार से ( विल
यानो) कूपों की पंक्तियां (देवकुल) मन्दिर विशेष (सभा) सभा-पुस्तकशाला अथवा जिस स्थानमें अनेक पुरुषों का समूह एकत्र होवे (पवा) पर्व स्थान तथा जलपान स्थान (थूभ) स्तूप (चेईय * ) मृत्तिका आदि की वेदिका बनाना ( खाइय ) खाई उसे कहते हैं जो नीचे से संकीर्ण हो और ऊपर से विस्तीर्ण हो (परिहाओ) परिखा (पागर ) नगरकोट (अष्टालय) प्राकार-ऊपर आश्रयस्थान ( चरिय ) गृहों और प्राकार के अन्तर में जो अष्ट हस्त प्रमाण विस्तीर्ण राजमार्ग हो उसे 'चरिका' कहते हैं (दार) द्वार (गोपुर) द्वारों के जो परस्पर अन्तर स्थान हैं उन्हें 'गोपुर' कहते हैं अथवा राज्य भवन (पासाय) प्रासाद (महल) महल (सिघाडगतिगचक्कच मुह) शृङ्गार
* यह पाठ टीकाकार ने ग्रहण नहीं किया है। इसलिये यह प्रक्षेप प्रतीत होता है । तथा
चैत्य शब्द का यथा स्थान अर्थ करना चाहिये।
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[ उत्तरार्धम् ] के आकार पर मार्ग अथवा जहाँ पर तीन मार्ग एकत्र हों, चार राजमार्ग एकत्र हों तथा चतुर्मुख देवकुलादि ( महापह) महा राज्यमार्ग (पहेह) सामान्य मार्ग (सगट । शकट गाड़ी (रह ) रथ ( जाण ) यान (गिल्लि थिल्लि जुग्ग) हस्ती का हौदा, लाट देश प्रसिद्ध पलान और युग भी यान विशेष है ( सीयसंघमाणीयात्रो) स्पंदमान शिविका (धरसरणलेणावण ) सामान्य लोकों के घर, तृण मय घर पर्वत में घर, हट्ट(प्रासणसयणलयणक्खंभ) आसन, शय्या, गुफादि अथवा (भंडमत्तोबगरण) मतिकादि के भाजन, काश्यादि के भाजन, और नाना प्रकार के उपकरण (लोहीलाह कडाह) लोही उसे कहते हैं जिसमें मंडनकादि पकाये जाते हैं तथा लोहे की कढ़ाई (कडच्छुगमाईणी) करच्छी आदि (अजकालियाई जोयणाईमबिज्जति) जिस काल में जो मनुष्य पैदा होते हैं उन्हीं की आत्मांगुल से मान की जाती हैं तथा उसो काल के योजन प्रहण किये जाते हैं। (से समासो तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-) वह आत्मांगुल संक्षेप से तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है (सू अगुले) सूच्यंअंगुल ( पयरंगुले ) प्रतरांगुल (घणंगुले) और घनांगुल (गुलायया) और जो एक अंगुल प्रमाण दीर्घ और (एगपसियासेढी) एक प्रदेश की श्रेणिरूप जिसका विष्कंभ है ( सूअंगुले) उसे सूच्यंगुल कहते हैं । ( सूई सूईगुणिया पयरंगुले ) सूच्यंगुल को सूच्यंगुल से गुणा किया जाय तब प्रतरांगुल उत्पन्न होता है ( पयरं सूएगुणियं घांगुले ) प्रतरांगुल को सूच्यंगल से गुणा करें तब घनांगुल उत्पन्न होता है । (एएस गां सईले पयागुले घणं गुलाणं ) इन सूच्यंगुल, प्रतरांगुल और घनांगुलों में ( कयरे हिं तो अप्पा वा बहुरा वा तुरुला वा विसेसाहिया वा ) परस्पर किन २से अल्प, बहुत्व, तुल्य और विशेषाधिक है (पबत्योवे सूई अंगुले) सब से स्तोक सुच्यंगुल होता है (परंगुले असंखेनगुणे ) प्रतरांगल असंख्यात गुणा अधिक है : (वणं ले असंखेज्जगुणे) घनांगुल उससे भी असंख्यात गुणा अधिक है (से तं श्रायंगुले) सो उसी को आत्मांगुल कहते हैं। ___भावार्थ-अंगुल तीन प्रकार से वर्णन किया गया है। जैसे-श्रात्मांगुल १, उत्सेधांगुल २। और प्रमाणांगुल ३। जिस कालमें जो मनुष्य उत्पन्न होते हैं उनका अपने अंगुलों से १२ अंगुलों का मुख होता है, और उन्हींके अंगुलों से १०८ अंगुल प्रमाण उनका पूरा शरीर होता है। ये पुरुष उत्तम, मध्यम और जघन्य भेद से तीन प्रकार के हैं । जो पूर्ण लक्षणों से युक्त हैं और १०८ अंगुल प्रमाण जिनका शरीर होता है, वे उत्तम पुरुष हैं। १०४ अंगुल प्रमाण शरीर वाले | मध्यम पुरुष हैं । ६६ अंगुल प्रमाण वाले जघन्य पुरुष हैं। अतः इन्हीं अंगलों के प्रमाण से छह अंगुलों का एक पाद, दो पादों की एक वितस्ती, दो वितस्तियों
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[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] की एक रनि-हाथ, दो हस्तों की एक कुक्षि, दो कुक्षियों का एक धनुष्, दो सहस्र धनुषों का एक कोश और चार कोशों का एक योजन होता है । इसी प्रमाण से श्राराम, उद्यान, वन, वनखंड, कूप, तड़ाग,नदी, बावली, सर, देवकुल, सभा, स्तूप खाई, प्राकार, अट्टालक, चरिका, द्वार, गोपुर,, प्रासाद, शृङ्गारक, त्रिकमार्ग, चतुर्मुख मार्ग, महापथ, राजमार्ग, शकट, रथ, यान, युग, गिल्ली, थिल्ली, शिविका, घर, अापण, आसन, शयन, स्तम्भ, कडाह, दो इत्यादि पदार्थ जिस समय के मनुष्य होते हैं, उक्त पदार्थ उन्हीं के अंगुली से मान किये जाते हैं । इसे ही श्रात्मांगुल कहते हैं ।
अंगल तीन प्रकार से वर्णन किया गया है । जैसे-सूच्यंगुल १, प्रत. रांगुल २ और घनांगुल ३ । असत्हेतु से आकाश में एक अंगुल प्रमाण दीर्घ, तीन प्रदेशरूप विस्तीर्ण और एक प्रदेश विष्कम्भरूप को 'सूच्यंगुल' कहते हैं । सूच्यंगुल को तिगुना करने से 'प्रतरांगुल' उत्पन्न होता है । यह अंगुल प्रदेश रूप होता है। प्रतरांगुल को तिगुना करने से 'धनांगुल' होता है। वह २७ प्रदेश रूप है । इनमें सबसे छोटा सूच्यंगल है। प्रतरांगल उससे असंख्यात गुणा बड़ा है और घनांगुल उससे भी असंख्यात गुणा बड़ा है। इसी को आत्मांगुल कहते हैं।
___विष्कम्भ एक प्रदेशरूप है, उसे गुणा नहीं करना, अपितु दीर्घाकार में समरूप है और धन शब्द रूढ़ि रूप है । जब प्रतर अंगुल ६ प्रदेश रूप है उसको सूचि अंगुल से गुणा किया जाय तब घनांगुल 0 0101010101010101 २७ प्रदेशों का सिद्ध हुआ । जैसे कि- 1000101010 ___ इस असत्य हेतु से २७ प्रदेश निष्पन्न ! ० ००० ०० 100 माना जाता है । वास्तव में अखंख्यात प्रदेश रूप जानना चाहिये ।
से किं तं उस्सेहिंगुले ? अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा. परमाणु १, तसरेण २, रहरेणु ३, अग्गच बालस्स ४ । लिक्खा ५, जूश्रा य ६, जवो ७, अट्ठगुणविवटिया कमसो ।से किं तं परमाण ? दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुहुमे य
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[उत्तरार्धम् ] ववहारिए य, तत्थ गां जेसे सुहुमे सेट्ठप्पे, तत्थ णं जे से ववहारिए से अणंताणं सुहमपरमाण समुदयसमिइंसमा. गमेणं ववहारिए परमाणु पोग्गले निफ्पज्जइ, से ग) भत्ते ! असिधारं वा खुरधारं वा उग्गाहेजा ? हंता उग्गाहेजा, से णं भत्ते ! तत्थ छिज्जेज वा भिज्जेज वा ? नो इणटेसमटे, नो खलु तत्थ सत्थं कम्मइ, सेणं भत्ते!अगणिकायस्स मझ मज्झणं वीईवएज्जा ? हंता वीईवएज्जा, सेणं तत्थ उज्झज्जा? नो इणट्रे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं कम्मइ, सेणं भत्ते! पोक्खल संवयस्स
महामेहस्स मज्झ मज्झणं वीइवएज्जा? हंता वीइवएज्जा, सेणं तत्थ उदउल्लेसिया? नो इणटेसमटे, नो खलु तत्थ सत्थं कम्मइ, से णं भंते ! गंगाए महानदीए पडिसोयं हव्वमागच्छेज्जा ? हता हव्वमागच्छेज्जा, सेणं तत्थ विणिघायमावज्जेज्जा ? नो इणट्रे समटे, नो खलु तत्थ सत्थं कम्मइ, से गंभंते ! उदयावत्तं वा उदगबिंदुवा उग्गाहेजा ? हंता उग्गाहेज्जा, सेणं तत्थ परियाव
ज्जेज्जा ? (कुच्छेज वा?), नो इणटे समझे. नो खलु तत्थ सत्थं कम्मइ, सत्येण सुसिक्खेण वि च्छेत्तु भेत्तुंच जं किर न सका। परमाणु सिद्धा वयंति आइंप्पमाणाणं ॥अणंताणं ववहारिय परमाणुपोग्गलाणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा उस्सरहसरिहया इ वा सण्हसहिया इ वा उटुरेणु इ वा तसरेणु इ वा रहरेणु इ वो, अट्ट उसण्हसण्हियाओ सा एगा सण्हसण्हिया, अट्ठ सहसण्हियाओ साएगा उटुरेणू , अट्ट उट्ठरे
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[श्रीमदनुयोद्वारसूत्रम् ] णुओ सा एगा तसरेणु, अट्ट तसरेणुओ सा एगा रहरेणु, अट्ठ रहरेणूओ देवकुमउत्तरकुरुगाणं मणुयाणं से एगे बालग्गे, अट्ठ देवकुरुउत्तरकुरुगाणं मणुयाणं बालग्गा हरिवासरम्मगवासा मणुस्साणं से एगे बालग्गे, अट्टहरिवासरम्मगवासाणं मणुस्साणं बालग्गा हेमवयएरण्णवयाणं मणस्साणं से एगे बालग्गे, अट्ट हेमक्यएरण्णवयाण मणुस्साणं बालग्गा पुव्वविदेह अवरविदेहाणं मणुःसाणं से एगे बालग्गे, अट्ठ पुब्वविदेहअवरविदेहाणं मणुस्साणं बालग्गा भरहेरवयाणं मणुस्साणं से एगे बालग्गे, अट्ट भरहेरवयाणं मणुस्साणं वालग्गा सा एगा लिक्खा, अट्ट लिक्खाओसा एगे जूया, अट्ठ जूयाओ से एगे जव मज्झ, अट्ट जवमझा से एगे अंगुले, एएवं अंगुलप्पमाणेणं छअंगुलाई पाउ, वारस अंगुलाई विहत्थी, चउवीसं अंगुलाई रयणी, अडयालीसं अंगुलाई कुच्छी, छन्नउई अंगुलाई दंडेति वा, धणुं ति वा, जुएति वा, नालियाइ वा, अक्खेइ वा,मुसले इ वा, एएणं धणप्पमाणेणं दो धणु सहस्साई गाउयं,, चत्तारि गाउयाई जोयणं, एएणं उस्सेहंगुलेणं किं पयोयणं ? एएणं उस्सेहंगुलेणं नेरइयतिरिक्खजोणियमण स्सदेवाणं सरीरोगाहणाउ मविज्जति।
पदार्थ-(से किं तं उस्सेहंगुले ? अणेगविहे पगणत्ते, तं जहा-) उत्सेधांगुल किसे कहते हैं ? उत्सेधांगुल उसका नाम है, जिसके द्वारा नारकादि की अवगाहना का प्रमाण किया जाय, जैसे कि (परमाणु) परमाणु १, (तसरेणु) त्रसरेणु २, (रहरेणु) रथरेणु ३, (अग्गं च बालस्स) और बालाप ४, फिर (लिक्खा) लीख ५, (जुयाय) जू ६,
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[ उत्तरार्धम् ]
२५ (जवो) यव ७, (अट्ठ गुणविवड्डिया कमसो) यह अनुक्रम से उत्तरोत्तर आठ गुणे बड़े हैं। (से किंतं परमाणु ? दुविहे पएणते, तं जहा-) परमाणु कितने प्रकार का है ? दो प्रकारका जैसे कि-(सुहुमे य ववहारिए य) सूक्ष्म और व्यावहारिक (तत्थं एंजे से मुहुमे से टप्पे) उन दोनों भेदों में से जो सूक्ष्म परमाण हैं वे तो स्थापनीय हैं (तत्य णं जे से ववहारिए से अणंताणं मुहुमपरमाणु समुदयसमिइसमागमेणं ववहारिए परमाणु पोग्गले निष्फज्जइ ) उनमें से जो व्यावहारिक परमाण है, वह अनन्त सूक्ष्म परमाणुओं का समुदाय रूप है और उसी के द्वारा व्यावहारिक परमाण की उत्पत्ति होती है । (से णं भंते ! असिधारं वा खुरधारं वा उग्गाहेजा ?) हे भगवन् ! क्या यह व्यावहारिक परमाणु, खड्ग को धार अथवा क्षुरा की धार में प्रवेश कर सकता है ? (हंतः। गाजा ) हां, प्रवेश कर सकता है। ( से :: भंते ! तत्व छिज्जेज वा भिज्नेज या ?) हे भगवन् ! क्या उस व्यावहारिक परमाणु का छेदन भेदन हो सकता है ? (नो इण? समटे नो खलु तत्य सत्थं कमड) यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् इस प्रकार नहीं है तथा उस को निश्चय ही शस्त्र अतिक्रम नहीं करता (से णं भंते ! अगणिकावत्स मज्झ मज्झे णं वोइवएज्जा ?) हे भग वन् ! क्या वह परमाणु अग्निकाय के मध्य और मध्यान्तर में प्रवेश कर सकता है ? (हंता वीइवइजा ) हां, प्रवेश कर सकता है ( से णं भंते ! उज्झे जा ?) हे भगवन् ! क्या वह परमाणु जल सकता है ? (नो इण्टे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ) यह अर्थ समर्थ नहीं है । उस परमाणु को अग्नि रूप शस्त्र अतिक्रम करने में समर्थ नहीं है x (से णं भंते ! पोक्खलसंवयम्स महामेहस्स मझमझेणं वीइवएजा ?) हे भगवन् ! क्या वह परमाण 'पुष्कलसंवर्त' नामक महामेघ के मध्यान्तर में प्रवेश कर सकता है ? (हंता वीइवएज्जा) हां, प्रवेश कर सकता है । (से णं तत्थ उदंउल्लेसिया ?) हे भगवन् ! क्या वह व्यावहारिक परमाण पानी से गीला हो सकता है ? (नो इणढे समर्ट, नो खलु तत्य सत्थं कमइ) यह तुम्हारा कथन यथार्थ नहीं है । उसको निश्चय ही पानी रूप शस्त्र अतिक्रम नहीं कर सकता (से णं भंते ! गंगाए महानदीए पडि सोयं हव्वमागच्छेजा ?) हे भग_* यह सर्व कथन व्यवहार नय के मत से कहा गया है । निश्चय के मत से इसे स्कंध ही माना जाता है।
हता' अव्यय कोमलामंत्रण में अथवा स्वीकार अर्थ में होता है । यहां पर स्वीकार अर्थ ही जानना चाहिये।
'णं वाक्यालंकार अर्थ में होता है ।
४ क्योंकि अग्नि के परमाणु उसकी अपेक्षा स्थूल हैं और वह उनकी अपेक्षा से अत्यन्त सूचम है, इसलिये अग्निकाय पूर्वोक्त काम करने में असमर्थ है।
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२६
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
वन् ! क्या वह परमाण गंगा महानदी के प्रतिश्रोत की ओर होता हुआ शीघ्र ही श्र सकता है ? (हंता हय्वमारच्छेज्जा) हां, शीघ्र श्रा सकता है अर्थात् यदि पूर्व की ओर गंगा बहती हो तो वह परमाण पश्चिम की ओर आ सकता है । (से गं तत्थ विधायावज्जेज्जा ?) हे भगवन् ! क्या वह परमाणु वहां जल रूप हो सकता है ? (नो इट्ठे समट्ठे, नो खलु तत्थ साथं कम ) यह अर्थ समर्थ नहीं है । उसको निश्चय ही पानी रूप शस्त्र अतिक्रम नहीं कर सकता ( से गं भंते ! उदयावत्तं वा उदगबिंदु वा उग्गहेजा ? ) हे भगवन् ! क्या वह परमाण उदकावर्तन में अथवा उदकविन्दु में अवगाहन कर सकता है ? (हंता उगाहेजा ) हां, अवगाहन कर सकता है । ( से गं तथ कुच्छेज्ज वा परियावज्जज्जा वा ?) हे भगवन् ! क्या वह परमाणु उस स्थान पर पर्याय परिवर्तन कर सकता है अर्थात् क्या वह परमाण जलरूप हो सकता है ? (णो इट्ठे समट्ठे, नो खलु तत्थ सत्थं कमड) यह तुम्हारा कथन यथार्थ नहीं है । उस परमाणु को जलरूपी शस्त्र अतिक्रम नहीं कर सकता (सत्थेण सुतिक्ख विछेत्तु भेत्तु च जं किरन सक्का) सुतीक्ष्ण शस्त्र से कोई भी उस परमाणु को छेदन भेदन करने में समर्थ नहीं है ( तं परमाणु सिद्धा वरंति आई पमायाणं ) उस परमाणु को सिद्ध भगवान् आदि प्रमाण कहते हैं अर्थात् व्यावहारिक गणना में वह परमाण आदिभूत है और ( श्रताणं ववहारिश्रपरमाणु पांगलां समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा उस्सरह सारख्या इब) अनन्त व्यावहारिक पुद्गलों के समुदाय के एकत्र होने से एक 'उत्श्लक्ष्ण' नामक करण उत्पन्न होता है ( सरहसहिया इवां) उस से फिर 'श्लक्ष्णलक्ष्णिका' नामक करण होता है (रेणू तिवा) उध्वरेणु (तसरं ति वा ) त्रसरेणु (रहरेणू तिा) रथरेणु होता है ( श्रद्ध उसरहरिहयाश्री सा एगा सहसहिया) आठ उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिकाओं की एक श्लक्ष्णका होती. है ( श्रद्ध सरहस, हयाओ सा एगा उडूरेणु) आठ श्लक्ष्णश्लक्ष्णकाओं का एक ऊर्ध्वरेणु और ( उडरे सा एगा तसरेणु) आठ ऊर्ध्वरेणुओं का एक त्रसरेण (टु तसरेणुथ्रो सा एगा रहरेणु) आठ त्रसरेणओं का एक रथरेण ( ऋ रहरेको देव कुरुउत्तर कुरुगाणं मणुयाणं से एगे बालग्गे ) आठ रथरे णुओं का देवकुरु- उत्तरकुरु के मनुष्यों का एक बालाम होता है ( देवकुरु उत्तरकुरुगाणं मणुयाणं बालग्गा हरिवासरम्मगवासां मस्सां से एगे बालगे) फिर
भेदन करने में समर्थ
* 'किर' शब्द किलार्थ में है अर्थात निश्चय ही कोई छेदन नहीं है । + 'सिद्ध' शब्द का अर्थ यहां पर ज्ञानसिद्ध है । यथा केवली; क्योंकि भवस्थ भगवान् सिद्ध होते हैं । मुक्ति में विराजमान जो सिद्ध भगवान् हैं, वे वचनयोग से रहित हैं। इसलिये सिद्ध
शब्द का सम्बन्ध यहां पर भवस्थ केवली भगवान् से जानना चाहिये ।
† 'वा' शब्द उत्तरापेक्ष है और 'उत्' शब्द प्राबल्य अर्थ में होता है ।
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२७
[ उत्तरार्धम् ] आठ देवकुरु-उत्तरकुरु मनुष्यों के बालानों का एक हरिवर्ष रम्पवर्ष के मनुष्यों का बालाग्र होता है (अट्ट हरिवासरम्पगवःसाणं मणुस्साणं वाला हेवय हेरएणवयाणं मणुस्साणं से एगे वालग्गे) आठ हरिवर्ष रम्यवर्षे मनुष्यों के बालानों का हैमवय
और एरण्यवय के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है ( अट्ट हेमवयहेरएणवयाणं मणुस्साणं वालग्गा पुधविदेहारविहाणं मणु पाणं से एो बालागे ) हैमघय और एरण्य वय के मनुष्यों के बालापों का पूर्वमहाविदेह और दूसरा अपरमहाविदेह के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है (अट्ठ पुचविदेहअवरवि देहाणं मणुस्साणं बालग्गा भरहेरवयाणं मणुस्साणं से एगे बालग्गे ) आठ पूर्वमहाविदेह-अारविदेहों के मनुष्यों के वालातों का भरत ऐरावत के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है ( अट्ट भरहेरखयाणं मणुस्साणं वालग्गा सा एगा लिक्खा) आठ भरत ऐरावत के मनुष्यों के बालाों की एक लिक्षालीख होती है (अट्ठ लिक वा यो सा एगा जूग्रा)आठ लिक्षाओं को एक जू होती है (अट्ट जाश्रो से एगे जवमझे) आठ जूओं को एक यव का मध्य होता है (अट जब मझायो से एगे अंगुले)
आठ यव मध्यों का एक उत्सेधांगुल होता है। (एएणं अंगुलप्पमाणेणं छ अंगुलई पाओ) इस अंगुल के छह अंगुलों का एक पाद होता है (बारस अंगुलाई विहत्थी) बारह अंगुलों की एक वितस्तो होती है (चवीसं अंगुलाई रयणी) चौबीस अंगुलों का एक हाथ होता है (अडयालीसं अंगुलाई कुच्छी) अड़तालीस अंगुलों की एक कुक्षि और (छनउई अंगुलाई से एगे दंडे इवा) छथानचे अंगुलों का एक दंड होता है (पण इ वा, जुगे इ वा, नालियाइ वा, अक्बे इवा, मुसले इवा) धनुष युग, नालिका, अक्ष और मुसल ये सर्व धनुष के ही नाम हैं। एएणं धणु पमाणेणं) इस धनुष के प्रमाण से (दो घणुसहरसाई गाउयं)२००० धनुषों का एक कोस होता है और (चतारि गाउपाइं जोपणं) चार कोसों का एक योजन होता है। (एणं उस्सेहं गुलेगणं किं पयोयणं ?) इस उत्सेधांगुल के कथन करने का क्या प्रयोजन है? (एएणं उम्प्लेहंगुलेणं जाइयतिरिक्व जोणियमणु सदेवाणं सरीरोगाहणाउ मविज्जति) इस उत्सेधांगुल से नारक, तिर्यक् योनि के जीव, मनुष्य और देवों के शरोरों की अवगाहना नापो जाती है।
भावार्थ-उत्सेधांगुल का अनेक प्रकार से वर्णन किया गया है। जैसेपरमाणु, त्रसरेणु, रथरेणु, इत्यादि । प्रकाश में जो धूलि कण प्रतीत होते हैं, उन्हें 'त्रसरेणु' कहते हैं । रथ के चलने से जोरज उड़ती है, उसे 'रथरेणु' कहते हैं । बालाग्र, लिना,जू, यव, ये सब उत्तरोत्तर आठ गुणा अधिक करने से निष्पन्न होते हैं। परमाणु दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है । एक सूक्ष्मपरमाणु, द्वितीय व्यावहारिक परमाणु । सूक्ष्म परमाणु स्थापनीय है; क्योंकि उसका
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२८
[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] यहां पर अधिकार नहीं है। अनन्त सूक्ष्म परमाणुओं के मिलने से एक व्यावहारिक परमाणु उत्पन्न होता है। उसको खड्गादि भी अतिक्रम नहीं कर सकते । अग्नि जला नहीं सकती । पुष्कलसंवर्त नामक महामेह जो उत्सर्पिणी काल में होता है, उसको जलरूप नहीं कर सकता। गंगा महानदी के स्रोतोगत होता हुआ भी वह पानी में लीन नहीं होता। किन्तु सुतीक्ष्ण शस्त्र भी उसको छेदन करने में असमर्थ है। वह परमाणु केवली भगवानों ने व्यावहारिक गणना की आदि में प्रतिपादन किया है। अनन्त व्यावहारिक परमाणु पुद्गलों के मिलने से उत्श्लक्ष्णश्लदिणका परमाणु उत्पन्न होता है। फिर श्लक्ष्णश्लक्षिणका, ऊर्ध्वरेणु, त्रसरेणु, देवकुरुउत्तरकुरु मनुष्यों का बालान, हरिवर्ष-रम्यवर्ष मनुष्यों का बालान, हैमवय-हैरण्यवय मनुष्यों का बालाग्र, पूर्वमहाविदेह-पश्चिममहाविदेह मनुष्यों का बालाग्र, भरत. पेरवत मनुष्यों का बालाग्र, लिक्षा, जू, यव, अंगुल, ये प्रत्येक उत्तरोत्तर पाठ गुणा अधिक जानने चाहिये । उक्त ६ अंगुलों का अर्द्ध पाद, १२ अंगुलों का एक पाद, २४ अंगुलों का एक हस्त, ४८ अंगुलों की एक कुति, और ६६ अंगुलों का एक धनुष होता है । इसी धनुष के प्रमाण से २००० धनुषों का एक कोस और ४ कोसों का एक योजन होता है । इस अंगुल के कथन करने का प्रयोजन, चार गतियों के जीवों की अवगाहना का मान करना है । इसलिये अवगाहना के विषय में अब सूत्रकार कहते हैं
अध अवगाहना विपय । णेरइयाणं भत्ते ! के महालिया सरीरोगाहणा पएणता ? गोयमा!! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-भवधारणिजाय उत्तरखेउब्विाय तत्थणं जा सा भवधारणिज्जा, सा जहणणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उकोसेणं पंचधणुसयाइं; तत्थ णं जा सा उत्तरवेउव्विा सा जहणणेणं अंगुलस्स संखेजइभाग, उक्कोसेणं धणुसहस्सं ॥
पदार्थ-(णेरइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पएणता, तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउविश्रा य) [श्री गौतम प्रभु जी, भगवान से प्रश्न
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[उत्तरार्धम् ] करत हैं कि] हे भगवन् ! नारकियों के शरीरों को अवगाहना कितनी बड़ी है ? [भगवान् , श्री गौतम प्रभु को संबोधन करके प्रथम अवगाहना के भेद प्रकट करते हुए निम्न प्रकार से उत्तर देते हैं ] भो गौतम ! अवगाहना दो प्रकार की वर्णन को गई है। एक भवधारणीया और दूसरी उत्तरवैक्रिया । भवधारणोया अवगाहना उसे कहते हैं कि जो ।जब तक आयु रहे तब तक रहे । उत्तरवैक्रिया उसका नाम है कि जो कुछ समय के लिये कारणवशात् वा स्वेच्छानुसार शरीर छोटा बड़ा किया जाय (तत्य णं जा सा भववारणिज्जा, सा जहएणणं अंगुलस्स असंवेज्जइभाग, उक्कोसेणं .पंचधणुसयाई) उन दोनों में जो भवधारणोया अवगाहना है, वह न्यून से न्यून अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण होती है [यह कथन उत्पत्ति समय की अपेक्षा से है ] और उत्कृष्ट से उत्कृष्ट ५०० धनुष प्रमाण होती है । [यह कथन सातवों पृथ्वी की अपेक्षा से है ] (तत्थ णं जा सा उत्तरवेउब्बिया, सा जहरणेणं अंगुलस्स संखेज्जहभागं, उक्कोसेणं घणुसहरसं) उन दोनों में जो उत्तरवैक्रिया है, वह न्यून से न्यून अंगुल के संख्यात भाग प्रमाण होती है [ असंख्यात भाग प्रमाण में वैक्रिया की पूर्ति नहीं होती है।]
और उत्कृष्ट से उत्कृष्ट १००० धनुष प्रमाण होती है । [ यह कथन भी सातवें नरक की अपेक्षा से है।]
भावार्थ-नारकियों के शरीर की अवगाहना दो प्रकार से प्रतिपादन की गई है। एक भवधारणीया और द्वितीय उत्तरवैक्रिया। भवधारणीया जघन्य अंगल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट ५०० धनुष प्रमाण होती है। उत्तरवैक्रिया जघन्य अंगुल के संख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट १००० धनुष प्रमाण होती है । भवधारणीया उसे कहते हैं जो आयु पर्यन्त रहे और उत्तरवैक्रिया वह है जो कारण वश की जावे । यहां पर तो नारकियों की अवगाहना साम न्य प्रकार से कही गई है। अब आगे विस्तार पूर्वक उसका वर्णन करते हैं
. रयणप्पहाए पुढवीए णेरइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णता, तं जहाभवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विा य । तत्थ णं जा सा भव. धारणिजा सा जहरणेण अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उकोसेणं सत्त धणूइं तिगिण रयणीओ छच्च
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[श्रोमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] अंगुलाई; तत्थ णं जा सा उत्तरवेउव्विा सा जहएणणं अंगुलस्स संखेज्जइभाग, उक्कोसेणं पण्णरस धणू दोन्नि रयणीओ बारस अंगुलाई (१) सकरपहापुढवीए णेरइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णता ? दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवे उब्धिप्राय। तत्थ णं जा सा भवधारगिजा सा जहण्णणं अंगुलस्स असंखेजइभाग, उकोसेणं पण्णरसधणूइंदुगिण रयणीओ बारसअंगुलाई; तत्थ णं जा सा उत्तरउठिवासा जहणणेणं अंगुलस्त संखेजइभागं, उक्कोसेणं एकतीसं धणूइं इक्करयणी य (२) वालुअप्पहापुढवीए ोरइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-भवधारणिजाय उ. त्तरर्वउव्विा य।तत्थ की जा सा भवधारणिज्जा सा जहणणेणं अंगुलस्स असंखेजहभाग, उक्कोसेणं एकतीसं धणूई इक्करयणी य; तत्थ णं जा सा उत्तरवेउव्विा सा जहणणं अंगुलस्स संखेजइभागं, उक्कोसेणं बासट्टि धणूई दो रय णीअो अ (३) एवं सव्वासिं पुढवीणं पुच्छा भाणियब्वा । पंकप्पहाए पुढवोए भवधारणिज्जा जहणणेगां अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं बासट्टि धणई दोरयणीओ य; उत्तरवेउव्विया जहणगोणं अंगुलस्स संखेजइभाग, उक्कोसेणं पणवीसंधणूसयं (४) धूमप्पहाए भवधारणिज्जा जहणणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं पणवीसं धणूसयं; उत्तरवेउव्विया जहएणेणं अंगुलस्स संखेजइभागं, उक्कोसेणं अड्डाइजाई धणूसयाई (५) तमाए भवधारणिज्जा
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[ उत्तरार्धम् ] जहणणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं अड्डाइज्जाइ धणसयाई; उत्तरवेउव्विया जहणणेणं अंगुलस्स संखेज्जइभाग, उक्कोसेणं पंच धणुसयाई (६) तमतमाए पुढवीए णेरइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पराणत्ता. तं जहा- भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य। तस्थ णं जा सा भवधारणि जा सा जहणणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं पंच घणसयाइं; तत्थ णं जा सा उत्तरवेउव्जिा सा जहणणेणं अंगुलस्स र खेज्जइभाग, उक्कोसेणं धणुसहरसाइ (७)
पदार्थ-(रयणप्पहाए पुढवीए शेर इयाणं भंते ! के महालिया सीरीगाहरणा परणता ? गोयना ! दुविहा पएणत्ता, तं जहा-भववारणिज्जा य उत्तरवेब्धिया य) रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकियों को हे भगवन् ! कितनी बड़ी अवगाहना है ? हे गौतम ! रत्नप्रभा के नारकियों के शरीरों को अवगाहना दो प्रकार की वर्णन की गई है । एक तो भवधारणीया, द्वितीय उत्तरवैक्रिया (तत्थ णं जा सा भवधारणिज्हा सा जहएणणं अंगुलरस अरखेजइभान, कोसणं सत्त - धण्इं तिारण रयणीनो छच्च अंगुलाई) उन दोनों में जो भवधारणीया है, वह जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण होती है; उत्कृष्ट अवगाहना ७ धनुष , ३ हाथ और ६ अंगुल प्रमाण होती है ( तत्थ णं जा सा उत्तरवेउब्बिया सा जहणोणं अंगुलस्स संखेज्जइभार्ग, उचीसेणं परणास धणूई दोषिण रयणीग्रो बारस गुलाई ) उन दोनों में जो उत्तरवैक्रिया है वह जघन्य अंगुल के संख्यातभाग प्रमाण होती है; उत्कृष्ट १५धनुष, २ हाथ और १२ अंगुल प्रमाण है ॥१॥ ( सकरप्पहाए पुढवीए णे इत्राणं भंते ! के महानिका सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेविसा य ) हे भगवन् ! शर्कराप्रभा नाम की पृथ्वीके नारकियों की शरीरावगाहना कितनी बड़ी है ? हे गौतम ! वह दो प्रकार से बतलाई गई है। जैसे कि-एक कवधारणोया और दूसरी उत्तरवैक्रिया। (तत्थ णं जा सा भवघारणिज्जा सा जहएणणं अंगुलस्स संखेजइभाग, उकोसेग पएणरत घण्डं दुरिण रयणीश्रो वारस अंगुलाई ) उनमें से जो भवधारणीया अवगाहना है, वह जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भागांप्रमाण है और उत्कृष्ट १५ धनुप् , २ हाथ और १२ अंगुल-प्रमाण है । (तयां जा सा उत्तर या सा जहां अंगुलस्स संखेजहभाग,
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३२
[ श्रीमदनुयोगद्वासूत्रम् ]
उक्कोसेां एकतीसं धणूइं इक्करयणी अ ) उन में से जो उत्तरवैक्रिया नाम की अवगाहना है, वह जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट ३१ धनुष और १ हाथ प्रमाण है || २ || ( बालु अप्पापुढवीए रइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुबिहा पण्णत्ता, तं जहा - भववारणिजा य उत्तरवेउवित्रा य) बालुकाप्रभा पृथ्वी के नारकियों की हे भगवन् ! कितनी बड़ी अवगाहना होती है ? भो गौतम ! वह दो प्रकार से प्रतिपादन की गई है। जैसे कि भवधारणीया और उत्तरक्रिया ( तत्थ जसा भवारणिजा सा जहां गुलस्स असंखेजइभागं, उक्को से एकतीसं धयूई इक्करयणी श्र) उन में से जो भवधारणीया है, वह न्यून से न्यून अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण होती है, उत्कृष्ट ३१ धनुष्, १ हाथ प्रमाण होती है । (तत्थ खं जा सा उत्तरवे उव्त्रिया सा जहरणेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं, उक्को वासट्ठि धणूई दो रयणीओ ) उन में से जो उत्तरवैक्रिया है, वह जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट ६२ धनुष और २ हाथ प्रमाण है । उत्तरखैक्रिया भवधारणीया से दूनी है ॥ ३ ॥ ( एवं सव्वासिं पुढवीणं पुच्छा भाणियव्या) इसी प्रकार सर्व पृथ्वियों के विषय में प्रश्न कर लेना चाहिये । ( पंकव्वहाएपुढत्रीए भवचारणिजा जहां श्रं गुलस्स असंखेज्जइभागं उकोसे वासट्टि घणूई दोरयणीय) पंकप्रभा नाम की पृथ्वी के नारकियों की भवधारणीया शरीरावगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट ६२ धनुष और २हाथ प्रमाण है ( उत्तरवेउन्त्रिया जहणणेां श्रंगुलस्स संखेज्जइभागं, कोसेणं पणवीसं धणूसयं ) उत्तरवैकिया जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट १२५ धनुष प्रमाण है || ४ || ( धूमप्पहा ए भवधारणिज्जा जहणणेणां श्रंगुलस्त असंखेज्जइभागं, उक्कासं पणवीसं घणूस ) धूमप्रभा के नारकियों की अवधारणीया श्रवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। और उत्कृष्ट १२५ धनुष प्रमाण है । ( उत्तरवेव्विश्री जहां अंगुलस संखेज्जइमागं, उक्कोसेणं अड्डाइज्जाइं धणूसयाई, उत्तरवैक्रिया अवगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट २५० धनुष प्रमाण होती है ||५|| ( तमाए भवधारणिज्जा जहणणे गुलस्स श्रसंखेज्जइभागं, उक्को से श्रड्डाइज्जाई धणूसयाई ) तमः प्रभा नाम की पृथ्वी के नारकियों की भवधारणीया शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट २५० धनुष प्रमाण है । ( उत्तरवेव्विया जहां अंगुलस्स संखेज्ज भागं, उक्कोसेणं पंच धणू सया ) उत्तर वैक्रिया शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के संख्यात भाग प्रमाण, उत्कृष्ट ५०० धनुष प्रमाण है ।। ६ ।। ( तमतमाए पुढवीए रयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहया परयता ? गोयमा ! दुविधा पण्णत्ता, तं जहा - भवधारणिजा उत्तरवेउब्विाय, तत्थ गंजा सा भवधारणिजा सा जहरणेणं अंगुलस्स श्रसंखेज्जइभागं,
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[ उत्तराधम् ]
उक्कोसेणं पंचसयाइ'; तत्थ संजा सा उत्तरखेउनिया सा जहररोणं अंगुलरस संखेज्जइभागं, उक्कोसें धणुसहस्सा) हे भगवन् ! तमस्तमः पृथ्वी के नारकियों के शरीर की कितनी बड़ी अवगाहना प्रतिपादन की गई है ? भो गौतम ! तमस्तमः पृथिवी के नारकियों की अवगाहना दो प्रकार से प्रतिपादन को गई है, एक भवधारणीया, दूसरी उत्तरवैक्रिया । उन में से जो भवधारणीया है, वह जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है, उत्कृष्ट ५०० धनुष प्रमाण है । दूसरी उत्तरक्रिया, जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट १००० धनुष् प्रमाण है ॥ ७ ॥
३३
भावार्थ - उक्त सूत्र में सातों नरकों के नारकियों की श्रवगाहना के विषय में विवरण किया गया है। सम्पूर्ण नारकियों की अवगाहना दो प्रकार की है । एक भारतीया और दूसरी उत्तरवैकिया । भवधारणीया श्रवगाहना जघन्य सर्वत्र अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट पूर्व नरकों की अपेक्षा उत्तर नरकों में दुगुनी - दुगुनी है। उत्तरवेकिया, जघन्य सर्वत्र अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट भवधारणीया से सर्वत्र दुगुनी - दुगनी है । नारकियों की माना का विवरण यहां समाप्त होता है । और देव की अव गाहना का विवरण प्रारम्भ होता है । देव चार प्रकार के हैं- भवनपति १, व्यन्तर २, ज्योतिष्क ३ और कल्पवासी ४ । इन में सब से पहले अब भवनपतियों की गाना के विषय में कहते हैं
असुरकुमाराणं भंते! के महालिया सरीरोगाहणा पत्ता ? गोयमा ! दुबिहा पण्णत्ता, तं जहा -- भवधारणिज्जाय उत्तरवेउविद्या य । तत्थ गंजा सा भवधारणिज्जा सा जहणणेणं अॅगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्को सेणं सत्तरयणो; तत्थ गांजा सा उत्तरवेउव्विा सा जहरोगां
गुलस्स संखेज्जइभागं, उक्कोसेणं जोयणस्य सहरसं । एवं असुरकुमारागमेणं जाय थणियकुमाराणं ताव भाणिअव्वं
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पदार्थ - (कुते ! के महालय सगाह पर गोयमा ! दुविर पण्णत्ता, तं जहा-भवथारविज्ञाय उत्तराय) हे भगवन ! असुरकुमारों को शरीर - अ०
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३४
[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] गाहना कितनी बड़ी प्रतिपादन की गई है ? भोगौतम ! उनकी शरीरावगाहना दो प्रकार से प्रतिपादन की गई है। जैसे कि भवधारणीया और उत्तरवैक्रिया (तत्थ णं जासा भवधारणिजा सा जहरणेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग, उक्कोसेणं सत्त रयणीयो) उन दोनों में जो भवधारणीया है, वह जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट ७ हाथ प्रमाण होती है तथा जो (तस्थ णं जा सा उत्तर वेउब्विया सा जहरणेण अंगुलस्स संखेज्जइभागं, उक्कोसेणं जोयणसयसहस्स) उन दोनों में जो उत्तरवैक्रिया है वह जघन्य अंगुल के संख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट १००००० योजन प्रमाण शरीर को अवगोहना है । (एवं असुरकुमारगमेणं जाव थणियकुमाराणं ताव भाणिय ) इसी प्रकार असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार पर्यन्त स्वरूप जानना चाहिये ।
भावार्थ-नारकियों की तरह दश भवनपतियों की भी अवगाहना दो प्रकार की है । एक भवधारणीया, दूसरी उत्तरवैक्रिया। भवधारणीया जघन्य अंगल के असंख्यातवें भाग :माण और उत्कृष्ट ७ हाथ प्रमाण होती है । उत्तर वैक्रिया अवगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट १००००० योजन प्रमाण होती है।
अथ पंचरथावर-प्रवणाहना का विषय ।
पुढविकाइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणणेगअंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभाग; एवं सुहुमाण
ओहियाण, अपज्जत्तयाण, पज्जत्तयाण, बादराण भाणियव्वा । एवं जाव बादरवाउकाइयाण पज्जत्तयाण भाणिथव्वं । वणस्सइकाइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णता ? गोयमा ! जहरणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं साइरेगं जोयणसहस्स, सुहमाणं वणस्सइकाइयाणं ओहियाणं अपज्जन्तयाणं पज्जत्तयाणं तिरह
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[ उत्तरार्धम् ] पि जहणणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभार्ग, उक्कोसेण वि अंगुलस्त असंखेज्जइभाग; बादरवणस्सइकाइयाणं जहएणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं साइरेगं जोयणसहस्स; अपज्जत्तयाणं जहरणेणं अंगुलस्स असंखेउजइभागं, उक्कोसेण वि अंगुलस्त असंखेन्जइभागं; पाजत्तयाणं जहरणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं साइरेगं जोयणसहस्सं ॥
पदार्थ-(पुढविकाइयाणां भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा परणत्ता ?) पृथ्वीकायिक जीवों को हे भगवन् ! कितनी बड़ी शरीरावगाहना प्रतिपादन की गई है ? (गोयमा !) भो गौतम ! (जहणणे णं अंगुन स असंखेज इभाग) जयन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण (उकोसेण वि अंगुलरस असंखेजइभाग) और उत्कृष्ट भी अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण होती है । इसको औधिक वा समुच्चय सूत्र कहते हैं । इसी विषय में आगे भी कहते हैं (एवं सुहुपाणं यो हयाणं ) इसी प्रकार सूक्ष्म औधिक सूत्र (अपज तयाणं) अपर्याप्त सूत्र (पजत्तयाण) पर्याप्त सूत्र (बादराणं श्रोहियाणं) बादर औधिक सूत्र (पज तयाण) पर्याप्त सूत्र (भाणिया) कहने चाहिये (एवं जाव बाररवाउकाइयाणं पजत्तयाणं भाणियव्या) इसी प्रकार यावत् बादर वायुकाय पर्याप्त पर्यन्त वर्णन करना चाहिये (षणसइकाइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा !) हे भगवन् ! वनस्पतिकाय के शरीर की कितनी अवगाहना होती है ? भो गौतम ! (जहएणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागे, उक्कोसेणं साइरेगं जोयणसहस्स) जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण, उत्कृष्ट कुछ अधिक सहस्र योजन प्रमाण है ( सुहुमवणस्सइकाइयाणं श्रोहियाणं अपजत्तयाण तिरहं पि जहणणेणं असंखेजइभागं, उक्कोसेण वि असंखेजड़ भाग) सूक्ष्म वनस्पतिकाय के विषय में जो औधिक सूत्र है और अपर्याप्त पर्याप्त सूत्र हैं, उन सब की जघन्य उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण प्रतिपादन की गई है । ( वादरवणस्सइकाइयाणं जहरणेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोलेणं साइरेगं जोयणसहस्सं) बादर वनस्पतिकाय की जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग
___* जघन्य से उत्कृष्ट फिर भी अधिक जानना चाहिये । क्योंकि 'अनन्त' के अनन्त भेद होते हैं । इसी तरह अन्यत्र भी समझना ।
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[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] प्रमाण अवगाहना होती है और उत्कृष्ट कुछ अधिक सहस्र योजन प्रमाण (अपजत्तयाणं जहरणे ण अंगुलस्त असंखे आइभागं, उकासेगां अंगुलस्त असंखेजइभाग) अपर्याप्त जीवों के शरीरों की जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार की अवगाहना अंगुल के असंख्यातभाग प्रमाण हो होतो है : (पज तयाणं जहरणे यालस असंखेजइभाग, उक्कोसेणं साइरेगं जोयणसहस्स) पर्याप्त जीवों के शरीरों की अवगाहना जघन्य अगुल के असंख्यात भाग प्रमाण
और उत्कृष्ट किंचित् अधिक सहस्र योजन प्रमाण प्रतिपादन की गई है। ___भावार्थ-प्रथम औधिक पृथ्वीकायिक जीवों की ? औधिक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक २, अपर्याप्त ३, पर्याप्त ४, औधिक नारक पृथ्वीकायिक जीवों की ५, अपर्याप्त है, तथा पर्याप्त ७, इन सप्त स्थानों की जघन्योत्कृष्ट अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण अवगाहना प्रतिपादन की गई है। इसी प्रकार प्रकायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों की अवगाहना है । वनस्पतिकायिक जीवों के सप्त स्थानों में तो जघन्य अवगाहना प्राग्वत् ही है, बादर में उत्कृष्ट जीवों की अवगाहना किंचित् अधिक सहस्र योजन प्रमाण समुद्र में कमल नालिकादि की अपेक्षा से है। इस तरह एकेन्द्रियों के पांच दण्डकों की अवगाहना कथन की गई है। अब द्वीन्द्रिय श्रादि जीवों के विषय में कहते हैं
श्रय त्रिविकलेन्द्रिय विषय । एवं बेइंदियाणं पुच्छ, गोयमा ! जहण्गोणं अंगुलम्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं बारस जोयणाइं; अपजत्तयाणं जहणणेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेजइ भागं; पज्जत्तयाणं जहणोणं अंगुलस्स असंखेजहभाग, उक्कोसेणं बारस जोयणाई । तेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहरणोणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं तिगिण गाउयाइं; अपजत्तयाणं जहणणेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग, उक्कोसेण विअंगुलस्स असंखेज्जइभाग; पजत्तयाणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं तिषिण गाउयाई । चउरिदियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणणेणं
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[ उत्तरार्धम् ] अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाइं; अपज्जत्तयाणं जहएणणं उक्कोसेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं; पजत्तयाणं जहएणणं अंगुलस्स असंखेजइभार्ग, उकोसेणं चत्तारि गाउयाइं ॥
__ पदार्थ-(एवं वईदियाणं पुन्छा) द्वीन्द्रिय जीवों की हे भगवन् ! कितनी अव. गाहना होतो है ? (गोयभा ! जहणणेणं अंगुलम्स असंज्जइभागं, वेणं वापस जोगाई) भो गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट बारह योजन प्रमाण अवगाहना होती है (अपजत्तयाणं जहएणणं अंगुलस्स असंखेजइभाग, उकोसेण वि* अंगुलस्म असंखेजाइभागं ) अपर्याप्त द्वीन्द्रियों की जघन्य तथा उत्कृष्ट दोनों प्रकार की अवगाहनाएँ अंगुल के असंख्यातभाग प्रमाण होती हैं । (पजत्तयाग जाहश गोगां गार लस्स असंखेजनभाग, उक्कोसेणं बारस जोयणाई) पर्याप्त द्वीन्द्रिय जीवों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट बारह योजन प्रमाण है। । (तेदियाणं पुच्छा) हे भगवन् ! त्रीन्द्रिय जीवों की कितनी अवगाहना होती है ? (.यमा ! जहरणे... अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेण तिरिण गाउयाई) भो गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यातभाग प्रमाण और उत्कृष्ट तीन कोस प्रमाण होती है [यह भी बाहर के द्वीप समुद्रों में जाननी चाहिये ] (अपज्जत्तयाण जहरणेण अंगुलस्स असं इभाग, क्वो. सेण वि अंगुलरस असंखे जइभा) अपर्याप्त त्रीन्द्रिय जीवों की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण होतो हैं । ( पज्जत्तयाण अंगुलस्स असंखेज्जइभा , उकको पेण तिरिण गाउ गाई ) पर्याप्त जोवों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट तीन कोस प्रमाण होती है (चरिंदियाण पुच्छा ) चतुरिन्द्रिय जोवों की अवगाहना हे भगवन् ! कितनी होती है ? (गोयमा ! जहएणेण अंगुलस्स असंखेज्जइमागं, उक्कोसेण चत्तारि गाव्याई) भो गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट चार कोस प्रमाण होती है (अपजत्तरारण जहाणेण अंगुलरस असंखेज्जइभाग, उक्कोसेण वि अंतःस असंखेाग) और अपर्याप्त जीवों को अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण है (इज्जत्तयाणं जहरणेण अंगुलस्स असंवेज्जइभाग, उक्कोसेण चत्तारि गाउयाई)पर्याप्त
* यहां पर 'ति'-'अपि' शब्द परस्परापेक्षार्थ में है। + यह कथन स्वयंभूरमण समुद्र में शंखादि जीवों को अपेक्षा से है ।
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[ श्रीमदनुयोगद्वासूत्रम् ] जीवों को अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट चार कोस प्रमाण होती है।
भावार्थ-द्वीन्द्रिय जीवों को अवगाहना न्यून से न्यून अंगुल के पर ख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट १२ योजन प्रमाण कथन की गई है। अपर्याप्त द्वीन्द्रिय जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण ही रहती है। श्रीन्द्रिय जीवों की जघन्य अवगाहना तो प्राग्वत् ही है किन्तु उत्कृष्ट अवगाहना ३ कोस प्रमाण है । चतुरिन्द्रिय जीवों की जघन्य अवगाहना पूर्ववत् , उत्कृष्ट अवगाहना ४ कोस प्रमाण होती है। यह सर्व कथन असंख्यात द्वीप समुद्रों की अपेक्षा से प्रतिपादन किया गया है। अब पञ्चेन्द्रिय जीवों को अवगाहना के विषय में विवरण करते हैं
अथ पञ्चेन्द्रिय विषय । ___ पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णता ? गोयमा ! जहरणेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं जोयणसहस्स; जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! एवं चेव; संमुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिकालजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! एवं चेव; अपज्जत्तयसमुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिक्वजोणियाण"पु. च्छा, गोयमा ! जहणणणं अंगलस्स असंखेज्जइभागं, उकोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभाग; पज्जत्तयसमुच्छिम जलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणणेण अंगुलस्स अमखेज्जइभागं, उक्कोसेण जोयणसहस्स; गम्भवक्कंतियजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणणेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उकोसेणं जोयणसहस्स; अपज्जत्तयाणं पुच्छा, गोयमा । जहरणेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग, उक्कोसेण वि अंगुलस्स
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[ उत्तरार्धम् ] असंखेजइभागं; पज्जत्तयागं पुच्छा, गोयमा ! जहराणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं; चउप्पयथल यर पंचेंद्रियतिरिक्खजोणियाणं पच्छा, गोयमा ! जहगणेणं अंगुलरस असंखेजइभागं उक्कोसेणं छगाउयाई समुच्छिमच उप्पयथलयरपंचेंद्रियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहराणेणं अंगुलस्स श्ररखेज्जइभाग', उक्कोसेणं गाउयपुहुत्तं; अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहोणं अंगुलस्स अस खेज्जइभाग, उक्कोसेरा वि - गुलम्स अस खेज्जइभाग ; पज्जन्तयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहराणेणं अंगुलस्सअस खेज्जइभाग, उक्कोसेणं गाउयपुहुत्तं, गन्भवक्कंतियचउप्पयथलयर पंचिदियतिरिक्खजोणि याणं पुच्छा, गोयमा ! जहरणेणं अंगुलस्स असं खेज्जइभाग, उवकोसेणं छगाउयाई अपज्जत्तया पुच्छा, गोयमा ! जहणणेणं अंगुलस्स असं खेज्जइभाग, उक्कोसेवि अंग लस्सअस खेज्जइ भागं पज्जत्तयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहां अंगु लस्स असं खेज्जइभाग, उक्कोसेणं छगाउयाई; उरपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाण पुच्छा, गोयमा ! जहरणेण श्रंगु लस्स असंखेज्जइभाग उक्कोसेरा' जोयणसहस्सं; समुच्छिमउरपरिसप्पथलयरप' चिंदियतिरिक्खजोणियाण' पुच्छा, गोयमा ! जहर
अंग लस्स असंखे जइभागं, उक्कोसेण' जोयण पुहुत्तं; अपज्जत्तयाग' अंगु लस्स असंखज्जइ भागं, उबकोसेण वि असं जइभाग; पज्जत्तयाणं जहराणेणं अंगु लस्स असंज्जइभाग, उक्को से
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] विसंखेज्जइभाग, पज्जत्तयाणं' जहराणेण अंगु लस्स असख उजड़भाग, उक्कोसेरा' जोयणपुहुत्तं गव्भवक्क तियउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छो, गोयमा ! जहरणेण अंग लस्स असंख ज्जइभाग', उक्कोसे' जोयणसहस्सः अपज्जत्तयास पच्छा, गोयना ! जहगणेश अं लस्स असंखज्जइभाग, उक्कोसेण वि अंगु लस्स असंखज्जइभाग, पज्जत्तयाण' पुच्छा, गोयमा ! जहणणेण अंगु लस्स असंखज्जइभाग, उनकोसे ' जोयणसहस्स', भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजाणियाण पुच्छा, गोयमा ! जहरो' अंगु लस्सअस - ख े: जइभाग, उक्कोसे' गाउयपुहुत्तं संमुच्छिम भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोखियाणं पुच्छा, गोमा ! जहरोग अंग लस्स असंखज्जइभाग, उक्कोसेण धणुपुहुन्तं अपज्जत्तयसंमुच्छि मभुयपरिसप्पथलयर • पुच्छा, गोयमा ! जहराणेण अंग लस्स असंखे : जइभाग. उक्कोण विगुलस्स असंखज्जइभाग ; प ज तयसंमुच्छिमभुयपरिसप्पथलयर • पुच्छा, गोयमा ! जगणेण अंगुलस्स असंखज्जइभाग, उवकोसेण धणुपहुत्तं गन्भववकंतियभुयपरिसप्पथलयर पंचिंदियतिरिखखजोणियाण पुच्छा, गोयमा ! जहरणेण अंगुलस्स असंख ेज्जइभाग, उक्कोसेरा' गाउयपुहुत्तं, अप जत्तयाग' पुच्छा, गोयमा ! जहणणेण अंगुलस्त असंख े जइभाग', उक्को से वि अंग लस्स असंख े जइ भाग, पजत्तयाण पुच्छा, गोयमा ! जहणणेण ं अगु लस्स असंखज्जइभाग',
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[ उत्तरार्धम् ] उक्कोसेणं गाउयपुहुत्तं; खहयरपंचिंदिय तिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहरणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेगं धणुपुहुत्तं; संमुच्छिमखहयराणं जहा भुजारिसप्पसमुच्छिमाणं तिसुवि गमेसु तहा भाणियन्त्र; गम्भवति याणं पुच्छा, गोयमा ! जह. गणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभार्ग, उक्कोसेणं धणुपुहत्तं; अपज्जत्तयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहरणेणं अंगुलस्त असंखेज्जइभाग, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभाग; पज्जत्तयाणं गब्भवतियखहयर. (च्छा, गोयमा ! जहएणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं धणु पहत्तं । तत्थ णं संगहणिगाहाओ भांति । तंजहा-"जोयण सहस्स गाउयपुहुत्तं तत्तो अजोयणहुत्तं । दोण्हंतु धणुपुहुत्तं समुच्छिमे होइ उच्चित्तं ॥ १ ॥ जोयणसहस्स छग्गाउयाई तत्तो य जोयणसहस्सं । गाउयपुहुत्त भुयगे, पक्खीसु भवे धणु पहुत्तं ॥ २ ॥
__ पदार्थ-(चेदियतिरिक्वजाणियाणं भंते ! के महानिया सरीगेगाहणा परणता ?) हे भगवन् ! फचेन्द्रिय तिर्यक् योनियों के शरीरों को अवगाहना कितनी बड़ी प्रतिपादन की गई है ? (गोरमा ! जहरणेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग) भो गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण अवगाहना होती है (उकोसेणं जो रणसहस्सं) उत्कृष्ट सहस्र योजन प्रमाण होती है ( जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा,) हे भगवन् ! जलचर पञ्चेन्द्रिय तियक योनियों के शरीर की कितनी बड़ी अवगाहना होती है ? (गोयमा ! एवं चेत्र) भो गौतम ! जवन्य अगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट एक हजार योजन प्रमाण होती है । ( संमु.छपज तयरपंचिंदियतिरिक्त जोणियाणं पुछा,)
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] हे भगवन् ! संमूच्छिम जलचर पञ्चन्द्रिय तिर्यक् योनियों के शरीरों की कितनी बड़ी अवगाहना होती है ? (गोयमा !एवं चेत्र) हे गौतम! यह भी प्राग्वत् हो है। (अपजत्तय संमुच्छिम नलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा,) हे भगवन् ! अपर्याप्त समूच्छिम जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक् योनियों के शरीरों को कितनी बड़ी अवगाहना होती है ! (गोयना ! जहएणणं अंगुल:स असंखेनइभाग, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेजाभाग) हे गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट भी अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण शरीर की अवगाहना होती है । ( पजत्तयसंमुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्त जोणियाणं पुच्छा,) हे भगवन् ! पर्याप्त संमृच्छिम जलचर पन्द्रिय तिर्यक् योनियों की कितनी बड़ी अवगाहना होता है ? (गोयमा ! जहएणणं अंगुलस्स असंखेजाभाग, उक्कोसेणं जीयणसहस्सं ) भो गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृट एक हजार योजन प्रमाण अवगाहना होती है। (गम्भवक तियजलयरपंचेंदिय तिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा,) हे भगवन् ! गर्भ से उत्पन्न होने वाले जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक् योनियों के शरीरों की कितनी बड़ी अवगाहना होती है ? (गोयमा ! जहएणेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभागं, उक्कोसेणं जोयणसहस्स)भोगौतम! जघन्य अंगुल के असंख्यात भागप्रमाण
और उत्कृष्ट एक हजार योजन प्रमाण अवगाहना प्रतिपादन की गई है। (अपजतयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहरणेणं अंगुलस्स असंखेजहभागं, उकोसेण वि अंगुलस्स असंखेज भाग) हे भगवन् ! अपर्याप्त जीवों की कितनी बड़ो अवगाहना होती है ? भो गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही, अंगुल के असंख्यात भागप्रमाण होती है । (पजत्तयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहरणे ॥ अंगुलस्स असंखेजाभागं, उक्कोसेगां जोयणसहस्स) पर्याप्त जीवों की अवगाहनाजघन्य अंगुल के असंख्यात भागप्रमाण और उत्कृष्ट एक हजार योजनप्रमाण होती है । (चरायथल वरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा,) हे भगवन् ! चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक् योनियों के शरीरों को कितनी बड़ी अवगाहना होती है ? (गोयमा ! जहए ऐरणं अंगुलस्स असंखेजड़भागं, उक्कोसेणं छगाउयाई ) भो गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण होती है, उत्कृष्ट छह कोस प्रमाण है । [यह कथन देवकुरु, उत्तरकुरु के क्षेत्रों में हस्ति आदि युगलियों को अपेक्षा से है।] (समुच्छिमचउप्पय धन्नयापंचेदियतिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा,) हे भगवन् ! संमूछिम चतुष्पद स्थलचर फचेन्द्रिय तिर्यक् योनियों की कितनी बड़ी अवगाहना होती है ? (गोयमा ! जहरणे अंगुलस्स असंखे जइ भागं, कोसेणं गाव्यपृहुतं ) भो गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यात
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[ उत्तरार्धम् ] भाग प्रमाण, उत्कृष्ट पृथक् कोस प्रमाण है (अपजत्तयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहएणणं अंगुलस्स असंखेजाभाग, उक्कोसेणं वि अंगुलस्स असंखेजहभागं ) हे भगवन् ! अपर्याप्त चतुष्पद स्थलचर जीवों की अवगाहना कितनी बड़ी होती है ? भो गौतम! जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यात भागप्रमाण होती है। (पजत्तयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहएणणं अंगुलम्स असंखेजाभाग उकोसेणं गाउयपुहुत) हे भगवन् ! पर्याप्त जीवों को कितनी बड़ी अवगाहनाहोती है ? भोगौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट पृथकत्व कोस प्रमाण होती है (गम्भवतियचरप्पयालयरपंचिंदियतिरिक्खनोणियोणं पुच्छा, गोयमा ! जहएणेशं अंगुलस्स असंखेआइभाग, उकोसेण छगाउयाई) हे भगवन् ! गर्भज चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक् योनियों के शरीरों को कितनी बड़ी अवगाहना होती है ? भो गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट छह कोस प्रमाण है (अाजतयाण पुच्छा, गोरमा ! जहरणेणं अंगुलस्स असंखेजहभागं, उकोसेण वि अंगुलस्स असंखेजइभाग) हे भगवन् ! अपर्याप्त जीवां की कितनी बड़ी अवगाहना होती है ? भो गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट दोनों हो केवल अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण होतो है । (जतयाण पुच्छा, गोयमा ! जहरणेणं अंगुलस्स.असंखेजाभाग, उक्कोसेणं छगाउयाई) हे भगवन् ! पर्याप्त जीवों को कितनी बड़ी अवगाहना होती है ? भो गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट अवगाहना छह कोस प्रमाण होती है। ( उरपरिसप्पथलयरपं.चेदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोगमा ! जहए शं अंगुलस्स असंखेजइभाग, उक्कोसेणं जोयणसहस्स) हे भगवन ! उर. परिसर्प स्थलचर पञ्चन्द्रिय तिर्यक योनियों के शरीरों की कितनो बड़ो अवगाहना होती है ? भो गौतम! जघन्य अंगुल के असंख्यातभागप्रमाण और उत्कृष्ट एकहजार योजन प्रमाण यह कथन बहिर्वती द्वीप समुद्रों की अपेक्षा से है। ] (समुच्छिमउरपरि सप्पयलयरपंचेंदियतिरिक्खजो णयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहरणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उकोसेशं जोयणपुहुत्तं) हे भगवन् ! संमूञ्छिम उरःपरिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक् योनियों की कितनी बड़ी अवगाहना होती है ? भो गौतम ! जघन्य अंगुल के असं. ख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट पृथक्त्व योजन प्रमाण है । (अपज्जत्तयाण', जहरणेण अंगुलस्स असंखेज्जाभार्ग, उक्कोसेण वि असंखेज्जर भाग) हे भगवन ! अपर्याप्त जीवों की कितनी बड़ी अवगाहना होती है ? भो गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण होती है। (पजत्तयाणं, जहरणेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग, उकोसेणं जोयणपुहुत) हे भगवन् ! पर्याप्त उरःपरिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय संमूछिम तिर्यक्
+ “संखेनाभाग” त्यपि कचित् ।
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[श्रीमदनुयोगदारसूत्रम् ] योनियों को कितनी बड़ी अवगाहना होती है ? भो गौतम ! जघन्य अंगुल के भसंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट पृथक्त्व योजन प्रमाण कथन की गई है । (गम्भव क्कं.तेयउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा,) हे भगवन् ! गर्भ से उत्पन्न होने वाले उर परिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक् योनियों की कितनी बड़ी अव. गाहना होती है ? (गोयमा ! जहरणेणं अंगुल स असंखेजहभागं, उक्कोसेणं जोयणसहस्स) भो गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन प्रमाण होती है । (अपनत्तयाणं पुन्छा, गोयमा ! जहएणणं अंगुलस्स असंखेजहभागं, उकोसे । वि असंखेजहभाग) हे भगवन् ! अपर्याप्त जीवों की कितनी बड़ी अवगाहना होती है ? भो गौतम! जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण अवगाहना होती है । ( पजत्तयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहएणेणं अंगुलस्स असंखेज भाग, उक्कोसे गं जोयणसहस्सं ) हे भगवन् ! पर्याप्त जीवों की कितनी बड़ी अवगाहना होती है ? भो गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट १००० योजन प्रमाण है। (भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्वजणियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहगणेणं अंगुलस्स असंखेजहभागं, उकोसेणं धणुग पुहुत्तं ) हे भगवन् ! भुजपरिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक् योनियों को कितनी बड़ी अवगाहना होती है ? भो गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट पृथक्त्व धनुषु प्रमाण है । (संमुच्छिा भुयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा,) हे भगवन् ! संमूच्छिम भुजपरि सर्प स्थलचर की कितनी बड़ो अवगाहना होती है ? (या ! 'दएणेणं अंगुल:स असंवे. जहभाग, उकोसेणं धणुहुत्त) भो गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण
और उत्कृष्ट पृथक्व धनुष प्रमाण है । (अपजत्तय संमुच्छमभुय गरिसणालयर० पुच्छा, गोयमा ! जहरणेणं अंगुलस्स असंखेजहभाग, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंवेजहभागं) हे भगवन् ! अपर्याप्त सम्मच्छिम भुजपरिसर्प स्थलचर जीवों की कितनी बड़ो अवगाहना होती है ? हे गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण अव. गाहना है । ( पजत्तयसमुच्छिमभुयपरिसप्पथलयर० पुच्छा, गोयमा ! जहएणेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग, उ कोसेणं धणुपुहुत्त) हे भगवन् ! पर्याप्त संमूछिम भुजपरिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय जीवों की कितनी बड़ी भवगाहना होती है ? हे गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट अवगाहना पृथक्त्व धनुष प्रमाण होती है । ( गम्भवतियभुयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजीणियाणं पुच्छा,). हे भगवन् ! गर्भ से उत्पन्न होने वाले भुजपरिसर्प स्थलचर फचेन्द्रिय तिर्यक योनियों की कितनी बड़ी अवगाहना होती है ? (गोयमा ! जहरणेणं अंगुलस असंखेजाभाग, उल्कोसेणं गाउय
+“गाउ" इत्यप्यन्यत्र क्वचित् ।
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[ उत्तरार्धम् ]
हुत्तं) हे गौतम! जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट पृथक्त्व कोस प्रमाण है । (जत्तयाण पुच्छा, गोत्रमा ! जहरा देणं अंगुलस्त श्रसंखेज्जइभानं ज्योसे वि अंगुलस्त श्रसंखेज्जइभागं) हे भगवन् ! अपर्याप्त जीवों की कितनी बड़ी अवगाहना होती है ? हे गौतम ! जधन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट भी अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण ही अवगाहना होती है । (पु गोयगा ! जहरुणेणं अंगुलग्स श्रसंखेजइभागं, कोसे राज्यहुतं) पर्याप्त जीवों की अवगाहना कितनी बड़ी होती है ? हे गौतम! जधन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट अवगाहना पृथक्त्व कोस प्रमाण होती है । ( सहयरपंच देयतिरिक्खजोशियां पुच्छा, गोयमा ! जहर अंगुलरस श्रसंखेज इभागं, कोसे हु ) हे भगवन् ! खेच पञ्चेन्द्रिय तिर्यक् योनियों की कितनी बड़ी अवगाहना होती है ? भो गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट अवगाहना पृथक्त्व धनुष् प्रमाण होतो है । ( समुच्छिमहराणा जहा भुजपरिसप्प मुन्हिमाणं सिगुवि मेसु तहा भाणियां, ) भुजपरिसर्प संमूच्छिम जीवों की अवगाहना तीन गमों में जैसी कही गई है, वैसी हो यहां पर खेचर संमूच्छिम जीवों की कहना चाहिये | (वः तिया पुच्छा, गोयमा ! जहणणेणं श्रंतु संखेजः भागं, असे पुहु) गर्भ से उत्पन्न होने वाले खेचरों के शरीरों को कितनी बड़ी अवगाहना होती है ? भो गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट अवाना पृथक्त्व धनुप् प्रमाण होती है । (ताणं पुच्छा, गोमा ! जहा तुलम्स संभाग, उद्योि लस्स ग्रसंखेज्जइभ गं) हे भगवन् ! अपर्याप्त जीवों के शरीरों की कितनी बड़ी बगा - हना होती है ? भो गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट दोनों हो अवगाहनाएँ अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण ही होती हैं। (पज्जकख पुच्छा, गया! जह राणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइ भागं, उबोसेणं धणुदुहरु) हे भगवन् ! पर्याप्त गर्भज खेचरों के शरीरों की कितनो बड़ो अवगाहना होता है ? भो गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट पृथक्त्व धनुष प्रमाण अवगाहना कथन को गई है। (तत्संहािहा भवति, तं जहा-) यहां पर इस विषय को दो गाथाएं भो संगृहोत हैं । जैसे कि (जोयणसहरस ) ( संमूच्छिम जलचर पञ्चेन्द्रिय योनियों के जीवों की उत्कृष्ट अवगाहना] एक सहस्र योजन प्रमाण होती है और (यहुतं ) [ संमूच्छिम चतुष्पद की] पृथक्त्व कोस (तत्तो य जोयणपुहुत्तं । ) तत्पश्चात् [संमूच्छिम उरः परिसर्प की उत्कृष्ट अवगाहना ] पृथक्त्व योजन प्रमाण होती है ( दोहं धणुपुहुत्तं ) [ संमूच्छिम भुजपरिसर्प तथा खेचर संमूच्छिम ] इन दोनों की भी पृथक्त्व धनुष की अवगाहना
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
होती है (समुच्छिमे होइ उच्चित्तं |१| ) इस प्रकार संमूच्छिम तिर्यञ्चों की अवगाहना वर्णन की गई है | १ | (ओोपणसहस्स छाउ बाई) [गर्भज जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक् योनि के जीवों की और चतुष्पदों की क्रमशः अवगाहना एक सहस्र योजन प्रमाण और छह कोस प्रमाण होतो है (तत्तो य जोयणसहस्तां) तत्पश्चात् [ गर्भज उरः परिसर्प की भी अवगाहना] १००० योजन प्रमाण है । (गाउयपुहुत भुयनं) भुजपरिसर्प की अवगाहना पृथक्त्व कोत प्रमाण होतो है (क्खी भवे धहुतं | 21 ) गर्भज पक्षियों की पृथक्व धनुष प्रमाण अवगाहना है ॥ २ ॥
भावार्थ- पञ्चेन्द्रिय तिर्यक योनियों की श्रवगाहना जघन्य अंगुल के श्रसंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट १००० योजन प्रमाण होती है; जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक् योनियों की जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट श्रवगाहना १००० योजन :माण प्रतिपादन की गई है; संमूच्छिम जलचर पञ्चेन्द्रिय जीवों की अवगाहना भी प्राग्वत् ही है; अपर्याप्त संमूच्छिम जलचर पञ्चेन्द्रिय जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट श्रवगाहना
गुल के श्रसंख्यात भाग प्रमाण होती है, और पर्याप्त संमूच्छिम जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक योनि के जीवों की श्रवगाहना जधन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट १००० योजन प्रमाण है; गर्भज पञ्चेन्द्रिय तिर्यक योनियों की जधन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट १००० योजन प्रमाण श्रवगाना है; अपर्याप्त जीवों की श्रवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण होती है; पर्याप्त जलवर जीवों की जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट १००० योजन प्रमाण अवगाहना होती है; चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक योनि के जीवों की जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट ६ कोस प्रमाण अवगाहना होती है; संमूमि चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन् िय जीवों की जघन्य श्रवगाहना अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट श्रवगाहना पृथक्त्व कोस प्रमाण होती है; पर्याप्त जीवों की श्रवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट केवल अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण होती है; पर्याप्त जीवों की अवगाहनो जघन्य अगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट पृथक्त्व कोस प्रमाण होती है; गर्भज चतुष्पद स्थलचर पञ्वेन्द्रिय तिर्यक योनियों की जघन्य अवगाहना अगुल के असंख्यात भाग और उत्कृष्ट ६ कोस प्रमाण होती है; अपर्याप्त जीवो की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही अंगुल के प्रसंख्यात भाग प्रमाण
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[ उत्तरार्धम् ] होती है; पर्याप्त जीवों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट ६ कोस प्रमाण है; उर:परिसर्प स्थलचर पञ्चेद्रिय तिर्यक् योनियों की जघन्य अवगाहनो अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट १००० योजन प्रमाण होती है; संमूछिम उर परिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक् योनियों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृट पृथक्त्व योजन प्रमाण होती है; अपर्याप्त जीवों की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही केवल अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण है; पर्याप्त जीवों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट योजन पृथकत्व होती है; गर्भज उरःपरिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक् योनियों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट १००० योजन प्रमाण होती है; अपर्याप्त जीवों की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण होती है। पर्याप्त जीवों की अवगाहना जघन्य अंगल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट १.०० योजन प्रमाण होती है; भुजपरिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक योनियों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट पृथक्त्व कोस प्रमाण होती है; संमूच्छिम भुजपरिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक् योनियों की अवगाहना जघन्य अंगल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट पृथकत्व धनुष प्रमाण होती है; अपर्याप्त संमूछिम भुजपरिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक् योनियों की जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही अवगाहनाएँ अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण होती हैं; पर्याप्त संमूछिम भुजपरिसों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट पृथक्त्व धनुष् प्रमाण होती है; गर्भज भुज परिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक् योनियों की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट पृथक्त्व कोस प्रमाण होती है; अपर्याप्त जीवों की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण होती है। पर्याप्त जीवों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट पृथक्त्व कोस प्रमाण होती है; खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक् योनियों की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट पृथक्त्व धनुष की होती है; संमूञ्छिम खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों की अवगाहनाएँ भुजपरिसर्प संमूञ्छिम तिर्यों की बराबर है; गर्भज खेचरों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट पृथक्त्व धनुर की होती
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४८.
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम ) है; अपर्याप्त जीवों की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही अंगुल के असं ख्यात भाग प्रमाण होती है; पर्याप्त गर्भज खेचरों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण अोर उत्कृष्ट पृथकत्व धनुष की होती है; संमूञ्छिम जलचरों की अवगाहनो उत्कृष्ट १००० योजन की होती है और संमूच्छिम चतुष्पद की पृथक्त्व कोस की होती है; संमूछिम उरःपरिसर्प को पृथक्त्व योजन की अवगाहना होती है; संभूञ्छिम भुजपरिसर्प और संमूछिम नेचर, इन दोनों की भी पथक्त्व धनुष की ही अवगाहना होती है; जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक् योनिक गर्भज जीव की उत्कृष्ट अवगाहना १००० योजन प्रमाण होती है। चतुष्पद को उत्कृष्ट अवगाहना ६ कोस प्रमाण होती है; गर्भन उरस्परिसर्प की अवगाहना भी १००० योजन की है, गर्भज भुजारिसर्प की अवगाहना उत्कृष्ट पृथक्त्व कोस प्रमाण है और गर्भज पक्षियों की उत्कृष्ट अवगाहना पृथक्त्व धनुष की होती है। यह सर्व पञ्चन्द्रिय तिर्यक् योनियों की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना कही गई है। अब इसके आगे मनुष्यों के विषय में विवरण किया जाता है
अथ मनुष्य-अवगाहना विषय ।
मणस्साणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणणेणं अंगुलस्स असंखेजइभार्ग, उक्कोसेणं तिरिण गाउयाई संमुच्छिममणुस्माणं पुच्छा, गोयमा ! जहणणेणं अंगुलस्स असंखेन्जइभार्ग, उक्कोसेण वि अंगु नस्स असंखेज्जइभाग; अपज्जत्तय गम्भवकंतियमणस्प्लाणं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! जहणणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं; पज्जत्तयगब्भवक्कंतियमणुस्साणं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! जहएणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं तिरिण गाउयाई॥
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[ उत्तरार्धम् ] पदार्थ-(मणुस्साणं भंते ! के महालिया सरोरोगाहणा पण्णता ? ) हे भगवन् । मनुष्यों के शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी होती है ? (गोयमा ! जहरणेए! अंशुतत्स असं वे जइभान, उनको नेणं तिरिण गाउयाई ) भो गौतम ! न्यून से न्यून अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट अवगाहना तोन कोस को होतो है । [जैसे कि देवकुरु उत्तरकुर्वादि मनुष्यों की अवगाहना कथन की गई है। ] ( संमु छममणु-सागर पुच्छा,)संमूच्छिममनुष्यों के शरीरों को कितनी बड़ी अवगाहना होती है? (गोयमा! जहरणेणं अंशुलत असंखेज इभागं, उक्काले ग वि अंशुल रस असं वे जहभाग) भो गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण ओर उत्कृष्ट अवगाहना भी अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण होती है। [ ( गम्भवतियमणु साण भंते ! पुच्छा,) हे भगवन् ! गर्भज मनुष्यों के शरीर की कितनी बड़ी अवगाहना होती है ? ( गोयना ! जहरोण अंगुल त्स असं बेइमागं, उक्को तिरिय गाया) भो गौतम ! जयन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट तीन कोस की होती है। ]* (ग्राउजत्तय भवतिय पणुस्साणं भंत ! पुच्छा, ) हे भगवन् ! अपर्याप्त और गभज मनुष्यों को कितनी बड़ी अवगाहना होती है ? ( गोयमा ! जहणणे अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जर भागं ) भो गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट केवल अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण ही अवगाहना होती है । (पज्जत्तयगम्भवक्कंतियमणुस्साणां भंते ! पुच्छा,) हे भगवन् ! पर्याप्त और गर्भज मनुष्यों की कितनी बड़ी अवगाहना होतो है ? ( गोयमा ! जहरणेणं अंगुलस्स असं वेज्जइभाग, उक्कोसेणं तिरिण गाउयाई) भो गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट अवगाहना तीन कोस की होती है ।
__ भावार्थ-संमूर्छिम मनुष्य और अपर्याप्त मनुष्य इन दोनों की न्यून से न्यून और उत्कृष्ट से उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण होती है। गर्भज मनुष्यों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट तीन कोस प्रमाण होती है । इसके मध्यम भेद अनेक जानने चाहिये । यह उत्कृष्ट अवगाहना अकर्मभूमिज मनुष्यों की अपेक्षा से वर्णन की गई है। अब इसके आगे देवों की अवगाहना के विषय में कहते हैं
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[] एततकोष्ठान्तर्गतः पाठः कुत्रचिन्नास्त्यपि ।
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[श्रीमद्नुयोगद्वारसूत्रम् ] अथ देव-अवगाहना का विषय ।
वाणमंतराणंभवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य, जहा असुरकुमाराणं ता भाणियव्या, जहा वाणमंतराणं, तहा जोइसियाण विभाणियव्वा; सोहम्मे कप्पे देवाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पराणत्ता, तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउविया य; तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहणणणं अंगुलस्त असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं सत्त रयणीो तत्थ णं जा सा उत्तरवेउव्विया सा जहएणणं अंगुलस्त खेज्जइभागं उक्कोसेणं जोयणसयसहस्स; एवं ईसाणे कप्पे वि भाणियव्वं, जहा सोहम्मकप्पाणं देवाण पुच्छा, तहा सेसकप्पाणं देवाणं पुच्छा भाणियव्वा, जाव अच्चुअकप्पो; सणंकुमारे भवधारिणज्जा जहणगाणं अंगुलस्स असंखेज्जइ. भाग, उक्कोसेणं छ रयणीओ; उत्तरवेउव्विया जहा सोहम्मे; भवधारणिज्जा जहा सणंकुमारे तहा माहिंदे वि भाणियव्या. बंभलोयलंतगेसु भवधारणिज्जा जहणणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं पंच रयणीओ, उत्तरवेउव्विया जहा सोहम्मे; महासुक्कसहस्सारेसु भवधारणिज्जा जहरणोणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं चत्तारि रयणीओ; उत्तरवेउब्विया जहा सोहम्मे; आणतपाणतारणअच्चुएसु चउसु वि कप्पेसु भवधारणिज्जा जहणणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं तिषिण रयणीओ; उत्तरवेउब्बिया जहा सोहम्मे; गेवेज्जगदेवाणं
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[ उत्तरार्धम् ] भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! गेवेज्जगदेवाणं एगे भवधारणिज्जे सरीरे पण्णत्ते से जहणणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं दुण्णि रयणीओ; अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं एगे भवधारणिज्जे से जहएणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइ. भागं, उक्कोसेणं एगा रयणीउ ।
पदार्थ-(वाणपतराणं भवाणिजना य उत्तरर्वउच्चिया य जहा असुरकुमागणं तहा भाणियवा) वानव्यन्तरों के भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय शरीरों को अवगाहना जैसे प्रथम असुरकुमारों की वर्णन की गई है, उसी प्रकार जाननी चाहिये । ( जहा वाणमंतराण तहा जोयसियाण वि भाणियवा ) जैसे वा व्यन्तरों की अवगाहना का विवरण है, उसी प्रकार ज्योतिषो देवों का भी विवरण जानना चाहिये । ( सोह मे कप्पे देवाण ते ! के हालिया सगेगेगाहरणा परणता ? ) हे भगवन् ! सौधर्म कल्प के देवों को कितनी बड़ी शरीरावगाहना प्रतिपादन की गई है ? (गोयमा ! दुविहा परणता, तंगहा-भवधार. णि ता य उत्तरवेउब्धिया य ) भो गौतम ! उक्त देवों की अवगाहना दो प्रकार से वर्णन को गई है । जैसे कि एक भवधारणोय और दूसरी उत्तरवैक्रिय । ( तत्य एवं जा सा भय वारणिज्ना सा होशं अंगुलम्स असंवेनभा ) उन दोनों में जो भवधारणीय है वह जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण होती है । (उक्कोसेणं सत्त रयणी यो ) उत्कृष्ट अवगाहना सात हाथ की है । ( लत्य णं का सा उतर. वेर यया सा जहरणेगां अंगुल स संखेन्नइयाग ) उन दोनों में जो उत्तरवैक्रिय है, वह जघन्य अंगुल के संख्यात भाग प्रमाण है और ( उक्कोसेणं जोयणसयसहरसं) उत्कृष्ट एक लक्ष योजन प्रमाण होती है । ( एवं ईसाणकप्पे वि भाणियव्यं ) जैसे सुधर्म कल्प का विवरण है, उसी प्रकार ईशान कल्प का भी स्वरूप जानना चाहिये। (जहा संह मकप्पाण देवाणा पुच्छा, तहा सेतकप्पदेवाणं पुच्छा भाणियव्या, जाव अच्चुअकप्पो) जैसे सुधर्म कल्प देवों की पृच्छा का स्वरूप है, उसी प्रकार अच्युत पर्यन्त शेष कल्पों
+ वि'-अपि शब्द यहां पर परस्परापेक्षार्थ में है।
* भेदपूर्वक कथन करने से प्रत्येक पदार्थ का विवरण बड़ी सरलता से समझ में आ जाता है। इसी लिये यहां सब जगह प्रायः भेद पूर्वक कथन किया गया है।
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[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम । का भी स्वरूप जानना चाहिये। (सणकुमारे भवधारणिज्जा जहणणेण अंगुलस्स असंखेज्नइभार्ग) सनत्कुमार देवों की भवधारणीय शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यात भागप्रमाण, (उकोसेण छ रयणीयो) उत्कृष्ट षट् हाथ की होती है ( उत्तरवेउधिया जहा सोहम्मे) उत्तरवैक्रिय अवगाहना सुधर्म देवलोक की भांति है (जहा सण कुमारे तहा माहँदे वि) जैसे सनत्कुमारीय देवों को अवगाहना है उसी प्रकार माहेन्द्रीय देवों की भी अवगाहना जाननी चाहिये। (वंभलोपलंतगेसु भवधारणिज्जा जहरणेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं ) ब्रह्मलोक और लान्तक देवलोक के वासो देवों की भवधारणोय अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातभाग प्रमाण है और (उकोसेणं पंच रयणीश्री) और उत्कृष्ट पांच हाथ की होतो है । (उत्तरवेउब्बिया जहा सोहम्मे) उत्तरवैक्रिय जैसे सुधर्म देवलोक की है, वैसे ही जाननी चाहिये । ( महासुक्कसहरसारेसु भवधारणिज्जा जहरणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं ) महाशुक्र और सहस्रारवासी देवों को भवधारणीय अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातभाग प्रमाण है और (उकोसणं चत्तारि रयणीग्रो) उत्कृष्ट अवगाहना चार हाथ की है, (उत्तरवेविया जहा सोहा मे ) उत्तरवैक्रिय सुधर्म देवलोकवत् है ( आणतपाणतारणअच्चुएसु चउसु वि कप्पेसु भवधारणिजा जहएणणं अंगुलरस असंखेजइ भागं ) आनत, प्राणत, श्रारण और अच्युत, इन चारों कल्पों में भवधार णीय शरोरों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातभाग प्रमाण है और ( उकोसेणं तिरिण रयणीयो ) उत्कृष्ट अवगाहना तीन हाथ की होती है; (उत्तरवेउब्धिया जहा सोह में) उत्तरवैक्रिय सुधर्म देवलोक है। (गवैजगदेवाणं भंते ! के महालिया सरीमेगाहणा पण्णता ?) हे भगवन् ! गैधेयक देवों के शरीरों की कितनी बड़ी अवगाहना होतो है ? (गोयमा ! गेवजादेवाणं एगे भववारणिज्ने सरीरे पण्णते,से जहणणेणं अंगलस्स असंखेजइभाग, उक्कोसेणं दुन्नि रयणोओ) भो गौतम ! अधेयकदेवों के एक भवधारण य शरीर ही प्रतिपादन किया गया है। सो उस शरीर की जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट दो हाथ को अवगाहना होती है । ( अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पएणत्ता ?) हे भगवन् ! अनुत्तरोपपादिक देवों के शरीर की कितनी बड़ी अवगाहना होती है ? ( गोयमा ! अणुत्तरोवबाइयाणं देवाणं एगे भववारणिज्ने, से जहरणेणं अंगुलस्स असंखेजहभाग, उक्कोसेरणं एगा रयणीउ ) भो गौतम ! अनुत्तरविमानवासी देवों के एक भवधारणीय ही शरीर कहा गया है । सो उस की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट एक हाथ की होती है।
भावार्थ--वाणव्यन्तर देवों के शरीरों की अवगाहना असुरकुमारों के समान है । और उसी प्रकार ज्योतिषी देवों की भी है। किन्तु बारह कल्पवासी
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[ उत्तरार्धम् ] देवों के भवधारणीय शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्योत भाग प्रमाण होती है । उत्तरवैक्रिय शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के संख्यात भाग प्रमाण है और उत्तरवैक्रिय शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना एक लक्ष योजन प्रमाण होती है । भवधारणीय शरीरों की उत्कृष्ट अवगाहना निम्न प्रकार से है
सुधर्म और ईशान देवलोक वासी देवों की अवगाहना सात हाथ प्रमाण; सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक वासी देवों कीषट् हाथाप्रमाण; ब्रह्म पोर लान्लव के देवों की पाँच हाथ प्रमाण, महाशुक्र और सहसार के देवों की चार हाथ प्रमाण; आणत, प्राणत, आरण और अच्युत देवों की तीन हाथ प्रमाण; वेषक देवों की दो हाथ प्रमाण; और अनुतर विमान वासी देवों की एक हाय प्रमाण अवगाहना होती है। ये सर्व अवगाहनाएँ उत्सेधांगुल से नापी जाती हैं। इसलिये उत्सेधांगुल का वर्णन यहां पर फिर करते हैं
अथ पुनः उत्सेधांगुल का विषय । से समासोतिविहे पण्णत्ते, तं, जहा-सूई अंगुले पय गुले घणंगुले, एगंगुलायया एगपएसिया सेढो सूईअंगुले,सूई सईए गुणिया पयरंगुले, पयरं सूए गुणियं घणंगुले, एएसिणं सईअंगुलपयरंगुलघणंगुलाणं कयरे कयरहितो अप्पे वा बहुए वातुल्ले वा विसेसाहिए वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवे सूई. अंगुले, पयरंगुले असं वेज्जगुणे, घणंगुले असंखेज्जगुणे, से तं उस्सेहंगुले ।
पदार्थ-(से समासो तिविरे पएणते, तं जहा-- ) वह अंगुल संक्षेप से तीन प्रकार का प्रतिपादन किया गया है । जैसे कि (सू अंगुले ) सूच्यंगुल (पयरंगुले) प्रतरांगुल और ( घणगुले ) धनांगुल ( एगुलायया ) एक अंगुल प्रमाण (एगपएसिया सेटी सूईअंगुले) एक प्रदेशिक आकाश की श्रेणि को सूच्यंगुल कहते हैं (सूई सूईए गुणिया पयरंगुले) सूच्यंगुल को सुच्यंगुल के साथ गुणा करने से प्रतरांगुल बनता है। (पयरं सूईए गुणियं घणंगुले ) प्रतरांगुल को सूच्यंगुल के साथ
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५४
[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] गुणा करने से धनांगुल होता है (एएसि णं सूईअंगुलयर गुलघणं गुलाणं कयरेकयरहितो अप्पे वा बहुए वा तुल्ले वा विसेसाहिएवा) हे भगवन् ! इन सूच्यंगुल ? प्रतरांगुल, और घनांगुलों का परस्पर अल्प-बहुत्व, तुल्य-विशेषाधिकब किस प्रकार से है, ( सव्यत्योवे सू अंगुले पयरंगुले असंखेज गुणे, घणंः ले असंखेजणे ) भो गौतम ! सब से छोटा सूच्यंगुल होता है, प्रतरांगुल उससे असंख्यात गुणाधिक है । और घनांगुल प्रतरांगुल से भो असंख्यात गुणाधिक होता है । (से तं उस्सेहंगुले) सो वही उत्सेधांगुल होता है।
- भावार्थ--उत्सेधांगुल भी तीन प्रकार से वर्णन किया गया है। जैसे कि सूच्यंगुल १, प्रतरांगुल २, और घनांगुल ३ । एक अंगुल प्रमाण दीर्घ और एक प्रदेशिक रूप श्रेोणि को सूव्यं गुल कहते हैं। फिर सूच्यंगुलके साथ सूची को गुणा करने से प्रतरांगुल होता है । फिर प्रतरांगुल को सूची से गुणा करने से घनांगुल होता है । सब से स्तोक सूच्यं गुल है। प्रतरांगुल उससे असंख्य त गुणा है, घनांगुल उससे भी असंख्यात गुणा बड़ा है। यह सब अाकाश प्रदेशों की अपेक्षा से कथन किया गया है। इसलिये सूच्यंगुल से प्रतरांगुल के प्रदेश असंख्यात गुणाधिक और प्रतरांगुल से धनांगुल के प्रदेश असंख्यात गुणाधिक होते हैं। यह परस्परापेक्षा अधिक जानना। इन का पूर्ण विवरण पूर्व में लिखा गया है। इजी को उत्सेधांगुल कहते हैं । अब प्रमाणांगुल का विवरण किया जाता है
अध ध मागुल का विषय । से किं तं पमाणंगुले ? पमाणंगले एगमेगस्स रगणो चाउरंतवकवहिस्स अट्टसोवण्णिए कागणीरयणे छत्तले दुवालसंसिए अटकरिणए अहिगरणसंठाणसंठिए पण्णत्ता, तस्स णं एगामेगा कोडी उस्सेहंगुलविक्रखंभा तं सामणस्स भगवओ महावीरस्स अद्धगुलं, तं सहस्सगुणियं पमाणंगुलं भवइ. एएणं अंगुलप्पमाणेणं छ अंगुलाइंपादो,
दो पायाओं विहत्थी, दो विहत्थीओ रयणी, दो रयणीयो १-“दुवालसंगुलाई विहत्थी' इत्यप्यत्र पाठान्तरम् । २-"वितस्मिवसतिभरतकातरमातुलिङ्ग हः” प्रा० व्या०, अ०८, पा १, सूत्र २१४ । इत्येननतस्य हः ।
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[ उत्तरार्धम् ]
कुच्छी, दो कुच्छीओ धणू, दो धणुसहस्साई गाउयं, चत्तारि गाउयाइं जोयणं । एएणं पमाणंगुलेशं किं पत्रोयणं ? - भवत्था निरयाणं निरयावलीणं निरयपत्थडाणं कप्पाणं विमाणा विमाणावली विमाणपत्थडाणं टंकारं कूडा सेलाणं सिहरीणं पव्भाराणं विजयाणं वक्खाराणं वासाणं वासहराणं वेलाणं वेइयाणं दाराणं तोरणा दीवारा समुदाणं आयाम विक्खं भोच्चत्तोव्वेह परिकखेवा मविज्जति
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से समास तिविहे पणत्ते, तं जहा सेढो अंगुले पयरंगुले घणंगले | संखेजा जोयाकोडाकोडीओ सेढी, सेढी सेढीए गुणिया पयरं पयरं सेढीए गुणियं लोगो, संखेजपणं लोगो गणि संखेजा लोगो असंखेजपणं लोगो गणिओ असंखेजा लोगा, अांते लोगो गिओ अता लोगा । एएसि णं सेढीअंगुलपयरंगुलघांगुला कयरे कमरे हिंतो
बहुवा तुल्ले वा विसेसाहिए वा ? सव्वत्थोवे सेढीअंगुले, पयरंगुले असंखेज्जगुणे, घणंगुले श्रसंखेज गुणे से तं पाले । से तं विभागनिष्फरणे । से तं खेतपमाणे ॥
'
१ - कचिदेतन्नास्ति ।
२
-"वास हरपव्वयाणं" इत्यप्यधिकः पाठो दृश्यते क्वचित् ।
.५५
पदार्थ - (से किं तं प्रमाणंगुले ?) प्रमाणांगुल किसे कहते हैं ? (नागुले एगमेगस्स ररणी) एक २ राजा का (चउरंत चक्क हिस्स) जिस । तीन दिशा समुद्र तक और चतुर्थी दिशा हेमवंत पर्वत पर्यन्त इस प्रकार चारों दिशाओं का अन्त किया है अथवा चक्रधारी हो, ऐसे एक एक चक्रवर्ती राजा का ( असोशिए कागणीरयणे ) अष्ट सौवरिंक
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.५६
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] प्रमाण 'काकिणो' रत्न होता है, जो कि (छत्तले दुवालसंसिए) षट् वल और बारह अंश तथा (अट्ठकारणार) आठ कौन वाला होता है और इसका ( अहिगरणसंठाणसंठिए पर एते ) अहिरण के आकार जैसा संस्थान प्रतिपादन किया गया है । ( स णं) उस काकणी रत्न को (ए मेगा को) एक एक कोटि ( उस्ते गुलविक्खं भा) उत्सेधांगुल प्रमाण वष्कंभ वाली अर्थात् चौड़ी है । (त) वह (समणम्स भावग्रो महावीरस्स ग्रहगुलं) श्रमण भगवान् श्रीमहावीर का अद्धौगुल है । (तं सरस्सणं पमाणंगुलं भवइ) इसको सहस्र गुण करने से प्रमाणांगुल होता है अर्थात् उत्सेधांगुल से प्रमाणांगुल सहस्र गुणा अधिक होता है । (एएणं अंगुलप्रमाणेण) इस अंगुल के प्रमाण से (छ अंगुला गो) षट् अंगुल का एक पाद, (दा पायाप्रो विहत्थी) दो पादों की एक वितरित, (दो विहत्धीश्रो रय गी) दो वितस्तियों की एक रत्नि-हाथ, (हो रयणीयो कुच्छो) दो रनियों की एक कुक्षि, (को कुच्छीग्रो घण) दो कुक्षियों का एक धनुप, (दो घणु सहस्साई गाउग्रं ) दो हजार धनुषों का एक गव्यूत-कोस, (चत्तारि गाउयाई जोयण) चार गव्यूतों का एक योजन होता है । ( एएवं पनाणं लेणं किं पयउरणं ?) इस प्रमाणांगुल का क्या प्रयोजन है ? (एएणं पमाणं लेणं पुषीणं) इस प्रमागांगुल से रत्नप्रभादि पृश्चियों की, (कंडाण) रत्नकाण्ड आदि काण्डों की, (गा यालाणं) पाताल कलशों की, (भवणाणं) भवनों को, (भषणपत्यडाणं) भवनपतियों के प्रस्तरों की, (निरयाणं) नरकों को, (निरय व जीणं)नरक की पक्तियों को, (नित्यपत्थडाणं) नरक के प्रस्तरों की, (क-गाणं) कल्पों की, (वाणणं) विमानों को, (वेवाणावलीणं) विमानों की पंक्तियों की, (विमाणपत्थडाण) विमानों के प्रस्तरों की, (काणं) छिन्नटंकों की, (कडाणं) कूटों को, (सेनाणं) पर्वतों की, (सिहरोणं) शिखरो पर्वतों की, (पन्नाराणं) नम् पर्वतों को, (वे नयाणं) विजयों की, (वाराणं) वक्षार पर्वतों की, (वासाणं) क्षेत्रों की, (वास हराणं) वर्षधर पर्वतो.की, (वे जाणं) समुद्र को वेलाओं की, (वेइयाणं) वेदिकाओं को, (दाराणं) द्वारों को, (तोरणाण) तोरणों की, (दीवाणं)द्वीपों की, (समुदाणं) समुद्रों को, ( पायानविक्वंभोच्चत्तोबेहपरिक्खेवा ) लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई, गहराई और परिधि (मविज्जति) नापी जाती है।
(से समासो तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-) वह प्रमाणांगुल संक्षेप से तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है । जैसे कि (सेढीअंतुले, पपरंगुले, धणं गुले) श्रेणि-अंगुल १, प्रत. रांगुल २, और घनांगुल ३ असंखे ज़ायो जोषण कोडाकोडीयो सेढी) प्रमाणांगल के प्रमाण *श्रीमहावीरस्वामी स्वहाथों से साढ़े तीन हाथ प्रमाण और उत्सेवांगुल से सात हाथ प्रमाण हैं । + भवनपति देवों के त्रयोदश अन्तर स्थान को 'स्तट' कहते हैं।
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[ उत्तरार्धम् ] से असंख्यात योजन कोटाकोटि प्रमाण एक 'श्रेणि' होती है, (सेढी सेढीए गुरिणया पयर) श्रेणि को श्रेणि के साथ गुणा करने से 'प्रतगंगुल' होता है, और (पया से हीए गुणीयं लोगो) प्रतरांगुल को श्रेणि के साथ गुणा करने से एक 'लोक' होता है । वह लोक चौदह रज्जु प्रमाण होता है । स्वयंभूरमण समुद्र के पूर्व से पश्चिम तक के विस्तार को एक रज्जु कहते हैं । सोइसी संवे न रण लोग गुणिया संखे ना लोगा) संख्यात लोक से गुणाकार करने पर संख्यात लोक होता है, (असं वे ज रणं लागो गुणिग्रो असंखेजा लागा) असंपात लोक से गुगा करने पर असंख्यात लोक होता है (अणतेण लोगो गुणिग्रो अणता लोगा) एक लोक का अनंत लोकों के साथ गणा करने से अनंत लोक होता है अर्थात् लोक अनंत है । (एएसि णं सेढिअंगुल परंतुन वणं हार कयरे कयरहितो अप्पे वा बहुए वा तुल्ले वा विसेसाहिए वा) इन श्रेगि-अंगुल, प्रतरांगल और घनांगलों का परस्पर किस २ के साथ अल्प, बहुत्व, तुल्य और विशेषाधिक भाव है अर्थात् परस्पर न्यूनाधिक कौन से अंल हैं ? (सच योवे सेदिय एले) सत्र से स्तोक छोटा श्रेणि-अंगुन होता है, (
पलं असंखेज पुणे) श्रेणि-अंगुल से प्रतरांगुल असंख्यात गुणाधिक होता है और (घरगुले असं वे जहणे) प्रतरांगुल से घणांगुल भी असंख्यात गुणाधिक होता है, (से तं पाणगुल से तं विभा. निप्फरणे) सो यही प्रमाणांगुल है और यहो विभाग निष्पन्न नामक भेद है, ( से तं खेतप्पमाणे ) सो यही क्षेत्र प्रमाण है अर्थात् उक्त अंगुलियों के द्वारा ही सर्व प्रकार से क्षेत्रों का प्रमाण किया जाता है।
___ भावार्थ-प्रमाणांगुल उत्सेधांगुल से १००० गुणाधिक है । इस प्रकार सूत्र में कहा गया है। श्रीमान् भगवान् वर्द्धमान स्वामी की एक अंगुल के प्रमाण में उत्सेधांगुल दो होते हैं । अनादि पदार्थों का प्रमाण इसी अंगुल के द्वारा किया जोता है और इस अंगुल के भी पूर्ववत् पाद, हाथ, धनु, कोश, योजन
आदि जान लेने चाहिये । फिर उत्सेधांगुल धणांगुलों का अल्प-बहुत्व भी प्राग्वत् ही कथन किया गया है । वृत्ति में इस अंगुल का निम्न प्रकार से स्वरूप प्रतिपादन किया गया है, इस के अनन्तर प्रमाणांगुल का विवरण किया जाता है । उत्सेधांगुल से १००० गुणाधिक प्रमाणांगुल होत है। परम प्रकर्ष रूप प्रमाण को जो अंगुल प्राप्त हो, उसे 'प्रमाणांगुल' कहते हैं । अथवा समस्त लोकव्यवहारादि और राज्यस्थिति आदि का जिस से प्रमाण किया जाय तथा जिससे बृहत्तर अन्य कोई अंगुल न हो, उसे 'प्रमाणांगुल' कहते हैं, अथवा लौकिक सर्व व्यवहार के दर्शक प्रमाण भूत तथा इस अवसर्पिणी काल में प्रथम श्री. युगादि देव श्रीऋषभनाथ भगवान् के अंगुल और उनके सुपुत्र श्रीभरत चत्र!
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] पी के अंगुल को भी 'प्रमाणांगुल' कहते हैं । 'काकणी' रत्न के छह तल, बारह अंश और पाठ कौने होते हैं । 'अहिरण' रत्न के सदृश उस का आकार होता है। और वह प्रत्येक चतुरन्त चक्रवर्ती राजा के पास होता है अन्य अन्य काल में उत्पन्न हुए चक्रवर्ती के काकणी रत्न को तुल्य कहने के लिये 'एक' शब्द का ग्रहण किया गया है । तथा निरुपचरित 'राज' शब्द का विषय जानने के लिये राज' शब्द का ग्रहण किया गया है। तीन दिशाओं में समुद्र तक तथा चौथी दिशा में हैमवंत पर्वत पर्यन्त सामान्य रूप से अपने चक्र के द्वारा पृथ्वी को साधन करने वाले को 'चतुरन्त चक्रवर्ती' कहते हैं । काकणी रत्न को प्रमाण इस प्रकार है। __चार मधुर तृण फल का एक श्वेत 'सर्षप' होता है । सोलह श्वेत सर्षप का एक 'धान्य माष फल' होता है । चार धान्य माष फलकी एक 'गुजा' होती है। पांच गुंजा का एक 'कर्ममाप' होता है। सौलह कर्ममाषक का एक 'सुवर्ण' और पाठ सुवर्ण को एक 'काकणी रत्न' होता है । ये मधुर तृण फलादि भरत चक्रवर्ती के समय के ग्रहण किये गये हैं । अन्यथा काल के भेद से इनका न्यूनाधिक होना संभव है । इसी कारण से समस्त चक्रवर्तियों के काकणी रत्न तुल्य नहीं होते । काकणी रत्न चारों दिशाओं तथा अर्द्ध अधो दिशाओं में होता. हैं । इसलिये इसके षः तल और बारह अंश होते हैं । ऊर्द्ध वा अधो दिशाओं में चार २ कोण भव होते हैं । अतः इसके पाठ कोण हैं । इसी कारण से इसे 'अष्टकर्णिका' भी कहा जाता है। इसका संस्थान अहिरण के श्राकार जैसा प्रतिपादन किया गया है। काकणी रत्न की एक कोटि उत्सेधांगुल प्रमाण चौड़ी है । इसी प्रकार शेष चार अंश भी एक उत्सेधांगुल प्रमाण होते हैं । इसका चतु. रंश, आयाम तथा विष्कंभ प्रत्येक उत्सेधांगुल प्रमाण होता है। किसी २ ग्रन्था में इस प्रकार भी कहा गया है कि चतुरंगुल प्रमाण सुवर्ण, काकणी रत्न जानना' चाहिये । यह किसी २ का मत है । निश्चित मत सर्वच जाने । प्रत्येक उत्सेधांगुल भगवान् वर्द्धमानस्वामीजी के अ‘गुल के बराबर होता है । यथा -
श्रीवर्द्धमानस्वामी सात हस्त प्रमाण ऊंचे थे। एक २ हाथ चौबीस अंगुल प्रमाण होता है । इस हिसाबसे भगवान् एकसौ अरसठ उत्सेधांगुल प्रमाण हुए। और मतान्तर अपेक्षा अपने हाथों द्वारा नापने से साढ़े तीन हाथ अर्थात् चौरासी उत्सेधांगुल प्रमाण हुए । इस तरह से एक उत्सेधांगुल, भगवान् वर्द्धमान स्वामी:
* "चरंगुलर पमाणा"।
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[ उत्तरार्धम् ] जी के अर्धांगुल के बराबर होता है । और दो उत्सेधांगुल, भगवान् के अात्मांगल की अपेक्षा एकसौ पाठ अंगल अर्थात् साढ़े चार हाथ के हैं। उन के मत में एक आत्मांगल उत्सेधांगुल के नव भागों में से पांच भाग के बराबर हुआ। और जिनके मत में प्रात्मागुल की अपेक्षा से भगवान् एक सौ बीस अंगल अर्थात् पाच हाथ प्रमाण हैं, उनके मत में एक प्रात्मांगल उत्सेधांगुल के पाँच भागों में से दो भाग अधिक हुआ। इस प्रकार प्रथम मत की अपेक्षा से एक उत्स. धांगुल, भगवान् वर्द्धमान स्वामीजी के अर्द्धात्मांगुल के तुल्य होता है। एक उत्सेधांगल को सहस्र गणा करने से एक प्रमाणांगल होता है। यथा-भरत चक्रवर्ती, प्रमाणांगुल से एक सौ बीस अंगुल प्रमाण ऊंचे थे। क्योंकि इनके आत्मांगुल तथा प्रमाणांगल दोनों अन्यूनाधिक होते हैं । उत्सेधांगल की अपेक्षा से भरत चक्रवर्ती पांच सौ धनुष प्रमाण थे। एक धनु नौ सौ त्रेसठ उत्सेधांगल का होता है। इस गणना से पांच सौ धनुष के अड़तालीस सहस्र उत्सेधांगुल होते हैं । यहां पर शंका हो सकती है कि जब प्रमाणांगुल चार सौ उत्सेधांगुल के बराबर हुआ, तब "पूर्वोक्त उत्सेधांगुल से एक सहस्र गुणाधिक प्रमाणांगुल होता है" यह कथन किस प्रकार से ठीक हो सकता है ? इसका उत्तर यह है कि एक प्रमाणांगुल ढाई अंगुल प्रमाण मोटा है । सो जब वह मोटाई में यथावस्थित होता है, तब चार सौ गुणा ही होता है। क्योंकि उत्सेधांगुल मोटाई को चार सौ रूप दीर्घपणे के साथ गुणा करने पर एक अंगुल विष्कभ तथा एक हजार अंगुल विष्कम तथ! एक हजार अंगुल दीर्घ प्रमाण को सूचि सिद्ध हुई । पुनः ढाई अंगुल विष्कम्भ प्रमाणां गुल की तीन श्रेणियां कल्पित करने पर पहली एक अंगुल विष्कम्भ चार सौ अंगुल की श्रेणि हुई। दूसरी भी इतनी ही है । और तीसरी श्रोणि अर्दोगुल विष्कम्भ है। इसलिये दो सो अंगुल प्रमाण दीर्घ हुई । सो तीनों मिल कर एक हजार अंगुल हुई । इसमें से एक उत्सेधां. गुल विष्कम्भ तथा सहस्र सत्सेधांगुल दीर्घ की सूची सिद्ध हुई। अतः इस गणना की अपेक्षा से उत्सेधांगुल से एक हजार गुणा प्रमाणांगल होगया है। परन्तु वास्तव में चारसौ गुणा ही बड़ा है । इसी का नाम 'विभागनिष्पन्नक्षेत्र प्रमाण' है। अब आगे काल प्रमाण' का विवरण करते हैं
अक काल का विषय । से किंतं कालप्पमाणे?, २ दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पएस
* 'से' शब्द मागधी भाषा में 'अर्थ' शब्द के अर्थ में आता है, 'किं' शब्द प्रश्न के अर्थ में आता है और 'त' शब्द पूर्व सम्बन्धार्थ में आता है।
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[ श्रीमदनुयोगद्वार सूत्रम् ] निप्फण्णे य विभागनिप्फरणे य, से किं तं पएसनिप्फणणे?,२ एगसमयट्टिइए दुसमयट्रिईए तिसमयट्रिईए चंउसमयट्रिएई जाव दससमयट्टिईए असंखेज्जसमयट्टिईए, से तं पए सनिप्फरणे । से किं तं विभागनिप्फरणे ?, समयावलिअमुहत्ता, दिवसअहोरत्तपक्षमासा थ। संवच्छरजुगपलिया, सागरोसप्पिपरियट्टा ॥१॥
पदार्थ-(से किं तं कालप्पमाणे ?, २ दुविहे पएणत्ते, तं जहा-) काल प्रमाण किसे कहते हैं ? वह दो प्रकार से वर्णन किया गया है । जैसे कि-(पएसनिप्फरणे य विभागनिष्करगे य) प्रदेशनिष्पन्न और विभाग निष्पन्न (से किं तं पएसनिप्फणे ?) प्रदेशनिष्पन्न काल प्रमाण किसे कहते हैं ? (एगसम हि ईए) एक समय की स्थिति वाला द्रव्य वा परमाणु काल प्रमाण से एक समय की स्थिति वाला कहा जाता है । (दुसमयट्टिईए) दो समय को स्थिति वाला (तिसनयटिईए, तीन समय की स्थिति वाला (चउसमयटिईए) चार समय की स्थिति वाला (जाव दससमयदिईए) दश समय को स्थिति वाले (असंखिज्ज समयटिईए) असंख्यात समय की स्थिति वाले तक जानना (से तं पए सनिप्फरणे) सो वहो प्रदेश निष्पन्न काल प्रमाण होता है । (से किं तं विभागनिप्फणे ?) विभागनिष्पन्न काल प्रमाण किसे कहते हैं ?
समयावलिअमुहुत्ता, दिवसहोरत्तपक्खमासा य । संवच्छरजुगपलिया, सागरोसपिपरियट्टा ॥१॥
समय, * पावलिका, मुहूर्त, दिवस, अहोरात्र, पक्ष, मास, संवत्सर, युग, पल्य, सागर, उत्सर्पिणी और परिवर्तन, ये सभी विभागनिष्पन्न काल प्रमाण है।
भावार्थ-काल प्रमाण भी दो प्रकार का है। एक प्रदेशनिष्पन्न और दूसरा विभागनिष्पन्न । एक समय स्थिति वाले परमाणु या स्कन्ध, दो समय स्थिति वाले
६-क्वचिदेतद्वाक्यं नोपलभ्यते ।
* असंख्यात समयों की एक श्रावलिका, १६७७७२१६ श्रावलिकाओं का एक मुहूर्त, १५ मुहूतौ का एक दिवस, ३० मुहूतों का एक अहोरात्र या रात्रि दिवस, १५ अहोरात्र का एक पक्ष, २ पक्षों का एक मास, १२ मासों का एक संव सर, ५ संव सरों का एक युग, अनेक युगों का एक पल्य, १० कोटाकोटि पल्यों का एक सागर, १० कोटाकोटि सागरों की एक उत्सपिर्णी और अनन्त उत्सर्पिणी कालों के
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[ उत्तरार्धम् ] परमाणु या स्कन्ध, इसी तरह तीन चार आदि असंख्यात समय पर्यन्त वाले परमाणु-स्कन्धों को 'प्रदेशनिष्पन्न काल प्रमाण' कहते हैं, और समय, आवलिका, मुहर्त, दिवस, अहोरात्र, पत, मास, सम्वत्सर, युग, पल्य, सागर, अवसपिणी उत्सर्पिणी, परावर्तन इत्यादि को 'विमागनिष्पन्न काल प्रमाण' कहते हैं। अब समय का स्वरूप वर्णन करते हैं
अध समय का विषय ।
से किं तं समए ? समयस्स णं परूवणं करिस्सामि, से जहानामए तुण्णागदारए सिया तरुण बलवं जुगवं जुवाणे अप्पात के थिरग्गहत्थे दढपाणिपायपासपि,तरोरुपरिणते तलजमलजुयलपरिघणिभबाहू घंणणिचियवदृपाणि खंधे घम्मगदुहणमुट्टियसमाहतनिचितगत्तकाए उरस्सबल समगणागए लंघणपवणजइणवायामसमत्थे छेए दक्खे पत्तट्टे कुसले मेहावी निउणे निउणसिप्पोवगए एग महती पडिसाडियं (वा)पट्टसाडियं वा गहाय सयराहं हत्थमेत्तं ओसारेजा, तत्थ चोपए पण्णवयं एवं वयासी-जेणं कालेणं तेणं तुण्णागदारएणं तीसे पेडसाडियाए वो पट्टसाडियाए वा सयराह हत्थमेत्ते ओसारिए, से समए भवइ?, नो इणटेसमटे, कम्हा?, जम्हा संखेजाणं तंतूणं समुदयसमितिसमागमेणं एगा पट्टसाडिया निप्फजइ, उवरिल्लंमि तंतुमि अच्छिण्णे हिट्रिल्ले तंतू न छिज्जइ, अण्णमि काले उवरिल्ले तंतू छिज्जइ,
१- नाम' इति संभावनायाम् । २-'अप्प-अल्प शब्दोऽभाववचनः । ३-कचिदेतद्वाक्यं नोपलभ्यते । क्वचित् 'चम्मे०' ५-कचित् 'धम्म' स्य स्थाने 'चम्मे' इति ।
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] अण्णमि काले हिटिल्ले तंतू छिज्जइ, तम्हा से समए न भवइ, एवं वयंतं पण्णवयं चोअए एवं वयासीजेणं कालेणं तेणं तुण्णागदारएणं तीसे पडसाडियाए वा पट्टसाडियोए को उवरिल्ले तंतू छिण्णो से समए भवइ ? न भवइ, कम्हा ? जम्हा संखेजाणं पम्हाणं समुदयसमितिसमागमेणं एगे तंतू निष्फजइ, उवरिल्ले पम्हे अच्छिण्णे हेटिल्ले पम्हे न छिज्जइ, अण्णमि काले उवरिल्ले पम्हे छिज्जइ, अण्णमि काले हेट्रिल्ले पम्हे छिज्जइ, तम्हा से समए न भवइ । एवं वयंतं पण्णवयं चोअए एवं वयासी-गणं कालेणं तेणं तुण्णा. गदारएणं तस्स तंतुस्स उवरिल्ले पम्हे छिण्णे से समए भवइ ? न भवइ , कम्हा ? जम्हा अणंतार्ण संघायाणं समुदयसमितिसमागमेणं ऐगे पम्हे निष्फजइ, उवरिल्ले संघाए अविसंघाइए हेटिल्ले संघाऐ न विसंघाइज्जइ, अण्णंमि काले उव रेल्ले संघाए विसंघाइज्जइ. अण्णमि काले हिटिल्ले संघाए विसंघाइ ज्जइ, तम्हा से समए न भवइ । एत्तो वि अणं सुहुमतराए समए पण्णत्ते समणाउसो! अमंखिज्जाणं समर्याणं समुदयसमितिसमागमेणं सा एगा आवनिअत्ति वुच्वइ, संखज्जाओ आवलियाओ ऊसासो, संखिज्जाओावलियाओ नीसासो-हटुस्स अणवगल्लस्त, निस्वकिट्ठस्स जंतुणो । एगे ऊसासनीसासे, एस पाणुत्ति वुच्चई ॥१॥ सत्त पाणूणि से थोवे,सत्तथोवाणि से लवे । लवाणं सत्तहत्तरीए, एस मुहुत्ते विवाहिए ॥२॥ तिषिण सहस्सा सत्त य, सयाइं तेहुत्तरं च ऊसासा । एस मुहुत्तो भणियो, सव्वेहि अणंतनाणीहि ॥३॥ एएण मुहुत्तपमाणेण तीसं
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[ उत्तरार्धम् ] मुहत्ता अहोरत्तं, पण्णरस अहोरत्ता पक्खो, दो पक्खा मासो, दो मासा ऊऊ, तिमिण उऊ अयणं, दो अयणाई संवच्छरे, पंच संबच्छराइ जुगे, वीसं जुगाई वाससयं, दस वाससयाई वाससहस्सं, सयं वाससहस्साण वाससयसहस्सं, चोरासीई वाससयसहस्साइं से एगे पुव्वंगे, चउरासीई पुव्वंगसयहस्साई से एगे पुव्वे, चउरासीई पुध्वसयसहस्साई से एगे तुडिअंगे. चउरासीइं तुडिअंगे सयसहस्साई से एगे तुडिए, चउरासीई तुडिअसयसहसाइ से एगे अडडंगे, चउरासोइ अडडंगसयसहसाइं से एगे अरडे, एवं अबवंगे अबवे हुहुअंगे हुहुए उप्पलंगे उप्पले पउमंगे पउमे नलिणंगे नलिणे अच्छनिऊरंगे अच्छनिउरे अउअंगे अउए पउअंगे पउए णउअंगे णउए चूलिअंगे चूलिया सीसपहेलियंगे चउरासीइं सीसपहेलियंगसयसहस्साई सा ऐगा सीसपहेलि । एयावया चेव गणिए, एयावया चेव गणिअस्स विसए एत्तोवरं प्रोवमिए पबत्तइ ॥
पदार्थ-(से कि त समए ? ) समय किसे कहते हैं ? (स पयस्स णं परवणं करिस्सामि) अब मैं समय की ही प्ररूपणा करूंगा, (से जहानाम ए तुरणार.दार ए सिया) जैसे एक दर्जी हो, (तरुणे बलव) वह तरुण और बलवान हो,(जुग्वं जुवाणे) चतुर्थकाल का जन्महो और जवान हो, अप्पातक) रोग रहित हो (थिरस हत्ये) हाथ जिसके रियर हो, (दढ़ पाणपाय पिटुत्तरोरुपरिणते) पार्श्व, पृष्ठयन्तर और उरु भाग भी जिसके दृढ़ और सुपरिणमित हों अर्थात् सुडौल हों (तलजमलजुयलवाहू) ताल वृक्षोंके सह श लम्बे और अर्गलोंके समान जिसके बाहु युगल मोटे हों (घणणिचित्रपाणिवखं) कठिन संगठित और वर्तुलानार जिसके स्वन्ध हों (च मेट्ठगदु हर मुटिअसमाह त निचितगत्तकाए) चर्गेष्टक, घण मुष्टिका आदि व्यायामों के प्रतिदिन अभ्यास से जिसके शरीर के अवयव पुष्ट होगये हों (उरस्सपल तमरणााए) हृदय का बल भी जिसको प्राप्त हो गया है अर्थात् जिस का अन्तःकरण उत्साह, वीर्य आदि से युक्त हो (लंघणपवणजइणवायामसमत्थै) कूदना,
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] फलांगना, तैरना, दौड़ना आदि व्यायामों के करने में भी जो समर्थ हो (च्छेए) नो प्रयोगादि का भी ज्ञाता हो, (दक्वे) जो शोध कार्य करने वाला हो, (पत ४) जो उपाय को करने वाला हो, और (कुसले) जो विचार शोल हो (मेह वी) जो एक वार हो सुन कर या देख कर स्मृति रखने वाला तथा कार्य प्रारम्भ करने वाला हो, (निउणे) उपायों का ज्ञाता हो, (निउणसिप्पोबाए) जो शिल्पोपगत और सक्ष्म विज्ञान युक्त हो, एक (एणं महती पाडेसाडियं पट्ट साडियं वा गहाय) एक बड़ो या छोटो पट साटिका ग्रहण करके उसमें से (स पराहं ह थमेते श्रोसारेजा) एक हो बार में बहुत शीघ्र हाथ भर फाड़ दे, तत्थ चोयए परणवयं एवं क्यासी-) उस समय ऐसी स्थिति में प्रेरक शिष्य ने प्रज्ञापक-गुरु से यों कहा-(जेणं कालेणं तेणं तुरणागदारएणं तीते पडसाडिपाए वा पट्टसाडियार वा सयराहं हत्थमंत्ते श्रोसारिए से सन ए भवइ ?) जितने काल में उस दर्जी के बालक ने उस कपड़े में से एक ही बार में बहुत ही शोघ्र एक ह.थ भर कपड़ा फाड़ दिया तो क्या वहो समय है ? (नो इगट्टे सन?) यह अर्थ समर्थ नहीं है, (क-हा?, क्यों ? (ज-हा संखेजाणं तंतृणं समु१२ समितिसमा मे गं) यों कि संख्यात तन्तुओं के समुदाय से एा पडि साडिया नि-फजइ) एक पट्ट साटिका उत्पन्न होता है, और (उवरिल्लमि तंतुमि अच्छिण्णे हिटिल्ले त न छिजइ) ऊपरके तन्तुओं के विना छिदे नीचे के तन्तु नहीं छिदते, (अण्णंमि काले उवरिल्ले तंतू छि जइ अण्णमि काले हिटिल्ले तंतू छिजइ) ऊपर के तन्तु अन्य काल में छेदन होते हैं और नीचे के तन्तु अन्य काल में छेदन होते हैं (तम्हा से समए न भवइ) इसलिये वह 'समय' नहीं है । (एवं वयंत परणवयं चोअए एवभं वयासी-- गुरु के इस प्रकार कहने पर शिष्यने यों कहा-(जेणं कालेणं तेणं तुराणागदारएणं तीसे पडसाडियाए वा पट्टसाडियाए वा अरिल्ले तंतू च्छिणणे से समए भवइ ?) जितने काल में उस दर्जी के बालक ने उस कपड़े के ऊपर के तन्तु को छेदन किया, क्या वह 'समय' है ? (न भवइ) नहीं होता, (कन्हा ?, क्यों? (नम्हा संखे जाणं पम्हाणं समुदयसमितिसमागमेणं एगे तंतू निप्फजइ) इसलिये कि संख्यात पक्ष्मणों के समुदाय से एक तन्तु बनता है और उवरिल्ले पन्हे अच्छिएणे हेटिल्ले पम्हे छिजइ) ऊपर के पक्ष्म छिदे विना नीचे के पन्म नहीं छिदत्ते (अरांणमि काले उवरिल्ले पन्हे च्छि जइ अएणामिकाले हेटिल्ले पम्हे च्छिज्जइ) ऊपर के पक्ष्म अन्य काल में छिदते हैं और नीचे के पक्ष्म अन्य काल में छिदते हैं (तम्हा से समए न भवति ) इसलिये वह 'समय' नहीं है (एवं वयंत पएणवयं चो अए एवं वयासी-) इस प्रकार गुरु के कहने पर शिष्य ने कहा-(जे कालेणं तेणं तुरणागदार एण) जिस काल में उस दरजी के बालक ने (तस्स तं तुस्स उवरिल्ले पम्हे च्छिएणे से समए भवइ ?) उस तन्तु के ऊपर को 'पक्ष्म' को छेदन किया है, क्या वह
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[ उत्तरार्धम् ]
'समय' है ? ( न भवइ) नहीं, (क· हा?) क्यों ? ( जन्हा अणंताणं संधायाणं समुदय समितिसमागमेणं
समुदाय समिति समागम
गेहं निज) इसलिये कि अनन्त संघातों के से एक 'पक्ष्म' उत्पन्न होता है. (रिल्ले संवाए विदाइ डिल्ले संघाए न वि संघाइज्जइ) ऊपर के संघात के विसंघटित हुए विना नीचे का संघात विसंघटित नहीं होता । (अंति काले उनरिल्ले संवाए त्रिसंघ इजड ) ऊपर का अन्य काल में संघात विसंघटित होता है, और (मि काले हिट्टिले विसंवा विसंवाइजह) नीचे का संचात अन्य काल में विसंघटित होता है । (तम्हा से समए न भवः) इसलिये वह 'समय' नहीं है, किन्तु (एतो वि
1
सुहुमतराए समए पण्णत्ते, समाउसो !) हे श्रमरणायुष्मन् ! इस ऊपर के पक्ष्म के छेदन काल से भो सूक्ष्मतर 'समय' प्रतिपादन किया गया है । (तखिजाणं समयाणं समुदयसामेतिसमागमें) अपितु फिर असख्यात समयों के समुदाय समिति और समागम (सावलिति) वह एक अवलिक का कही जाती है, फिर ( संखेजाओ आलिया ऊनास) संख्यात श्रावलिकाओं का एक उश्वास और (संबजाय यावलियाश्रनीसासी) संख्यात वलिकाओं का एक विश्वास होता है, अर्थात् संख्यात श्रावलिकाओं के मिलने से एक उच्छास निश्वास होता है, नाभि से ऊर्द्ध गमन को उच्छवास ओर अधोगमन को निश्वास कहते हैं, फिर (हस गत्तस्स) हृष्ट (हर्षं) वंत और जरा से रहित और (निरुपस जंतु।) व्याधि से भी रहित ऐसे पुरुष के ( एगे ऊसासनीसासे एस पाणुति बुच्च ॥ १ ॥ ) एक उश्वास निश्वास के काल को प्राण कहा जाता है अर्थात् जो हर्पन्त शोक रहित पुरुष है उसके एक श्वासोच्छ्रास को प्रारण कहते हैं, और (सत्तपाग्यूणि से धोवे) और उन सप्त प्रारणों का एक स्तोक, (सत्त थोवाणि से लत्रे) और ७ स्तोकों का एक लव होता है । (लवाणं सत्तइत्तरिए) और ७७ लवों का एस मुहुत्ते वियाहि ) यह मुहूर्त कहा गया है ॥ २ ॥
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६५
मुहूर्त काल के उच्छ्रासों का विवरण करते हैं । ( तिथि सहस्सा सत्त य साई ) तीन सहस्र सात सौ (तेहुतरे च ऊसासा ) | और ७३ उच्छ्रासों का ( एस मुहुत्तो * लेकिन इस कथन से अनन्त पचमणों के छेदन में अनन्त समय न जानना चाहिये किन्तु इसमें असंख्यात समय ही होते हैं। क्योंकि आगम में कहा गया है कि - " असंखेज्जासु भंते ! उस्सप्पिणिवसप्पिणीसु केवईया समया पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा; अतासु णं भंते ! उस्सपिणिवसप्पिणी केवईया समया पण्णत्ता ? गोयमा अता" अनन्त उत्सर्पिणियों के अनन्त समय होते हैं और असंख्यात उत्सर्पिणियों के असंख्यात सयय होते हैं ।
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] भणियो) ऐसा एक मुहूर्त (सन्वेहि यातनाणीहि ॥३॥) सर्व अनन्त ज्ञानियों ने कहा है ॥शा अर्थात् सर्वज्ञ देवों ने एक मुहूर्त के ३७७३ श्वासोच्छास कथन किये हैं । इसलिए (एएणं मुहुत्ता पाणणं) इस मुहूर्त प्रमाण से (तीसं मुहुला अहोर तं) तोस मुहूत्तों का एक अहोरात्र होता है, और (पन्न रस होता पक्लो) पंच दश १५ दिन रात्रियों का १ पक्ष, (दो पकडा मासो) दो पक्षों का एक मास होता है, फिर (दो मासा उ ऊ) दो मासों की एक ऋतु,(तिरिण ॐ अषणं) और तीन ऋतुओं का एक अयण होता है, और (दो अयणाई संबच्छरे) दो अयगों का एक संवत्सर होता है, (पंच संवच्छशाई जुम) पांच संवत्सरों का एक युग,
और (बीसं जुताई वासस) बीस युगों का एकसौ वर्ष होता है, (दस वाससया काससहस्स) दस सौ वर्षों का एक सहस्र वर्ष, (सयं वासयमाणं वासस यसहस्स) सौ सहस्र वर्षों का एक लक्ष वर्ष होता है, और चारासीई वाससबसहस्साई से एगे फुगे) चौरासी लक्ष वों का एक पूर्वाग होता है, (चउराई पुव्यंगलयसहस्साई से एगे पुब्वे, चौरासी लक्ष पूर्वागों का एक पूर्व, और (वरासोइ व्यसयसह सा से सोडिअंगे, चौरासो लाख पूर्वो का एक त्रुटितांग होता है, (मासीई नुडि बंगस यकस्सा से ए। : ४ि) चौरासी लक्ष त्रुटितांगों का एक त्रुटित होता है, और (चउ मासी गुडियालय सहरसाई से एगे उदंग,) ८४ लक्ष त्रुटितों का एक अडडांग होता है, (बासीइ पाडग मतसहस्साई से एगे अड,) चौरासी लक्ष अडडांगों का एक अडड होता है, एवं अपवंग अयंव) इसी प्रकार आगे भी ८४ लाख गुणा करते जाना सो अववंग, अवव, (हुहुअंगे हुहुए) हुहुअंग और हुहुय (उरलो उ८ परसे) उप्पलांग और उपाल, (पउमंगे परमे) पद्मांग और पद्म, (नलिणंगे न. लिणे नलिगांग और नलिण, (अच्छनिरंगे अच्छनिरं) अच्छनिऊरांग और अच्छनिऊर (अउमंग अउय) अयुतांग और अयुत, (गोपडप) प्रयुतांग और प्रयुत, (गउग्रंगे णउए) नयुतांग और नयुत, (चूलिश्रो चूलिया) चलितांग और चलिका (तीसपहेलिगे) शीर्षप्रहेलिकांग, ( चउरासीई सीसपहेलिगसतसहस्साई) ८४ लक्ष शीर्षप्रहेलिकांगों की (सा एगा सोस हेलिया) एक शोर्ष प्रहेलिका होती है, (एताकता चेव गणिते) एतावन्मात्र ही गणना है, और ( एता पता चैत्र गणि अस्स विसये । एतावन्मात्र ही गणित का विषय है अर्थात् फलितार्थ है, अपि तु इसका पूर्ण विवरण किया जा चुका है, इसीलिये विशेष वर्णन नहीं किया है, किन्तु (*अतो तेणं पर उमिए पातात, ) इसके उपरान्त उपमा प्रवती है अर्थात इस गणना के उपरान्त पल्योपम व सागरोपम का ही विवरण किया जाता है, क्योंकि गणना संख्या में केवल एकसौ ९४ ? अक्षर होते हैं, अधिक नहीं होते, इसीलिये सूत्र ने प्रतिपादन किया है कि एतावन्मात्र ही गणित वा गणित का विषय है।
एलोवा' पाठान्तरम् ।
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[ उत्तरार्धम् ] भावार्थ-समय किसे कहते हैं ? समय का स्वरूप निम्न प्रकार से है, जैसे कि- कोई देवदत्त नामक दरजी का बालक तरुण, बलवान, चतुर्थ समय का उत्पन्न हुआ हुआ, युवा निरोग शरीर स्थिर हस्ताग्र दृढ़ है जिसके, पाणि और पाद, पुनः पाश्य, पृष्टयन्तर उरु आदि भी सुपरिणमित है तथा युगलताडं वृक्षों के समान सम है और जिसकी बाहु दीर्घ है, कठिन मांसोपचित वर्तलाकार जिसके स्कन्ध है, और व्यायाम से भी जिसका शरीर पुष्ट है, तथा वक्षःस्थल में भी बल प्राप्त हो रहा है ऐसा सदैव शीघ्र कार्य करने वाला, दक्ष, प्रज्ञावान, कुशल और मेधावी है, पुनः निपुण और शिल्पोपगत है उसने एक महान् उत्तीर्ण वा लघु पट्टशाटिका हाथ में लेकर एक हस्त प्रमाण फाड़ दिया। जिस कोल में उस युवा पुरुष ने उस वस्त्र को फाड़ा क्या वही समय काल होता है ? नहीं, क्यों ? संख्यात तंतुओं के समुदाय से पदृशाटिका की उत्पत्ति होती है, इसलिये ऊपरके तंतु के छेदन किये बिना नीचे का तंतु छेदन नहीं होता, सो ऊपर के तंतु-छेदन का समय और है, तथा नीचे के तंतुओं का छेदन समय और है इसलिये वह समय काल नहीं है । जिस काल में उस युवा पुरुष ने उस पट्टशाटिका के ऊपर के तंतु को छेदन किया है, तो क्या वह समय होता है ? नहीं, किस कारण ? संख्यात पक्ष्मणों के समुदाय से एक तंतु उत्पन्न होता है सो ऊपर के पक्षमलों के बिना छेदन हुए नीचे का पक्ष्म छेदन नहीं होता है और उनके छेदन काल का समय पृथक २ है इसलिये वह भी समय काल नहीं होता है ! क्या ऊपर के पक्ष्म के छेदनकाल को समय कहते है ? नहीं । क्यों ? अनन्त परमाणुओं के मिलने से एक पग की उत्पत्ति होती है, इसलिये उनका भी छेदन काल पृथक् २ है। इसलिये प्रतिपादन किया गया है कि समय काल बहुत ही सूक्ष्म है । तथा असंख्यात समयों के मिलने से एक प्राव. लिका होती है, संख्योत प्रावलिकाओं का एक उच्छाल और निःश्वास होता है, सो प्रसन्न मन, निरोग शरीर, जरा और व्याधि से रहित पुरुष के एक श्वासोच्छ्वास को एक प्राण कहते हैं, और सात प्राणों का एक स्तोक, सात स्तोको का एक लव होता है, ७७ लवों का एक मुहूर्तकाल वर्णन किया गया है, तीन सहस्र सात सौ तिहत्तर श्वासोच्छ्रास का एक मुहूर्त होता है, फिर तीस मुहतों
+वत्र विरोप।
* 'असंखेजासु वं भंते ! उस्स.प्पणिणीसु केवइया समया पशगता ?, गोयपा! असंखेज्जा, अरांतासु णं भंते ! उस्सप्पिणिसु केवइया समया पण्णता ?, गोयमा ! शांता' इ ते वचनात ।
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६८
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] का एक दिन रात, १५ दिन रात्रों का एक पक्ष होता है, दो पक्षों का एक मास होता है, दो मासों की एक ऋतु और तीन ऋतुओं की एक अयण, दो अयणों का एक संवत्सर होता है, इसीतरह पाँच संवत्सरों का एक युग बीस युगों का १०० वर्ष होता है, दश सौ वर्षों का एक सहस्र वर्ष, सौ सहस्र वर्षों को एक लाख वर्ष, चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वाग होता है, इसी प्रकार प्रत्येक को चौरासी लाख से गुणा कर लेना चाहिये । पूर्व त्रुटितांग, त्रुटित, अडड २, अवव २, हुहुए २, उप्पले २. पउो २, नलिण २ अच्छिन २, प्रयुत २, अयुत २, चुलित २, शीर्षप्रहेलिका २। एक पूर्ववर्ती अंग से उत्तर स्थिति पद चौरासी लाख गुणा अधिक जानना चाहिये, सो एतावन्मात्रा गणित का विषय है। अपि तु इसके उपरांत उपमा से कार्य साधन करना चाहिये इसलिये अब उपमा का विषय कहते हैं
अथ उपमा का विषय।
से किं तं ओवमिए ?, २दुविहे पण्णत्ते तंजहा-पलिअोवमे य सागरोवमे य, से किं तं पलिअोवमे ?, २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा- उद्धारपलिओवमे अहापलिअोवमे खित्त. पलिप्रोवमे अ, से किं तं उद्धारपलिवमे?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा- सुहुमे अ ववहारिए अ,तत्थ णं जे से सुहुमे से ठप्पे, तत्थ णं जे से ववहारिए से जहानामए पल्ले सिया जोयणं आयामविक्खंभेणं जोयणं उ8 उच्चत्तेणं तं तिगुगां सविसेसं परिक्वेवेणं, सेणं पल्ले एगाहिअ वेाहिताहिअ जाव. उक्कोसेणं सत्तरत्त [प] रूढाणं संसट्टे संनिचिते भरिए वालग्गकाडोणं ते णं वालग्गा नो अग्नी डहेजा नो वाऊ हरेजा नो कुहेजा नो पलिविखंसिजा नो पुइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा,तो णं समएरऐगमेगं वालग्गं अवहाय जावइ
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[ उत्तरार्धम् ]
६९
ऐ काले से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे निट्टिए भवइ, सेतं ववहारिए उद्धारपलियोवमे ।
ऐऐसि पल्ला कोड कोडी हवेज्ज दसगुणिया । तं वत्रहारियस्स उद्धारसागरोवमस्स एगस्स भवे परिमाणं ॥ १ ॥
एएहिं वावहारियउद्धारपलिश्रोत्रम सागरोवमेहिं किं पत्रअणं ?, एएहि वावहारि उद्धार पलि ओवम सागरोवमेहिं णत्थि किंचिप्पझोचणं, केवलं, तु पण्णवरणा किज्जइ, से तं वावहारिए उद्धारपलियोवमे ।
,
पदार्थ - ( से किं तं श्रवमिए ?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा - ) औपमिक किसे कहते हैं ? जो संख्या से अतिरिक्त है उसको उपमा के द्वारा विवर्ण किया जाय उसे श्रमिक कहते हैं, तथा च औपमिक विवर्ण दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, जैसे कि( पत्रिय सागरोत्रमे य ) पल्योपम और सागरोपम, ( से कि ं पलियोत्रमे १, २ तित्रिहे पत्ते, तंजहा-) ल्योपम किसे कहते हैं ? जो धान्य के पल्य ( कूप ) के समान पल्य है उसकी उपमा देकर पदार्थों का विवर्ण करना ही पल्योपम कहलाता है, किन्तु पल्योपम भी तीनों प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, जैसे कि - उद्धारपतिश्रोमे ) उद्धारपल्योपम, ( श्रद्धा पत्र ) अद्धा ( काल ) पत्योपम और ( खिरुप लिश्रोत्र ) क्षेत्रपल्योपम, ( से किं तं उद्धारप लेयोत्रमे ) उद्धार पल्योपम किसे कहते हैं ? (उद्धारपत्र दुविहे पत्रत्ते, तंजहा - ) उद्धार पल्योपम दो प्रकार से विवर्ण किया गया है, जैसे कि - (सुमेय ववहारिए ३) सूक्ष्मउद्धारपल्योपम और व्यावहारिक उद्धारपल्योपम, अपि तु, फिर (तत्थ गंजे से सुहुमे से उप्पे ) उन दोनों में जो सूक्ष्म है उसके स्वरूप को तो अभी छोड़ दीजिये, परंतु (तत्थ गं जे से वावहारिए से जहानामए पल्ले सिया) उन दोनों में जो वह व्यावहारिक है वह जैसे नाम संभावना में धान्य के पल्य के समान होता है वह पल्य (जोयणं श्रायामविवखंभेण ) उत्सेधांगुल के परिमाण से योजन मात्र दीर्घ और विस्तार संयुक्त हो, और (जोयणं उद्धृत्त) योजन मात्र ऊंचा हो, १ एतद् न्यत्र नास्ति । २ पराणावि० पाठान्तरम् ।
+ किसी २ प्रति में ( जोयण उव्वेहण ) योजन प्रमाण गहरा है, ऐसा पाठ है ।
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] और (तं तिगुणं सविसेस परिक्खेवणं ) उस पल्य की कुछ विशेष त्रिगुणी परिधि हो, (से णं पल्ले एाहियषेत्राहिएतेश्राहिए जाव उल्होसणं सत्तरत [५] रूढाणं) फिर उस पल्य में एक दिन से लेकर सात दिन पर्यन्त उत्पन्न हुए हुए बालकों के (वालगकोडीण) वालारों की अनियों से (संस संनिचिने) संसृष्टता पूर्वक और पूर्णतया अथवा घनिष्टतया (भरिए) भरा हुआ हो, फिर उन वालायों को ( नो अग्गी डहेना ) अग्नि दाह न कर सके, (नो वाऊ हरेजा) न ही वायु हरण करे, (नो कुटेज्जा) न ही सड़े अर्थात् परिभ्रंश भी न हो, (नो विद्वसेजा) न ही विध्वंस हो, (नो पूइत्ताए हब्बारच्छेज्जः) न ही दुर्गध उत्पन्न हो, फिर (तो णं समए २ एामगं वालग्गं वहाय) उन वालाग्रों को समय २ में अपहरण करके (जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीर हल्लेिवे निटि ए भवइ, से तं ववहारिएउद्धार पलिग्रोवमे । ) जितने काल मात्र में वह पल्य क्षीण, *निरज, निलप और निष्टित होता है उसीको व्यावहारिक उद्धारपल्योपान कहते हैं। पल्य के स्वरूप के अनन्तर अब सागरोपम का विवर्ण करते हैं
( एए सि पल्लाणं कोडाकोटी हवेज दसगुणिया । तं ववहारियस्स उद्वारसागरोनारस एास्स भये परिमाणं ॥१॥)
इन उक्त पायोपमों को दश कोटा कोटि गुणा करें तो एक व्यवहारिक उद्धार सागरोपम का परिमाण होता है अर्थात् दश कोटा कोटि पल्योपमों का एक सागरोपम होता है, (एए हे वाहारियउद्धारपनि शोवनसागगेवमेहिं किं पायण ?) इ. व्यावहारिक उद्धारपल्योयम और सागरोपम के कथन करने का क्या प्रयोजन है ? (नस्थि किंचिप्पग्रोयणं, केवलं तु परणवण किजइ) कुछ भी प्रयोजन नहीं है, केवल प्ररूपण मात्र ही इनका विवर्ण किया जाता है । जब किंचित् मात्र भी प्रयोजन नहीं है तो फिर इसका विवणं व्यर्थ है ? वर्तमान प्रारम्भ मास में इसको किंचित्मात्र भी प्रयोजनता असिद्ध है किन्तु सूक्ष्म उद्धारपल्योपम समास के समय में यह सुखावोध के लिए उपादेय है श्वर्थात् अत्यन्त उपयोगी है, (से ववहारिए उद्वार पनि ग्रोवमे) अतएव वही व्यावहारिक उद्धारपल्योपम है।
भावार्थ-औपमिक समास उसे कहते हैं जहाँ पर गणित का विषय तो न हो सके, परन्तु उपमा के द्वारा उसका विवर्ण किया जाय, वह उपमा दो प्रकार से वर्णन की गई है, जैसे कि–पल्योपम और सागरोपम, पल्योपम के भी तीन भेद हैं, जैसे कि-उद्धारपल्योपम. श्रद्धापल्योपम और क्षेत्र
* यह तीनों शब्द एकार्थी हैं, तथापि परस्पर विशुद्धतर जानने चाहिए।
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[ उत्तरार्धम् ]
पल्योपम, अपितु फिर उद्धारपल्योपम भी दो प्रकार से वर्णन किया गया है, जैसे किसूक्ष्म और व्यावहारिक, सूक्ष्म का विवर्ण फिर किया जायगा, अतः व्यावहारिक का स्वरूप निम्न लिखितानुसार पढ़ना चाहिये, जैसे एक उत्सेधाँगुल के प्रमाण से योजनमात्र दीर्घ, विस्तीर्ण और ऊर्ध्व पल्य ( कूप) के समान हो, उसकी कुछ विशेष त्रिगुणी परिधि भी हो, उसको एक दिन से लेकर सात दिन तक के उत्पन्न हुए हुए बालकों के केसों से ऐसा भरा जाय कि उनको अग्नि दाह न कर सके, वायु भी अपहरण न करे, और न वे विध्वंस हो, तथा न उनमें दुर्गन्धि उत्पन्न होवे, फिर उन बालायों को समय २ में अपहरण किया जाय, जितने काल में वह पल्य क्षीण, निरज, निर्लेप निष्टित हो जाय उसी को व्यावहारिक उद्धारपल्योपम कहते हैं, और इन्हीं पल्यों को दश कोटाकोटि गुणा करने से व्यावहारिक उद्धारसागरोपम होता है । यदि यह शंका हो कि - इसके कथन करने का क्या प्रयोजन है तो उत्तर यह है कि इस समय तो कुछ भी प्रयोजन नहीं है किन्तु सूक्ष्म के लिये अत्यन्त उपयोगी है, इसीलिये इसको व्यावहारिक उद्धारपत्यम कहते हैं। अब इसके अनन्तर सूक्ष्म उद्धार पल्योपम के विषय में कहा जाता है -
क्रय सूक्ष्मउदारपल्योपम का विषय |
से किं तं सुहुमे उद्धारपलियो मे ?, २ से जहानामए पल्जे सिया जोयणं श्रयामविवखंभेणं जोयणं उव्वेहेणं तं तिगुणं सविसेस' परिक्खेवेणं, से गं पल्ले एगा हिश्रवेहिते आहिश्र उक्कोसें सत्तरत्तपरूढार्थ
सट्टे संनिचिते भरिते वालग्गकोडीणं, तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखिज्जाई खंडाई कज्जइ, तेणं वालग्गा दिट्ठीयोगाहणाओ असंखेज्जइभागमेत्ता सुहुमस्स परणगजीवस्स सरीरोगाहणाउ असंखेज्जगुणा, तेणं वालग्गा खो
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७२
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] अग्गी दहेज्जा णो वाऊ हरेज्जा णो कुहेज्जा णो विद्धंसेज्जा नो इत्ताए हव्वमागच्छेज्जा, तो गं समए २ एगमेगं वालग्गं अवहाय जाइए काले से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे गिट्टिए भवइ, से तं सुहुमे उद्धारपलिश्रोत्रमे एए सिं पल्जाणं कोडाकोडी हवेज्ज दस गुणिया । तं सुमस्स उद्धारसागरोवमस्स एगस्स भवे परिमाणं ॥ १ ॥
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एएहिं सुहुमउद्धारपलिओमसागरोवमेहिं किं पचअणं ? एएहिं सुमउद्धारपलिभोवम सागरोवमेहि दीवसमुदाणं उद्धारं घेइ | केवइयाण' भंते ! दोवसमुदा उद्धारेण पण्णत्ते ? गोयमा ! जावइयाण अड्डा इज्जाए उद्धार सुहुमसागरोवमाणं उद्धारसमया एवइयाणं दीवसमुद्दा उद्धारेण पण्णत्ता, से तं सुहुमे उद्धारपलिश्रवम, सेतं उद्धार
|
पदार्थ - ( से किं तं सुहुमे उद्धारप लियो मे ?, २ से जहानामए) सूक्ष्मउद्धारपल्यो - म किसे कहते हैं ? जैसे कि - ( पल्ले सिया जोयणं श्रायामविक्खंभेणं ) धान्य के पल्य के समान पल्य हो और वह योजन प्रमाण दीर्घ और विस्तार युक्त हो और (जोयण ं उत्रेहेणं) योजन प्रसारण भूमि के नीचे स्थित हो, ( तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवें ) फिर उसकी परिधि कुछ विशेष त्रिगुणी भी कथन की गई हो ( से गं पल्ले एगाहिश्र ) फिर उस पल्य में एक दिन के, ( वेग्राहि ) दो दिन के, (तेग्राहि ) तीन दिन के, ( उसे सत्तरतपरूदाएं ) उत्कृष्ट से सात दिन तक के वृद्धि किये हुए केशों से,
१ 'पलि'० इति पाठान्तरम् ।
२ '०' इति पाठान्तरम् ।
३ 'उद्धारसागरीवमाri' इति पाठः ।
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[ उत्तरार्धम् ]
७३
(स) कर्णपर्यन्त ( संनिचिते ) घनिष्ठता से ( भरिते चाला कोडीं ) बालानों hat कोटि (नियों) से भरा हुआ हो, फिर ( एमे बाज़ग्गे असं वेज्जाई खंडाई कज्जइ ) एक २ बाला के असंख्यात प्रमाण खंड किये जायें। अब द्रव्य से उन खंडों का प्रमाण कहते हैं - ( ते खंबाला कुणिं श्रहा श्रसंखे इभा मेत्ता ) वे बालाय दृष्टि की श्रवगाहना से असंख्यात भाग मात्र हो अर्थात् यावन्मात्र दृष्टिगत पदार्थ हों, उन से भो असंख्यात भाग प्रमाण वह खंड न्यून हो, इसलिये दृष्टि से वह खंड असंख्यात भाग प्रमाण होता है । अत्र क्षेत्र से प्रमाण कहते हैं - ( मुहुमरस पणजीवस्स सरीरागाहणाउ वेज्जणा ) सूक्ष्म पनक - जीव के शरीर की अव गाना से असंख्यात गुणाधिक है । अ: यावन्मात्र सुक्ष्म पनक जीव की शरार अवगाहना होती है, उस से असंख्यात गुणा है यानी बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त जीवों के तुल्य है, इस प्रकार वृद्धवाद भी कहा जाता है। फिर ( तें वालग्गाणो मी इंजन ) उन वालानों को अग्नि भी दाह न कर सके, (बाऊ होता नही वायु हरण कर सके, ( नाकु उना ) न ही वे सड़े, (खो विकरिता विध्वंस भी न हों, ( णो पुत्ताए हान गछेजा ) नही दुर्गेवता को वे प्राप्त हो, (तयों सनए २ एगमेगं बालगं हाथ ) फिर एक २ वालाग्र को समय २ में अपहरण करके ( जाव इएकालें ) यावन्मात्र काल में ( से पल्ले खोसे नीरए निल्लेवे निट्टिए भवइ, ) वह पल्य क्षीण, निरज, निर्लेप और निष्टित होता है, (से तं मुहुमे उद्धारपलिश्रोत्रमे ।) इसी को सूक्ष्म - उद्धारपल्योपम कहते हैं ।
( एएसिं पल्ला कोडाकोडी हवेज्ज दस गुणिया 1 )
( तं सुहुमन्स उद्या सागरोत्रमस एस्स भवे परिमाणं ॥ १ ॥ )
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इन पल्यों को दश कोटाकोटि गुणा करने से एक सूक्ष्मउद्धारसागर का परिमाण होता है, अर्थात् दश १० कोटाकोटि पल्यों का एक सूक्ष्मउद्धारसागर होता है । ( एएहिं सुहुनउद्धारपतिओमसागरोत्रमेहिं किं पश्रयणं ? ) इन सूक्ष्म उद्धारसागरोपम और पल्योपम के वर्णन करने का क्या प्रयोजन है ? ( एएहिं सुहुनउद्धारपचियोवनसागरोत्रमेहिं दीवस मुद्दाणं उद्धारं घेप्पड़ ) इन सूक्ष्म उद्धारपल्योपम और सागरोपमों से द्वीप समुद्रों का उद्धार किया जाता है,
+ प्राकृत भाषा में जैसे कोई घटादि जल से इतना पूर्ण हो कि उसमें एक भी बिन्दु और प्रविष्ट न हो सके तो उसकी पूर्णता को कर्ण - पूर्णता कहा जाता है । + 'दिट्ठी' इत्यपि पाठः ।
* 'वादर पृथिवी कायिक पर्याप्तशरीरतुल्यानीति' वृद्धवादः ।
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७४
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
अर्थात् द्वीप समुद्रों का प्रमाण इसी गणना के अनुसार ग्रहण किया गया है । ( केवइयाणं भंते ! दीवसमुद्दा उद्धारेण परणत्ता ?) इस प्रकार श्री भगवान् के वचनों को सुन कर श्री गौतम स्वामी ने प्रश्न किया कि हे भगवन् ! कियत्प्रमाण द्वीप समुद्र उद्धार प्रमाण से प्रतिपादन किये गये हैं ? (योमा ! जावइया श्रद्धा इज्जाणं उद्धारसुष्टुमसागरोत्रमा उद्धारसमया एवइया दीवसमुद्दा उठारे पत्रत्ता, से तं सुतुमे उद्धारपदिश्रवमे से तं द्धारपि श्रोत्रमे ।) भगवान् ने उत्तर दिया कि भो गौतम ! यावत्प्रमारण ढाइ उद्धार सूक्ष्म सागरोपम के उद्धार समय हैं, तावत्प्रमाण उद्धार द्वीप समुद्र हैं, यही पूर्वोक्त सूक्ष्मोद्वापल्योपम है और इसी को पल्योपम कहते हैं ।
भावार्थ- सूक्ष्म उद्धारपल्य उसे कहते हैं जो प्राग्वत् के समान एक पत्य स्थापन किया गया है, अपि तु जो बालानों की कोटियों से भरा हुआ हो, फिर उन कोटियों में से एक २ कोटिके असंख्यात खंड कलित कर लिये जायँ जो कि दृष्टि की गहनता से श्रसंख्यात भाग प्रमाण हो, और सूक्ष्म पनक जीव की श्रवगाहना से असंख्यात गुणा हो, इस प्रकार उस पल्य को बालायों से भर दिया जाय, पुनः जिसे अग्नि दाह न कर सके तथा वायु अपहरण न कर सके, न ही उसको दुर्गंध पराभव कर सके और वह घनता युक्त भी हो, फिर
बालों का समय २ में एक २ खंड करके वह पल्य खाली कर दिया जाय, इस प्रकार जितने काल में वह पल्य खाली हो जाय उसको सूक्ष्म उद्धार पल्योपम कहते हैं । जब दश कोटा कोटि प्रमाण पल्य खाली हो जाय तब एक सूक्ष्मउद्धार सागर होता है । इसके प्रतिपाद करने का मुख्य प्रयोजन इतना ही है कि इसके द्वारा द्वीपसमुद्रादि का प्रमाण किया जाता है । इस प्रकार गुरु के वचनों को सुन कर शिष्य ने फिर प्रश्न किया कि हे भगवन् ! उक्त प्रमाण से कितने द्वीप समुद्र हैं ? गुरु ने उत्तर दिया कि भो ! शिष्य ! उक्त प्रमाण से अर्द्ध तृतीय अढ़ाई २|| सागरों के समान द्वीप समुद्र हैं, अथवा २५ पच्चीस कोटा कोटि उद्धार पल्यों के तुल्य द्वीप समुद्र हैं, सो इसे ही उद्धारपल्य कहते हैं। अब इसके अनन्तर श्रद्धापल्य का वर्णन किया जाता है-
अथ श्रद्धा पल्य का विषय ।
से किं तं श्रद्धापविमे ? २ दुविहे पण ते तंजहा - सुमेय ववहारिए अ तत्थ णं जे से सहमे से ठप्पे, तत्थ
* निमोद के जीव ।
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[ उत्तरार्धम् ]
जे से वावहारिए से जहानामए पल्ले सिया जोयणं श्रायामविक्खभेां जो० उ० तं तिगुगां सविसेसं परिक्रखेवेणं, से गं पल्ले एगाहियवे आहियतेचाहिए जाव भरिए वालग्गकोडी, ते वालग्गा णो अग्गी डहेजा जाव नो पलिविइंसिजा नो pale हव्वमागच्छेजा, ततो गं वाससए २ एगमेगं वालग्गं अवहाय जावइए कालेां से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे निट्टिए भवइ, से तं ववहारिए अद्धापलिओ मे ।
༦༩༣
एएसिं पल्ला कोडाकोडी हविज्ज दसगुणिता । तं ववहारिस, श्रद्धासा एगस्स भवे परिमाणं ॥ १ ॥
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?,
I
एएहिं बवहारिएहिं श्रद्धापलिओमसागरोव मेहिं किं पश्रयणं ? एएहिं ववहारि द्वापलिप्रोवमसागरोवमेहिं नत्थि किंचिप्पनोयणं, केवलं परणवरणा किज्जइ, से तं वहारिए श्रद्धापलिक्मे से किं तं सुमेधापलिश्रमे १ २ से जहानामए पल्ले सिझा जो प्रणं श्रायामविक्खम्भेणं जोयां उ उच्चत्तेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, सेणं पलते एगाहियवे आहियते महिय जाव भरिए बालग्गकोडी, तत्थां एगमेगे वालग्गे असंखेजाई खंडाई कजइ. वालग्गा दिट्ठीगाहा असंखेजइभागमेत्ता सुहुमरस पण जीवस्स सरीरोगाहणाओ असंखिज गुणा, ते गं वालाग्गाणो अग्गी दहेजा जाव णो पलि विद्वसिजा नो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा, ततो गं वाससए २ एगमेगं वालग्गं श्रवहाय जावइएवं कालेां से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे गिट्टिए भवइ, से तं सुहुमे श्रद्धापविमे ।
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७६
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम ) एएसिं पल्लाणं कोडाकोडि भवेज्ज दस गुणिया। तं सुहमस्स अद्धासागगेवमस्स एगस्स भवे परिमाणं॥१॥
एएहिं सुहमेहि अद्धापलिओवमसागरोवमेहि किं पोयणं ? एएहि सुहमेहि अहापलिओवमसागरोवमेहि नेरइयतिरिक्खजोणियमणुस्तदेवाणं आउअं मविजति ।
पदार्थ-(से किं तं श्रद्धापलिनोवमे ? २ दुविहे पन्न, जहा-) अद्धापल्योपम किसको कहते हैं ? श्रद्धापल्योपम दो प्रकार से वर्णन किया गया है, जैसे कि-(मुहुमे य ववहारिए य,) सूक्ष्म और व्यावहारिक, (तत्थ णं जे से सुहुभे से टप्पे,) उन दोनों में से जो सूक्ष्म है उसे छोड़ दीजिये, (तत्थ णं जे से ववहारिए, उन दोनों में जो वह व्यावहारिक है, वह निम्न प्रकार से है-(से जहानामए) जैसे कि-(पल्ले सिया जोयणं आयामविक्खंभेणं) धान्यों के समान एक पल्य हो, जो कि योजन प्रमाण दीर्घ और विस्तार युक्त हो, और (जोयणं उट्ट'उच्चत्ते) योजन प्रमाण ऊर्ध्वता से भी युक्त हो (तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं.) उसकी त्रिगुणो कुछ विशेष परिधि भी हो, अर्थात् त्रिगुणी साधिक परिधि से युक्त हो, से में पहले एमाहिय अहिया.पा.हए वभरि ए बाराकोटीण) फिर उस पल्य को एक दिन दो दिन तीन दिन यावत् सात दिन तक के बालासों से भर दिया गया हो और ( ते णं वालगा णो मी हेजा जावना पनविद सजा नो पईत्ताए हब्बमागच्छेना,) जब की बालायों की कोटियों से भर दिया गया तब उन बालापों को अग्नि भी दाह न कर सकती हो यावत् वे बालाग्र विध्वंस भी न हों क्योंकि कठिन यानी घनता से भरे गए हैं, और नहीं उनमें दुर्गन्ध उत्पन्न हो, (तता गां वाससए २ एगमेगं वालाग्गं अवहाय,) फिर उस पल्य में से सौ २ वर्ष के पश्चात् एक एक बालाग्र निकाल लिया जाय तो (जावइएण' कालेण से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे निटिए भवइ,) जितने काल में वह पल्य क्षीण, निरज, निर्लेप, और निष्टितार्थ होता है (से तं वववहारिए अदापलिग्रोवमे ।) उसी काल मात्र को व्यावहारिक अद्धापल्योपम कहते हैं।
(एएसि पल्लाणं कोडाकोडी भविज दस गुणिया ।
• ववहारिश्रस्स अहासागरोवमस्स एगस्स भवे परिमाणं ॥१॥) इन पल्योपमों को दश कोटा कोटि गुणा किया जाय तब एक व्यावहारिक श्रद्धासागरोपम होता है । (एएहिं ववहारिए हिं श्रद्धापलिश्रोवमसागरोवमेहिं किं पोयणं ?)
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[ उत्तराधम् ] इन व्यावहारिक अद्धा पल्योपम और सागरोपम के कथन करने का क्या प्रयोजन है ? (ए एहिं ववहारियग्रहापलिग्रोवमसागरोवमेहिं नयि किंचिप्पोयण', केवलं पण्णवणाकिजइ.) इन व्यावहारिक श्रद्धापल्योपम और सागरोपम के कथन करने का किंचिन्मात्र भी प्रयोजन नहीं है, केवल सुखावबोध के वास्ते प्ररूपणा मात्र हो कथन किया गया है, (से तं ववहारिए अहापलिअोवमे ।) वही पूर्वोक्त व्यावहारिक अद्धा पल्योपम है । (से कि तं सुहुमे श्रद्धापलिश्रोवमे ? २ से जहानामए) सूक्ष्म अद्धापल्योपम किसे कहते हैं ? जैसे कि-(पल्ले सिया) प्राग् कथित पल्य हो, और वह (जोयण पायामविखंभेण जोयण उड्ड उच्चत्तेण,) योजन प्रमाण दीर्घ और विस्तार पूर्वक हो, अपितु योजन प्रमाण ऊर्ध्व भो हो तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं) और उसको परिधि तीन गुणीसे कुछ विशेष भो हो, (से णं पल्ले एगाहिएवेाहियतेप्राहिय जाव भरिए वालाग्गकोटीणं, फिर वह पल्य एक दिन, दो दिन, तीन दिन, यावत् सात् दिनतक के उत्पन्न हुए २ वालाग्रोसे भर दिया गया हो अथवा बालानों की कोटियों से घन रूप भी होगया हो, (तत्थण) फिर (एममेगे वालग्गे असंखेज्जाई खंडाई कजइ, एक २ बालान के असंख्यात खंड किये जायँ, फिर (ते णं वालाग्गा दिट्ठीप्रोगाहणारे असंखेजइभागमेत्ता) वे बालाग्र दृष्टि को अवगाहना से असंख्यात भाग मात्र हो, किन्तु (सुहुमरस पण गजीवस्स सरीरांगाहणाग्रो असंखेज गुणा,) सूक्ष्म पनक जोव के शरीर की अवगाहना से असंख्येय गुणाधिक कल्पित कर लिये जायें, (तेण वालग्गा नो अग्गी डजा) फिर उन बालानों को अग्नि भी दाह न कर सके, (जाव नो पलिविद्वसिज्जा) यावत् वे विध्वंस भो न हों (ना पू,त्ताए हव्यमा गच्छेजा,) और न ही वे दुर्गन्धता को प्राप्त हों, (ततीण वाससए २ एमेगं बाल अवहाय) फिर उन में से सौ सौ वष के पश्चात् एक एक बालाग्र अपहरण किया जाय तो (जावइएण कालेण से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे निटिए भवइ, से तं सुहुमे ढापलिग्रोवमो ।) फिर वह पल्य जितने काल में क्षीण, निरज, निलेप और निष्टितार्थ हो जाय, उसको कसूक्ष्म अद्धा पल्योपम कहते हैं, फिर
(एएसिं पल्लाण कोडाकोडि भवेज दस गुणिया । )
(तं सुहुमस्स श्रद्धासागरोवमस्स एगस्स भवे परिमाण ॥१॥) इन अद्धापल्योपमों को दश कोटाकोटि गुणा करने से एक सूक्ष्म अद्धासागरोपम का परिमाण होता है। (एएहिं सुहुमेहिं अदापलिअोवमसागरोवमेहि किं पोयण ?) इन सूक्ष्म श्रद्धापल्योपम और सागरोपमों के कथन करने का क्या प्रयोजन है ? (एएहिं सुहुभेहि
*'नवरमुद्दारकालस्येह वर्षशतमानत्वाद्यावहारिकपल्योपमे सङ्ख्येया वर्षकोत्योऽवसेयाः. सूचमपल्योपमे त्वसङ्ख्येया' इति ।
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
श्रद्ध प० साव नेइयतिरिक्खजोशियम गुत्सदेवाण आज्यं मविज्जति, ) इन सूक्ष्म श्रद्धापल्योपम और स.गरोपमों से नारकीय, तिर्यग योनिक, मनुष्य और देवताओं की आयु का मान किया जाता है अर्थात् उक्त प्रमाणों से चारों गतियों के जीवों की आयु की प्रमिति की जाती है इसीलिये इसे अध्वन् काल कहते हैं ।
भावार्थ - जैसे स्थूल श्रद्धापल्य का वर्णन पहिले किया जा चुका है, उसी प्रकार सूक्ष्मपल्य का भी स्वरूप जानना चाहिये, किन्तु विशेषता केवल इतनी ही है कि एक २ वालाय के श्रसंख्यात २ खंड कल्पित कर लेने चाहिये जो कि की गाना से श्रसंख्यात भाग प्रमाण हों और सूक्ष्म पनकजीव की व गाना से असंख्यात गुणाधिक हो, र उनबालानों में से एक एक को सौ २ वर्ष के अनंतर निकाला जाय, जितने काल में वह पल्य खाली होजाय उसी को श्रद्धा पल्य कहते हैं । जब दश कोटा कोटि प्रमाण पल्य खाली होजाय तब एक श्रद्धा सागर होता है, इसके विवरण करने का मुख्य प्रयोजन केवल इतना ही है कि इससे नारकीय १, तिर्य्यक योनिक २, मनुष्य ३ और देवों की ४ आयु का मान किया जाता है, अतः सर्व जीवों की श्रायु का मान इसी के द्वारा किया जाता है इसी लिये अब आयु के विषय में विवरण करते हैं
नारकियों की स्थिति ।
रइयाणं भंते! केवइथं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहराणेणं दस वाससहस्साईं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोमाई, रयणप्पभापुढविणेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नते ? गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्सा ' उक्को सेणं एवं सागरोवमं, अपजत्तगरयणप्पभापुढविणेइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहराणेवितोमुत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं पज्जतगरयण पभापुढविणेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई प० १ गोयमा ! जहणणें दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई उक्कोसेणं एवं सागरोवमं अंतोमुहुत्तोणं, सक्करप्पभा
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[ उत्तरार्धम् ]
पुढविनेरइयाग भंते! केवइयं कालं ठिती प० ? गो ! जहनेणं एवं सागरोवमं उक्कोसेणं तिरिण सागरोवमाई, एवं सेसपुढवीसु पुच्छा भाणियन्ना, वालुयप्पभापुढविनेरइयाणं जहन्नेणं तिरिण सागरोवमाई उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई, पंकप्पभापुढविनेरइयाणं जहां सत्त सागरोवमाई उक्कोसेणं दस सागरोवमाई, धूमप्पभापुढविनेरइयाणं जहन्नेणं दस सागरोवमाई उक्कोसेणं सत्तरस सागरोमाई, तमप्पभापढ विनेरइयाणं जहराणेणं सत्तरस सागरोवलाई उक्कोसेणं बाबीसं सागरोत्र माइ, तमतमापुढविनेरइयाणं भंते! केवइअं कालं ठिई परणता ? गोयमा ! जहां बावीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोमाई |
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७
रयणप्पभानुढ़
पदार्थ – (णेरइयाण ते ! बंबइयं कालं ठिई परणत्ता ?) हे भगवन् ! नारकियों की कितने काल की स्थिति प्रतिपादन को गई है ? (गोमा ! जहां दस बास सहरसाई कोलेण' तेत्तीसं सागरोत्रमाङ,) भो गौतम ! जघन्य से दश सहस्र वर्ष, और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम अर्थात् नारकियों की न्यून से न्यून स्थिति दश हजार वर्ष की और उत्कृष्ट ३३ सागरोपम की होती है, इसी को औधिक सूत्र कहते हैं । विरइयाण ं भंते! केवइयं कालं ठिई प० ? ) हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकियों की स्थिति कितने काल की प्रतिपादन को गई है ? ( गोयमा ! जहरण' दस वास सहरसाई ) हे गौतम! जघन्य स्थिति दश सहस्र वर्ष की और ( उसे एवं सागरोत्रम ) उत्कृष्ट एक सागरोपम की होती है, ( अपजत्तयरयणप्पभापुढ़ विनेरइयाण भंते! केवइयं कालं ठिई प० १) हे भगवन् ! पर्याप्त रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकियों की स्थिति कितने काल की वर्णन की गई है ? (गोमा ! जहन्नेणवि तोमुहुत्तं उक्लोसेवितोमुहुत्तं) हे गौतम! इनको जघन्य स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण और उत्कृष्ठ से भी अन्तर्मुहूर्त की होती है, (पज्जत्तगरयणस्वभापुढविनेरइयाणां भंते ! केवइयं का ठिई पं०) हे भगवन् ! पर्याप्त रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकियों की स्थिति कितने काल की वर्णन की गई है ? (गत्यमा ! जहां द वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तूणाई उक्कोसेण एवं सागरोवमं अंतो मुहुत्तोय) हे गौतम! जघन्य से
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] अन्तर्मुहूर्त न्यून दश सहस्र वर्ष की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त न्यून एक सागरोपमको होतो है, (सकरप्पभापुढ़ विनेरइयाण भंते ! केवइयं कालं ठिई पं.?) हे भगवन् शर्करप्रभापृथ्वी के नारकियों की स्थिति कितने काल को प्रतेपादन की गई है ? (गोयमा ! जहए गेण एगं सागरोवम उको पेण तिरिण सागरोबमा,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति एक सागरोपम को और उत्कृष्ठ तीन सागरोपम को होतो है, (एवं सेसपुढवी मु पुच्छा भाणयिधा,) इसी प्रकार शेष पृथ्त्रियों के विषय में पृच्छा करनी चाहिये । जैसे कि-अपय्याप्त काल और पर्याप्त, सो अपर्याप्त काल सभी नारकियों का अंतर्मुहूर्त प्रमाण होता है और पर्याप्त काल अपर्याप्त काल के अंतर्मुहूर्त को छोड़ कर शेष यथा स्थिति काल होता है, जो अगले सूत्र में विवरण किया गया है, जैसे कि-(वालुअप्पभापुतविनेरइयाण भंते ! केवइयं कानं ठिई पं.?) हे भगवन् ! बालुप्रभा पृथ्वी हे नारकियों के कितने काल की स्थिति प्रतिपादन कोगई है ? (गोय ! जहरणेण तिरि ग सागरोवमाइ इकोसेण स : सागरोधमा,) हे गौतम ! जयन्य स्थिति तीन सागरोपम को और उत्कृष्ठ सात सागरोपम को होती है, (पंकरभातुविनेरइ प्राण भंते ! केवइयं कालं टिई पं० ?) हे भगवन् ! पंकप्रभापृथ्वी के नारकिों को कितने काल की स्थिति प्रतिपादन की गई है ? (गोयमा ! जहणणेण सत्त सागरोत्रमाई उक्कोसेण दस सागरोत्र माई,) हे गौत्तम ! जघन्य स्थिति सात सागरोपम की
और उत्कृष्ट दश सागरोपम की होती है, (धूमप्पभापुढवि • जहएणेण दस सागरोवमाई उक्कोसेण सत्तरस सागरोव माइ,) तथा धूमप्रभापृथ्वी के नारकियों की जघन्य स्थितिदश सागरोपम प्रमाण की और उत्कृष्ट सत्रह सागरोपम को होती है (तिमप्पभापुढविनेरइयाण भंते ! केव इयं कालं ठिई पं०) हे भगवन् ! तमःप्रभापृथ्वी के नारकियों की स्थिति कितने काल की प्रति पादन को गई है ? (गोयमा ! जहरणेणं सत्तरस सागरीवमाई उक्कोसेणं वावोसं सागरोव माई) हे गौतम ! जघन्य स्थिति १७ सागरोपम की और उत्कृष्ट २२ सागरोपम की होती है, (तमतमापुढविनेरइयाण भंते ! केवइयं कालं ठिई पं०?) हे भगवन् ! तमस्तमाप्रभापृथ्वी के नारकियों को कितने काल की स्थिति प्रति पादन की गई है ? (गोयमा ! जहरणेण बावीसं सागरोवमाइ उक्कोसेण तेत्तीसं सागरोवमाइ,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति २२ सागरोपम की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की कही गई है।
+ एतद्वाक्यं कचिनोपलभ्यते , :: सागरमेगं तिय सत्त दस य सत्तरस तह य बावीसा ।
तेत्तीसं जाव ठिई सत्तसुवि कमेण पुढवीसु ॥ १ ॥ सागरोपममेकं त्रीणि सप्तदश च सप्तदश तथैव द्वाविंशतिः त्रयस्त्रिंशत यावत स्थितिः सप्तस्वपि क्रमेण पृथ्वीषु ॥ १ ॥
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नरक
प्रथम
द्वितीय+
तृतीय
चतुर्थ
पंचम
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[ उत्तरार्धम् ]
८१
भावार्थ- नारकियों की जघन्य स्थिति दश सहस्र वर्ष की और उत्कृष्ट ३३ सागरोपम की होती है, इसी को औधिक सूत्र कहते हैं । और सातों नरकों के पर्याप्त नारकियों की स्थित सिर्फ अंतर्मुहूर्त प्रमाण ही वर्णन की गई है, तथापि पर्याप्त नारकियों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त न्यून होती है। इन सातों नरकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति निम्न लिखितानुसार जाननी चाहिये
पष्ठ
सप्तम
जघन्य स्थिति
दश सहस्र वर्ष
एक सागरोपम
तीन सागरोपम
सात सागरोपम
दश सागरोपम
सत्तरह सागरोपम द्वाविंशति सागरोपम
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उत्कृष्ट स्थिति
१ सागरोपम
३ तीन सागरोपम
७ सात सागरोपम
१० दश सागरो म
१७ सत्तरह सागरोपम २२ द्वाविंशति सागरोपम ३३ त्रयस्त्रिंशत् सागरोपम
इस तरह जघन्य और उत्कृष्ट सातों नरकों की स्थिति वर्णन की गई है, किन्तु जघन्य से अधिक और उत्कृष्ट स्थिति से न्यून सर्व मध्यम स्थिति जाननी चाहिये । अब इसके पश्चात् दंडकानुसार भवनपत्यादि देवों की स्थिति वर्णन करते हैं:
अथ भवनपत्यादि देवों की स्थिति ।
असुरकुमाराणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पं० ? गोयमो ! जहां दस वाससहस्साइं उक्कोमे सातिरेगं सागरोवमं, असुरकुमारदेवीणं भंते! केवइयं कालं ठिई परणते ? गोयमा ! जहां दस वाससहस्साई उक्कोसेां श्रद्धपंचमाइ' पलियोवमाइ, नागकुमारीणं भंते । केवइयं कालं ठिई पं० ? गोयमा ! जहराणेखं दस वाससहस्साइं उक्को
+ 'जा पढपाए जेट्ठा सा बीयाए कणिट्ठा भणिया ।
या प्रथमाया ज्येष्ठा सा द्वितियायां कनिष्ठा भणिता' ॥
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] सेणं देसूणाई दुषिण पलिओवमाई', नागकुमारीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पं० ? गोयमा ! जहणणेणं दस वाससह. स्साई उक्कोसेणं देसूणं पलिअोवमं, एवं जहा नागकुमाराणं देवाणं देवीण य तहा जाव थणियकुमाराणं देवाणं देवीण य भाणियव्वं ।
पदार्थ-असुरकुमारा भंते ! केवइथं कान्तं लिप ?) हे भगवन् ! असुरकुमारों की कितने काल की स्थिति प्रतिपादन की गई है ? (गोयना ! नह एगोगा दस बाससहस्साई उकोसेए सातिरेगं सागरोवमं,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति दश सहस्र वष प्रमाण और उत्कृष्ट एक सागरोपम से कुछ अधिक की वणन की गई है। (अपुरकुमारदेवी भंते ! कंवइयं कालं ठिई पत्र?) हे भगवन् ! सुरकुमारों के देवियों की कितने काल की स्थिति प्रतिपादन की गई है ? ( गोयमा ! : हएणेश दस वाससहस्साइ उक्कोमेणा द्वपंचमाई पलोदमाई,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति दश सहस्र वर्ष और उत्कृष्ट साढ़े चार ४॥ पल्यापम की प्रति पादन की गई है, (नागकुमारणां भंते ! केवइयं कालंडिई पनत्ते?, हे भगवन् ! नाग. कुमार देवों की स्थिति कितने काल को प्रति पादन को गई है ? (नोयना ! जहरणे दस वाससहस्साई उक्कोसेणं देसूणाई दुरिण पलिशोषमा,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति दश सहस्र
प की और उत्कृष्ट देश न्यून दो पल्योपम की है, (नागकुमारीणं भंते! केवइयं काल ठिई पत्रत्ते?) हे भगवन् ! नागकुमारियों की कितने काल की स्थिति प्रतिपादन की गई है ? (गोयमा ! जहरणेणां दस वाससहस्साई उचोसेणां देसम पतियोगमं, हे गौतम ! जधन्य दश सहस्र वर्ष की और उत्कृष्ट देश न्यून एक पल्योपम की होती है। (वं जहा नागकुमा। देवाणं देवीण य रहा जाब थग्गियकुमारा देवाण देवीण य भाणियव्यं ।) जिस प्रकार नाग कुमार देव और देवियों को स्थिति वर्णन की गई है उसी कार स्तनित्कुमार देव और देवियों की स्थिति भी जानना चाहिये, अर्थात् जैसे नाग कुमारों को स्थिति वर्णन की गई है उसी प्रकार नव निकायों की भी स्थिति जाननी चाहिये ।
भावार्थ-असुरकुमार देवों की जघन्य स्थिति याने न्यून से न्यून दश सहस्र वर्ष की होती है, और उत्कृष्ट एक सागरोपम से कुछ अधिक प्रतिपादन की गई है, किन्तु उनके देवियों की जघन्य तो पूर्ववत् ही है परन्तु उत्कृष्ट साढ़े चार ४॥ पल्योपम की होती है। और नागकुमारों की जघन्य स्थिति दश सहस्र वर्ष की और उत्कृष्ट देश न्यून दो पल्योपम की होती है।
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[ उत्तरार्धम् ]
अथ पांच स्थावरों की स्थिति ।
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८३
पुढवीकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ते ? गोयमा ! जहां अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साईं, सुपुढवीकाइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ते ? गोयमा ! जहरोणवि अंतो मुद्दत्तं उक्कोसेणवि तोमुहुत्तं, बादरपुढविकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहराणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साईं, अपजत्तगवारपुढाकाईयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहरोणवितोमुत्तं उक्कोसेरात्रि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तगबादरपुढविकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहराणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससह साई अंतोमुहुत्तूणाई, एवं सेकाइयापि पुच्छावयणं भाणियव्वं, आाउकाइयाणं जहराणेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेणं सत्त वाससहस्साई, सुहुमझाउकाइयाणं प्रोहिया अपजत्तगाणं पज्जत्तगाणं तिराहवि जहराणेवि तोमुद्दत्तं उक्कोसेवि मुहुतं, बादरआउकाइयाणं जहा प्रोहियाणं, या अपज्जत्तगवादरआउकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणणेणवितोमुहुत्तं उक्कोसेरावि अंतोमुहुत्तं, पज्जन्त्तगवादरा |उकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहरणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेां सत्त वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तगाई, उकाइगाणं पुच्छा, गोयमा ! जहराणेणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं तिरिए राइंदियाइ, सुहुमतेउकाइ
१ - - सु० 'ग्रोहिया अपजत्तयाणं पजत्तयाण य तिरिगा वि पुच्छा,' इत्यपि पाठः ।
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] याणं ओहियाणं अपज्जत्तगाणं पज्जत्तगाणं तिण्हवि जहरणोणवि अंतोमुत्त उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, बादरतेउकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णोणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेण तिरिण राइंदियाइ', अपज्जत्तगबादरतेउकाइयाण पुच्छा, गोयमा ! जहएणणवि अन्तोमुहत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहत्तं, पज्जत्तगबादरतेउ. काहयाण पुच्छा, गोयमा ! जहणणोण अन्तोमुहुत्तं उक्कोसेण तिरिण राइंदियाई अंतो मुहुत्तूणाई, वाउकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहएणण अन्तोमुहुत्त उक्कोसेगां तिषिण वाससहस्साइं, सुहुमवाउकाइयाण ओहियाणं अपज्जत्तगाणं पजत्तगाण य तिराहवि जहण्ोण वि अंतोमुहुत्त उकोसेणवि अंतोमुहुत्त, बादरवाउकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! .हणणं अन्तोमुहुरा उक्कोसेणं तिरिण वाससहस्साइं,अपज्जत्तगबादरवाउकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहएणणं अन्तोमुहत्तं उक्कोसणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जतगबादरवाउकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणणेण अन्तोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिणि वाससहस्साई अन्तो मुहत्तूणाई । वण. स्सइकाइयाण पुच्छा, गोयमा ! जहणणेण अन्तोमुहत्तं उक्कोसेण दस वाससहस्साइं, सुहमवणस्सइकाइयाण ओहियाण अपज्जत्तगाणं पज्जत्तगाण य तिएहवि जहणणेणवि अन्तोमुहृत्त उक्कोसेणवि अन्तो. मुहुत्तं, बादरवणस्सइकाइयाण पुच्छा, गोयमा ! जह गणेण अंतोमुहुत्त उक्कोसेण दस वाससहस्साई, अपज्जत्तगबादरवणस्सइकाइयाण पुच्छा. गोयमा ।
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[ उत्तरार्धम् ] जहणोणवि अन्तोमुहत्त उक्कोसणवि अन्तोमुहत्त, पज्जत्तगवादरवणस्सइकाइयाण पुच्छा, गोयमा ! जहण्णण अन्तोमुहत्त, उक्कोसेण दस वाससहस्साई अन्तोमुहुत्तूणाई।
पदार्थ-(पुटनीकाइयाणं भंते ! केवायं कालं टिई पन्नत्त ?)हे भगवन् ! पृथिवी काय के जीवों की स्थिति कितने काल की होती है ? (गोयमा ! जहएणणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं मावीसं वाससहस्साई.) भो गौतम ! जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की होती है, (सुहुमपुटवीकाइयाणं ते ! केवश्यं कालं टिई पनत्ते,)हे भगवन् ! सुक्ष्मपृथिवीकाय के जीवों को स्थिति कितने काल की होती है ? (गोयमा ! जहरणेण वि अंतो मुहुत्त उक्कोसेणविन अन्तोमुहुत्त',) भोगौतम!जघन्य स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की प्रतिपादन को गई है, (वादरपुढवीकाइयाणं पुच्छा) बादर (स्थूल) पृथ्वीकाय के जीवों की स्थिति कितने काल की होती है ? (गोयमा ! जहएणणं अंतोमुहत्तं उच्चोसेणं बावीसं वाससहरसाइ,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष को होती है, (अपज्जनगवादरपुढवीकाइयाणं पुच्छा,) हे भगवन् ! अपर्याप्त बादर पृथिवीकाय के जीवों की स्थिति कितने काल की होती है ? (गोरमा ! जह. एणणवि अंतोमुहुतं उचोसेणवि अंतःमुहुक्त,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तःहूर्त की होती है. (पजत्तायादरपुटवीकाइयाणं पुच्छा,) पर्याप्त बादर पृथिवोकाय के जीवों की स्थिति कितने काल की होती है? (गोयमा ! जहएणणं अंतोमुहुत्तं उकोसणं बावीसं वाससहरसाई अंतीमुहुचू गाई,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट, अन्तर्मुहूर्त न्यून बाईस हजार वर्ष की होती है, क्योंकि अपर्याप्त काल को पृथक् कर दिया है, (एवं सेसकाइयाणं पि पुच्छावयणं भाणियब्वं,) इसी प्रकार शेष कार्यों के विषय में भी प्रश्नोत्तर जानने चाहिये । (प्राउकाइयाणं जह. रणेणं अंतो मुहुत्तं उक्कोसेणं सत्त वाससहस्साई,) अप्कायिकों की जघन्य स्थिति अन्त हूर्त की
और उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की होती है, (सुहुमाउकाइयाणं श्रोहियाणां अपजत्तगाणं पजत्तगाणं तिरह वि जहएणेण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं,) तथा सूक्ष्म अपकायिकों के औधिक, अपर्याप्त, और पर्याप्त इन तीनों की जघन्य स्थिति भो अन्तर्मु+ 'अपि' शब्द समुच्चय वाचक है।
अब सामान्य प्रकार से ही पृच्छा की जाती है, जैसे कि-(आउकाइयाणं पुच्छा,) हे भगवन् ! जलकायिकों की स्थिति कितने काल की प्रतिपादन की गई है ? इत्यादि
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[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] हूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की होती है, (वादरभाउकाइयाणं जहा श्रोहियाणं ) बादर अपकायिक जीवों की स्थिति जैसे प्रथम श्रौधिक सूत्र में वर्णन की गई है उसी प्रकार जानना चाहिए, किन्तु (अपजत्तावादरग्राउकाइयाणं जहणणेणवि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण विलोमुहुत्तं,) अपर्याप्त बादरअपकाय के जीवों की स्थिति, जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होती है, (पज्जत्तः वाद अाउकाइयाणं पुच्छा,) हे भगवन् ! पर्याप्त बादरजलकाय के जीवों की स्थिति कितने काल की प्रतिपादन की गई है ? (गोयमा ! जहरणे" अंतोमुहुने उकोलेणं रत्त वाससहस्साई अन्तोमुहुत णाई,) भो गौतम ! जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त न्यून सात हजार वर्ष की होती है, अब अग्निकाय के विषय में कहते हैं-(नेउकाइआणं पुच्छा,) हे भगवन् !
अग्निकायिक जीवों की स्थिति कितने काल की प्रतिपादन को है ? (ोयमा ! जहरणेणं अंतोहुत उचोप्लेणं तिरि ए राईदिआई.) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उष्कृष्ट तीन रात्रि दिनको होतो है,तथा-(मुहु प्रतेकाइयाणं श्रोहि पाणं अपजत्तगाणं एजत्तगाणं तिरहवि जहरणेण विधेनोमुरा उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं,) किन्तु सूक्ष्म अग्निकाय के औधिक अपर्याप्त, और पर्याप्त अर्थात् उक्त तीनों की जघन्य स्थित अन्तर्मुहूर्तकी और उत्कृष्ट भी अन्तमुहूर्त की होती है, ( बादरतेउकाइयाणं पुच्छा, ) हे भगवन् ! बादर अग्नि काय के जीवों की स्थिति कितने काल की प्रतिपादन की है ? (गोयमा जहणणेणं अंतोमुहुरा उक्कोनेणं लिरिगराईदिलाई.) हे गौतम ! जघन्य स्थिति प्रातमहूर्त की और उत्कृष्ट तीन रात्रि दिन की होती है, (अाज त यादरतेडकाइया पुच्छा,) हे भगवन् ! अपर्याप्त अग्निकाय के जीवों स्थिति कितने काल को प्रतिपादन की है ? (गोयमा ! जाएणणवि अंतोमुहुतं उद्योग वि अंतोमुहुर) भो गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अंतमुहूर्त की ही प्रतिपादन की गई है, ( परावादरतेउकाइयाणं पुच्छा, ) पर्याप्त बादर अग्नि काय के जीवों की स्थिति कितने काल की होतो है ? (गोषमा ! जहणणेणं अंगोमुहुत्तं उकोसेण तिरिण राइंदिवाई अंतोमुत्तु णाई.) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त न्यून तीन रात्रि दिन की होती है (वाउकाइयाणं पुच्छा, ) वायुकाय के जीवों की स्थिति कितने काल को होती है ? (गोयमा ! जहणणेणं अन्तोमुहुत्तं उक्लोसेणं तिषिण वाससहस्साई.) हे गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष की होती है, (सुहुमवाउकाइयाणं श्रोहियाणं अपजतगाणं पजतगाणय तिराहवि जहरणेणवि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुक्तं,) सूक्ष्म वायुकायिक जीवों के प्रोधिक अपर्याप्त, और पर्याप्त, इन तीनों की ही जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति केवल अन्तर्मुहूर्त की ही प्रतिपादन की गई है, (वादरवाउकाइयाण पुच्छा,) बादर वायुकायिक जीवों की स्थिति कितने काल को
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[ उत्तरार्धम् ] होतो है ? (गोयमा ! जहएणेण अंतोमुहुरा उनोसेण तिरिण वासहस्साई,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अन्तमुहूर्त की और उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष की होती है, (इ.पजत्तगवादरवाउकाइयाण पुच्छा, ) हे भगवन् ! अपर्याप्त बादर वायुकाय के जीवों की स्थिति कितने काल की प्रतिपादन की गई है ? (गीयमा ! जहणणेणवि अंतोमुहुरा उक्कोसंरणवि अंतीमुहु तं,) हे गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट कंवल चन्तर्मुहूर्त की ही स्थिति होती है, (पजत्तगबादरवाउकाइयाणं पुच्छा,) हे भगवन् ! पर्याप्त बादरवायु काय के जीवों की स्थिति कितने काल की होती है ? (गायना! जहएणण अंतोमुहुरा उकासे तिरिण वाससहस्साई अंतोमु त णाई,) भो गौतम ! जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूत्त की और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त न्यून तोन हजार वष की होती है, (वणसइकाइयाणं पुच्छा,) हे भगवन् ! वनस्पतिकाय के जीवों की स्थिति कितनं काल को होता है? (गोयमा ! जहएणणं अंगोमुहुरा उछोरंगणं दस वाससहस्साई) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अन्त मुंहूत की और उत्कृष्ट दस हजार वष का होती है, अोर ( सुहुनब : सइकाइया । आहियाणं अपज्जतगाणं पाण्य तिए,वि जहरणे अन्तोनुहुक्तं कोलणवि अंतीमुहुतं,) सुक्ष्मवनस्पतिकाय के प्रोविक, अपर्याप्त, और पर्याप्त इन तीनों की जघन्य और उत्कृष्ट, स्थिति केवल अतमुहूत्त की हो प्रतिपादन को गई है, तथा-(वादरवण स्लइकाइयाण महरणेणं अंतोमुहुरा कातण दस वाससह स...) बादर बनस्पति काय के जीवों की जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त को और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की होती है, (अपज्जत वादरवण सइकाइयाणं पुच्छा,) हे भगवन् ! अपयोप्त बादर बनस्पति काय के जीवोंको स्थिति कितने काल की होती है ? गोयमा ! जहरणेणवि अन्तामुहुर. उक्कोसेणवि अमुहुरा,) भी गोतम ! जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट से भी केवल अन्तर्मुहूर्त की ही होती है, (पजत्तगवादरवणसइकाइयाणं पुच्छा.) हे भगवन् ! पर्याप्त बादर बनस्पतिकाय के जीवों की स्थिति कितने काल की प्रति पादन को है ? (नीयमा ! जहणणे अंतीमुहुरा उकोसेण दम वास सहम्साई अतोमुहुत्त गा) भो गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त को और उत्कृष्ट से अन्त मुहूर्त न्यून दस हजार वर्ष तक को स्थिति प्रति पादन को गई है क्योंकि अपर्याप्त काल को पृथक् कर दिया गया है। ___ भावार्थ - पांच स्थावर सूक्ष्म, सभी अपर्याप्त, और औधिक इन सभी की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति सिर्फ अंतर्मुहर्त की है, लेकिन जो बादर पर्याप्त है उनके अपर्याप्त काल की स्थिति पृथक् करके शेष श्रायु निम्न लिखितानुसार जानना चाहिये
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विकलेन्द्रियों की स्थिति
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बेइंदियाणं भंते! केवइयं कालं ट्टिई पन्नते ? गोयमा ! जहां अंतोमुहृतं उक्कोसेणं वारस संवच्द्धराणि, अपजगबेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा ? जहराणेण वि अंतोमुहतं कोण वितोमुहुतं, पजत्तगबेइंदियाणं पुच्छा, जहां अंतोमुहुर्त उक्को सेणं बारस संवच्छराणि अंतोमुहुंत्तूणाई' । तेइ दियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहरा अंतोमुहुतं उक्को से एगुणपण्णासं राई दियाणं, अपज्जतगतेइ दियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहरणेण वि अंतोमुहुत्त उक्को सेण वि तोमुहुत्त पज्जत्तगतेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणणं अंतोमुहुत्त उक्को से एगुण परणासंरा दिया तो मुहुत्त गाइ' । चउरिंदियाणं भंते! केवइयं कालं ट्टिई पण्णत्ते ? गांयमा ! जहराणां संतोमुहुत्तं उक्कोसेणं छम्मासा, अपज्जत्तगचउरिंदियाणं पुच्छा, गोयमः ! जहराण ेण वि अंतोमुहुतं उक्कोसेण वि अंतो मुहुत्त, पज्जत्तगचउरिंदियाणं पुच्छा, गोयमा ! जह अतोमुत्तं उक्कोसेणं छम्मासा प्र तोमुहुत्तू
1
गाइ ।
पदार्थ - (बेइरियाणं भंते ! केवइयं कालं ट्ठिई पत्र से ?) हे भगवन्! द्वीन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने कालकी प्रतिपादन की गई है ? (गोयमा ! जहर येणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं बारस संवछराणि) भो गौतम ! जघन्य से अंतमुहूर्त्त की और उत्कृष्ट स्थिति बारह वर्ष की होती है, ( अपजत दियाणं पुच्छा, ) हे भगवन् ! अपर्याप्त द्वोन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की की होती है ? ( गोयमा ! जहरणेण वि तोमुहुत्तं उक्को से विन्तो मुहुत्तं) भो गौतम ! जघन्य से भी अन्तमुहूर्त्त की और उत्कृष्ट भी केवल अन्तर्मुहूर्त्त
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[ उत्तरार्धम् ] की होती है, ( पजतगई दियाणं पुच्छा,) हे भगवन् ! पर्याप्त द्वीन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की होती है ? ( गोयमा ! जहरणेण अंतोमुहुत्तं उकोसेण बारस संवच्छर णि अन्तो मुहुत्तूणाई, ) भो गौतम ! जघन्य स्थिति अंतमुहूर्त की और उप्कृष्ट अंतर्मुहूर्त न्यून बारह संवत्सर की होती है । (तेइंदियाणं पुच्छा,) हे भगवन् ! त्रीन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की प्रति पादन की गई है ? ( गोयगा ! जहणणेणं अन्तोमुहुत्तं उकोप्सेण एगुणपण्णासं राइंदियाणं, हे गौतय ! जवन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट ४९ दिवस रात्रि की होती है, (अपजत्तगते देयागपुच्छा,) अपर्याप्त त्रीन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल को होती है ? ( गोपमा ! जहरणेणवि अन्तोमुहुत्तं उकोसेण वि अन्तोमुहुत्तं,) हे गौतम ! जघन्य से भी अन्तर्महूर्त को और उत्कृकृष्ट से भी केवल अन्तर्मुहूर्त की ही होती है, (पजत्तगई दियाण पुच्छा,) पर्याप्त त्रीन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की होती है ? ( गोयमा ! जहरणे " अन्नोमुहत्तं उकोसेण एगुणपरणासं राइंदियाई अन् गोमुहत्तणाई.) भो गौतम! जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त न्यून ४९ दिन रात्रि की होती है । (चदियाण भंते ! केवइयं कालं ठिई पनते ?) हे भगवन् ! चतुरिन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की प्रति पादन को गई है ? (गोयमा ! जहएणणं अन्तोमुहुत्तं उको पेग छन्मासा,) हे गौतम ! जघन्य से अंतर्मुहर्त की
और उत्कृष्ट षट मास की होती है, (अपजत्तगचउरिंदियाण पुच्छा,) हे भगवन् ! अपर्याप्त चतुरिंद्रिय जीवों की स्थिति कितने काल को होती है? (गोयमा ! जहरणेणवि अन्तोमुहुत्तं उक्को. सेणवि अन्तोमुहु,) हे गौतम ! जघन्य से मी अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट से भी केवल अन्तमहत्त को होती है, ( पजत्ताचारिं दियाण पुच्छा,) हे भगवन् ! पर्याप्त चतुरिंद्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की होती है ? (गोयमा ! जहरणेण अन्तोमुहुत्तं उक्कोसेण
(यह मेटर ८८ पेज के ऊपर का है, पाठक ध्यान पूर्वक पढ़ें) पांच स्थावर जघन्य सिथिति उत्कृष्ट स्थिति पृथ्वी काय अंतर्मुहूर्त प्रमाण २२००० बावीसहज़ार वर्ष अप काय
७ सात हज़ार वर्ष तेजस्काय
३ तीन दिन रात्रि वायुकाय
३ तीन हज़ार वर्ष वनस्पतिकाय
१० हज़ार वर्ष यह सभी बादर पांच स्थावरों की स्थिति है, किन्तु सूक्ष्म पर्याप्त, अपर्याप्त, और औधिक इन तीनों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति सिर्फ अंतर्मुहूर्त ही की होती है। अब इसके आगे विकलेन्द्रियों की स्थिति का वर्णन किया जाता है
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम ] छन्मासा अन्नामुहुलागाई, ) हे गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट अन्तमुहृत्त न्यून पट् मास की होती है, किन्तु न्यून से अधिक और उत्कृष्ट से न्यून सभी मध्यम स्थिति जानना चाहिये ।
भावार्थ-तीनों विकलेन्द्रय अपर्याप्त जीवों की जघन्य स्थिति केवल अंतर्जुहूर्त प्रमाण ही होती है, तथा पर्याप्त जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति निम्न लिखितानुसार देखिये
विकलेन्द्रिय जीव जघन्य पिति उत्कृष्ट स्थिति द्वीन्द्रिय
अंतर्मुहूर्त प्रमाण द्वादश वर्ष प्रमाण श्रीन्द्रिय
__., ४१ दिन रात्रि चतुरिन्द्रिय
पट मास , उपरोक्त सभी पर्याप्त जाबों की स्थिति वर्णन की गई है । अब तिर्यक् पंचेन्द्रिय जीवों की स्थिति प्रतिपादन करते है
पंचेन्द्रिय नियों की रियति ।
पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नते ? गोयमा ! जहाणे अंतोमुहत्तं उकासेणं तिरिण पलिअोवमाई, जलयरपंचिंदियतिरिक्वजोणियाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पं. ? गोयमा ! जहणणेणं अंतोमुहत्त उकोसेणं पुवकोडो, समुच्छिमजलयरपंचिंदिय पुच्छा, गोयमा ! जहणणेरणं अंतोमुत्तं उकोसेणं पुवकोडी, अपजत्तयसमच्छिन जलयरपंचिंदिय पुच्छा, गोयमा ! जहणणेणवि अंतोमु हुत्तं उक्कोसेणवि अन्तोमहत्त, पजत्तयसमुछिमजलयरपंचिदिय पुच्छा, गोयमा ! जहगणेण अंतामुहुत्तं उक्कोसेणं पुयकोडी अंतोमुत्तूणाई, गब्भवतियजलयरपंचिंदिय पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अतोमुहुत्त उक्कोसणं पुढ्यकोडो, अपज्जत्तय
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[ उत्तरार्धम् ] गब्भवक्कंतियजलयरपंचिंदिय ६ छो, गोयला ! जहरण वि अन्तोमुहुत्तं उक्कोणावि अन्तोमुहुत्तं , पज्जत्तगगब्भवक्कंतियजलयर पंचि दिय पुच्छा, गोयमा ! जहणणेणं अंतोमहत्तं उक्कोसेण पञ्चकोडी अन्तोमुहुराणाई, चउप्पयथलयरपंचिदिय पुच्छा, गोथमा ! जहहणेण अंतोमुहत उक्कोसेरा तिगिण पलिअोवमाई, संमच्छिमचउप्पयथलयरपंचिदिय जात्र गोयमा ! जहणणे अतोमुहुत्त उक्कोसेण चउरासीइ बाससहस्साइ, अाजतयसमुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिदिय जाव गोयना ! जहहणेणवि अन्तोमुत्त उक्कोसेणवि अन्तोमहत्तं, पज्जत्तयसमुच्छिमच उप्पयथलयर पांचि दिय जाव गोया ! जहण्णण अंतोमहतं उक्कोहो चउरासी वाससहस्साई अतोम इत्तणाई, गावस्कतिपचउप्पथलयरपविदिय जाय गोयना ! जहाजातलं उकतो. लेण' तिरिणा पलिओचमाई, अगमभरतिय च3. प्पयथलयरप चि दिय जाब गोयानः ! जहशोगावि अन्तो मुहतं उक्कोसेरणवि अंतीम हतं. पजतगगभवकतियचउपयथल परयचिदिय जाव गोयना ! जहराणेश' अतोमुत्तं उक्कोसेणं तिरिय पलिओवमाइं अंतोमुहुत्त - णाइ, उरपरिसप्पथल पर पाविदिय पुच्छा, गोयमा ! जहगण ण अन्तोमुहुर्त उक्कोसेणं पुब्बकोडी, संमच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचि दिय पच्छा, गोयमा ! जहएणणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तेवन्नं वाससहस्साइ, अपज्ज त्तयसमच्छिमउरपरिसप्पथलयरपचिदिय जाव गोयमा !
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[श्रीमदनुयोगद्वारत्रम् ] जहरणेणवि अन्तोमुहत्तं उक्कोसेणवि अंतो हुत्तं, पज्जत्तयसमुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपचिंदिय जाव गोयमा ! जहण्णणं अतोमुहुत्त उक्कोसेण तेवन्नं वाससहस्ताइ अन्तोमुहुत्तूणाई, गम्भवक्कंतियउरपरिसप्पथलयरपचिंदिय जाव गोयमा ! जहणणेणं अन्तोमुहत्तउकोसेणं पुषकोडी, अपज्जत्तगगब्भवक्कंतियउरपरिसप्पथलयरपचिंदिय जाव गोयमा ! जहण्ण णवि अन्तोमुहुत्तं उक्कोसेणवि अन्तोमहत्तं, पज्जत्तगगब्भवतियउरपरिसप्पथलयरपचिंदिय जाव गोयमा ! जहण्णण अतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी अंतोमुहुत्तूणाई', भुयपरिसप्प. थलयरपचिंदिय जाव गोयमा ! जहण्णण अंतोमुहुत्तं उककोण पुव्वकोडी, संमच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपबिंदिय जाव गोयमा ! जहण्णण अन्तोमुहत्तं उकोसण बायालीसं वाससहस्साई, अपज्जत्तगसमुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपचिंदिय जाव गोयमा ! जहण्णणवि अंतोमहत्तं उक्कोसेणवि अतोमुहुत्तं , पज्जत्तगसंमु. च्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदिय जाव गोयमा ! जहएणण अंतोम हुत्तं उक्कोसेण बायालीसं वास सहस्साई अंतो महत्तणाई', गब्भवक्कंतियभुयपरिसप्पथलयरपचिंदिय जाव गोयमा ! जहएणण अंतोमुहुत्त उक्कोसेण पव्वकोडी, अपज्जत्तगगब्भवक्कंतियभुयपरिसप्पथलयरपचि दिय जाव पुच्छा गोयमा ! जहएणणवि अंतोमुहत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहत्तं, पज्जत्तगगम्भवक्कंतियभुयपरिसप्पथलयरपचि दिय जाव गोयमा!
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[उत्तराधम् ] जहरण ण अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुत्वकोडी अंतोमुहुत्तूणाई ।
पदार्थ-पंचिंदियतिरिक्खजोणियाग भंते ! केवइयं कालं ठिई पं.. ?) हे भगवन् ! पंचेंद्रिय तिर्यक् योनि के जीवों की स्थिति कितने काल की प्रतिपादन की गई है ? (गोयमा ! जहरणेणं अंतोमुहु तं उक्कोसेणं तिरिणपलिनोवमाई,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अंतमु हूर्त की और उत्कृष्ट तोन पल्योपम की होती है , (जलयरपंचिं दयतिरिक्ख जोणियाणं भंते ! केवइयं कालं डिई परणले ?) हे भगवन् ! पंचेंद्रिय जलचर* तिर्यक् योनि के जीवों को स्थिति कितने काल की होती है ? (गोय रा ! जहरणेणं अंतोमुहुरा उक्कोसेणं पुञ्चकोडी,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्व क्रोडवर्ष की होती है, (समुच्छिन जलयरपंचिदिय तरिक्खजोणियाणं पुन्छा,) हे भगवन् ! + समूच्छिम जलचर पंचेंद्रिय तिर्यक् योनिकों को स्थिति कितने काल की होती है ? (गायमा ! जहरणेणं तोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुचकांडी,) हे गौतम ! जयन्य स्थिति अंतर्मुहूत की
और उत्कृष्ट पूर्व क्रोडवर्ष की हाती है, (अप जरायसंमुन्छि जल यरपंचदिय पुच्छा,) हे भगवन् ! अपर्याप्त समूच्छिम जलचर पंचेंद्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की होती है ? (गोयमा ! जहएणणवि अंतोमुहुंरा उक्कोसेणवि अंतोमुहुतं,) हे गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति केवल अंतर्मुहूर्त की ही होती है, (पज चयसमुच्छिमालयरपंचिंदिय पुन्छा,) हे भगवन् ! पर्याप्त समूच्छिम जलचर पंचेंद्रिय जोवों की स्थिति कितने काल की होती है ? (ोयमा ! जहएणणं अंतीमुहुरा उक्कोसेणं पुचकोडी अतोमुहुत्त गाई,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अंतमुहूर्त की और उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त न्यून पूर्व कोडवर्ष की होती है, क्योंकि अपर्याप्त काल पृथक् कर दिया गया है। (गम्भववामियज लयरपंचिंदिय पुच्छा,) हे भगवन् ! गभ से उत्पन्न होने वाले जलचर पंचेंद्रिय योनिकों की स्थिति कितने काल की होती है ? (गोयमा! जहरणेणे अंतोमुहुर डक्कोसेणं पुधकोडी,) हे गौतम! जघन्य से अंत. मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्व क्रोडवर्ष की होती है, (अगजरायगम्भवक्क तिय जलचरपंचिंदिय पुच्छा,) हे भगवन् ! अपर्याप्त गर्भ से पैदा होने वाले पंचद्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की होती है ? (गोयमा ! जहएणेणवि अतोमुहुतं उघोसेणावि अंतोमुहुरा,) हे गौतम ! जघन्य भी अंतर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट से भी केवल अंतर्मुहूर्त की होती है । (पजत्तगगन्भवक तियजलयरपंचिंदिय पुच्छा,) हे भगवन् ! पर्याप्त गर्भ से उत्पन्न होने वाले जलचर पंचेंद्रिय जीवों की स्थिति कित्तने काल की होतो है ? (गोयमा ! जहरणेणं अतोमुहुर्श उक्कोसेणं पुष्वकोडी श्र तोमुहुंच णाई,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त
* पानी के अन्दर चलने वाले । + वात पित्तादि या विना गर्भ से उत्पन्न होने वाले ।
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[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] की उत्कृष्ट और अन्तर्मुहूर्त न्यून पूर्व क्रोडवर्ष की होती है । अब चतुष्पदके विषय में वर्णन करते हैं
(चउप्पयालयरपंचिंदिय पुन्छ', हे भगवन् ! चार पैर वाले स्थलचर पंचेंद्रिय जीवों को स्थिति कितने काल को होती है? (यमा ! जहणोण तोप उचात विरिण पलियोमा) हे गौतम! जयन्य से अतमुहूर्त को कौर उत्कृष्ट तीन पल्योपम को होती है। संविधगचउदाय नमरी चंदियना) हे भगवन् ! समूछिम चतुष्पद वाले स्थलचर पंचेंद्रिय जोवों को स्थिति कितने काल की होती है ? ( गायना ! जगणेणं अतो हु उ हो लेणं चासी: बारा सहयाई,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त को और उत्कृष्ट ८५ चौरासो हजार व* की होती है, (अपजस समुच्छिा उपयलयरपंचिंदिय जाब) ह भगवन् ! अपर्याप्त समू. च्छिम चतुष्पद वाले स्थलचर पंचेंद्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की हाती है ? (गोयमा ! जहरणेवि तोमर, उक्कोलकवि अत:मुहुरा,) हे गौतम ! जघन्य से भी अंतर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट से भी केवल अंतर्मुहूर्त की होती है, (जससंच्छि र चरप्परथलयरपंचिंदिय जाव) हे भगवन् ! पर्याप्त समूच्छिम चतुष्पद वाले स्थलच. पंचेंद्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की होती है ? (गोषमा ! जहरगोणं अलीगु हुतं रकतोमेणं चउरसीई वास सह-साई तो गुहुरा गाई.) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अंतर्मुहर्रा की और उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त न्यून ८४ चौरासो हजार ३ष को होता है । अा. भ. विषय में कहते हैं
(गल यच उपपलया पं च देय जाय) हे भगवन् ! गर्भ से उत्पन्न होने वाले चतुष्पद स्थलचर पंचेंद्रिय जीवों की स्थिति कितने काल को होता है ? (गोयमा ! जहणणे अताघुलते उसकोले ग तिरिए पनि यो पाई,) ह गौतम ! जयन्य स्थिति अंतर्मुहूत की और उत्य.ष्ट तीन पल्योपम की होती है। ( अाजरगगब्भवतियच अयथलपरपंचिदिय जाब,) हे भगवन् ! अपर्याप्त गर्भ से उत्पन्न होने वाले चतुष्पद स्थलपर पंचेंद्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की होती है? (गोयमा ! जहरणेणवि अतोपुहरू उक्कोणवि अतोहरों,) हे गौतम ! जघन्य से भी अंत मुहूर्त की और उत्कृष्ट से भी केवल अंतर्मुहत की होती है, (पज गगभवक्कतियथलयरपंचिंदिय जाव.) हे भगवन् ! पाप्त गर्भ से उत्पन्न होने वाले चतुष्पद स्थल
* यह देवकुरु उत्तरकुर्वदि अकर्मभूमि के क्षेत्रों की अपेन्ना से है। । 'जाव' शब्द 'यावत्' शब्द का वाची है जो कि सभी प्रश्नों का वोधक है।
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[ उत्तरार्धम् ] चर पंचेंद्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की होतो है ? (गोयमा ! जहहणण अतोमुहुरा उक्कोसेण तिरिण पलिश्रोवमाइं अतो हुतूणाई,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अंतमुहूर्त की और उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त न्यून तीन पल्योपम को होती है, (उर परिसप्पथलयरपं. चंदिय पुन्छा,) हे भगवन्! * उरपरिसर्प स्थलचर पंचेंद्रिय जीवों की स्थिति रितने काल को होती ? (गोमा ! जहरणे ण अतीपुहु क कोसेण पुब्दवाडी) हे गौतम ! जघन्य से अंतर्मुहूरी की और उत्कृष्ट पूर्व क्रोडवर्ष की होती है । (संपुच्छ पउगा सप्पथलयर पंचेंदिय पुच्छा,) हे भगवन् ! समूच्छिम उर परिसर्प स्थल० पंचेंद्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की होती है ? (गोयमा ! जहरणे अतोमुहुरी कोमेण तेवन्नवाससहरसाई,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट ५३ हजार वर्ष को होती है ? (अपजत्तयसमुच्छिमउगपरिसपथलयरपंचिंदिय जाव.) हे भगवन् ! अपर्याप्त समूच्छिम उरपरिसर्प स्थलचर पंचेंद्रिय जीवों को स्थिति कितने काल की होती है ? (गीयमा ! जहरण गावि अतोमुहुरा उक्कोसंगावि अशोक गौतम ! जघन्य से भी अतमुहूर्ता की और उत्कृष्ट से भी अंतमुहूर्त की ही होता है, (पऊ. २१ १६.२३ छिमारा सप्पयनयरपाँचदिय जाय) हे भगवन् ! पर्याप्त समच्छिम उरपरिसर्प स्थलचर पंचेंद्रिय जीवों को स्थिति कितने काल की प्रतिपादन की गई है ? (कोयना ! 'जहए। गण असामुहुरा उसकोसेण तेवन्नं वाससहस्साई अतोमु हुन् गाइ.) हे गौतम ! जघन्य स्थिति त मुहूत्त की
और उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त न्यून ५३ हजार वर्ष को होतो है, गम्भवक्का तय ३५० रिसप्पथलयरपंचिंदिय जाव) हे भगवन् ! गर्भ से उत्पन्न होने वाले उरपरिसप स्थलचर पंचेंद्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की होती है ? ( गोयमा ! जहरण अतो मुहुर कोसेण पुषकोडी, ) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अंतमुहूं को और उत्कृष्ट क्रोड पूर्व वष को होती है, (अपज चयगब्भववतियरपरिसत्यथ जयरपाँचदिय जाय) हे भगवन् ! अपर्याप्त गम से उत्पन्न होने वाले उरपरिसप स्थलचर पंचेंद्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की होती है ? (गोयमा ! जहएणणवि अंकोमुहुत्तं उकोणवि अंतोमुहु तं, हे गौतम! जघन्य स्थिति भो अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी सिफ अन्तमु हूत्त को होतो है,(पज तयाभव वंतियउरपरिसप्पथलयरपंचिदिय जाब) हे भगवन् ! अपर्याप्त गर्भ से उत्पन्न होने वाले उरपरि सर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय जीवोंकी स्थिति कितने काल की होती है ? (गोयमा ! जहणणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं पुचकोडी अंतोमुहुत्तण्णाई) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अंतर्महत की और उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त न्यून क्रोड पूर्व वर्ष की होती है, (भुयपरिसप्यथलयरपंचेंद्रिय जाव पुच्छा) हे भगवन् ! भुज परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल
* पेट से चलने वाले ।
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] की प्रतिपादन की है ( गोयमा ! जहएणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट क्रोड पूर्व वर्ष की होती है, (समुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदिय जाव ) हे भगवन् ! सम्मच्छिम भुजपरिस' स्थलचर पंचेन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की होतो है ? (गोयमा ! जहएणेणं अंतो मुहुरा उक्कोसेणं बायालोसं वास सहस्साई) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट ४२ हजार वर्ष की होती है, (अपज तयसमुच्छिाभुयपरिसप्पथ लयरपंचिदिय जाव,) हे भगवन् ! अपर्याप्त संमछिम भुजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल को होती है ? (गोयमा ! जहरणेण वि अंगोमुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं) हे गौतम ! जघन्य स्थिति भी अंतर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट भी अंतर्मुहूर्त को होती है, (पजत्तासमुच्छि प्रभुयपरिसप्पयनयापंचिंदिय जाप) हे भगवन् ! पर्याप्त समूच्छिम भुजपरि सर्प स्थलचर पचेन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल को होती है ? (गोपमा ! जहरणेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं वा शलोसं वाससह साई अंतोमुहुत्तूएण इं) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त को और उत्कृष्ट अंतर्मुहून न्यून ४२ हजार वर्ष की होतो है, (गम्भवक्कंतिय भुअ परिसप्पथलयरपंांचे दर जाय) हे भगवन् ! गर्भ से उत्पन्न होने वाले भुजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की होतो है ? (गोयमा ! जहरणेणं अंतोमुहुरा उकोसेणं पुषकोडी) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्व क्रोड वर्ष को होती है, (अप्रज्जत्तयगम्भवक्कं तयभु यपरिसप्पथलयरपंचिंदिय जाव) हे भगवन् ! अपर्याप्त गर्भ से उत्पन्न होने वाले भुजपरिसप स्थलचर पंचेन्द्रिय जोवों की स्थिति कितने काल को होती है ? (गोयगा ! जहरणे णवि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुरो,) हे गौतम ! जघन्य से भी अन्तमुहूर्त की और उत्कृष्ट से भी केवल अंतर्मुहूर्त की होती है, (पजत्तयगम्भवक्कंतियभुयपरिसप्पथल परपंचिंदिय जाव) हे भगवन् पर्याप्त गर्भ से उत्पन्न होने वाले भुजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल को होती है ? (गोयना ! जहएणणं अंतोमुहुत्तं डकोसेणं पुब्धकोडी अंत्तो मुहुन्नएणाई) हे गौतम! जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त की, उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त न्यून क्रोड पूर्व वर्ष की होती है, किन्तु सत्तर लाख क्रोड वर्ष तथा छप्पन हजार क्रोड वर्षों के एकत्व करने से एक पूर्व होता है, इस गणना से पूर्व क्रोड वर्ष की उत्कृष्ट स्थिति होती है।
भावार्थ-पंचेन्द्रिय तिर्यक योनि के जीवों की जघन्य स्थिति अंतर्मुहर्त की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है, इसी को श्रोधिक सूत्र कहते हैं। किन्तु सभी प्रकार के अपर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति केवल अंतर्मुहूर्त की ही होती है। अब जलचर जीवों की स्थिति निम्नलिखितानुसार जानना चाहिये
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[ उत्तरार्धम् ] समूच्छिम जलचर जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति समूछिम जलचर पंचेन्द्रिय अंतर्मुहूर्त *पूर्व क्रोड वर्ष गर्भज जलचर पंचेन्द्रिय , स्थलचर जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति निम्न प्रकार से हैचतुष्पद वाले स्थलचरों की जघन्य उत्कृष्ट । चार पैर वाले पशुओं की अंतर्मुहूर्त तीन पल्योपम समूच्छिम चतुष्पद बालों की अंतर्मुहूर्त ८४ सहस्रवर्षोंकी गर्भज चतुष्पद वालों की अंतर्मुहूर्त तीन पल्योपम उरपरिसपो की समुश्चय अंतर्मुहूर्त पूर्व क्रोड वर्ष समूच्छिम उरपरिसर्पो की अंतहत ५३ सहस्रवर्ष गर्भज उरपरिसर्प
अतर्मुहूर्त पूर्व क्रोड वर्ष भुजपरिसर्प
अंतर्मुहूर्त पूर्व क्रोड वर्ष समूछिम भुजारिसर्प अंतमुहर्स ४२ सहस्र वर्ष गर्भज
अंत मुहूर्त पूर्व कोड वर्ष ये सभी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिएँ है, किन्तु विशेष इतना ही है कि सभी तरह के अपर्याप्तों की स्थिति अंतर्मुहर्त ही की होती है, तथा जघन्य काल से अधिक और उत्कृष्ट काल से न्यून ये सभी मध्यम स्थिति कहलाती है। अब इसके अनंतर खेचरों की स्थिति का वर्णन करते हैं।
खेचरों की स्थिति। खहयरपंचिंदिय जाव, गोयमा ! जहरणेणं अंतोमुहत्तं उकोसेगां पलिओवमस्स असंखेजइभागो, संमुच्छिमखहयरपंचिंदिय जाव गोयमा ! जहणणेणं अंतोमुहत्त उकोसेणं बावत्तरि वाससहस्साइं, अपज्जत्तगसंमुच्छिमखहयरपंचिंदिय पुच्छा, गोयमा ! जहणणेणवि अंतोमुहत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्त, पजत्तयसंमु
*- उत्कृष्ट स्थिति में अंतर्मुहुर्त प्रमाण अपर्याप्त काल न्यून कर देना चाहिये ।
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] च्छिमखहयरपंचिंदिय जीव गोयमा ! जहणणेणं अंतोमुहूत्तं उक्कोसेणं बावत्तरि वाससहस्साइं अंतोमुहत्तूणाई, गब्भवक्कंतियखहयरपंचिंदिय जाव गोयमा ! जहएणणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जहभागो, अपज्जत्तयगम्भवक्कंतियखहयरपंचिंदिय जाव गोयमा ! जहणणेणवि अंतोमुहत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहत्तं, पज्जत्तगगब्भवक्कंतियखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणणेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पलिअोवमस्स असंखेज्जइभागो अंतोमुत्तूणो । एत्थ एएसि णं संगहणिगाहाओ भवन्ति, तंजहा
संमुच्छिमपुत्वकोडी चउरासीई भवे सहस्साई । तेवण्णा बायाला बावत्तरिमेव पक्खीणं ॥ १ ॥ गब्भंमि पुवकोडी तिगिण य पलिओवमाइं परमाऊ । उरगभुअपुवकोडी पलिओवमा संखभागो अ॥२॥
पदार्थ-(खहयरपंचिंदिय जाव) हे भगवन् ! आकाश में उड़ने वाले पंचेन्द्रिय जीवों को स्थिति कितने काल की होती है ? (गोयमा ! जहणणेणं अंतोमुहुत्तं उ कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइ भागो, हे गौतम ! जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यात भाग प्रमाण होतो है, (समुच्छिमखहयरपंचेदिय जाव) हे भगवन् ! समूच्छिम खेचर पंचेन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की होती है ? (गोयमा ! जहणणेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं बावत्तरि वाससहस्साई,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अतर्मुहूर्त की
और उत्कृष्ट ७२ हजार वर्ष की होती है. (आज तगसमुच्छिमखहयरपंचिंदिय पुच्छा,) हे भगवन् ! अपर्याप्त समूच्छिम खेवर पंचेन्द्रिय जीवों को स्थिति कितने काल की होती है ? (गोयमा ! जहणणेणवि अंतीमुहुत्तं उक्कोपेणवि अंतोमुहुत्तं,) हे गौतम ! जघन्य से भी अन्तमुहूर्त की और उत्कृष्ट से भी केवल अतमुहूर्त ही की होती है, (पज्ञत्तग
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[ उत्तरार्धम् ] समुच्छिमखहयरपंचिंदिय जाव) हे भगवन् ! पर्याप्त समूच्छिम खेचर पंचेन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की होती है ? (गोयमा ! जहरणेणं अंतोमुहुत्तं धक्कोसेणं बावत्तरि वाससहस्साई अन्तोमुत्तूणाई,) हे भगवन् ! जघन्य स्थिति अंतमुहर्च की और उत्कृष्ट अंतर्मुहर्त न्यून ७२ हजार वर्ष की होती है, (*गम्भवक्कंतियखहयरपंचिदिय जाव) हे भगवन् ! गर्भ से उत्पन्न होने वाले खेचर पंचेन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल को होती है ? (गोयमा ! जहरणेणं अंतोमुहुत्वं उकोसेणं पलिश्रोत्रमस्स असंखेजहभागो,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यात भाग प्रमाण होतो है, (अपजत्तगगन्भवतियखहयरपंचिंदिय जाव) हे भगवन् ! अपर्याप्त गर्भ से उत्पन्न होने वाले खेचर पंचेन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल को होती है ? (गोयमा ! जहणणेणवि अंतोमुहुर्त उकोसेणवि अंतोमुहुर्त, ) हे गौतम ! जघन्य से भी अन्तमुहूर्त की और उत्कृष्ट भी केवल अन्तर्मुहूर्त की हो होती है. (गजरागगम्भवक्कतियखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिग्राणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पएणत्ता ?) हे भगवन् ! पर्याप्त गर्भ से उत्पन्न होने वाले खेचर पंचेन्द्रिय जीवोंकी स्थिति कितने काल की प्रतिपादन की गई है ? ( गोयमा ! जहएणेणं अंतोमुहुरा उक्कोसेणं पलिअोवमम्स यावेजहभागो अतोमुहुनृग्गो, ) हे गौतम ! जघन्य से अंतर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट अंतर्मुहर्त न्यून एक पल्योपम के असँख्यात भाग प्रमाण होती है । (एत्य ए एसि णं संगहगि..हा भवन्ति, जहा-) इस समास के अंतर्गत इन सर्व अधिकारों की संग्रहणी गाथाएँ भी होती हैं, अर्थात् सर्व अधिकारी को संक्षेप से वर्णन करने वाली गाथाओं को सँग्रहणी गाथा कहते हैं।
संभुच्छिमपुधकोडी उगासी भव सहासाई ।
तेवएणा बायाला बाबत्त िमेव पक्वीग ॥ १ ॥ जल पर समूछिम जीवों की उत्कृष्ट स्थिति पूर्व क्रोड वर्ष की, स्थलचर चतुः पद समूच्छिमों की ८४ हजार वर्ष की, तथा समूच्छिम उरपरिसर्प अर्थात रंग कर चलने वालों को ५३ हजार वर्ष की और समृच्छिम भुजपरिसपों को ३२ हजार वर्ष की, इसो तरह समूच्छिम पक्षियों की ७२ हजार वर्ष की स्थिति होती है। इस संग्रहणी गाथा में समूच्छिमों की स्थिति वर्णन को गई है, अब दूसरी गाथा में गर्भ से उत्पन्न होने वाल जीवों की स्थिति वर्णन करते हैं।
गर्भमि पुचकोटी तिएिणय पलिअोवमाई परमाऊ ।
उरगभुगपुवकोडी पलिग्रोवमासंखभागो अ ॥ २॥ गर्भ से उत्पन्न होने वाले जलचर पंचेन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट स्थिति पूर्व क्रोड वर्ष की स्थलचर चतुष्पद वाले गर्भज तिर्यचों को उत्कृष्ट तीन पल्योपम की,
* ये सभी छप्पन अन्तीपों की अपेक्षा से है।
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् । उरपरि सर्प और भुजपरिसों को उत्कृष्ट क्रोड २ पूर्व वर्ष की और पक्षियों को एक पल्योपम के असंख्यात भाग प्रमाण होतो है ॥ २ ॥ इन को संग्रहणी गाथा कहते हैं, अर्थात् संग्रह करके सर्व आयु वर्णन की गई है।
भावार्थ--अाकाश में उड़ने वाले पक्षियों की जघन्य अायु अंतर्मुहर्त की होती है लेकिन अंतर्वीपों की अपेक्षा से उत्कृष्ट प्राय एक पल्योपम के असंख्या. तभाग प्रमाण होती है, तथा सर्व प्रकार के अपर्यापतों की श्रायु केवल अंतर्मुहुर्त की ही प्रति पादन को गई है। समूछिम और गर्भज पक्षियों की स्थिति निम्न प्रकार से जानना चाहियेसंमूछिम पक्षियों की जघन्यस्थिति उत्कृष्ट स्थिति
अन्तर्मुहूर्त बहत्तर हज़ार वर्ष गर्भज पक्षियों की अन्तर्मुहर्त पल्यपमो का असंख्यात.
इनकी उत्कृष्ट आयु ग्रहण करते वख्त अपर्याप्त काल को पृथक् कर देना चाहिये । तथा उक्त संग्रहणी गाथाओं का सार संक्षप से यह है कि . समूछिम जलचरों की उत्कृष्ट श्रायु पूर्व कोड वर्ष, स्थलचर चार पैर वाले पशुओं की चौरासी हज़ार वर्ष, उरपरिसरों की तिरपन हज़ार वर्ष को, भुजपरिसर्प की बयालीस हज़ार वर्ष और पक्षियों की बहत्तर हज़ार वर्षकी होती है । १॥ तथा गर्भ से उत्पन्न होने वाले जलचरों की पूर्व क्रोड वर्ष, स्थलचरों की तीन पल्योरम, उरपरिसर्थ और भुजपरिसरों की पूर्व क्रोड वर्ष और पक्षियां की पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग प्रमाण उत्कृष्ट श्रायु होती है ॥२॥ इन्हीं को संग्रणी गाथाए कहते हैं । अपितु जघन्य से अधिक, उत्कृष्ट से न्यून आयु को मध्यम आयु जानना चाहिये। इसके अनंतर मनुष्य और व्यंतरों की स्थिति प्रतिपादन करते हैं
मनुष्य और व्यंतरों की स्थिति ।
मणुस्साणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गो. यमा ! जहणणेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं तिरिण पलिओवमाइं, संमुच्छिममणुस्साणं जाव गोयमा ! जहणणेणवि अंतोमुहृतं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, गब्भवक्कतिय
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१०१
सेणं
[ उत्तरार्धम् ] मगुस्सा जाव गोयमा ! जहराणेणं अंतोमुहुत्ते उक्कोतिरिण पलिवमाई, अपजत्तगगब्भक्कंतियमगुस्साणं ! भंते केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहराणेवितोमुहुतं उक्को सेणवितोमुहुत्तं, पज्जतगगब्भवक्कंतियमगुस्साणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहराणेणं अतोमुहुत्तं उक्को सेणं तिरिण पलिओ माई तो मुहुत्तूणाई ।
वाणमंतराणं देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहराणेणं दस वाससहस्साइं उक्कोसेणं पलिश्रवमं, वाणमंतरीणं देवीगं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहां दस वाससहस्साइं उक्कोसे अपविमं ।
पदार्थ – (मुणु-साणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? ) हे भगवन् ! मनुष्यों की स्थिति कितने कालको प्रति पादनको गई है ? (गोयमा ! जणं तोमुहुतं उचो सेणं तिणि पलिश्रोमाई) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अंतमुहूर्त्त की और उत्कृष्ट तीन #पल्योपम की होती है, इसी कोधिक सूत्र कहते हैं । ( संमुच्छिन मणुस्सा जाव) हे भगवन् ! संमूच्छिम मनुष्यों की स्थिति कितने काल की प्रति पादन की गई है ? (गोयमा ! जहरणेणविश्रांतोमुहुतं उक्कोसेरात्रि श्रतो मुहुत्तं ) हे गौतम! जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट से भी केवल अन्तर्मुहूर्त्त ही की होती है, (गन्भवक्कंतियमणुस्सां जाव ) हे भगवन् ! गर्भ से उत्पन्न होने वाले मनुष्यों की स्थिति कितने काल की वर्शन की गई है ? (गोयमा ! जहणणेणं श्रन्तोमुहुतं उक्कोसेणं तरिण पलिश्रोमाई) हे गौतम ! जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होतो, है (पजरागगय्भयकंतिय मणुस्साणं भंते ! केवइथं कालं ठिई परणत्ता ?) हे भगवन् ! अपर्याप्त गर्भ से उत्नेन्न होने वाले मनुष्यों की स्थिति कितने कालकी प्रति पादन की गई है ? (गोयना ! जहणणेत्रिअतोमुहुशं उक्कोसेणवि श्रतो ) हे गौतम! जघन्य स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट भी केवल अंतर्मुहूर्सदी की होती है, (पजत्तगगब्भवक्कंतियमणुस्साणं भंते ! केवइयं कालं ठिई * यह स्थिति क भूमि के मनुष्यों की अपेक्षा से है ।
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१०२
[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] पए णता ?) हं भगवन् पर्याप्त गर्भ से उत्पन्न होने वाले मनुष्यों को स्थिति कितने काल की प्रतिपादन को गई है ? (गोयमा ! जहरणेणं अतोमुहुरा उ कोसेणं तिषिण पलिओ वपाई श्रतो मुहुतू गाई,) हे गौतम ! जयन्य स्थिति अंतर्मुहत को और उत्कृष्ट अंतमुहूर्त न्यून तोन पल्योपम की होती है । अब व्यंतर देवों की स्थिति कहते हैं
__ (वाणांतराणं देवाणं केवइयं कालं ठिई पएणत्ता ?) हे भगवन् ! वान व्यंतर देवों की स्थिति कितने काल को प्रतिपादन की गई है ? (गोयपा ! जहएणणं दस वाससहस्लाई उकोसेणं पलिश्रोवभ,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक पल्योपम की होती है, (वाणरोतणं देवीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पएणत्ता ?) हे भगवन् ! व्यंतरिकों के देवियों को स्थिति कितने कालकी प्रतिपादन की गई है ? (गोपमा ! जहएणणं दस वाससहस्साई उक्कोसेणं श्रदपलियोवमं,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति दश सहस्र वर्ष की और उत्कृष्ट अर्द्ध पल्योपम को होती है।
भावार्थ-मनुष्यों की जघन्य स्थिति अंतमहत की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है। इसी को श्रोधिक सूत्र कहते हैं, तथा सभी प्रकार के अपर्याप्तों की स्थिति केवल अतहत ही की होती है, शेष निम्न लिखितानुसार जान लीजियेमनुष्य
जघन्यस्थिति उत्कृष्ट स्थिति समूच्छिम मनुष्यों की अंतहत अंतर्मुहूर्त गर्भज मनुष्यों की अंतर्नुहूर्त तीन पल्योपम
इसके अतिरिक्त मध्यम स्थिति जाननी चाहिये तथा व्यंतरों की जघन्यस्थिति दश हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक पल्योपम की होती है, और व्यंतरादिक देवियों की जघन्य स्थिति तो पूर्ववत् ही है, परन्तु उत्कृष्ट अर्द्ध पल्योपम की होती है, किन्तु जघन्य से अधिक और उत्कृष्टसे न्यून सर्व मध्यम स्थिति जाननी चाहिये । अब ज्योतिषी देवों की स्थिति प्रति पादन की जाती है
ज्योतिष देको की स्थिति। जोइसिआणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? *सूत्र के लाघवार्थ व्यन्तरों के अपर्याप्तादि अवस्था का काल ग्रहण नहीं किया गया, क्योंकि इस में वे काल ही नह करते, इस लिये उनके प्रश्नोतर नहीं किये गये। तो भी अपर्याप्त काल पंतमुहरी प्रमाण ही जानना चाहिये ।
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१०३
- [ उत्तरार्धम् ] गोयमा ! जहणणेणं सातिरेगं अट्रभागपलिओवम उक्कोसेणं पलिअोवमं वाससयसह-समन्भहियं, जोइसिय देवीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहः गणेणं अट्ठभागपलिअोवमं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णासाए वाससहहि अब्भहिये, चंद विमाणाणं भंते! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहरणे चउभौगपलिओवम उक्कोसणं पलिओवमं वाससयहस्समब्भहियं, चंदविमाणाणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहाणेणं चउभागपलिश्रोवमं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं परणासाए वाससहस्सेहिं अब्भहियं, सूरविमाणाणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा! महराणां चउभागपलिओवम उक्कोसणं पालोवमं वाससहस्समब्भहियं, सूरविमाणाणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णणं चउभागपलिओवमं उक्कोमणं अद्ध पलिअोवमं पंचहिं वाससएहिं अब्भहिय, गहविमाणाणंभंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा ! जहणणेण चउभागपलिओवम उक्कोसणं पलिओवमं, गहविमाणाणं भंते देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा जहएणणं चउभाग पलिओवमं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं, णक्वत्तविमाणागां भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ते ? गोयमा ! जहणणे चउभागपलिनोवमं उक्कोसणं अद्धपलिअोवमं, णक्खत्तविमाणाणं भते। देवीणं के वइयं कालं ठिई पण्णत्ता! गोयमा! जहरणेणं चउभागपलिओवमं उक्कोसेणं साइरेगं
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१०४
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] चउभागपलिओवमं, ताराविमाणाणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोथमा । जहण्णण साइरेगं अट्ठभागपलिअोवम उक्कोसेण चउभागपलिओवमं ताराविमाणाणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणणेण अट्रभाग पलिअोवम उक्कोसेणं साइरेगं अट्ठभागपलिअोवमं । __ पदार्थ-(जोऽसियाणं भंते ! देवाणं केवायं काल ठिई पएणत्ता ?) हे भगवन् ! ज्योतिषी देवोंकी स्थिति कितने काल की प्रतिपादन कीगई है? (गोयमा! .हएणेणं सातिरेगं अट्ठभागपलिओवर्म) हेगौतम ! जघन्य स्थिति पल्योपम के आठवें भाग से कुछ अधिक और (उकोसेणं पलिश्रोवमं वाससयसहरसमभहियं,) उत्कृष्ट से एक पल्योपम और एक लाख वर्ष अधिक होती है (जोइसियदेवोणं भते! केवइयं कालं ठिई पएणत्ते ?) हे भवगन् ! ज्योतिपी देवियों को स्थिति कितने काल की प्रदिपादन की गई है ? (गोयना ! जहणणेणं अट्ठभागपलिश्रोत्रम उकोसेणं श्रदपलिग्रोवनं पण्णासाए वास सहस्समभलियं,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति पल्यो. पम का आठवां भाग' और उत्कृष्ट पचास हजार वर्ष अधिक अर्द्ध पल्योपम की होती है, इसी को औधिक सूत्र कहते हैं, (चंदविमाणाणं भंते ! देवाण कवइयं कालं ठिई पएणते ?) हे भगवन् चन्द्र विमानों के देवो की स्थिति कितने काल की प्रतिपादन को गई है ? गोयमा ! जहणणेणं चउभागपलिश्रीवमं उक्कोसेण पलिश्रोम वाससयसहस्समभहियं) हे गौतम ! जघन्य स्थिति पल्योपम का चतुर्थभाग और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की होती है, चंदविमाणाणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पएणते ?) हे भगवन् ! चंद्र विमानों के देवियों की स्थिति कितने काल की प्रतिपादन की गई है ? गोयमा ! जहएणणं चउभागपलिअोवमं उक्कोसेणं अद्धपलिअोवमं परणासाए वाससहस्सेहिं अभहियं,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति पल्योपम का चतुर्थभाग और उत्कृष्ट अर्द्ध पल्योपम तथा पचास हजार वर्ष अधिक होती है, (सूरविमाणाणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पएणत्ता ?) हे भगवन् ! सूर्य विमानों के देवों की स्थिति कितने काल की प्रतिपादन की गई है ? (कोयमा! जहरणेणं चउभागपलिप्रोवम उक्कोसेणं पलिग्रोवमं वाससहस्समन्भहियं,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति पल्योपम का चतुर्थीश और उत्कृष्ट एक हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम की होती है, (सूरविमाणाणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पएणते ?) हे भगवन् ! सूर्य्य विमनों के देवियों की स्थिति कितने काल की प्रतिपादन को गई हैं ? ( गोयमा ! जहएणणं चउभागपलिनोवमं ) हे गौतम ! जघन्य स्थिति पल्योपम का
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] चतुर्थ भाग और (उकोसेणं ग्रहपनियोत्रमं पंचहिं वाससपदि अमहियं,) उत्कृष्ट पांच सो वर्ष अधिक अद्वै पल्योपम की होतो है, (गहविमाणाणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पएणता ?, हे भगवन् ग्रह विमानों के देवों को स्थिति कितने काल को प्रति पादन को गई है ? (गोयमा ! जहणणेणं चउभागपनिश्रीवमं उकोसेणं पलिग्रोध,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति पल्योपम का चतुर्थांश और उत्कृष्ट एक पल्योपम की होती है, (गहविमाणाणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पएणता ?) हे भगवन् ! ग्रह विमानों के देवियों की स्थिति कितने काल को प्रति पादन को गई है ? (गोयमा ! जहण गरगं चश्मामपलिग्रोवमं उक्कोसेणं अद्धपलिश्रोत्रमं,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति पल्यापम का चतुर्थाश और उत्कृष्ट अर्द्ध पल्योपम की होती है, ( ग कबत्तविमाणाणं भंते ! देवा . ) हे भगवन् ! नक्षत्र विमानों के देवों की स्थिति कितने काल प्रति पादन की गई है ? (गोयमा ! जहरणेणं चउभागपलि ग्रोवमं उकासेण अदपले व ,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति पल्योपम का चौथा भाग और उत्कृष्ट अर्द्ध पल्योपम की होती है, ( णक्खनविभागाण भंते ! देवाणं) हे भगवन् ! नक्षत्र विमानों के देवियों की स्थिति कितने काल को होती है ? (गोयमा ! जहएणणं चउभा पनि ग्रोवनं उक्कोसे ग साइरंग चरभा पिलिओवर्ष,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति पल्योपम का चौथा भाग और उत्कृष्ट पल्वोपम के चौथे भाग से कुछ अधिक होती है. (ताराविनाणा भंते ! देवाए) हे भगवन् ! तारा विमानों के देवोंकी स्थिति कितने काल को होती है ? (गोपमा ! जहणण' साइरेगं अट्ठभाग पलि ग्रोवनं उच्छोसेण चउभागपलिश्रोत्रमं,) हे गौतम् ! जघन्य स्थिति पल्योपम के आठवें भाग से कुछ अधिक और उत्कृष्ट पल्योपम का चतुर्थांश होती है, (ताशविकाणाण देवीण भंते !) ह भगवन् ! तारा विमानों के देवियों की स्थिति कितने काल की होती है ? (गोयमा ! जहरणेण अट्ठभागपलिश्रोवम उक्कोसेण साइरेगं अट्ठभागपलि ग्रोवमं,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति पल्योपम का
आठवां हिस्सा और * उत्कृष्ट पल्योपम के आठवें भाग से कुछ अधिक होती है। ___भावार्थ-ज्योतिषी देवों की जघन्य स्थिति पल्योपम का आठवाँ भाग से अधिक और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की होती है, इसी को श्रौधिक सूत्र कहते हैं । तथा ज्योतिषी देवोंके पांच भेद हैं चन्द्र, सूर्य, ग्रह नक्षत्र और तारा इनकी निम्न लिखितानुसोर जघन्य और उत्कृष्ठ श्रायु जाननी जाहिये । ज्योतिषी
जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति १ चंद्र विमानों के देवों की पल्योपम का च० एक लाख वर्ष अधिक एक
पल्योपम की * जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति के अतिरिक्त मध्यम स्थिति जानना चाहिये।
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१०६
[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] २ चंद्र के देवियों की
५० हज़ार ३सूर्य विमानोंके देवोंकी।
१००० हज़ार वर्ष अधिक ४ सूर्य विमानोंके देवियों की
५०० वर्ष अधिक , ५ ग्रह विमानोंके देवोंकी
एक पल्य ६ ग्रह विमानोंके देवियों की
अर्द्ध पल्य की ७ नक्षत्र विमानों के देवोंको - नक्षत्र विमानों के देवियों की , पल्य के च०से कुछ अधिक
तारा विमानों के देवोंकी पल्पक बा० से कुछ अधिक चतुर्थांश । १० तारा० देवियों की पल्य का श्रा० भा० श्राठवें भागसे कुछ अधिक
यह सभी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति है। किन्तु जो उत्कृष्ट से न्यून और जघन्य से अधिक हो उसे मध्यम स्थिति जानना चाहिये । अब ज्योतिषी देवों के अनन्तर चौवीसवें दण्डक की स्थिति वर्णन करते हैं अर्थात् वैमानिकादि देवों की स्थिति का स्वरूप प्रतपादन करते हैं -
कैमानिकादि देवा की स्थिति ।
वेमाणियाणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणणेणं पलि भोवमं उक्कोसे तेत्तीसं सागरो. वामइं, वेमाणियाणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पएणत्ता ? गोयया ! जहरणेणं पलिप्रोवम,उकोसेणं पणपण्णं पलिअोवमाइं, सोहम्मेणं भंते ! कप्पे देवाणं केवइयं काल ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णणं पलिश्रोवम उक्कोसे दो सागरोवमई , सोहम्मेणं भंते । कप्पे परिग्गहिया देवीणं जाव गोयमा ! जहणणेणं पलिओवम उकोलणं सत्त पलि. अोवमाइं.सोहम्मेणं कप्पे अपरिग्गहियादवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पराणत्ता ? गोयमा ! जहणणेणं पलिओवमं उक्कोसेणं पण्णासं पलिभोवमं, ईसाणेणं भंते ! कप्पे देवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणणेणं साइरेगं पलिओवमं
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[ उत्तराधम् ]
१०७
उक्को सेणं साइरेगाई दो सागरोवमाई, ईसारणं भंते ! कप्पे परिग्गहियादेवी जाव गोयमा ! जहां साइरेगं प लियोवमं उक्कोसेणं नव पलियोमाई, अपरिग्गहियादेवीगं भंते! केवइयं कालं ठिई पं० ? गोयमा ! जहराणे साइरेगं पलिश्रवमं उक्कोसेणं पणपगुणं पलिओवमाई, सरणंकुमारेण भंते । कप्पे देवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहां दो सागरोवमाइं उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई, माहिंदेणं भंते ! कप्पे देवागं पच्छा, गोयमा ! जहां साइरेगाई दो सागरोवमा उक्को सेणं साइरेगाई सत्त सागरो माइ', बंभलोएणं भंते ! कप्पे देवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहां सत्त सागरोवमाई उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं, एवं कप्पे २ केवइयं कालं ठिई पत्ता ? गोयमा ! एवं भणियव्वं लंतर जहगणेणं दस सागरोवमा उक्कोसेणंचउदस सागरोत्रमाइ महासुत्र के जहरोणं चउदस arrants' उक्कोण सत्तरस सागरोवमाइ', सहस्सा रे जहणणेणं सत्तरस सागरोवमाइ उक्कांसे अट्टारस सागरोमाइ, आणए जहराणेण श्रट्टारससागरोवमाइ उक्कोसेणं एगूणवीसं सागरोवमाइ, पाणए जहण एगूणवीसं सागरोवमाइ उक्कोसेण वीसं सागरोवमाइ आरणे जहर' वोसं सागरोव माइ उक्कोसेणं एकवीसं सागरोमाई, अच्चुए जहराणेण एक्कवीमं सागरोवमाइ', उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाइ, हेट्टिमहेट्टिमगेविज्जविमासु ण' भंते! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहराणेण बावीसं सागरोवमाइ उक्कोसेणं
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___ [ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] तीसं सागरोवमाई, हेटिममज्झिमगेवेज्जविमाणेसु ण भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पं० ? गोयमा ! जहण्णोण तेवीसं सागरोवमाइ उक्कोसेणं चउवीसं सागरोवमाई, हेट्टिमउवरिमगेविजविमाणेसु ण भंते ! देवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहएणेण चउवीसं सागरोवमाइउक्कोसणव पणवीसं सागरोवमाई, x मज्झिमहेटिगेवेजविमाणेसु ण भंते ! देवाण पुच्छा, गोयमा ! जहणणेण पणवीसं सागरोवमाइं उक्कोसेण छवीसं सागरोवमाई, मज्झिममझिमगेविज्जविमाणेसु ण भंते ! देवाण पुच्छा, गोयमा ! जहएणण छब्बीस सागरोवमाई उक्कोसेण सत्तावीसं सागरोवमाई, मज्झिमउवरिमगेवेज विमाणेसु णं भंते ! देवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णण सत्तावीसं सागरोवमाइं, उक्कोसेणं अट्ठावीसं सागरोवमाई, उरिमहेट्रिमगेविज्जविमाणेसु णं भंते ! देवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणणेण अट्ठावीसं सांगरोवमाइं, उक्कोसेण एमूणतोसं सागरोवमाइं, उवरिममझिमगेविज्जविमाणेसुण भंते ! देवाणं पुच्छा, गोयमा! जहणणेण एगूणतीसं सागरोवमाइं, उक्कोसणं तीसं सागरोवमाई, उवरिमउवरिमगेविजविमाणेसु ण भंते ! देवाणं (च्छा, गोयमा ! जहणणेण तीसं सागरोवमाई उक्कोसेण एक्कतीसं सागरोवमाइं, विजयवेजयंतजयंत अपराजितविमाणेसु ण भंते ! देवाण केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णण एक्कतीसं सागरोवमाई, उक्कोसेण तेत्तीसं सागरोवमाइं, सव्वट्रसिद्दे ण भंते!
* 'पंच०' पाठान्तरम्, मज्झिमहेट्ठिमगेवेज्जविमाणेसु केव०' प्र० ।
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१०९
[उत्तरार्धम् ] महाविमाणे देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! अजहरणमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं, से तं सुहमे अद्धापलिओवमे से तं अद्धापलिओवमे। सू०१४२
पदार्थ-(वेनाणिया णं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ते ?) हे भगवन् ! वैमानिक देवों की स्थिति किसने काल की प्रतिपादन की गई है ? (गोयमा ! जहणणेणं पलिश्रोवम कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमा,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति एक पल्योपम की और उत्कृष्ट ३३ सागरोपम की होती है, (वेमाणिया णं भंते ! देवी केवडयं कालं ठिई पएणता ?) हे भगवन् !वैमानिक देवियों की स्थिति कितने कालकी प्रतिपादन की गई है ? (गोयमा ! जण्हणेणं पलिग्रोवमं उक्कोसेणं पणपण्ण पनि ग्रोवमाई,) हे गौतम जघन्य स्थिति एक पल्योपम की और उत्कृष्ट ५५ पल्योपम की होती है । * अब अनुक्रम से कल्प और कल्पातीत देवों की स्थिति का वर्णन किया जाता है । जैसे कि
(सोहम्मे णं भंते ! कप्पे देवाणं के०?) हे भगवन् ! सौधर्म देव लोकके देवों की स्थिति कितने काल की प्रतिपादन की गई है ? (गोयमा ! जगणेणं पलिग्रोवम) हे गौतम ! जघन्य स्थिति एक पल्योपमको और (उक्कोसेणं दो सागगेवमाई.) उत्कृष्ट दो सागरोपम की होती है, (सोहम्मेणं भंते ! क-पे परिग्गहियादेवीणं जाव) हे भगवन ! सं धर्म देव लोकके परिगृहीत देवियोंकी स्थिति कितने काल की प्रतिपादन को गई है ? (गोपा! महगां पन्निोरम उकासेणं सत्त पलिग्रोवमाई,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति एक पल्पोपम की और उत्कृष्ट सात पल्योपम की होती है, (सोहम्मेणं कप्पे अाराहिय देवीणं भंते ! कंवइयं ?) हे भगवन ! सौ. धर्म कल्प के अपरिगृहोत देवियों की स्थिति कितने काल की प्रति पादन को गई है ? (गोयमा ! जहएणणं पलि ग्रोवमं उकोमेणं पण्णासं पलिश्रोत्रमं.) हे गौतम !जघन्य स्थिति एक पल्योपम की और उत्कृष्ट ५० पल्योपम की होती है (ईसाणेणं भंते ! कप्पे देवाणं पुच्छा,) हे भगवन् ईशान कल्प के देवों की स्थिति कितने काल की प्रति पादन की गई है ? (गोयमा ! जहरणेणं साइरेगं पलिग्रोवम) हेगौतम ! जघन्य स्थिति एक एक पल्योपमसे कुछ अधिक और (उकोसेणं साइरेगाई दो सागगेवमाई,) उत्कृष्ट दो सागरोपम से कुछ अधिक होती है, (ईसाणेण भंते ! कप्पे परिगहियादेवीण जाव ) हे भगवन् ! ईशान कल्पके परिगृहीत देवियोंकी स्थिति कितने कालकी होती है ? (गोयमा ! उहणणेण साइरेरा पलिशोवर्म) हेगौतम ! जन्घयसे एक पल्योपमसे कुछ अधिक और (उकोसेण नव पलिग्रोवम,) लत्कृष्ट नव पल्योपमकी होती है, (अपरिग्गहिया देवीण भंते ! के० ?) हे भगवन् ! ईशान
* इन दोनों को प्रोधिक सूत्र कहते हैं ।
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११०
[ उत्तरार्धम् ] कल्प के अपरगृहोत देत्रियों को स्थि ते कितने काल को प्रतिपादन की गई है ? ( गोयना ! जह एणे । साइरे पनि प्रविमं ) हे गौतम् जघन्य स्थिति पल्मोपम से कुछ अधिक और ( उको पेला पणपरए पनि योधमाई, ) उत्कृष्ट ५५ पल्यापम की होती है, (सण कुमारेण भंते ! को देवाण पुच्छा, हे भगवन् सनत्कुमार कल्प के देवों की स्थिति कितने काल की होतो है ? ( गोरमा ! गहरणे दो सासरोवमाई ) हे गौतम ! जघन्य स्थिति दो सागरोपमकी और (उको लेण सत्त साागेवपाई) उत्कृष्ट सात सागरोपकी होती है, (माहिदेणभंते ! क.८५ देवाण पुच्छा, ) हे भगवन् माहेन्द्र कल्प के देवों की स्थिति कितने काल की होता है ? (गोयमा ! जहरणेण साइरेमाई दो सागगेवमाई) हे गौतम ! जघन्य स्थिति दो सागरोपमसे कुछ अधिक और उपोषण साइरेगाई सत्त सागगेवमाई,) उत्कृष्ट सात सागरोपम से कुछ अधिक होती है, (वंभलोएण भंते ! कप्पे देवाण पुच्छा,) हे भगवन् ! ब्रह्म कल्प के देवों की स्थिति कितने काल को होती है ? (गोयमा ! जहगणेण सत सागगेवराई) हे गौतम ! जघन्य स्थिति सात सागरोपम को और (उकोसेण दस सागरोवाई,) उत्कृष्ट दस सागरोपम को होतो है, (एवं कप्पे कप्पे केवइयं कालं ठिई पएणता ? गोयमा ! एवं भाणियवं,) इसी प्रकार प्रत्येक कल्प की कितने काल को स्थिति प्रति पादन की गई है ? हे गौतम् ! इस * प्रकार कहना--जानना चाहिये( लंतए जहणणेण दल मागगेवराई मालेगच उद्दल सा रोपाई, ) लान्तक विमान के देवों की जघन्य स्थिति दश सागोगम की और उत्तर से चतुदरा सागरोपम की होती है, तथा (महा एक है जहलो चर, TETTES : सत्ताप सागरोयमाई,) महा शुक्र देवलोक के देवा को स्थिति जयन्य से १? सगापम को और उत्कृष्ट १७ सागरोपम की होती है, (महम्सार जहरो मत्तान मा धागा अट्ठारस सागरोवमाई,) सहस्रार देव लोक के देवों को जघन्य स्थिति १७ सागरोपम को और उत्कृष्ट से १८ सागरोपम की होती है, तथा (अाशाए जहरणे । अट्ठारस सागगेवमाई को. सेग एगूणवीसं सागो पाई,) आनत देव लोक के देवों को जवन्य स्थिति १८ सागरोपम की और उत्कृष्ट १६ सागरोपम की होती है, पाणा जहरणेगा गूण वीसं सागगे वमाई उक्कोसेण वीसं सारोपमाई,) प्राणत देव लोक की जघन्य स्थिति :९ सागरोपम की और उत्कृष्ट बीस सागरोपम की होती है, (पारणे जहण गोगा वीसं सागरावमाई उकोसेणं एकवीसं सागोयगाई) श्रारण्य देव लोक की जघन्य स्थिति बीस सागरोपम को और उत्कृष्ट २१ सागरोपम की होती है, (अजुए जहरगोग एक्कव.सं सागरोवपाई उहोतेणं वावो सोचा) अच्युत कला के देवों को जघन्य स्थिति २१ सागरो
___* इत्यादि प्रश्नोत्तर पूर्ववत् ही जानना चाहिये, क्योंकि अब सामान्य रूपसे ही वर्णन किया जाता है।
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम्
१११ पम की और उत्कृष्ट २२ सागरोपम की होती है, ये सभी बारह देव लोक के देवों की स्थिति जानना चाहिये । * अब नव अवेयक देवों में से पहिले नीचे के त्रिक की स्थिति वर्णन करते हैं।
(हटिमटिंमगेबिज्ज विमाणेसुण भंते ! देवाण केवइयं कालंठि पएगाते ?) हे भगवन् ! नीचे के त्रिक के नीचे के अवेयक विमानों के देवों को स्थिति कितने काल की प्रति पादन की गई है ? ( गोपमा ! जहरणे वावीसं सागोनपाई उपोसणं तेवीसं सागरी वमाई,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति २२ सागरोपम को और उत्कृष्ट से २३ सागरोपम की होती है. ( हेष्टिमजिमगेविज विमारणेनु गं भंते ! श्याणं व कालं ठिक पण्णता ? ) हे भगवन् ! नीचे के मध्यम प्रवेयक विमानों के देवों की स्थिति कितने काल की प्रतिपादन की गई है ? (सोमा ! गहरा तसं सागपनाः उमासणं चवीसं सागरी वमाई) हे गौतम ! जघन्य स्थिति २३ सागरोपम को और उत्कृष्ट से २४ सागरोपम की होतो है, (हटिम वरिभगंपिजविमाणे गमत ! देवाग पुच्छा.) नीचे के ऊपर वाले ग्रीवे. यक विमानों के देवों को स्थिति कितन काल की होती है ? (नाबमा ! जहएणे चउवीसं सातशेषमाई इकको नेगा पावासं तामाई,) ह गौतम ! जघन्य स्थिति २४ सागरोपम की ओर उत्कृष्ट २५ सागरोपम की हाता है, (माजमहटिमगांवजविमाणे मुणं भंते ! वाणं पुच्छा,) हे भगवन् ! मध्यम के नीचे वाले विमानों के देवों की स्थिति कितने काल की होती है ? (iiयमा ! गहरणे पणवीस सामगंवाई उकारणं छब्बीस सागरोवमाइ.) हे गौतम ! जघन्य स्थिति २५ सागरोपम को और उत्कृष्ट २६ सागरो. पम को होती है, (मनिझामज्झिमग विमाणन वं भते ! देवा पुच्छा,) हे भगवन् ! मध्यम के मध्यम अवेयक विमनों के देशों की स्थिति कितने काल होती है ? (गायमा ! जहएणणं छब्बीस सागरोधमाई उकोसेणं सत्तावास सागरोवाई,) हे गोतम ! जघन्य स्थिति २६ सागरोपमं की और उत्कृष्ट २७ सागरोपम को हाती है, (मजिक वरिमगवजविमाणेसु णं भंते ! देवाणं पुच्छा, हे भगवन् मध्यम के ऊपर वाले वेयक विमानों के देवों की स्थिति कितने काल की हाती है ? (गोयमा ! जहरणेणं सत्तावासं सातशेवभाई उकोसेणं अट्ठावीसं सागरोवमाई,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति २७ सागशेषम की और उत्कृष्ट से २८ सागरोपम को होतो है, ( उरिमहेष्टिपविजविमाणेसु गण भंते ! देवाग पुच्छा,) हे भगवन् ! ऊपर
*- अवेयक बिमानोंके तीनत्रिक है, जिनमें प्रथम के त्रिक में १११ विमान, द्वितीय में १०७ और तृतीय त्रिकम १०० हैं, इस लिये प्रथम त्रिक का नाम नीचे का त्रिक दूसरे का मध्यम त्रिक और तीसरे का ऊपरला विक है ।
-नीचे अधसो ह. प्रा०. ब्या०.८.२. १४१ अवस्: शब्दस्य ४' इत्य यादशो भवति ।
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११२
[ उत्तरार्धम् ] वाले नीचे के ग्रैवेयक विमानों के देवों की स्थिति कितने काल की होती है ? (गोयमा । जहरणेणं अट्ठावीसं सागरोवमाइ उक्कोसेणं एगणतीसं सागरोवपाइ',) हे गौतम !,जघन्य स्थिति २८ सागरोपम की और उत्कृष्ट से २६ सागरोपम की होती है, (वरिममज्झिमगेवेजविमाणेसु णं भंते ! देवाणं पुच्छा,) हे भगवन् ! ऊपर वाले मध्यम के प्रैवेयक विमानों के देवों को स्थिति कितने काल की होती है ? (गोयमा ! जहएणेणं एगुणतीसं सागरोवमाई उकोसेणं तीसं सागरोवमाइ',) हे गौतम ! जघन्य स्थिति २६ सागरोपम की और उत्कृष्ट ३० सागरोपम की होती है, ( उवरिमउवरिम गवेजत्रिमाणेमु णं भंते ! देवार्ण पुच्छा,) हे भगवन् ऊपर वाले |वयक विमानों के देवोंको स्थिति कितने कालको होती है ? (गोयमा ! जहएणणं तीसं सागरोवनाई उक्कोसेणं एक्कतीसं सागरोवमाइ,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति तीस सागरोपम की और उत्कृष्ट ३१ सागरोपम की होती है । अब अनुत्तर विमानों के विषय में कहते हैं
(विजयवे तयन्त जयन्तअपराजितविमाणेसु णं भंते ! देवाणं केव: कालं ठिई पएणता ?) हे भगवन् ! विजय, वेजयन्त, जयंत और अ राजित विमानों के देवों की स्थिति कितने काल को प्रतिपादन की गई है ? (गोयमा ! जहएणणं एककतीसं सागगेवमाई उक्कोसेण तेत्तीसं सागगेवमाइ, ) हे गौतम ! इनकी जघन्य स्थिति ३१ सोगरोपम की
और उत्कृष्ट ३३ सागरोपम की होती है। सबट्टसिद्धणं भंते ! महाविमाणे देवाणं केवइयं कालं ठिई परणता ?) हेभगवन् ! सर्वार्थ सिद्ध महाविमान के देवोंकी स्थिति कितने काल की प्रतिपादन की गई है ? ( गोयमा ! अजहरणमणु रक्कोसेणं तेत्तीस सार.रोबमाइ। ) हे गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति केवल तेतीस सागरोपम की होती है क्योंकि उक्त विमानों में मध्यम स्थिति नहीं होती । (सेतं सुहुमे अढापलिग्रोवमे, सेत्तं श्रद्वापलिग्रोवमे) इस लिये इसी को ही सूक्ष्म अद्धा पल्योपम और इसी को अद्धापल्योपम कहते है ।
(सु० १४२ ) भावार्थ-वैमानिक देवी की जघन्य स्थिति एक पल्योपम की और उत्कृष्ट ३३ सागरोपम तक होती है, तथा उनके देवियों की जघन्य तो एक पल्य की और उत्कृष्ट ५५ सागरोपम की होती है। किन्तु दूसरे कल्प से ऊपर देवियें उत्पन्न नहीं होती. इस लिये दूसरे कल्प तक देवियों की स्थिति वर्णन की गई है, इनके दो भेद है, परिगृहीत और अपरिगृहीत । जो परिगृहीत प्रथम देवलोक में हैं उनकी जघन्य स्थिति एक पल्य की और उत्कृष्ट सात पल्य की, तथा अप. रगृहीतों की जघन्य स्थिति एक पल्य की और उत्कृष्ट ५० पल्य की होती है।
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[ उत्तरार्धम् ]
११६ द्वितीय देवलोक के परिगृहीत देवियों की जघन्य स्थिति एक पल्य से कुछ अधिक और उत्कृष्ट से पल्य की, अपरिगृहीतों की जघन्य स्थिति तो प्राग्वत् ही है लेकिन उत्कृष्ट ५५ पल्य की होती है । इन वैमानिक देवों के २६ लोक हैं, जिनमें बारह देव लोक तो कल्प संशक हैं । इन सभी की स्थिति सरल जानने के वास्ते नीचे कोष्टक भी दिया गया है
वैमानिकादि जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति १ सौधर्म देव लोक १ पल्य
२सागर २ ईशान
१ पल्य से कुछ अधिक रसागरसेकुछअधिक ३ सनत्कुमार २ सागर
७सागर ४ माहेन्द्र देव लोक २ सागर से कुछ अधिक सागरसे कुछ अधिक ५ब्रह्म ७ सागर
१० सागर ६ लान्तक , १० ,, ७ महाशुक्र के देवों की - सहस्रार ,
आनत ,, १० प्राणत , ११ प्रारण्य , १२ अच्युत ,, १३ भद्र , १४ सुभद्र , १५ सुजात , १६ सौमनस् , १७ प्रियदर्शन १८ सुदर्शन , १६ अमोह , २० सुप्रति , २१ यशोधर २२ विजय , २३ वेजयंत , २४ जयंत ,
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] २५ अपराजित देवों की ३१ ,
___३३ , २६ सर्वार्थ सिद्ध देवों की ३३ ,
३३ , परन्तु सर्वार्थ सिद्ध विमान के देवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति केवल ३३ सागर की होती है । अतः इसीको सूक्ष्म श्रद्धा पल्योपम अथवा श्रद्धा पल्योपम जानना चाहिये । ( सू० १४२ ) अब इसके पश्चात् क्षेत्र पल्योपम के प्रमाण की व्याख्या की जाती है
क्षेत्रवल्यापम का प्रमाणा। से किं तं खेत्तपलिश्रोवमे ? २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहासुहुमे य ववहारिए य, तत्थ णं जे से सुहुमे से ठप्पे, तत्थणं जे से ववहारिए से जहानामए पल्ले सिया जोयणं आयामविक्खम्भेणं जोयणं उव्वेहेणं तं तिगुणं सविसेसं परिकावे. वेणं, से गां पल्ले एगाहियबेहियतेआहिय जाव भरिए वालग्गकोडीणं, ते णं वालग्गा णो अग्गी डहजा जाव णो पूइत्ताए हव्वमागच्छेजा, जे णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा तेहिं वालग्गेहि अप्फुन्ना, तओणं समए २ एगमेगं आगासपएसं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे जाव निट्टिएभवइ से तं ववहारिए खेत्तपलिओवमे |
एएसिं पल्लाणं कोडाकोडी भवेज दस गुणिमा । तंववहारिअस्स खेत्तसागरोवमस्स एगस्स भवे परीमाणं ।१।
एएहिं ववहारिएहिं खेत्तपलिओमवसागरोवमेहिं कि पोअणं ? एएहि ववहारिएहि खेत्तपलिओवमसागरोवमेहिं नस्थि किंचिप्पओअणं, केवलं पण्णवणा ® किज्जइ, से तं ववहारिए खेत्तपलिओवमे ।
"* परणवि० प्र० ।”
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[ उत्तरार्धम् ] से किंतं सुहमे खेत्तपलिअोवमे ? २ से जहाणामए पल्ले सिया जोयणं आयामविक्खंभेणं जाव परिक्खेवेणं से णं पल्ले एगाहिअबेआहियतेआहिल जाव भरिए वालग्गकोडी, तत्थणं एगमेगेवालग्गे असंखिज्जाई खंडाई कज्जइ तेणं वालग्गा दिट्रीओगाहणाओ असंखेज्जइभागमेत्ता सुहम स्स पणगजीवरस सरीरोगाहणाओ असंखज्जगुणा, ते णं वालग्गा णो अग्गी डहेज्जा जाव णो पूइत्ताए हव्वमागच्छिज्जा, जे णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा तेहिं वालग्गेहिं अप्फुन्ना वा अणाफुन्ना वा तओणं समए २ एगमेगं आगासपएसं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे जाव णिट्रिए भवइ, से तं सुहमे खेत्तपलिओवमे। तत्थ णं चोअए पण्णवर्ग एवं वयासी-अस्थि णां तस्स पल्लस्प्त आगासप. एसा जेणं तेहिं वालग्गेहि अणाफुण्णा ? हंता आत्थ, जहा को दिटुंतो ? से जहानामए कोट्टए सिश्रा कोहंडाणं भरिए तत्थ णं माउलिंगा पक्वित्ता तेऽविमाया, तत्थ ण बिल्ला पक्खित्ता तेऽवि माया, तत्थ णं आमलगा पक्खित्ता तेऽवि माया, तत्थ णं बअरा परिवत्ता तेऽवि माया, तत्थ णं चणगा पक्खित्ता तेऽवि माया, तत्थ णं मुग्गा पक्खिता तेऽवि माया, तत्थ णं सरिसवा पक्खित्ता तेऽविमाया तत्थणं गंगाबालूा पक्खित्ता सावि माया, ® एवामेव एएणं दितेणं अत्थि णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा जेणं तेहिं बालग्गेहि अणाफुण्णा।
* 'एवमेव प्रः ।।
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११६
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] एएसिं पल्लाणं कोडाकोडी भज्ज दस गुणिमा तं सुहमस्स खेत्तसागरोवमस्स एगस्स भवे परीमाणं ॥१॥
एएहिं सुहमेहिं खेत्तपलिओवमसागरोवमेहि कि पोषणं ? एएहि सुहमपलिओवमसागरोवमेहि दिट्टिवाए दवा मविज्जति । (सू० १४३)
पदार्थ-(से किं तं खेत्तपलिनोवमे ?) हे भगवन् ! क्षेत्रपल्योपम किसको कहते हैं ? (खेत्तपलिअोवमे दुविहे पएणते तंजहा-) भो शिष्य ! क्षेत्रपल्योपम के दो भेद हैं, जैसे कि (सुहुमेय ववहारिए अ) सूक्ष्म और व्यावहारिक, (तत्थ ण जे से सुहु मे से ठप्पे,) उन दोनों में जो सूक्ष्म है उसको छोड़िये, किन्तु (तत्थ ण जे से ववहारिए) उन दोनों में जो व्यवहारिक है (से जहानामए पल्ले सिया) वह ऐसा जानना यथा-धान्य के पल्य के समान पल्य हो और (जो अणायामविक्खंभेणं) योजन मात्र दीर्घ तथा विस्तार युक्त भी हो, पुनः (जोयणं उव्वेहेणं ) एक योजन गहरा हो, तथा ( सं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं ) उसकी परिधि तीन गुणी से कुछ अधिक हो, फिर (से णं पल्ले एगाहियवेाहितेत्राहि जाव) उस पल्य में एक दिन, दो दिन, तीन दिनसे लगाकर सात दिन तक के वृद्धि किये हुए (भरिए वाला कोडीणं,) बालानों की कोटियों से धनता युक्त भर दिया जाय, फिर (तेणं वालग्गा णो अग्गी डहेजा,) उन बालापों को अग्निभी दाह न कर सके (जाव नो पूइत्ताए हव्वमा गच्छेजा,) यहां तक कि उनमें दुर्गध भी पैदा न हो, (जेणं तस्स पल्लस्स) जिससे कि उस पल्य के (अागासपएसा तेहिं बालन्गेहि अप्फुन्ना,) आकाश प्रदेश उन बालानों से स्पशित हुए हों, (तो णं समए २ एगमेगं श्रागासपएसं अवहाय) फिर उसमें से समय २ में एक २ आकाश प्रदेश अपहरण-निकाला जाय, तो (जावइएणं कालेणं) जितने काल में (से पल्ले खीणे नाव निट्टिए भवइ,) वह पल्य क्षीण यावत् विशुद्ध होता है, (सेतं ववहारिए खेत्त पलिश्रोवमे ।) वही व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम है, किन्तु
एएसि पल्लाण' कोडा कोडी भवेज दस गुणिया । तं ववहारियरस खेत्तसागरोवमम्स एगम्स भवे परीमाणं ॥१॥
इन पल्यों को दश कोटा कोटि गुणा करने से एक व्यवहारिक क्षेत्र सागरोपम का परिमाण होता है ॥१॥ अर्थात् उक्त पल्य को दश कोटा कोटि गुणा करने से एक व्यवहारिक क्षेत्र सागरोपम होता है । (एएहिं ववहारिएहिं खेत्तपलिओवमसागरोवमेहि कि पोय ?) इन व्यावहारिक क्षेत्र पल्योक्म और सागरोपम से क्या प्रयोजन है ?
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[ उत्तरार्धम् ] (एएहिं ववहारिएहिं खेत्तपलिओवमसागरोवमेहिं नत्थि किंचिप्पोलणं,) इन व्यवहारिक क्षेत्र पल्योपम और सागरोपम से किंचिन्मात्र भी प्रयोजन नहीं है, (केवलं पण्णवणा कजइ,) सिर्फ प्ररूपणा ही की गई है अर्थात संक्षिप्त स्वरूप हो प्रतिपादन किया गया है, (से तं ववहारिए खेत्तपलिओवमे ।) इसीको व्यवहारिक क्षेत्रपल्योपम कहते हैं ।
(से कि तं सुहुमे खेत्तपलिअोवमे ?) सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम किसको कहते हैं ? (खेत्तप०) सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम का स्वरूप निम्न प्रकार से है (से जहानामए पल्ले सिया) जैसे कि धान्य के पल्य के समान पल्य हो, जो कि (जोयणं पायामविक्वंभेणं) एक योजन दीर्घ और विस्तार युक्त होता हुआ (जाव परिक्खेवेणं,)यावत परिधि से भी युक्त हो, (से पल्ले एगाहिय) फिर वह पल्य एक दिन, (याहियतेयाहिय जाव) दो दिन, तीन दिन यावत् याने सात दिन तकके वृद्धि किये हुए (भरिए वालग्गाकोडी,) बालानों की कोटियों से भर गया हो, फिर (तत्य एवं एगमेगे वालग्गे असंखिज्जाई खंडाई किज्जइ,) एकैक बालान के असंख्यात २ खंड किये जायँ नो कि-(तेणं वालग्गा दिहीमोगाहणाश्रो असंखेजइभागमेत्ता) वे बालाम दृष्टि को अवगाहना से असंख्यात भाग प्रमाण हां अर्थात् दृष्टि मात्र जो सूक्ष्म पुद्गल हैं उनसे भी न्यूनतर हों, किन्तु (मुहुमन्स पणगजीवस्स सरीरोगाहणाग्रो असंखेजगुणा,) *सूक्ष्म पनकजीव के शरीर की अवगाहना से असंख्यात गुणा अधिक हों, फिर (तेणं वालग्गा नो अग्गी उहंजा,) उन वालातों को अग्नि भी दाह न करे, (नाव णो वृहत्ताए हब्बमागच्छेजा,) यावत् याने वायु भो न हरण करे न वे सड़ें और न उनमें दुर्गधता प्राप्त हो, किन्तु ( जेणं तस्स पल्लस्स पारासपएसा ) जिससे कि उस पल्य के आकाश प्रदेश (तेहिं वालग्गेहिं अप्फुना वा अगाफुना वा) उन बालापों से स्पर्शित हुए हों या न हुए हों, (तप्रोणं समए २ एगमेगं अागासपएस श्रवाहाय पश्चात् समय २ में एक २ आकाश प्रदेश को अपहरण किया जाय तो (जानाइएण कालेण से पल्ले खीणे जाब निट्ठिए भाइ, से मुहुमे खेत्तपलिनोगमे ।) जितने काल में वह पल्य आकाश प्रदेशों से क्षीण यावत् शब्द से नीरज निलेप और विशुद्ध होता है उसी को सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम कहते हैं, अर्थात् जो
आकाश प्रदेश उन वालापों से स्पर्शित हुए हों या अस्पर्शित हुए हों वे सभी सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम में प्रहण किये जाते हैं। जब आकाश प्रदेश ही ग्रहण किये जाते हैं तब खंडों के वर्णन करने का क्या प्रयोजन है ? दृष्टिवाद के द्रव्य, कोई तो स्पर्शित और कोई अस्पर्शित प्रदेशों से मान किये जाते हैं यही मुख्य प्रयोजन है।
___* यावन्मात्र सूक्ष्म पनक जीव आकाश प्रदेशों को अवगाहना करता है उससे असंख्यात गुणधिक आकाश प्रदेश को वह खंड अवगाहना करता है।
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११८
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
(तत्थ एण ं चोग्रए परण्यगं एवंववासी ) उक्त समास को सुन कर शिष्य ने ऐसा कहा कि हे भगवन् ! (अस्थि णं तस्स पल्लम्स आगासपएसा जेण तहिं वालग्गेहि अणा कुरणा ? ) क्या उस पल्य के आकाश प्रदेश हैं जो कि उन वालानों से अस्पर्शित हैं ? (हंता श्रस्थि) हाँ-हैं इसमें किंचित् भी संदेह न करना चाहिये, ( जहा को दितो ?) इसका कोई दृष्टान्त भी है ? क्योकि वह कूआ घन रूप वालायों से भरा गया है (से जहानामए) जैसेकि (कोट ए सिया कोहंडा भरिए,) एक कोई कोष्ठक — कोठा हो जो कि कुष्मांडों के फलों से भरा हुआ हो ( तत्था माउलिंगा पक्खित्ता ) फिर उसमें मातुलिंग-बोज पूरक डाले अर्थात् उसे स्थूल दृष्टि से निश्चय हुआ कि कुष्मांडों के भरने से यह कोष्ठक ठोक तो भर गया है किन्तु उसमें छिद्र देखने से मालूम हुआ कि फल और भी प्रवेश हो सकते हैं, तो उसने मातुलिंग याने बीज पूरक नामक फल डाले, (तेऽवि माया) वे भी उसमें प्रविष्ट होगये, इसी प्रकार (तत्य बिल्ला पक्वित्ता, तेऽवि माया,) किर उसमें बिल्व डाले वे भी समा गये (त्य श्रमलगा पक्वित्ता तेऽवि माया,) फिर आंवले
वे भी समा गये (तत्थ ए बयरा पक्वित्ता तेवि माया) फिर वदरी फल डाले वे भी प्रविष्ट होगये, पश्चात् (तत्थ गण चणना पक्खित्ता तेऽवि माया) चने-छोले डाले वे भो समा गये ( मुग्गा कित्ता तेवि मारा ) तदनन्तर मूंग प्रक्षेप किये वे भा प्रविष्ट हो गये, (तत्ध सरिसा पविता ते माया ) फिर सर्षप सम्सी डाले वे भी समा गये, (तथ गंगवालु पविना साऽवि माया ) फिर उसमें गंगा नदी को बालुका डाली वह भी समा गई (स्वामेव एए दिते) इसी प्रकार इस दृष्टान्त से
( श्रत्थितम पल्स गापा ) उस पल्य के आकाश प्रदेश हैं (जे तेहि बालग्गेहिं श्रणाकुण्णा, ) जिससे कि वे वाला अस्पर्शित हैं क्योंकि वे अतीव सूक्ष्म हैं, इसलिये असंख्यात आकाश प्रदेश भी अस्पृष्ट हैं, जैसे अतीव घन रूप स्तम्भ में कीलक समा जाता है उसी प्रकार उस पल्य में भी अस्पृष्ट आकाश प्रदेश विद्यमान हैं ।
(एएसिं पल्लां कोडाकोडी भवेज दसगुणिया 1 )
तं हुमन्स खेत्तसागरोत्रमम्स एरास्स भवे परीमाणं |१|
इन पल्यों को दश कोटा कोटि गुणा करने से एक सूक्ष्म क्षेत्रसोगरोपम का परिमाण होता है ॥ १ ॥ ( एएहिं सुहुमेहिं खेत्तपलिओमसागरीवमेहिं किं पश्रयणं ? ) हे भगवन् ! इन सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम और सूक्ष्म क्षेत्रसागरोपम के प्रतिपादन करने का क्या प्रयोजन है ? (एएहिं सुहुमेहिं पलिप श्रोषमसागरोवमेहिं दिट्टिवाएं दव्या मत्रिजति । ) इन सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम और सागरोपम से दृष्टि वाद में जो द्रव्य वर्णन किये गये हैं उनकी गणना इससे को जाती है अर्थात् इनसे दृष्टि वाद के द्रव्य गिने जाते हैं ।
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११६
[उत्तरार्धम् ] भावार्थ-क्षेत्र पल्योपम के दो भेद हैं, एक सूक्ष्म और दूसरा व्यावहारिक इनमें सूक्ष्म का स्वरूप तो इस समय प्रतिपादन नहीं किया जाता है क्योंकि उसका वर्णन फिर करेंगे, लेकिन व्यावहारिक का स्वरूप निम्न प्रकार से है, जैसे कि एक पल्य हो जो कि एक योजन मात्र गहरा दीर्घ और विस्तीर्ण युक्त हो और जिसकी, कुछ अधिक त्रिगुणी परिधिभी हो,फिर उसमें एक दिन,दो दिन, तीन दिन यावत् सात दिनतक वृद्धि किये हुए वालाबों की कोटियों से ऐसाभर दिया जाय कि जिस को अग्नि भी दाह न कर सके, वायु भी न उड़ा ले जाय, नष्ट भी न हो यहां तक उसमें दुगंध भी उत्पन्न न हो, फिर उस पल्य को, जो आकाश प्रदेश स्पर्शित किये हुये हैं उनको समय २ में निकाला जाय तो जितने काल में वह पल्य खाली और निलेप हो जाय उसी को व्यावहारिक क्षेत्र पल्योपम कहते हैं, तथा दश कोटा कोटि पल्यों का एक व्यावहारिक सागरोपम होता है, किन्तु यहाँ पर इसके वर्णन करनेका कुछ भी प्रयोजन नहीं हे,सिर्फ प्ररूपणा ही की गई है। तो भी सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम को जानने के लिये प्रत्युपयागी है सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम का स्वरूप पूर्व वही है लेकिन एक २ वालाग्रके असंख्यात २ खंड कल्पित कर लेने चाहिये जोकि दृष्टि की अवगाहना से असंख्यातव भाग में हो, और सूक्ष्म पनक जीव के शरीर को अवगहना स असंख्यात गुणा हो, तथा जिनको अग्नि भी दाह न कर सके यावत् दुर्गंध भी उत्पन्न न हो, फिर उस पल्य मे स उन वालामों को जो अाकाश प्रदेश स्पर्शित और अस्पर्शित हो, सभी को समय २ में अपहरण किया जाय तो जितने कालमें वह पल्य क्षीण, नीरज और निर्लेप हो जाय उसी को सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम कहते हैं । ऐसा वर्णन सुनकर पृच्छक ने प्रश्न किया कि-हे भगवन् ! क्या उस पल्य में ऐसे प्रदेश भी है जो बालानों से अस्पृष्ट है ? गुरु ने उत्तर दिया कि-हां ऐसे आकाश प्रदेश भी उस पल्य में हैं जिन को वालानों ने स्पर्श नहीं किया । जैसे कि-एक कोष्टक–कोठा को किसी ने कुष्मांडो से भर दिया, जब उसमें देखा कि अब एक भी कुष्मांड प्रवेश नहीं हो सकता परन्तु छिद्र हैं तो उसने मातुलिंग प्रक्षिप्त किये इसी प्रकार विल्व, प्रांवले, बदरी बेर फल, चने, मूंग, सर्षप और गंगा की रेत इत्यादि प्रक्षेप करने पर सभी प्रविष्ट हो गये, इसी प्रकार उस पल्य में भी ऐसे आकाश प्रदेश विद्यमान हैं जो उन वालाग्रो से स्पर्श मान भी नहीं हुए, क्योंकि उनकी अपेक्षा आकाश प्रदेश अतीव सक्ष्म होते हैं, जैसे किसी स्तम्भ में कालिका प्रवेश हो जाती है, इसी प्रकार प्रा. काश प्रदेश भी अवकाश देते हैं। तथा दश कोटा कोटि सूक्ष्म क्षेत्र पल्यों को
एक सूक्ष्म सोगरोपम होता है। इन दोनों से केवल दृष्टिबाद के द्रव्य मान किये जाते हैं। अब द्रव्यों के विषय में कहते हैं।
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१३०
[श्रीमदनुयोगदारसूत्रम् ]
अथ द्रव्य। ___ कइविहा णं भंते ! दव्वा पण्णत्ता ? गोयमा ! दव्वा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-जीवदव्वा य अजीवदव्वा य । अ. जीवदव्वा णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पएणत्ता, तंजहा-रूवीअजीवदव्वा य अरूवीअजीवदव्या य अरूवीधजीवदव्या णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दसविहा पण्णत्ता, तंजहा-धम्मत्थिकाए धम्मस्थिकायस्स देसा धम्मत्थिकायस्स पएसा अधम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकायस्त देसा अधम्मस्थिकायस्स पएसा आगासथिकाए आगासस्थिकायस्स देसा आगासस्थिकायस्स पएसा, अद्धा समए । रूबीअजीवदव्वाणं भंते ! कइविहा पएणता ? गोयमा! चउव्विहा पण्णत्ता, तंजहा-खंधा खंधदेसा खंधप्पएसा परमाणुपोग्गला, तेणं भंते ! किं सं. खिज्जा असंखिज्जा अर्णता ? गोयमा ! नो संखेज्जा नो असंखेज्जा अणंता, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-नो संखिज्जा नो असंखेज्जा अणंता ? गोयमा ! अणंता परमाणुपोग्गला अणंतो दुपएसिया खंधा जाव [दस पएसिश्रा खंधा संखेज्जपएसिया] अणंता अणंतपएसिया खंधा से * तेणऽट्रेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-नो संखिज्जा नो असं. खिज्जा अणंता । जीव दवाणं भंते ! कि संखेज्जा असं खिज्जा अणंता ? गोयमा ! नो संखिज्जा नो असंखिजा अणंता, से केणटेणं भंते ! एवं उच्चइ-नो संखिज्जा नो
--
* 'एएण०' पाठान्तरम् ।
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१२१
[ उत्तरार्धम् ] असंखिज्जा अता ? गोयमा । श्रसंखेज्जा नेरइया असं
खेज्जा असुरकुमारी जाव असंखेज्जा थणियकुमारा
असंखेज्जा पुढवोकाइया जाव असंखेजा वाउकाइया अरांता वसइकाइया असंखेज्जा बेइंदिया असंखेज्जा तेईदिया असंखेज्जा चउरिंदिया असंखेज्जा पंचिदियतिरिक्खजोशिया असंखेज्जा मगुस्सा असंखेज्जा वाणमंतरा असंखिज्जा जोइसिया असं बेज्जा बेमाणिया अांता सिद्धा, से तेऽट्टेग गोयमा ! एवं बुच्चइ-नो संखिज्जा नो असंखिजा अता ( सू० १४४ )
|
पदार्थ - (कहां भंते ! दवा पणता ?) हे भगवन् ! द्रव्य कितने प्रकार के प्रतिपादन किये गये हैं ? ( गोवमा ! दुहि पड़ता, जहा-) हे गौतम! दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, जैसे कि - (जीवदत्राय अजीवदन्या य) जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य । (वाणं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ?) हे भगवन् ! अजोव द्रव्य कितने प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? ( गोयमा ! दुबिहा परणचा तंजहा - ) हे गौतम ! दो प्रकार से वर्णन किया गया है, जैसे कि - ( स्त्रीजीवदत्राय अरूवी जीवदव्वा य । ) रूपी अजीव द्रव्य और अरूपी अजीव द्रव्य । (स्वी जीवदव्वाणं भंते ! कइविहा पत्ता ? ) हे भगवन्! रुवी जीव द्रव्य कितने प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? (गोवमा ! दस विहा पत्ता, जहा-) हे गौतम! दस प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, जैसे कि(चम्मका) † संग्रह नय के अभिप्राय से धर्मास्तिकाय एक द्रव्य है, किन्तु व्यवहार नय से (सा) धर्मास्तिकाय के देश और (मस्थिकायस्स पसा) धमस्तिकाय के प्रदेश भी हैं, लेकिन ऋजुसूत्र नय के अभिप्राय से ये सभी पृथक् २ हैं ।
*'गाणं प्र० ।
+ 'एकोऽपि धर्मास्तिकाय नयनाभियते तच्चह नयाभिप्रायादेक एव स्तिकाय: पुत्रकपदार्थः, व्यवहारनाभित्रायात्तु वुद्धिपरिकल्पितो द्विभागविभागादिस्तस्यैव देशाः, यथा सम्पूर्ण धनास्तिकारी जीवादित्युपटम्भकं द्रव्यनिष्यते, एवं तद्ददेशा अतिदुष्टम्भकानि पृथगेव दव्याधीतिभियतस्तु स्वकीयस्वकीवसानयेन जीवादित्युपष्टम् व्यामि यमाणास्तस्य प्रदेशा बुद्धिरिता विभागाभावाः प्रथमेव द्रव्याणि ।'
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१२२
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम] इसी तरह (अधम्मस्थिकाए) अधर्मास्तिकाय में (अधम्मत्थिकायस्य देसा) अधर्मास्तिकाय के देश और (अधम्मत्थिकायम्स पएसा) अधर्मास्तिकाय के निविभाग प्रदेश, फिर ( श्रागासत्यिकाए) आकाशास्तिकाय में (अागास िथकायम्स देसा) आकोशास्तिकाय के देश और (अागासत्यिकायस्स पए सा,) आकाशास्ति काय के प्रदेश, तथा- (ऋद्धा समए ।) दसवां काल द्रव्य, यह । निश्चय नय मत के अभिप्राय से एक ही है, क्योंकि वर्तमान समय की अपेक्षा यह नय भूत और भविष्यत् काल के समय को अंगीकार नहीं करता, क्योंकि भूत काल के समय विनष्ट हैं और भविष्यत काल के अनुत्पन्न हैं इसलिये वर्तमान के ही समय सद्रूप हैं । अतः इसकी अपेक्षा काल द्रव्य एक है, इस तरह अरूपी जीव द्रव्य के कुल दस भेद हुए, अब रूपी अजीव द्रव्य का वर्णन करते हैं-(स्वीअजीबदव्वाणं भंते ! काविहा पण्णता ?) हे भगवन् ! रूपी अजीव द्रव्य कितने प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? (गोयमा ! चयिहा पण्णता, तंजहा.) हे गौतम ! चार प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, जैसे कि-(बंधा खंधदेसा) अनन्त परमाणु रूप स्कन्ध और उसके विभाग रूप देश, तथा--(पए सा परमाणुपोग्गला, ) देश का विभाग रूप प्रदेश और केवल निरंश भाग रूप परमाणु पुद्गल होते हैं, ( तेणं भंते ! किं संखिजा ) हे भगवन् ! क्या घे रूपी अजीव द्रव्य संख्यात हैं या ( असंखेज्जा) असंख्यात हैं या । अगता ? ) अनंत हैं ? ( गोयमा ! ना रुखेजा नो असंखेजा अता,) हे गौतम न वे संख्यात हैं न व असंख्यात हैं किन्तु अनंत हैं, (स फेण?णं भंते ! एवं बुच्चइ-) हे भगवन् ! ऐसा कहने का क्या अर्थ है कि-(नो मंखिजा) न तो वे सख्यात हैं, ( नो असंखि जा ) न असंख्यात हैं, किन्तु ( अणता ?) अनंत हैं ? (गोयमा ! अणता परमाणुपांगला ) हे गौतम ! परमाणु पुद्गल अनंत हैं तथा (अगांता दुपएसिया संघा) द्विप्रादेशिक स्कंध अनंत है (व [६स ५९सिसा खंका, यावत् [श प्रा. देशिक स्कंध भी अनंत हैं) और (संखिज परसिया) संख्यात प्रादेशिक स्कंध मी अनंत हैं (असंखेज पएसिया)] असंख्यात प्रादेशिक स्कंध भी अनंत है] और (अणता प्रतिपातिया खंधा,) अनंत प्रादेशिक स्कंध भी अनंत है, से तण गायमा ! एवं युच्चइ-) इसलिये हे गौतम ! वह ऐसा कहा जाता है कि-(नो संखिजा ना असंखिज्जा) न व संख्यात हैं न वे असंख्यात हैं, किन्तु (अगता ।) अनंत है। (जावदव्यागा भंत ! कि संग्वजा नायखज्ज अणता ?) हे भगवन् ! क्या जीव द्रव्य संख्यात है अथवा असंख्यात हैं वा अनंत हैं ? (गायमा ! नो संखजा नो असखिया अणता,) हे गौतम ! वे न तो संख्यात हैं और न
+ 'वर्तमानकालसमयस्यैव एकस्य सत्वादतीतानागतयोस्तु निश्चयनयमतेन विनष्टनानुत्पत्रमा यामसवाद्।'
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[ उत्तरार्धम् ]
१२३ असंख्यात हैं केवल अनंत हैं. (से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-) हे भगवन् वे किस अर्थ से ऐसे कहे जाते हैं कि-(नो संखिज्जा नो असंखेजा गणंता ?) संख्यात नहीं हैं असंख्यात भी नहीं हैं सिर्फ अनंत ही हैं ? (गोयमा ! अखेजा नेरइया) भोगौतम ! नारकीय असंख्यात हैं ( असंखे जा अमुरकुभाग ) असुरकुमार देव असंख्यात हैं (जाव असंखिजा भणियकुमारा,) यावत् असंख्यात स्तनितकुमार देव हैं, और (ग्रनखिजा पुढवीकाइया) असंख्यात पृथ्वोकाय के जोव हैं (जाव असंखे जा बाउकाइया) यावत् असंख्यात २ वायुकायादि के जोव हैं, किन्तु ( अगंता वणस्पइकाइया,) वनस्पति काय के अनंत जीव हैं, तथा ( अखे जा वेइंदिया ) असंख्यात द्वीन्द्रिय ( असंखेज्जा तेइंदिया ) असंख्यात त्रोन्द्रिय, हैं ( असं वे जा चरि दिया ) असंख्यात चतुरिन्द्रिय, ( असंखेजा पंचिंदियतिरिक्खजोगिया ) असंख्यात पंचेन्द्रिय तिर्यक् योनिवाले, ' असंग्वेजा मणुसा )* असंख्यात मनुष्य, (असंखेना वाणमंतरा)वान व्यंतर असंख्यात, (असंखेजा जोइसिया) ज्योतिषी देव असंख्यात हैं, (असंखेजा वेमागिया) वैमानिक असंख्यात हैं और (अगता सिद्धा,) सिद्ध अनंत हैं. (से तेणटे गोयमा ! एवं बुच्चइ-) इसलिये हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि( नो संग्वे जा ) न संख्यात हैं नो अमंग्वेज्ञा ) न असंख्यात हैं ( अगांता । ) केवल अनंत हैं । ( सूत्र १४४)
भावार्थ- द्रव्य के दो भेद हैं, जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य, जीव द्रव्य संख्यात असंख्यात नहीं हैं केवल अनंत हैं, क्योंकि असंख्यात नारकीय हैं, असंख्यात इस प्रकार के भवन पति देव है, असंख्यात पृथिवीकाय के जीव है इसी प्रकार असंख्यात अपकाय, असंख्यात अग्निकाय, असंख्यात वायुकायादि के जीव हैं, और वनस्पतिकायिक अनंत हैं । असंख्यात २ द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियादि हैं, और असंख्यात तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीव हैं, मनुष्य असंख्यात हैं, असंख्यात व्यन्तर देव हैं, असंख्यात ज्योतिषी देव हैं, असंख्यात वैमानिक देव हैं, लेकिन सिद्ध अनंत है, इसीलिये जीव द्रव्य संख्यात असंख्यात नहीं हैं, किन्तु अनंत द्रव्य है । तथा-अजीव द्रव्य भी दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है जैसे कि-अरूवी अजीव द्रव्य, रूपी अजीव द्रव्य । अरूपी अजीव द्रव्य के दस भेद हैं, जैसे कि-धर्मास्तिकाय १ धर्मास्तिकाय देश २ धर्मास्तिकाय प्रदेश ३,अधर्मास्तिकाय ४ अधर्मास्तिकाय देश ', अधर्मास्तिकाय प्रदेश ६, आकाशास्तिकाय ७ आकाशास्तिकाय देश ८ अाकाशास्तिकाय प्रदेश ६ और समय १० । किन्तु धर्मास्तिकाय शब्द संग्रह नय से कहा गया है तथा देश प्रदेश शब्द व्यवहार नय
* मच्छिम और गर्भज र कत्र करने से मनुष्य संख्या असंख्यात होती है।
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् । से प्रतिपादन किये गये हैं। तथा-रूपी अजीव द्रव्य चार प्रकार का है, जैसे किस्कन्ध र स्कंध देश र स्कंध प्रदेश ३ परमाणु पुद्गल ४, इनमें रूपी अजीव द्रव्य भी संख्यात असंख्यात नहीं है, केवल अनंत द्रव्य हैं, कोकि पुद्गल अनंत पामणु हैं । द्वीप्रदेशी से लेकर अनंत प्रादेशिक द्रव्य भी अनंत हैं, इसीलिये रूपी अजीव द्रव्य भी अनन्त हैं । यह सभी विचार औदारिकादि शरीर धारी में सिद्ध होते हैं, अतः अब शरीरों का विषय प्रतिपादन किया जाता है
पांच प्रकार के शरीर । कइविहा गं भंते ! सरीरा पगणता ? गोयमा ! पंच सरोरा पण्णता, तंजहा ओरालिए वेउव्विए आहारण तेअए कम्मए, णेरइआणं भंते ! कइ सरीरा पण्णता ? गोयमा ! तो सरीरा पगणता, जहाउव्विए तेत्रए कम्मए, असुरकुमाराणं भंते ! कइ सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! तो सरीरा पगणात्ता, तंजहा-वेउव्विर तेथए कम्मए, एवं तिगिण २, एए चेव सरीरा जाव थणियकुमाराणं भाणिअव्वा । पुढवीकाइयारणं भंते ! कइ सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! तो सरीरा पगणता, तंजहा-ओरालिए तेथए कम्मए, एवं आउत उवणस्सइकाइयाणवि एए चेव तिषिण सरीरा भाणियव्या. वाउकाइयाणं भंत ! कह सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि सरीरा पण्णत्ता, तंजहा-ओरालिए वेउविए ते अए कम्मए । बेइंदिअत. इंदियचउरिदियाणं जहा पुढवीकाइयाणं, पंचिंदयतिरिक्खजोणियाणं जहा वाउकाइयाणं । मणुस्साणं भंत + ! कई सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच सरीरा पण्णत्ता, तंजहा.
* जाव गो० प्र०। +जाव गो० मा ।
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[ उत्तरार्धम् ] ओरालिए वेडव्विए आहारए त अए कम्मए । वाणमंतरा जोतिसिणं माणणं जहा नेरइयाणं ।
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१२५
पदार्थ - ( इविहा गं भंते ! सीग पण्णत्ता ?) हे भगवन ! शरीर कितने प्रकार मे प्रतिपादन किये गये हैं ? (गोयमा ! पंच सरीरा पत्ता, तंहा-) हे गौतम ! पांच प्रकार के शरीर प्रतिपादन किये गये हैं, जैसे कि - (ओरालिए) देव तथा नारकीय जीवों को छोड़कर इसी शरीर को तोर्थंकर तथा गणाधरों के धारण करने से अथवा शेष शरीरों को अपेक्षा इसकी एक सहस्र योजन से कुछ अधिक प्रमाण अवगाहना होने से इसको श्रदारिक शरीर कहते हैं, तथा वेठ) वैक्रिय शरीर उसे कहते हैं-जो नाना प्रकार की विशिष्ट क्रिया वा विक्रिया के द्वारा नाना प्रकार के रूप धारण करें । ( श्राहार) किसी बात की शंका होने पर केवली भगवान् के पास निर्णय के लिये भेजने के वास्तं चर्तुदश पूर्वविद् मुनि जिस शरीर को रचते हैं और लौटने पर उसके द्वारा अर्थी को धारण करते हैं उसे आहारक शरीर कहते हैं, (नेए ) रसादि आहार को पाचन करने वाला पुनः तेजोलेश्या की उत्पत्ति का कारण भूत, ऊष्ण रूप पुद्गलों का विकार तैजस शरीर होता है, पुनः (कम्मए) जो आठ प्रकार कर्मों के समूह से जनित दारिकादि शरीरों का कारण भूत तथा भवान्तर में नाना प्रकार के फलों का दाता उसे कार्मण शरीर कहते हैं । इस तरह अनुक्रम से पांचों शरीर का दान किया गया है, किन्तु विशेष इतना ही है कि औदारिक शरीर हव से स्वर तथा दीर्घ से दीर्घ तर भी होता है, क्योंकि निगोदके जोवों का शरीर खतर और समुद्र के कमल नाल का शरीर दीर्घतर होता है, इसी कारण प्रथम उसका ग्रहण किया गया है । अत्र चौवीस दण्डकों के शरीरों का विषय कहते हैं - (गोर इ.स भंते ! कइ सरीरा पण्णत्ता ? ) हे भगवन् ! नारकियों के कितने शरीर प्रतिपादन किये गये हैं (गोयमा ! तो सरीरा पश्यत्त, तं जहा-) हे गौतम! तीन शरीर प्रतिपादन किये गये है जैसे कि - (विए) वैक्रिय (तेर) तैजस और (कम्पए) कार्मण, ( अमरकुमाराणं भंते ! कसरी पत्ता ?) हे भगवन् ! असुरकुमार देवों के कितने शरीर कथन किये गये हैं ? (गोयमा ! ती सग परणत्ता, तं जहा-) हे गौतम! तीन शरीर प्रतिपादन किये गये हैं, जैसे कि - (वेत्रिए ते अए कम्मए) वैक्रिय तैजस और कार्मण, (एवं तिगिण २ एए चैव सरीरा) इसो प्रकार ये तीन २ शरीरजो पूर्व कहे गये हैं वे ( जात्र थरिण्यकुमारां भाणियव्या ।) यावत् स्तनित्कुमारों क े भी जानना चाहिये, अथात् स्तनिनकुमार तक ये तीन शरीर होते हैं । (पुढविकाइयाणं भंते! कइ सी एण्णता ?) हे भगवन् ! पृथिवी
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१२६
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] कायके कितने शरीर प्रतिपादन किये गये हैं ? (गोयपा ! तो सरीरा पणत्ता, तंजहाहे गौतम! तीन शरीर प्रतिपादन किये गये हैं,जैसेकि-(ओरालिए) औदारिक (तेअए) तेजस
और (कन्मए,) कार्मण्य, (एवं ग्राउ तेउवणरसइकाइयाण ऽवे) इसी प्रकार अपकाय तेजस काय और वनस्पति काय के भो (णा चंब तिरिग सरीरा भागियचा,) ये तीनों शरीर कहना चाहिये (वाउकाइयागणं भंते ! कइ सरीरा पण्णत्ता ? ) हे भगवन ! वायुकायिक जीवोंके कितने शरीर प्रतिपादन किये गये हैं, (गोधमा ! च तारि सगरा पण्णता, नं जहा.) हे गौतम ! चार प्रकार के शरीर प्रपिादन किये गये हैं, जैसे कि-(ोगन्निए वेउबिए तेअए काम। औदारिक वैक्रिय तेजस और कार्मण्य, तथा (वेदं दियतेदियचउनिंदियाणं जहा पुढवीकाइयाणं,) पृथ्वी काय के जितने शोर होते हैं उतने ही द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के जानना (पंचिदियतिरिक्ख नं.णिश गं नहा बाउकाइयाग ।) पंचेन्द्रिय तिर्यक योनियों के शरीर वायु काय के समान हैं अर्थात् इनके भो चार शरीर होते हैं। ( मणु साणं भंते ! कइ सी परगना ? ) हे भगवन् ! मनुष्यों के कितने शरीर प्रति. पादन किये गये हैं ? (गोया ! पंच सरोग पण्णता, तं जहा-) हे गौतम ! पांच ही शरीर प्रतिपादन किये गये हैं, जैसे कि-(ओगलिए वेचिए अाहारा नेग्रा करमण । औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण्य. किन्तु (वागमतगणं जानिमियागं वमाणियागां) व्यतर ज्योतिषी और वैमानिक देवों के शरीर (जहा नेण्डयाग ।) जैसे नारिकियों के वर्णन किये गये है उमो प्रकार इनके भी जानना चाहिये, अर्थात इन तीनों के तीन २ शरी होते हैं।
भावार्थ---शरीर पांव प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, जैसे कि-श्रीदा. रिक शरीर १ वैक्रिय शरीर २ आहारक शरीर ३ तेजस शरीर ४ और कार्मगय शरीर ५, औदारिक शरीर उसे कहते हैं जो सर्व से प्रधान और स्थूल तथा जिस की अवगाहना एक योजन से कुछ अधिक हो १, वैकिय शरीर उसे कहते हैं जो नाना प्रकार की क्रिया के द्वारा नाना प्रकार के रूप धारण करे २। इसकी उत्तर वैक्रिय अवस्था एक लाख योजन की और भवधारणीय शरीर की ५०० धनुष तक होती है । चतुर्दश पूर्वधारी अपनी शंका के दूर करने के वास्ते एक नया शरीर रच कर श्री केवली भगवान् के पास भेजते हैं, उसको श्राहारक शरीर कहते हैं ३, तथा-रसादि श्राहार को पाचन करने वाला तैजस शरीर कहलाता है ४, और अष्ट कर्मों से जनित भवान्तर में विपाक रस का देने वाले कार्मण्य शरीर होता है, अर्थात् कर्मों का कोष रूप है, विशेष इतना ही है कि-इन पांचों में औदारिक शरीर ह्रस्व से ह्रस्वतर और दीर्घ से दीर्घतर होता है, क्योंकि
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[ उत्तरार्धम् ।
१२७
निगोद के जीवों का शरीर हस्वतर और समुद्र के नाल के जीवों का शरीर दीर्घतर होता है | ये पांच प्रकार के शरीर चतुर्विंशति दंडकों में भी पाये जाते हैं- जैसे कि चारों नरकों के नारिकियों के और दश प्रकार के भवन पतिदेवों के केवल वैक्रिय तेजस और कार्मण्य, ये तीन शरीर होते हैं, तथा पृथ्वीकाय,
काय, तेजसकाय, वनस्पतिकाय और विकलेन्द्रिय इनके श्रदारिक तैजस और कार्मण्य ये तीन शरीर होते हैं, अपितु वायुकाय और पंचै० तिर्यच्चों के श्रदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण्य ये चार शरीर होते हैं, तथा - मनुष्यों
दारिक, वैकिय आहारक तेजस् और कार्मण्य ये पांच शरीर होते हैं, और व्यन्तर ज्योतिषी वैमानिक देवों के वैकिय, तेजस और कार्मण्य ये तीन शरीर होते हैं । अब प्रत्येक २ शरीर के बद्ध और मुक्त भेद सविस्तर निम्न लिखित जानना चाहिये
बद्ध और मुफ्त के भेद |
केवइयाणं भते ! ओरालियसरीरा पण्णत्ता ? गो. यमा दुविहा पणत्ता, तंजहा - बल्लया य मुक्क ेललगाय, पत्थणं जे ते बद्धल्लगा तेणं असंखेजा असं खिजाहि उस्सप्पिणीसप्पिणीहि अवहीरंति कालओ, खेत्तत्रो असंखज्जा लोगा, तत्थ ां जे ते मुक्केल्लगा ते अता
ताहि उ. सप्पिणीसविणहि अवहीरंति कालत्री, खत अता लोगा, दव्वत्र, अभवसिद्धिएहि प्रांतगुणा सिद्धाणं असंतभागो । केवइयाणं भंत े ! वेडव्त्रियसरीरा परणता ? गोयमा दुविहा पण्णत्ता त जहा- बद्धलगाय मुक्केल्ल गाय, तत्थ गं जे ते बद्धल्लगा तेणं असंखिज्जा असं खिज्जा हि उस्सप्पिणीओसप्पिणीहि वही रंति काल खत्तओ असंखज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखज्जइभागो, तत्थ गं जे तो मुक्केलया तण अांता
* 'कइ विहा' प० ।
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१२८
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] अणंताहिं उस्सप्पिणीओसपिणीहि अवहोरंति कालो सेसं जहा ओरालियस्स मुकल्लयातहा एएवि भाणियम्वा । केवइयाणं भंत ! आहारगसरीरा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पएणत्ता, तजहा-बद्ध ल्लगा यमुकल्लगा य, तत्थणं जे ते बद्धल्लया तणं सित्र अस्थि सिनस्थि, जइ अत्थि जहणणेणं ऐगो वा दो वा तिणिण वा उक्कोसेरणं सहस्स पुहतं, मुकल्लया जहा ओरालियस्त मुकल्लया तहा भाणियव्वा । केवइयाणं भंत ! त अगसरीरा पण्णता ? गोयना ' दुविहा पण्णत्ता, तजहा-बद्ध ल्ल पाय मुकल्ल. या, तत्थ णं जे ते बद्ध ल्लया तणं अणंता अणताहि उस्सप्पिणीओप्लप्पिणीहि अवहीरति कालो खत्तो अणंता लोगा व ओ सिद्ध हि अणंतगुणा सव्वजीवाणं अणंतभागूणा, तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया तणं अणंता अणंताहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहि अवहीरंति कालो खत्तो प्रणतालोगा दवओ सव्वजीवेहि अणंतगुणा सव्वजीववग्गस्स अतभागो | केवइयाणं भंत ! कम्मगसरोरा पएणत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णता, तजहाबद्ध ल्लया य मुक्केल्लयो य, जहा त अगसरीरा तहा कम्मगसरीरावि भाणियब्वा ५ ।
पदार्थ--- केवइयाणं भंत ! आरालिशमग पगाता ? ) हे भगवन् ! औदारिक शरीर कितने प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? (गायमा ! दुबिहा परमत्ता, तनहा-) के गोतम ! दोकार से प्रतिपादन किया गया है, जैसे कि-( बदल्लमा य मुक्छ नगा य) बद्ध
और मुक्त, बद्ध उसे कहते हैं जो तथा विध कर्मो के द्वारा औदारिक शरीर ग्रहण किया गया हो, और मुक्त उसे कहते हैं जिस समय जीव औदारिक शरीर को छोड़ कर भवान्तर होता है अथवा मोक्ष में जाता है, तथा शेषगल जो औदारिक भाव
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[ उत्तरार्धम् ]
१२४ में छोड़ा था उसे मुक्त औदारिक शगेर कहते हैं । अब इनकी संख्या का प्रमाण कहते हैं, जैसे कि-(तत्य णं जे ते बदल्लया) इन दोनों में जो बद्ध औदारिक शरीर हैं (तेणं असंखिजा) वे असंख्येय हैं, क्योंकि इसका प्रमाण यह है कि-(असंखिजाहि) यदि प्रति समय एक २ शरीर अपहरण किया जाय तो वे असंख्य य: (उरसप्पिणी ग्रोसप्पिणीहि। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणो ( अहीवर्गति कालो ) काल से अपहरण किये जाते हैं, अर्थात् बद्ध औदारिक शरीर जितने असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणियों के समय हैं उतने हैं, क्योंकि नारिकीय और देवों को छोड़ कर शेष जीव औदारिक शरीर से बद्ध है, परन्तु सिद्ध अशरीरी हैं । (खेतो असंखे जा लोगा, क्षेत्र से असंख्यात लोग प्रमाण, अर्थात् असत् कल्पना के द्वारा यदि एक २ औदारिक शरीर एक २ आकाश प्रदेश पर स्थापन किया जाय तो असंख्यात लोकाकाश के समान, अलोक में से प्रकाश प्रदेश ग्रहण किये जायँ तो उतने ही औदारिक शरीर हैं, अत एव क्षेत्र से भी सिद्ध हुआ कि असंख्यात लोकाकाश के तुल्य बद्ध औदारिक शरीर हैं।
जब औदारिक शरोरों में रहने वाले जोव अनन्त हैं तब औदारिक शरीर अनन्त क्यों नहीं है ?
साधारण काय की अपेक्षा प्रत्येक शरीर वालों को छोड़ कर जो साधारण शरोरी हैं, उनके एक एक शरीर में अनन्तानन्त जोव निवास करते हैं, अर्थात् अनन्त जीवों के समुदाय से एक हो औदारिक शरीर होता है, और जो प्रत्येक शरीरो हैं वे असंख्यात ही होते हैं, इसलिये बद्ध औदारिक शरोर असंख्यात हैं ।
अब मुक्त औदारिक शरीर का वर्णन करते हैं-(तत्य णं जे ते मुक्केल्लगा) उन दोनों में जो मुक्त औदारिक शरीर हैं (ते णं अता) वे अनन्त हैं, क्योंकि इनका प्रमाण यह है कि-( अगांताहिं उसप्पिणीयोसप्पिणी हि अबहीति कालो ) अनन्त उत्सपिणी और अवसपिरिणयों के काल से अपहरण किये जाते हैं अर्थात् अनन्त उत्सर्पिणी और अवसपिणिों के काल का राशियों के समय के तुल्य मुक्त औदारिक शरीर
+इनका प्रमाण द्रव्य क्षेत्र और काल से किया जायगा इसीलिये यह संख्येय पद है, तथा भाव द्रव्यान्तर्गत होने से पृथक् वर्णन नहीं किया गया।
अनेन सूत्र गण उत्सर्पिणी अवसांप्पणी शब्दं सिद्ध भवति, तथा च,-क-ग-ट-ड-तद-प-श-प-म-) क ) पाललुक् पा० । व्या० । अ० । ८ पा० । २ सूत्र । ७७ अनादौशेपा. दशयोधिम् । ८६ । अवासोते | अ । पा० । १ । सू० । १७२।
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१३०
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम होते हैं और (खेत्तयो अणंता लोगा,) क्षेत्र से अनन्त लोक के समान, अर्थात् क्षेत्र को अपेक्षा लोक प्रमाण प्रदेशों के खण्ड की राशि के तुल्य मुक्त औदारिक शरीर हैं इसी लिये 'अनन्ता लोमा' सूत्र रक्खा गया है। अब द्रव्य से प्रमाण कहते हैं(दव्यो) द्रव्य से ( अभवसिद्धिएति) अभव्य सिद्धिक जोवों से (अणंतगुणा,) अनन्त गुण
और ( सिद्धाणं अतभाग। ) सिद्धों के अनन्त भाग में हैं, अर्थात् सिद्ध जीवों की अपेक्षा औदारिक शरीर न्यून हैं।
प्रज्ञापनो सूत्र के तृतीय पद के महादशडक में अभव्य जीवों से सम्यक्त्व पतित अनन्त गुणे माने हैं तो फिर इस अंक को छोड़ कर मुक्त औदारिक शरोरों के लिये अभव्य से अधिक सिद्धों से न्यून ऐसा प्रमाण क्यों दिया ? महादण्डक में ७४ वा अंक अभव्य जीवों का, पचहत्तरवां सम्यक्त्व से पतितों का और ७६ वां सिद्धों का है, अतः मुक्त औदारिक शरीर कमा तो सम्यक्त्व पतितों से अधिक हो जाते हैं और कभी न्यून होते हैं, किन्तु सिद्धों के अनन्त भाग में ही रहते हैं, इसलिये सिहों का अंक ग्रहण किया गया है।
हे भगवन् ! मुक्त श्रोदारक शरीर का अनन्त काल पर्यन्त स्थिर रहना किस प्रकार से मानते हो ? क्या मुक्त शरीर सम्पूर्ण अनन्त काल पर्यन्त रह सकता है वा उसके खंड २ किये हुए परमाणु ग्रहण किये जाते हैं ? आदि पक्ष स्वीकृत नहीं हो सकता, क्योंकि शरीर धारो तो अनन्त काल नहीं रहता, याद द्वितीय पक्ष ग्रहण किया जाय तो अतीत काल में ऐसा कोई परमाणु पुद्गल नहीं रहा जो जीव का अनन्त २ वार औदारिक भाव में परिणमित न हुआ हो ?
ये दोनों ही प्रश्न अग्राह्य हैं, क्योंकि मुक्त औदारिक शरीर उसे कहां हैं जो औदारिक शरीर के अनन्त खंड होने पर भी वे अन्यभाव में परिणमित न हों वहां तक उसको शरीर कहते हैं, जैसे उपचारक नय से “एक देश दाहेपि ग्रामो दग्धः पटो दग्धः” इत्यादि, एक देश मात्र गांव के जलने पर गांव जल गया या पट जल गया ऐसा कहा जाता है, उसी प्रकार जितने खंड औदारिक शरीर के अन्य भावमें परिणमित नहीं हुए वे औदारिक शीर के पुद्गल कह जाते हैं, और एक २ औदारिक शरीर के अनन्त २ खंड होने पर अनन्त भेद होते हैं, अतः अनन्त मुक्त औदारिक शरीर हैं, जो कि अभव्यों से अनन्त गुणं और सिद्धों से अनन्त भाग न्यून हैं। - इस से सिद्ध हुआ कि जिन पुद्गलों ने औदारिक भाव को छोड़ दिया वे पुद्गल अन्यभाव में परिणमित हो गये तब औदारिक शरीर का व्यवच्छेद होना यह
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[ उत्तरार्धम् ]
१३९
बन औधिक भाव से कहा गया है, किन्तु विभाग से वणन आगे कहा जायगा ।
वैक्रिय शरीर का विस्तार से वर्णन करते हैं।
(केवइयाणं भंते ! वेव्वियसरी पत्ता ? ) हे भगवन् ! वैक्रिय शरीर कितने प्रकार से प्रतिवादन किया गया हैं ? क्योंकि नारकीय और दवता सदैव ही बद्ध वैक्रिय शरीर युक्त होते हैं, और मनुष्य तिर्यक् उत्तर वैक्रिय करते समय वैकिय शरीर युक्त होते हैं, इसलिये चारों गतियों के जीवों के वैक्रिय शरीर कितने होते हैं ? ( गायमा ! दुबिहा परणत्ता, संजहा- ) हे गौतम! दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, जैसे कि- ( बद्धल य ) बद्ध वैक्रिय शरीर और ( मुक्केल्ल्या य) मुक्त वैक्रिय शरीर (तत्थ गं जे ते बद्दल्नया) उन दोनोंमें जो बद्ध वैक्रिय शरीर हैं (तेगां ग्रर बिजा) वे असंख्येय हैं, अब काल से प्रमाण कहते हैं, जैसे- ( ग्रसंखेजाहिं ) असंख्येय ( उस्सप्पिणी
सप्पणीहिं ) उत्सपणो और अवसर्पिणीयों से ( अहीरंति ) अपहरण किये जाते हैं ( काल ) काल से अर्थात् असंख्येय काल चक्रों के समय की राशि के तुल्य बद्ध वैक्किय शरीर हैं, और (खेती) क्षेत्र से (असंखिजाओ सेडीकी) प्रमाणांगुल के अधिकार में उन असंख्येय प्रदेशों को श्रेणी से जो घन प्रतर वर्णन किया गया है, (रस्स इभा.) उस प्रतर के असंख्य भाग में जितने चाकाशास्तिकाय के श्र ेणियों के प्रदेश हैं, उतने बद्ध वैक्रिय शरीर हैं। फिर (तत्ते केला ) उन दोनों में जो मुक्त वैक्रेय शरीर हैं (शांतता) वे अनन्त हैं और अनन्त (असपि) उस और (अं.स. हिं) अवसर्पिणियों के (कालो) काल से पहरण किये जाते हैं (जेल) शेष (जहा) जैसे (आंगलिया ) औदारिक शरीर की (मुक(नया) मुक्तता वर्णन की गई है (ता) उसी प्रकार ( विभागिय २ ) इनकी भी कहना चाहिये, अर्थात् अनन्त हैं, भंते! आहाररासरी पत्ता ? ) हे भगवन् ! आहारक शरोर कितने प्रकार से प्रतिपादन किया गया हैं ? (गोमा ! दुविहा पाता.) हे गौतम! दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है. (जहा-) जैसे कि -(व ेल्लया प बद्ध आहारक शरीर और (मुसल्लया य) मुक्त आहारक शरीर, (तत्य णं जे ते) चढ ेललया) इन दोनों में जो बद्ध आहारक शरीर है ( ते शं सिय श्रत्थि ) वे कदाचित् होते हैं (सिय नथि-) कदाचित् नहीं होते, सूत्र में बहु वचन की क्रिया के स्थानमें एक वचन की क्रिया दी गई है। इसमें कदाचित् शब्द इस लिये दिया गया है कि इसका
तर काल भी होता है, अब उनके प्रमाण की संख्या कहते हैं - ( जड़ स्थि जह-ए) यदि हों तो जघन्य से (एमो वा दो वा तिरिए बा) एक अथवा दो या तीन और (उकोसेणं) उत्कृष्ट से (सहस्स पुहत्तं) पृथक सहस्र हों, याने दो हज़ार से नव हजार पर्यन्त होते "हैं, इसीका नाम पृथक् संज्ञा है, (स्क्या) मुक्त आहारक शरीर (जहा) जैसे (ओरालि
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१३२
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
यस ) औदारिक शरीर का वर्णन किया गया है ( तहा भाणियत्रा ३ ।) उसी प्रकार जानना चाहिये ३ | (केवइयाणं भंते ! तेयगसरीश पण्णत्ता ?) हे भगवन् तैजस शरीर कितने प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, जोयमा ! दुविहा पण्णत्ता) हे गौतम ! दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तंजहा-) जैसे कि - ( बद्धल्लया य मुक्केल्लया य) बद्ध तैजस शरीर और मुक्त तैजस शरीर, (त्थं जे से बढ ल्लया) उनमें जो बद्ध शरीर हैं ( तेणं अता ) वे अमन्त हैं, अब अनन्त का प्रमाण कहते हैं - ( ताहिं ) अनन्त (उस्सप्पिणी ओस पगीहिं) उत्सप्पिणी और अब सपिणीयों के ( श्रवहीरंति काल ) काल अपहरण किये जाते हैं, और ( खेती ) क्षेत्र से ( अता लोगा ) अनंत लोका काश के प्रदेशों की राशि के तुल्य हैं, और ( दवाओं सिद्ध ेहिं तगुणा ) द्रव्य से सिद्धों अनन्तगुणे हैं, (सन्यजीवाण) सब जीवों की अपेक्षा (त भागुणा) अनन्त भाग न्यून हैं, क्योंकि - सर्व जीवों के अनंत भाग प्रमाण सिद्ध हैं, इनके के तैजस शरीर नहीं होता इस लिये सभी जीव वर्ग से तेजस शरीर अनंत भाग न्यून हैं, तथापि यह प्रश्न यहां पर उत्पन्न नहीं हो सकता क्योंकि "औदारिक असंख्यात " हैं फिर तैजस शरीर अनन्त क्यों हुए ?, क्योंकि एक औदारिक शरीर में अनन्त जीव निवास करते हैं, और प्रत्येक २ जीव के साथ पृथक् २ तैजस शरीर होते हैं, इसलिये यहाँ पर कोई भी शंका उत्पन्न नहीं हो सकती । संसारी जीव सिद्धों से अनन्त गुणे हैं इसलिये तैजस शरीर भी सिद्धों से अनंत गुणे हैं, क्योंकि उनके तैजस शरीर नहीं होता इस लिये तैजस शरीर सभी जीव वर्ग से अनन्त भाग न्यून हैं, तथा (तत्थ जे ते मुक े - ल्तया) उन दोनों में जो मुक्त तैजस शरीर हैं ( ते अता ) वे अन्नत हैं, अनंत का प्रमाण यह है कि (ताहिं) अनंत (उम्मप्पिणीओसप्पिणीहि) उत्सर्पिणी और अवस पिणो ( वहीति काल ) काल से अपहरण किये जाते हैं (खेप) क्षेत्र से (श्रणंता लोगा) अनंत लोकाकाश के प्रदेशों की राशि के तुल्य, और (दो) द्रव्य से (सबजीवेहिं श्रणंतगुणा) सभी जीवों से अनन्त गुणे हैं, क्योंकि एक २ जीव के अनंत २ मुक्त तैजस शरीर होते हैं. लेकिन (सजीव ांतभागी ) सभी जीवों के वर्ग का अनंतवाँ भाग हैं, क्योंकि-वर्ग उसे कहते हैं, जैसे कि चार ४ को चार सेगुणा किया जाय तो १६ हुए, इसलिये सोलह का वर्ग कहा जाता है। इसी तरह दस सहस्र को १० सहस्र गुणा किया जाय तो दस क्रोड होते हैं, इसी का नाम वर्ग है । इसी प्रकार सद्भाव से जीव राशि अनंत है, इस राशि को तद् गुणा किया जाय तो उसे वर्ग कहते हैं इसलिये सभी जीवों के साथ २ सिद्ध भी ग्रहण किये गये । परन्तुसिद्धों के मुक्त और तेजस शरीर नही होते, इस लिये सभी जीव वग से मुक्त तैजस शरीर अन्तत भाग न्यून हैं, क्योंकि सिद्ध भगवान् सर्व जीवों के अनंतव भाग में हैं, इस लिये
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[ उत्तरार्धम् ] तेजस शरीर भी सभी जीवों के अनंत भाग में है । तुल्य का वर्णन इस लिये नहीं किया गया कि असंख्यात काल के पश्चात् तैजस शरीर के पुद्गल अपने २ परिणाम को छोड़ कर अन्य भाव में परिणमित होते हैं, इसलिये अनन्तों के अनंत भेद होते हैं ४ । ( केवइयाणं भंते ! कम्मगसर्गरा पएणता ? ) हे भगवन् ! कार्मण्य शरीर कितने प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? (गोयमा ! दुविहा पराण ता, ) हे गौतम ! दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया हैं, (तंज हा.) जैसे कि-(बदल्लया य) बद्ध कार्मण्य शरीर और (मुकल्लया य) मुक्त कार्मण्य शरीर, (जहा) जैसे (तयर.सरीग, तैजस शरीर होते हैं ( तहा कम्मगसरीगवि भाणियव्वा । ) उसी प्रकार कार्मण्य शरीर के भी भेद कहने चाहिये, अर्थात् ते जसशरीर के तुल्य ही कार्मण्य शरीर होता है ।५।
भावार्थ-शरीर के पाँच भेद हैं, जैसे कि-औदारिक १ वैविय २ श्राहा. रक ३ तेजस ४ और कार्मण्य ५ इन पाँच शरीरों में से नारकीय दस भवनपति व्यन्तर, ज्योतिषो, और वैमानिक देवों के वैक्रिय तैजस और कार्मण्य ये तीन शरीर होते हैं, तथा-चार स्थावर और विकलेन्द्रिय के तीन, पंचेन्द्रिय तिर्यके और वायु काय के चार, तथा मनुष्यों के पांच शरीर होते हैं । श्रौदारिक शरीर के दो भेद हैं, जैसे कि बद्ध और मुक्त । औदारिक शरीर यदि असत्कल्पना के द्वारा प्रति समय ए.२ अपहरण किया जाय तो असंख्येय उत्सरिणी और अवसपिणी काल से अपहरण किये जाते हैं, यह काल प्रमाण वताया या है, लेकिन क्षेत्र से असंख्यात लोकों के प्रदेशों के तुल्य है. तथा जो मुक्त औदारिक शरीर है, वे अनंत हैं, काल से जितने अनन्त काल चक्रों के समय हैं उतने मुक्त औदारिक शरीर हैं, तथा क्षेत्र से अनन्त लोक के जितने देश हैं उतने उक्त शरीर है जो कि अभव्यों से अनन्त गुणे और सिद्धों के अनंतवें भाग में हैं १ । चैक्रि र शरीर के भी दो भेद हैं, बद्ध और मक्त, बद्व तो असंख्येय है जो कि प्रतर के असंख्यातवें भाग के प्रदेशों के तुल्य हैं, और काल से असंख्येय काल चक्रों के समयों के समान है । तथा-मुक्त वैकिय शरीर रक्त औदारिक शरीर के सदृश है २ । तथा-बद्ध श्राहारक शरीर कदाचितू होते हैं कदाचित् नहीं होते, यदि हो तो जघन्य से एक या दो या तीन और उत्क्रप्ट से पृथक सहस्र तक होते हैं। और मुक्त आहारक शरीर मुक्त औदारिक शरीरवत् जानना चाहिये ३ । तैजस
* बद्ध आहारक शरीर चतुर्दश विद को ही होता है, इसया न्तर काल जघन्य से एक समय का औ र उत्कृष्ट से छः मास तक होता है।
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
शरीर के भी दो भेद हैं-बद्ध और मुक्त, उनमें बद्ध और मुक्त दोनों ही अनन्त हैं, श्रत एव काल से वृद्ध अनन्त उत्सर्पिणी और श्रवसवियों के समयों के तुल्य, और क्षेत्र से अनंत लोकके प्रदेशों के समान पुनः द्रव्य से सिद्धों से श्रनन्त गुणे और सभी जीवों को अपेक्षा अनंतवें भाग न्यून हैं तथा क्षेत्र और काल से मुक तैजस शरीर अन त हैं किन्तु द्रव्य से सभी जीवों से अनंत गुणे और जीव वर्ग के अनन्त आग में हैं । इसी तरह जिस प्रकार तैजस शरीर का वर्णन किया गया है उसी प्रकार कार्डराय शरीर का भी जानना, क्योंकि ये दोनों शरीर युगपत्र साथ रहने वाले हैं। इस प्रकार औधिकसे पांव शरीरों का वर्णन किया गया है, अब विशेषता वर्णन करते हैं
पांच शरीरों का विशेष वर्गान ।
नेरमाणं भंते! केवइया ओरालिप्रसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पराणत्ता, तंजहा- बद्धल्लया य मुक्केल्लया य, तत्थ यां जे ते बद्धल्लया तेां नत्थि, तत्थ जे ते मुकल्लया ते जहा ओहिया ओरालिअसरीरा तहा भाणियञ्चा, नेरइयाणं भंते! केवइया उच्चसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुबिहा पण्णत्ता, तंजहा - बल्लया य मुक्केल्लया य, तत्थां जे ते बद्दल्लगा तेणं असंखिज्जा असंखिजाहिं उस्सप्पिणीसप्पिणीहिं वीरंति कालओ खेत्तत्र असंखेजात्र सेढीओ पयरस्त असंखिजइ भागो, तासि णं सेढोणं विश्वंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलं विइअग्गमूल पडुप्परणं अहवणं अंगुलविइ अवग्गमूलघणप्पमाणमेत्ताओ सेढीओ, तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते गं जहा ओहिया ओरालिसरी तहा भाणियव्वा, नेरइणं भंते ! केवइआ आहारगसरीरा पण्णत्ता ? गोया ! दुविहा पणत्ता, तंजहा- बद्धल्लया य मुक्केल्लया
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[ उत्तरार्धम् ]
१३५ य, तत्थ णं जे ते बद्दल्लया ते णं नत्थि, तत्थ णं जे ते मुक्केल्लयो ते जहा ओहिया ओरालिया तहा भाणियव्वा, तेअगकम्मसरीरा जहा एएस चेव वेउव्वियसरीरा तहा भाणियव्वा ।
असुरकुमाराणं भंते ! केवइया ओरालिअसरीरा पगणता ? गोयमा ! जहा नेरइयाणं ओरालिअसरीरा तहा भाणियव्वा, असुरकुमाराणं भंते ! केवइया वेउव्वियसरीरा पण्णता ? गोयमा ! दुविहां पगणता, तंजहा -बहेल्लया य मुक्केल्लया य, तत्थ ते वद्ध ल्लया तणं असंखिज्जा असंखेज्जाहिं उस्लपिणाओसप्पिणीहि अवहीरंति कालो, खेतो अखेजाओ सेढीओ पयरस्स असंखिजइभागो, तासिणं सेढीगणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखिजइभागो, मुकेकल्लया जहा ओहिया ओरालियसरीरा असुरकुमाराणं भंत ! केवइया आहारगसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णता, त. जहा--बद्ध ल्लया य, सुकोल्लया य-जहा एएसिं चेव पोरालियसरीरा तहा भाणियव्वा, त यगकम्नसरीरा जहा एएसिं चेव वेउव्वियसरीरा तहा भाणिय वा, जहां असुर कुमाराणं तहा जाव थणियकुमाराणं ताव भाणियव्वा ।
पदार्थ-(नेए इयाण मंते ! वं वक्ष्या प्रगनियममा गणता ?) हे भगवन् ! नारकियों के औदारिक शरीर कितने प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं ? (गोयमा ! दुविहा पएणता, जहा-) हे गौतम ! दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, जैसे कि (बद्धल्या य मुकल्लया य,) बद्ध औदारिक शरीर और मुक्त औदारिक शरीर (तत्थ गण जे ते बदल्लया) उन दोनों में जो बद्ध औदारिक शरीर हैं (तेग नलि.) वह वर्तमान समय में वैक्रिय के सदभाव होने से नहीं हैं, (तत्थ णं जे ते मुकल्लया ) तथा उन दोनों में जो मुक्त
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१३६
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
दारिक शरीर हैं (ते जहा श्रहिया ओरालियसरीरा ) वे जैसे अधिक श्रदारिक शरीर होते हैं ( तहा भाणिय, ) उसी प्रकार कहने चाहिये, अर्थात मुक्त औदारिक शरीर पिछले भावों की अपेक्षा जानने चाहिये । ( नेइयाणं भंते! केवइया वेत्रिय सरीरा पणता ?) हे भगवन् ! नारकियों के वैक्रिय शरीर कितने प्रकार से प्रतिपादन किये ये हैं ? (गोमा ! दुहा पत्ता, तंजहा - ) हे गौतम ! दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये है, जैसे कि - (बदलेला मुकलता य, ) बद्ध वैक्रिय शरीर और मुक्त वैक्रिय शरीर, (तथं जे ते बोलना ) फिर उन दोनों में जो बद्ध वैक्रिय शरीर हैं. (ने श्रसंखना) वे असंख्येय हैं क्योंकि - ( प्रसंखिजाहिं उत्सधिणी) असंख्येय उत्सर्पिणियों और (सोरंति कालओ) अवसर्पिणियों के काल से अपहरण किये जा सकते हैं, लेकिन (खेत्त ग्रो) क्षेत्र से (ग्रसंखेजा) असंख्येय (सेडीयो ) श्रेणियें, जो (पवरम्स) प्रतर के ( असंखेज्जइ भागो, ) असंख्येय भाग में हों तो जितने उनके आकाश प्रदेश हैं। उतने ही बद्ध वैक्रिय शरीर हैं, इसका प्रमाण यह है ( तासि सेठीणं त्रिक्वग्भलूई उन श्रेणियों की विकुंभ सूची ( श्रं गुलपढपमूलं ) अंगुल प्रमाण तर में श्रेणियां की जो राशि हैं उसमें असंख्येय वर्ग मूल हैं, किन्तु यहांपर प्रथम वर्ग को (विश्यवग्नमूलं डुप्पणं) द्वितीय वर्ग मूल के साथ गुणा करने से जितनी श्र ेणियें उपलब्ध हो उतनी ही श्रेणियों को विष्कम्भ सूचि होती है, अर्थात् इतनो ही श्र ेणियें ग्रहण करना चाहिये । अब असत्कल्पना के द्वारा यह सिद्ध करते हैं कि अंगुल प्रमाण प्रतर में २५६ अणियें हैं, इसका प्रथय वर्ग मूल १६, और द्वितीय वर्ग मूल ४ हुआ, यदि प्रथम वर्ग मूल को दूसरे से गुणा किया जाय तो ६४ हुए, क्योंकि -१६ x ४ = ६४ याने जितनी श्र ेणिये हैं उतनी ही विस्तार सूचि जानना चाहिये । यह सिर्फ असत्क पना के द्वारा सिद्ध किया गया है, लेकिन निश्चय से तो उसमें असंख्येय श्रेणियें हैं, (*श्रहवण) अथवा ( अंगुल बिइयवग्गमूलघणप्रमाणमित्ताश्री संदीओ ) अंगुल प्रमाण प्रतर क्षेत्र वर्ती श्रेणी राशि का द्वितोय वर्ग मूल, जो चतुष्पद रूप पहिले दिखलाया गया है - ६४ जिसका घन है, उतनी ही असंख्य श्रेणियें यहाँ ग्रहण की जाती हैं, अर्थात् द्वितीय वर्ग भूल को गुणा करने से चौसठ होते हैं, क्योंकि द्वितीय वर्ग मूल पोडश का है । इस लिए घनमात्र में जितनी श्र णियां हैं तथा उनमें जितने असंख्येय प्रदेश हैं उतने ही बद्ध वैक्रिय शरीर नारकियों के हैं, (तथ ां जे ते मुक्क ेल्लया) उन दोनों में जो मुक्त वैक्रिय शरीर हैं, (तेगं जहा ओहिया ) वे जैसे औधिक (ओरालियरीग तहा
* '' इति वाक्यालङ्कारे 'णं' धनं वाक्य के अलार अर्थ में हैं ।
+ घनरूप श्र ेणियों में असंख्येय श्र ेणियें होती हैं। इस कारण नारकियो के भी उतने ही वह शरीर होते हैं ।
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[ उत्तरार्धम् ] , भाणियवा,) औदारिक शरीर होते हैं उसी प्रकार वर्णन कहना चाहिये, (नेर इपाणं भंते ! केवइया भाहारगसरीरा पएणत्ता ?) हे भगवन् ! नारकियों के आहारक शरीर कितने प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं ? (गोयमा! दुविहा परगत्ता, तंजहा-) हे गौतम ! दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, जैसे कि-(बद्धरु या य मुक्केल्लया य,) बद्ध आहारक शरीर और मुक्त
आहारक शरीर, तत्थ णं जे ते बदल्लया) उन दोनों में जो बद्ध शरीर हैं ( तेणं नस्थि,) वे *वर्तमान में नहीं हैं, (तत्य णं जे ते मुकल्लया) तथा-उन दोनों में जो मुक्त आहारक शरीर हैं ( ते जहा प्रोहिया ओरालिया ) वे जैसे औधिक औदारिक शरीर होते हैं, (तहा भाणियव्वा,) उसी प्रकार कहना-जानना चाहिये । ( तेयगकम्मगसर्गग ) तैजस और कार्मण्य शरीर ( जहा एएसि चेच ) जैसे इनके ( वेउब्वियसरीग) वैक्रिय शरीर होते हैं (तहा भाणियव्या ।) उसी प्रकार जानना चाहिये,
( अमुरकुमागणं भंते ! केवइया प्रोगलियस,रा पण्णता ? ) हे भगवन् ! असुरकुमार देवों के कितने औदारिक शरीर प्रतिपादन किये गये हैं ? ( गोयमा ! जह मेरइयाणं ) हे गौतम ! जैसे नारकियों के प्रोगनियसरी ।) औदारिक शरीर होते हैं ( तहा भाणियव्या, ) उसी प्रकार असुर कुमारों के शरीरों का वर्णन कहना चाहिये, (असुरकुमाराणं भो ! केवइया वेउब्धियसरीरा पण्णत्ता ?) हे भगवन् ! असुरकुमार देवों के वैक्रिय शरीर कितने प्रकारसे प्रतिपादन किये गये हैं? (गोयमा ! दुविहा परणत्ता, तंजहा-) हे गौतम ! दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, जैसे कि-( वल्लया य मुक्केल्लया य,) बद्ध वैक्रिय शरीर और मुक्त वैक्रिय शरीर, ( ताथ णं जे ते वदल्लया ) उन दोनों में जो बद्ध वैक्रिय शरीर हैं (ते णं असंखेज्जा) वे असंख्येय हैं, लेकिन नारकियों से स्तोक हैं। इस लिये इनका प्रमाण निम्न प्रकार से है-(असंखेजाहिं) असंख्येय (उस्सप्पिणी प्रोसप्पिणीहिं) उत्सर्पिणी और असपिणियोंके (अहीरंति कालो) कालसे अपहरण किये
जा सकते हैं, अपितु ( खेत्तो ) क्षेत्र से (असंखेना प्रो) असंख्येय (सेढी यो) श्रेणियों के (पयरस्स) प्रतर का ( असंखे जइभागो, ) असंख्यातवां भाग, फिर ( तासिणं सेढीणं ) उन श्रेणियों की ( विक्वम्भसुई ) विष्कम्भ सूचि अर्थात् विस्तार श्रेणि ( अंगुलपढमवग्ग. मुलस्त ) अंगुल प्रमाण वर्ग मूल का ( असंखेजइभागो,) असंख्यातवां भाग है, और
* क्योंकि यह शरीर चतुर्दश पूर्व धारी को ही होता है।
पहिले वैक्रिय शरीरों का वर्णन किया गया है उसी प्रकार तैजस और कार्मण्य शरीरों का भी वर्णन जानना चाहिये, जैसे कि बड भसंख्येय और मुक्त अनन्त हैं।
+ इनमें से प्रतर के अङ्गल प्रमाण क्षेत्र में प्रथम वर्ग मूल के असंख्येय भाग में जितनी आकाश प्रदेशकी श्रेणियां हैं उसी प्रमाण की विस्तार सूचि यहां पर ग्रहण करनी चाहिये और वह मारकोक्त सूचि के असंख्यातवें भाग में सिद्ध होती है, इस लिये असुरकुमार नारकियों के प्रसं. ख्येय भाग में सिद्ध होते हैं।
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१३८
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
(मुक्केल्लया) मुक्त वैक्रिय शरीर ( जहा ओहिया ओरालियस रा ) जैसे औधिक श्रदारिक शरीर होते हैं उसी प्रकार यहां भी जानना चाहिये । ( सुरकुमाराणं भंते! केवइया श्राहारगतीरा पण्णत्ता ? ) हे भगवन् ! असुरकुमारों के आहारक शरीर कितने प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं ? (गोयमा ! दुबिहा परणत्ता, तंजहा-) हे गौतम! दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, जैसे कि - (बद्ध ल्लया य मुक्केल्लया य) बद्ध आहारक शरीर और मुक्त आहारक शरीर, (जहा एएसिं चेत्र) जैसे इनके (ओरालियरींग तहा भाणि औदारिक शरीर होते हैं, उसी प्रकार आहारक शरीरों का भी वर्णन जानना चाहिये, तथा — (तेयवकम्म गसरीश ) तैजस और कार्मण शरीर ( जहा एएसि चैत्र सिरीश) जैसे इनके वैक्रिय शरीर होते हैं ( तहा भाणिया, ) उसी प्रकार तैस और कार्मण शरीरों का वर्णन जानना चाहिये। ( जहा असुरकुमाराणं) जैसा असुरकुमारों का वर्णन है, (तहा जाय ) उसी प्रकार यावत् ( श्रण्यिकुमारखं ताव भाणियच्या, ) स्तनित्कुमारों तक की व्याख्या कहनी चाहिये, अर्थात् असुरकुमार वत् नव निकाय के देवों का वर्णन है ।
भावार्थ- नारकियों के औदारिक शरीर दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, जसे कि बद्ध और मुक्त, वद्धती होते ही नहीं, किन्तु मुक्त जैसे श्रधिक श्रदारिक शरीर होते हैं उसी प्रकार जानने चाहिये, इसी प्रकार वैक्रिय शरीर भी होते हैं, लेकिन बद्ध वैक्रिय शरीर काल से असंख्येय काल चक्रों के समय प्रमाण हैं, और क्षेत्र से जो असंख्य योजनों की श्रं शियें हैं उन यों के प्रतर से असंये भाग प्रमाण, फिर उस अंगुल प्रमाण प्रतर के श्रेणियों की विष्कंभ सूचि करने से प्रथम वर्ग भूल को द्वितीय वर्ग मूल के साथ गुणा किया जाय तो जितने उसमें आकाश प्रदेश हैं उतने ही बद्ध वैक्रिय शरीर होते हैं । अथवा एक अंत मात्र प्रतर प्रथम वर्ग को घन रूप करें तो जितनी उसमें श्रेणियाँ हैं उतने ही उसमें आकाश प्रदेश हैं तो इतने ही नारकियों के
बद्ध वैक्रिय शरीर
१६ अंक हैं इनको
होते हैं, जैसे कि -असत्कल्पना के द्वारा प्रथम वर्ग मूल के चार गुणा करने से घन रूप ६४ होजाते हैं, इसी को घन प्रमाण कहते हैं । मुक्त वैक्रिय शरीर श्रौधिक श्रदारिक शरीर वत् होते हैं। तथा नारकियों के बद्ध श्राहारक शरीर तो होते ही नहीं, किन्तु मुक्त आहारक शरीर मक्त श्रधिक औदारिक
+ प्रज्ञावना सूत्र के महादण्डक में कहा है कि- " भवनवत्यादि सिर्फ रत्नप्रभानारकी से असंख्यात भाग में हैं, तो फिर असुरकुमारों की तो बात ही क्या । "
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[ उत्तरार्धम् ]
१३९
शरीर वत् जानना चाहिये । तैजस और कार्मण शरीर बद्ध वैक्रिय शरीर वत्
होते हैं।
असुरकुमार देवों के श्रदारिक शरीर नारकियों के ही समान जानने चाहिये, लेकिन जो बद्ध वैक्रिय शरीर हैं वे कालसे असंख्येय काल चक्रोंके समय प्रमाण प्रतिपादन किये गये हैं, तथा क्षेत्र से असंख्येय योजनों की श्रेणियों के प्रतरका असंख्यातवाँ भाग है, किन्तु उन श्रेणियों की विष्कम्भ सूचि सिर्फ अंगुल प्रमाण ही प्रतिपादन की गई है, इस लिये उसके प्रथम वर्ग के श्रसंख्येय भाग में जितनी आकाश की श्रेणियां हों उतने ही असुर कुमारों के बद्ध वैक्रिय शरीर होते हैं, तथा उक्त वैकिय शरीर मुक्त शौधिक श्रदारिक शरीर वत् जानना । और हर शरीर दारिक वत् होते हैं । तैजस और कार्मण शरीर वैकिय शरीरवत् हैं।
I
जिस प्रकार सुरकुमारों के शरीरों का वर्णन किया गया है उसी प्रकार स्तनित्कुमारादि देवोंका भी जानना चाहिये । श्रव पांच स्थावरोंके वृद्ध और मुक्त शरीरों का वर्णन किया जाता है
स्थावरों के वह और मुक्त शरीर ।
,
पुढविकाइयाणं भंते! केवइया ओरालियरोग पत्ता ? गोयमा ! दुबिहा परणता, तं जहा - बद्धल्लया य मुक्केल्लया य एवं जहा ओहिया ओराजियसरीरा तहा भाणियन्त्रा, पुढविकाइयाणं भंत े ! केवइया वेडव्वियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुबिहा पण्णत्ता, तं जहा- बद्धल्लया य, मुक्क ेल्लया य, तत्थ णं जे त े बद्धल्लया त रात्थि, मुक्केल्लया जहा ओहिणं ओरालियसरीरा तहा भाणियव्वा, आहारगसरीरावि एवं चेव भाणियव्वा, तेगकम्मसरीरा जहा एएसिं चेव ओरालिअसरीरा तहा भाणियव्वा, जहा पुढविकाइयाणं एवं आउकाइयाणं त उकाइयाय सव्वसरीरा भागियव्वा । वाउकाइयाणं भंते! केवइया
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[श्रीमदनुयोगदारसूत्रम्] ओरालियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-बद्ध ल्लया य मुक्केल्लया य, जहा पुढविकाइयाणं ओरालियसरीरा तहा भाणियव्वा, वाउकाइयाणं भंत ! केवइया वेउव्वियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तजहा-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य, तत्थ ण जे ते बदल्लया त णं असंखिजा समए २ अवहीरमाणा २ खेत्तपलिओवमस्स असंखिजइभागमेत्तेणं कालेणं अवहोरति नो चेव णं प्रवहिया सिया, मुक्केल्लया वेउव्विय. सरीरा माहारगसरीरा य जहा पुढविकाइयाण तहा भाणियव्वा, तेअगकम्मगसरीरा जहा पुढविकाइयाणं तहा भाणि यव्वा । वणस्सइकाइयाणं ओरालियवेउव्विय
आहारगसरीरा जहा पुढविकाइयाणं तहा भाणियव्वा, वणस्सइकाइयाणं भंते ! केवइया छतेअगसरीरा एण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-बदल्लया य मुकल्लया य, जहा ओहिआ तेअगकम्मसरीरा तहा वणस्सइकाइयाण वि तेअगकम्मगसरीरा भाणि यव्वा ।
पदार्थ- पुढ वकाइयाणं भंते ! केवइया पोरालियसरीरा परणता ? ) हे भगवन् ! पृथिवीकायके औदारिक शर र कितने प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं ? (ोयमा ! दुविहा पण्णता, तंजहा-) हे गौतम ! दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, जैसे कि(बदल्लया य) बद्ध शरीर और (मुक्केल्लया य,) मुक्त शरीर, एवं जहा श्रोहिया पोरालियसरीरा) इसोप्रकार जैसे औधिक औदारिक शीरों का वर्णन किया गया है (तहा भाणिपवा,) उसी प्रकार कहना चाहिये । (पुःविकाइया भंते ! केवइया वेर० प. ?) हे भगवन्! पृथिवी कायिक जीवों के वैक्रिय शरीर कितने प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं ? (गोयमा ! दुविहा पएणत्ता, तंजहा-) हे गौतम ! दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, जैसे कि- महल्लया य ) बद्ध वैक्रिय शरीर और (मुकल्लया य, मुक्त वैक्रिय शरीर, (तस्य पं जे ते बहल्लया) उन दोनों में जो बद्ध शरीर हैं, (ते णं नस्थि,) वे तो नहीं होते,
ॐ 'तेगकम्मसरीरा' पा० ।
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[ उत्तरार्धम् ]
१४१
और ( मुक ेललया ) मुक्त वैक्रिय शरीर, (जहा श्रोहियाणं श्रोरा लियसारांश ) जैसे औधिक दारिक शरीर होते हैं, ( तहा) उसी प्रकार (भाणियव्या ) कहना चाहिये, (आहारगसरीराव) आहारक शरीर भी ( एवं चेत्र) इसो प्रकार (भाणिया ।) कहना चाहिये (तेगकम्मसरीरा) तेजस और कार्मण शरोर ( जहा एएस चेत्र ) जैसे इनके (ओरालि यसरीरा ) - औदारिक शरीर होते हैं ( तहा भाणियत्रा, ) उसी प्रकार कहना चाहिये । जहा पुढवि काइयाणं) जैसे पृथिवोकाय के शरीर होते हैं, ( एवं ) इसी प्रकार ( श्राकाश्याणं सेकाइ या य ) काय और अग्निकाय के ( सव्वसरीश भाणिव्वा । ) सभी शरीर कहने चाहिये | (बाउकाइयाणं भंते !) हे भगवन्! वायु कायके (कंवइया) कितने (ओरालियसरी पत्ता ?) प्रकार से औदारिक शरीर प्रतिपादन किये गये हैं ? (गोयमा !) हे गौतम! (दुविहा पणत्ता ) दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, (तंजह -) जैसे कि( बदलाय मुक्केल्लया य) बद्ध और मुक्त, (जहा पुढाकाइया) जैसे पृथिवीकायिकों के ( श्री लिमसरीश ) औदारिक शरीर होते हैं ( तहा भारिया ) उसी प्रकार कहना चाहिये, (वाकाइयाणं ते!) हे भगवन् ! + वायुकायिकों के (कंवइया) कितने ( वेडत्रियसरीश पण्णत्ता ? ) वैक्रिय शरीर प्रतिपादन किये गये हैं ? ( गोयमा ! ) हे गौतम !
+ अन्य प्रकार से भी बायु कायके बद्ध वैक्रिय शरीर प्रतिपादन किये गये हैं, जैसे किचतुर्विधा वायवः सूक्ष्मा अपर्याप्ताः पर्याप्ताश्च वादरा अपयशाः पर्याप्ताश्च तत्राराशित्रये प्रत्येकं ते असंख्येयोकाकाशप्रदेशप्रमाण वै. कयलब्धिशून्याश्च, बादरपर्याप्तास्तु सर्वेऽपि प्रतरासंख्येयभागवर्तिन एव न शेषाः येषामपि च वैकिलब्धिस्तेयपि मध्येऽसंख्यास भागवर्तिन एव बद्दवैक्रियशरीराः पृच्छासमये प्राप्यन्ते नापरे, तो वयमन्येवैषां बद्दवैकियशरीराणि भवन्ति नाविकानीति, श्रत्र केचिन्मन्यन्ते ।
ये केचन वान्ति वायवस्ते सर्वेऽपि वैकियशरीरे वर्तन्ते, तदन्तरेण तेषां चेष्टाया एवाभावात, सच न घटते, यतः सर्वस्मिन्नपि लोके यत्र कचित शुपिरं तत्र सर्वत्र चला वायवो नियमात् सन्त्येव, यदि च ते सर्वेऽपि वैक्रियशरीरिणः स्युस्तदा बडवैक्रियशरीराणि प्रभूतानि प्राप्नुवन्ति न तु यथोक्तमानान्येवेति, तस्मादवैक्रियशरीरिणोऽपि वान्ति वायवः, उक्त च
" श्रथ गं भंते! ईसि पुरे वाया पच्छावाया मन्दवाया महावाया वायंति ? हंता श्रत्थि, कया णं भंते ! जाव वायन्ति ? गोयमा ! जया गं वाड्याए आदारियं शेयर, जयागं जाव वाउयाए उत्तरियं यई, जयाणं वाउकुमारा वाउकुमारीश्रो वा अप्पणी वा परस्स वा तदुभयस्स वा अट्ठाए उदीरंति, तया गं ईसि जाव वायंति ।"
'श्राहारियं रीय' त्ति री रीतिः स्वभाव इत्यर्थः, तत्यानतिक्रमेण यथा रीतं रीयते
गच्छति यदा स्वाभाविकौदारिकशरीरगत्या गच्छतीत्यर्थः, 'उत्तर किरिय' ति उत्तरा - उत्तर
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
(दुवा पत्ता) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा ) जैसे क- (बद्ध ल्लया य) द्ध और (मुक्क ेल्लया य) और मुक्त, (तत्थ णं जे ते ) उन दोनों में जो वे बद्दल्लया) बद्ध शरीर हैं (ते णं असंखिज्जा) वे असंख्येय हैं, (समए २ समय २ में ( वही रमाणा २ ) अपहरण करते हुए (खेत्तपत्तिश्रोत्रमस्स) क्षेत्र पल्योपम के ( श्रसंखिज्जइ भागमेत्तेणं कालें ) * असंख्येय भाग मात्र काल से (श्रीति) अपहरण होते हैं, लेकिन (नो चेत्र सं यत्रहिया सिया) शायद ही किसी ने अपहरण किये हों, और (मुक्त ल्लया वेउच्चियसरीश श्राहारगसरीरा य) मुक्त वैकिय शरीर और आहारक शरीर ( जहा पुढविकाइयां ) जैसे पृथिवीकायिकों के होते हैं ( तहा भाणियव्वा) उसी प्रकार जानना चाहिये, तथा ( तेयगकम्मग सरीश ) तैजस और कार्मण शरीर ( जहा पुढविकाइयाणं ) जैसे पृथिवीकायिकों के होते हैं ( हा भाणियव्वा, ) उसी प्रकार इनके भी जानना चाहिये । तथा ( इकाइयां ) वनस्पतिकायिकों के ( श्रोर लियवेडब्बिय श्राहारगसरीरा ) श्रदारिक वैक्रिय और आहारक शरीर ये तोनों (जहा पुढविकाइयां ) जैसे पृथिवीकायिक जीवों के होते हैं ता भाणियब्बा) उसी प्रकार कहना चाहिये, फिर (वएस्सइकाइयां भंते !) हे भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीवों के (केवइया तेयगतरोरा पत्ता ? ) कितने तैजस शरीर प्रतिपादन किये गये हैं ? (गोवमा ! दुविहा पत्ता, जहा) हे गौतम! दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, जैसे कि - (बई ल्या य) बद्ध तैजस शरीर और (मुकल्याय.) मुक्त तैजस शरीर, किन्तु ( जहा श्रोहिया ) जैसे औधिक ( तेयसकरममसरा ) तेजस और कार्मण शरीर होते हैं ( हा वणम्सइकाइया ) उसी प्रकार बनस्पति कायिक जीवों के ( तेगकम्मगसरीरा भागियच्या, ) तैजस और कार्मण शरीर कहना चाहिये ।
भावार्थ- पृथिवीकाय काय और तैजसकायादि के जो श्रदारिक शरीर हैं वे औधिक श्रदारिक शरीरोंके समान जानना चाहिये । तथा इनके बद्ध वैक्रिय और श्राहारक शरीर तो होते ही नहीं, मुक्त प्राग्वत् ही हैं, तथा तैजस और
वैकियशरीराश्च या गतिलक्षणा क्रिया यत्र गमने तदुत्तरक्रियां तव्यथा भवतीत्येवं यदा रीयते तदेवमत्र वातानां वा प्रकारत्रयं प्रतिपादयता स्वाभाविकमपि गमनमुत्तम् | तो वैक्रियशरीरिण एव ते बान्तीति न नियम इति ।
* क्ष ेत्रपल्योपम के असंख्येय भाग में जितने श्राकाशास्तिकाय के प्रदेश होते हैं, उतने समयों से अपहरण होते हैं, अर्थात क्षेत्रपल्योपम के असंख्येय भागके प्रदेशों की राशि के तुल्य च शरीर हैं ।
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[ उत्तरार्धम]
१४३ कार्मण शरीर भी पूर्ववत् जानना । अतः वायुकायके औदारिक शरीर तो पृथ्वीकायके तुल्य ही हैं, लेकिन वैक्रिय शरीर क्षेत्र पल्योपम के असंख्येय भाग में होते हैं, मुक्त पूर्ववत् ही है । श्राहारक शरीरोंका, जैसे पृथ्वीकायके वैक्रिय शरीरों का स्वरूप है उसी प्रकार जानना चाहिये । तैजस और कार्मण शरीरों का वर्णन पृथ्वीकाय के शरीरोंके सदृश जानना चाहिये । तथा बनस्पतिकाय के औदारिक, वैक्रिय, और आहारक शरीर पृथ्वीकायके जीवों के शरीरो के तुल्य हैं, और तैजस कार्मण शरीरों का स्वरूप औधिक के अनुसार जानना चाहिये, इस प्रकार पांच स्थावरों के शरीरों की व्याख्या सम्पूर्ण हुई । अब विकलेन्द्रिय जीवों के शरीरों का वर्णन किया जाता है -
किकलन्द्रियादि के ज्ञारीर ।
बेइंदियाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पएणत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा बद्देल्लया य मुकल्लया य, तत्थ णं जे ते बदल्लया तेणं असंखिज्जा असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणीअोसप्पिणीहि अवहीरंति कालो, खेत्तो असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखिज्जइभागो, तासिणं सेढीणं विक्खंभसूई असंखेजाओ जोअणकोडाकोडोओ असंखिजाई सेढीवग्गमूलाई बेइंदियाण ओरालियबदल्लएहिं पयरं अवहीरइ असंखेजाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं कालओ खेत्तओ अंगुलपयरस्स श्रावलियाए असंखेजह. भारपडिभागेणं, मुक्केल्लया जहा ओहिओ ओरलिप्र. सरीरो तहा भाणियव्वा, वेउव्यिाहारगसरीरा बद्ध. ल्लया नत्थि, मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणि अव्वा, तेयगकम्मसरीरा जहा एएसिं चेव ओरालिअसरीरा तहा भाणियव्या, जहा बेइंदियाणं तहा तेइंदियचउरिदियाणवि भाणियब्धा । पंचेंदियतिरिक्ख
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१४४
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] जोणियाणवि ओरालियसरीरा एवं चेव भाणियब्वा, पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवइया वेउव्वियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविह। पण्णत्ता, तंजहा - बल्लया य मुक्केल्लया य, तत्थ गं जे ते बद्धल्लया तेणं असंखिजा असंखिजाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालश्रो खेत असंखिज्जाओ सेढीओ पयरस्स संखिज्जइ. भागो, तासि णं सेढी विक्खिंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखिज्जइभागो, मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया तहा भाणियव्वा, आहारगसरीरा जहा बेइंदियाणं तेकम्मगसरीरा जहा ओरालिया ।
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पदार्थ – (बेदियाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा परणता ? ) हे भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों के औदारिक शरीर कितने प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं ? (गोयमा ! दुबिहा पत्ता.) हे गौतम! दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, (तंत्रहा-) जैसे कि(ब ेल्लया यमुकल्या य) बद्ध और मुक्त, (तत्थ गं जे ते बद्धलया) उनमें जो वे बद्ध श्रदारिक शरीर हैं (ते णं असं खिजा ) वे असंख्येय हैं, काल से इसका प्रमाण यह है कि ( संखिजाहिं ) असंख्येय (उस्सप्पिणीओसप्पिणी हिं) उत्सपिसी और अब सप्पिणियों के (श्रीरंग कालो, ) काल से अपहरण होते -निकाले जाते हैं, तथा क्षेत्र से प्रमाण है कि- (खेती) क्षेत्र से (ग्रसंखेज्जाश्रो सेटीओ) असंख्येय श्रेणियों के तुल्य हैं, जो कि ( परस्स श्रसंखेजइ भागो) + प्रतर के असंख्यातवें भाग में हों । ( तासिं सेढीं )
-
यह
* उन श्रेणियोंके जितने प्रकाश प्रदेश हैं उतनेही द्वीन्द्रिय जीवोंके बद्व श्रदारिक शरीर होते हैं ।
+ श्र ेणियों की जो राशि हैं उसमें सत्कल्पनया असंख्येय वर्ग मूल हैं, लेकिन सत्कल्पना से यदि ६५५३६ प्रदेश मान लिये जायँ तो इसका प्रथम वर्ग मूल २५६ होता है, क्यों कि २५६ × २५६ = ६५५३६ होते हैं। इसी प्रकार द्वितीय वर्ग मूल १६, तृतीय ४ र चतुर्थ २ ये चारों ही कल्पना से असंख्येय प्रदेश रूप हैं तथा इन सब का योग करने से २४६ + १६४ +२=२७८ हुए, अर्थात इतने प्रदेशों की एक विष्कम्भ सूचि होती है ।
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[ उत्तरार्धम् ] उन श्रेणियों को ( विक वभसूई ) विष्कम्भसूचि (असंखे जाओ) असंख्येय (जोमणकोडाकोडीओ) क्रोडाक्रोड योजन के प्रमाण है, जो कि (असंखेजाई) असंख्येय (सेढीवामूलाई,) श्रेणियों के वर्गमूल के समान है।
(*इंदियाणं ) द्वीन्द्रिय जीवों के (ओरालियबदल्लएहिं) बद्ध औदारिक शरीरों से (पयरं अवहीरइ) प्रितर अपहरण किया जाता है (प्रासंखिजाहि) असंख्येय (उस्सप्पिणोश्रोसप्पिणीहिं काल मो) उत्सर्पिणी और अवप्पिणियों के काल से, (खेत्तश्री क्षेत्र से (अंगुलपयरस्स) प्रमाणांगुल प्रतर का (प्रावलियाए) श्रावलिका के (प्रसंखिजइभागपदिभागेएं,) असंख्यातवें भाग के अंश से ( मुक्केल्लया ) मुक्त औदारिक शरीर (जहा) जैसे (ोहिश्रा ओरालियसरीरा) औधिक औदारिक शरीर होते हैं (तहा) उसी प्रकार (भाणियया) कहना चाहिये । तथा-( वेउन्धि यपाहारगतीरा बल्लया ) बद्ध वैक्रिय
और आहारक शरीर (नत्थि) नहीं होते । (मुकल्लया) मुक्त (जहा) जिस प्रकार (ोहिश्रा ओरालिअसरीरा) औधिक औदारिक शरोर होते हैं ( तहा भाणि ग्रया, ) उसी प्रकार कहना चाहिये, और ( ते अगकम्मगसर्गरा ) तैजस तथा कार्मण शरीर ( जहा ) जिस प्रकार (एएसिं चेव) निश्चय ही इनके (ोरालिअसरांग, औदारिक शरीर होते हैं (तहां) उसी प्रकार (भाणियया ।) कहना चाहिये।
*-इदानी प्रस्तुतशरीरमानमेव प्रकारान्तरेणाह'-इंदियाणं मोरालियसरीरेहिं बढल्लएहि, मित्यादि, द्वीन्द्रियाणां यानि वद्वान्यौदारिकशरीराणि तैः प्रतरः सवोऽप्यपहियते, कियता कालेनेत्याह असंख्येयोत्सपिण्यवसर्पिणीभिः, केन पुनः ? क्षत्रप्रविभागेन कालपविभागेन च, एतावता कालेनायमपहियत इत्याह-अंगुलप्रतरलक्षणस्य क्षेत्रस्य आवलि कालक्षणस्य च कालस्य योऽसंख्येयभागरूप: प्रविभागः-अंशस्तेन । इदमुक्त' भवति-या कैकेन द्वीन्द्रियशरीरेण प्रतरस्यैकैकोऽङ्गलासंख्येयभाग एकै केनावलिकाऽसंख्येयभागेन क्रमशोपहियते तदाऽसंख्येयोत्सपिण्यवर्षिणीभिः सर्वोऽपि प्रतरो निष्ठां याति, एवं प्रतरस्यैकैकस्मिन्नङ्गुलासंख्येयभागे एकैकेनावलिकाऽसंख्येयभागेन प्रत्येक क्रमेण स्थाप्यमानानि द्वीन्द्रियशरीराण्यसंख्येयोत्सपिण्यवसर्पिणीभिः सर्वं प्रतरं पश्यन्तीत्यपि दष्टव्यम्, वस्तुत एकार्थत्वादिति ।-इसका भावार्थ पदार्थ में भागया है।
+ अर्थात असंख्येय काल चक्रों से उस प्रतर के अाकाश-प्रदेश अपहरण किये जाते हैं।
क्षेत्र से प्रमाणांगुल के असंख्येय भाग के और काल से आवलिका के असंख्येय भागके अंश से अपहरण करें तो असंख्येय कालचक्रों से वे प्रतर निर्लेप होते हैं अर्थात उतने द्वीन्द्रिय जीव हैं । अथवा उक्त प्रमाण से यदि उसी प्रतर में द्वीन्दिय जीवों को स्थापन करें तो भी पोक्त कल्पित समय लगता है।
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१४६
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] (*जहा वेईदियाणं) जिस प्रकार द्वीन्द्रियों के बद्ध औदारिक शरीर होते हैं (तहा) उसी प्रकार (तेइंदिचयउरिंदियाण वि) त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रय के भी (भाणियब्बा) कहना चाहिये।
( पंचेंदियतिरिक्खजोणियाण वि) पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिकों के भी (प्रोगेलिअसरीरा) औदारिक शरीर ( एवं चेत्र ) निश्चय ही इसी प्रकार ( भाणियव्या ) कहना चाहिये, (पंचिंदिअतिरिक्खजोणियाणं भंते ! ) हे भगवन् ! तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय जीवों के ( केवइया वेउचियसरीरा परणत्ता ? ) कितने प्रकार से वै क्रय शरीर प्रतिपादन किये गये हैं ? ( गोयना ! दुविहा पएणता, ) हे गौतम ! दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, (तंजहा-) जैसे कि-(बहल या य ) बद्ध और ( मुक्कलया य,) मुक्त । (तत्थ णं जे ते) उन में जो वे ( बदल्लया ) बद्ध हैं ( ते णं ) वे (असंखिजा) असंख्येय हैं, क्यों कि(असंखि जाहिं ) असंख्येय ( उस्सप्पिणीअोसाप्पणीहिं ) उत्सर्पिणी और अवसर्पिणियों के ( अबहीरंगते कालो ) काल से अपहरण होते हैं, तथा-(खेत्तो) क्षेत्र से (असंखिजात्रो) असंख्येय (सेदीओ) श्रेणियां हैं, जो कि (पयररस असंखिज इभागो,) प्रतर के असंख्यातवें भाग में है, ( तासिणं सेढीणं ) उन श्रेणियों की (विक्खंभसूई) विष्कम्भसूचि (अंगुलपढमवगमूलस्स) प्रमाणांगुल के (असंखिजइभागो,)*असंख्यातवें भाग की होती है, (मुकल्लया) मुक्त ( जहा ) जिस प्रकार (ओहिआ श्रोगलिया) औधिक औदारिक शरीर होते हैं (तहा भाणिवा, ) उसी प्रकार कहना चाहिये (आहारयसरीग) आहारक शरीर (जहा घेईदियाणं) द्वीन्द्रिय के समान जानना, (तेगकम्मगसरोरा) तैजस और कार्मण शरीर (जहा पोरालिया।) औदारिक जैसे होते हैं।
*-इह सामान्येनासंख्येयतामात्राव्यभिचारतस्त्रीन्द्रियादीनामतिदेशो मन्तव्यो न पुनः सर्वथा परस्परं संख्यासाम्यमेतेषाम्-“सामान्यातिदेशो विशेषानतिदेश” इति न्यायात् । अतः उक्तम्
"एएसिणं भंते ! एइंदियवेइंदियतेइंदियचउगिदियपंचिंदिगणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेस।हिया वा ? गोयमा ! सव्वावा पंचिदिया चरिंदिया विसेसाहिया तेई. दिया विसेसाहिया इंदिया विसेसाहिया एगिदिया अणंतगुणा"
एतेषां भदन्त ! एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियाणां कतरे कतरेभ्यः अल्पा वा बहवो वा तुल्या वा विशेषाधिका वा ? गौतम ! सर्वस्तोका पञ्चेन्द्रियाः चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः श्रीन्द्रिया विशेषाधिका द्वीन्द्रिया विशेषाधिका एकेन्द्रिया अनन्तगुणाः ।
* 'तासां च श्रेणीनां विष्कम्भसचिरमुलप्रथमवर्गमूलस्यासंख्येयभागः' इति वचनात् । हन श्रोणिों की विष्कम्भसूचि प्रमाणाङ्गुल के असंख्यातवें भाग में होती है।
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[ उत्तरार्धम् ]
१४७
भावार्थ - विकलेन्द्रियों के श्रदारिक शरीर दो तरह के होते हैं. जैसे कि और मुक्त | इनके बद्ध शरीर श्रसंख्येय काल चक्रों की समय की राशि के तुल्य तथा क्षेत्र से प्रतर के श्रसंख्यातवें भाग में आकाश प्रदेश की जितनी असंख्येयेणियां हैं, उनकी विष्कम्भसूचि के तुल्य हैं, जो कि असंख्येय योजन कोटाकोटि प्रमाण हो ।
सत्कश्पनया असंख्येय प्रकाश प्रदेशों की एक भणि होती है, लेकिन कल्पना से यदि ६५५३६ प्रदेश कल्पित कर लिये जायं तो इसका प्रथम वर्गमूल २५६, द्वितीय १६, तृतीय ४, और चतुर्थ २ है । इनका योग करने से २७८ होते हैं । सत्कल्पना से असंख्येय श्राकाश प्रदेश होते हैं । इस लिये इतने आकाश प्रदेशों की एक विष्कम्भसूचि जानना चाहिये ।
अथवा बद्ध श्रदारिक शरीरों से यदि प्रतर के प्रदेश अपहरण किये जायं तो असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणियों के काल से अपहरण होते हैं, परन्तु क्षेत्र से प्रमाण गुल प्रतर का श्रावलिका के असंख्येय भाग के अंश से यदि उस के प्रदेश अपहरण करें तो असंख्येय काल चक्र लग जाते हैं । इसी तरह यदि उक्त प्रमाण से प्रतर में स्थापन करें तब वह पूर्ण होती है, अतः इतने ही बद्ध शरीर होते हैं । मुक्त शरीर पूर्ववत् जानना । वैक्रिय और आहारक शरीर तो इनके होते ही नहीं, लेकिन मुक्त पूर्ववत् जानना चाहिये । तैजस और कार्मण शरीरों का वर्णन, जैसे श्रदारिक शरीरों का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार जानना चाहिये |
阿
पञ्च ेन्द्रिय जीवों व श्रदारिक शरीर तो प्राग्वत् हैं, लेकिन बद्ध वैक्रिय शरीर असंख्य काल चक्रों से अपहरण किये जाते हैं। क्षेत्र से प्रतर के असंयेय भाग में जितनी श्राकाश की असंख्येय श्रेणियां हैं, उनकी विष्कम्भसूचि करने से प्रथम वर्गमूल के असंख्येय भाग मात्र में होते हैं, अर्थात् प्रथम वर्ग मूल के असंख्यातवें में भाग में होते हैं। मुक्त पूर्ववत् हैं । पुनः आहारक शरीर जैसे द्वीन्द्रियों के वर्णन किये गये हैं, उसी प्रकार जानना चाहिये । तैजस श्रीर कार्मण शरीरों की व्याख्या जैसे पूर्व श्रदारिक शरीरों की प्रतिपादन की गई है, उसी प्रकार जानना चाहिये ।
अब इसके अनन्तर मनुष्य, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों के शरीरों के विषय में कहते हैं
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१४८
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
मनुष्यादि शेष दण्डकों के शरीर ।
मस्साणं भंते! केवइया ओरालियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - बल्लया य मुक्क ेल्लया य, तत्थ गं जे ते बल्लया तेणं सिघ्र संखिजा सिय असंखिजा जहराणपए संखेज्जा, संखिज्जाओ कोडाकोडीओ एंगुणती ठाणाई तिजमलपयस्स उवरिं चउजमलपयस्स हेट्टा, हव गं छट्टो वग्गो पंचमवग्गपडुप्पण्णो, महव णं छण्उइछेअरणगदायिरासी, उक्कोसपए असंखिजा, श्रसंखेजाहिं उस्सप्पिणीयोसप्पिणीहिं अवहीरंति कालभो, खेत्तम उक्कोसेणं रूवपक्खित्तेहिं मणुस्सेहिं से ढी airs [xalसिणं सेढोए कालखेत्तहिं अवहारो मग्गिजइ] कालो असंखेजाहिं उस्सप्पिणीयोसप्पिणोहिं, खेत्तत्रो अंगुलपढमवग्गमूलं तइयवग्ग मूल पडुप्पराणं, मुक्कल्लयां जहा प्रोहिया मोरालिया तहा भारिणयव्वा, मगुस्साणं भंते ! केवइया वेउव्वियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा परत्ता तंजहा - बद्धल्लया य, मुक्केल्लया य, तत्थ गं जे ते बद्धल्लया ते गं संखिज्जा समए २ भवहीरमाणा २ संखेज्ज ेणं काले अवहीरंति, नो चेत्र णं अवहिया सिया, मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालियाणं मुक्क ेल्लया तहा भाणियव्वा, मणस्साणं भंते ! केवइयो आहारगसरीरा पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहाबद्ध ल्लया य मुक्केल्लया य, तत्थ णं जे ते बद्धल्लया तेणं
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* इत्यत्र 'उकोसपए' इत्यन्यत्र ।
x एतद्वाक्यं क्वचिन्नोपलभ्यते, तथापि पाठान्तरत्वादत्र योजितः ।
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[उत्तरार्धम् ]
१४९ सिम अस्थि सिम नत्थि, जइ अस्थि जहणणेणं एकको वा दो वा तिरिण वा उक्कोसेणं सहस्सपुहत्तं, मुक्कल्लया जहाँ मोहिया, तेयगकम्मगसरीरा जहा एएसिं चेव मोरालिया तहा भाणियव्वा ।
वाणमंतराणं भोरालियसरीरा जहा नेरइयाणं, वाणमंतराणं भंते ! केवइया वेउव्वियसरीरा पण्णत्ता ? गो. यमा ! दुविहा पण्णत्ता, संजहा-बद्ध ल्लया य मुक्केल्लया य, तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं असंखिज्जा, असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहि अवहीरंति कालो, खेत्तो असंखिजाओ सेढीओ पयरस्स असंखिज्जइभागो तासि णं सेढीणं विक्खम्भसूई संखेज्जजोयणसयवग्गपलिभागो पयरस्स. मुक्कल्लया जहा ओहिआ ओरालिश्रा तहा भाणियव्वा, आहारगसरीरा दुविहा वि जहा असुरकुमाराणं तहा भाणियव्वा, वाणमंतराणं भंते ! क. वइया तेयगकम्मगसरीरा पण्णत्ता? गोयमा! जहा एएसि चेव वेउव्वियसरीरा तहा तेयगकम्मगसरोरा भाणियव्वा, [जोइसियाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पण्णता ? गोयमा! दुविहां पण्णत्ता, संजहा-जहा नेरयाणं तहा भाणियव्वा] जोइसिपाणं भंते ! केवइया वेउव्वियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-बदल्लया य मुक्केल्लया य, तत्थ णं जे ते बद्देल्लया [ते असंखेज्जा असंखेजाहिं उस्सप्पिणीोसप्पिणीहिं अवहीरंति कालो, खेत्तो असंखेज्जामो सेढीओ पयरस्स असंखेज्जइभागो] तासि णं
• इत्यधिकम् ।
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१५०
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम्] सेढीणं विक्खम्भसूई बेछप्पण्णंगुलसयवग्गपलिभागो पयरस्स, मुक्कल्लया जहा ओहिया ओरालिया तहा भाणियव्वा, आहारगसरीरा जहा नेरइयाणं तहा भाणियव्वा, तयगकम्मगसरीरा जहा एऐसिं चेव वेउव्वियसरीरा तहा भाणियव्वा, वेमाणियाणं भंते ! कवइया ओरालियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहा नेरइयाणं तहा भाणियव्वा, वेमाणिप्राणं भंते ! केवइया वेउव्वियसरीरा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-बदल्लया य मुक्कल्लया य, तत्थ णं जे ते बद्ध ल्लयो तेणं असंखिज्जा असंखेज्जाहि उस्सप्पिणीओसप्पिणीहि अवहीरंति कालो खेत्तो असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखेज्जइभागो तासिणं सेढीणं विक्खम्भसूई अंगुलबीयवग्गमूलं तइयवग्गमूलपडुप्पण्णं अहव णं अंगुलतइयवग्गमूलं घणप्पमाणमेत्ताओ सेढोओ, मुक्कल्लया जहा ओहिया ओरालि आणं तहा भाणियव्वा, आहारगसरोरा जहा नेरइयाणं, ते अगकम्मगसरीरा जहा एएसि चेव वेउव्वियसरीरा तहा भाणियव्या, से तं सुहुमे खेत्तपलिओवमे, से तं खेत्तपलिअोवमे, से तं विभागनिप्फरणे, से तं कालप्पमाणे । (सू०१४५)
पदार्थ-(मणु-साणं भंते ! केवइया ओगलि यसरीग पएणता ? ) हे भगवन् ! * मनुष्यों के औदारिक शरीर कितने प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं ? (गोयमा !
* मनुष्यों के दो भेद हैं, संमच्छिम और गर्भन । स्त्री श्रादि के गर्भ से उत्पन्न होने वाले को गर्भन' और वातपिशादि से उ पत्र होने वाले को 'संच्छिम' कहते हैं । गर्भन संख्येय और समूच्छिम उत्कृष्ट से असंख्येय होते हैं।
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[उत्तरार्धम्]
१५१ दुविहा परणत्ता,) हे गौतम ! दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तंजहा-) जैसे कि(बदल्लया य) बद्ध और (मुकल्लया य, ) मुक्त, (तत्थ णं जे ते बदल्लया) फिर उन में जो वे बद्ध शरीर हैं, (तेणं सिय संखेजा) वे कदाचित् ‘ख्येय हों और (सिय असंखेजा,) कदाचित् असंख्यय भी हों, इसका प्रमाण यह है कि (जहन्नपए संखे जा,) जघन्य पद से वे संख्येय हैं, क्योंकि--( संखेजायो ) संख्यय (कोडाकोडीग्रो) कोटाकोटि प्रमाण है, अथवा (एणुणतीसं ठाणाई) २६ अंक स्थान प्रमाण जघन्य पद वाले मनुष्य होते हैं (तिजमलपयस्स उवरिं ) तीन * यमल पद के ऊपर और ( चउ जमलपयस्स हेटा, ) चार यमल पद के नीचे, (अहव णं) अथवा (छरणइछेवणागदायिरासी) ९६ छेदनकदायी राशि, (उकोसपए) उत्कृष्ट पद से ( असंखेजा, ) असंख्यय हैं, (असंखे जाहिं) असंख्येय (उस्स. प्पिणीयोसप्पिणीहिं) उत्सर्पिणी और अवसपिणियों के ( अबहीरंति कालो) काल से अपहरण किये जाते हैं, (खे तो) क्षेत्र से (उकोसेणं स्वपक्खित्तेहिं मणुस्सेहिं) उत्कृष्ट एक मनुष्य के रूप प्रक्षेप करने से ( सेढी अवहीरइ ) श्रोणि अपहरण हो जाती है [ताप्तिणं सेढीए) उन श्रेणियों का (कालखेत्तो, काल और क्षेत्र से (बहारो मरिजा,) अपहरण किया जाया जाता है, जैसे कि- कालो) काल से (असंखिज्जाहि) असंख्येय (उस्सप्पिणीश्रोसप्पिणोहि) उत्सर्पिणी और अवसर्पिणियों से, (खेत्तो) क्षेत्र से (अंगुलपढमवगमूलं) अंगुल प्रमाण क्षेत्र के प्रथम वर्ग मूल को तइयवग्गमूलाडुप्परणं,) तीसरे वर्ग मूल के साथ x गुणा करने से, तथा (मुकल्लया) मुक्त औदारिक शरीर (जहा) जैसे (ोहिया ओरालिया ) औदारिक शरीर होते हैं ( तहा भाग्णियव्या, ) उसी प्रकार कहना चाहिये । ( मणुस्साणं भंते ! ) हे भगवन् ! मनुष्यों के ( केवइया वेउब्वियसरीरा पएणत्ता ? ) कितनी तरह के वैक्रिय शरीर प्रतपादन किये गये है ? (गोयमा ! दुविहा पएणत्ता,) हे गौतम ! दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, (तंजहा )जैसे कि-(बद्ध ल्लया य) बद्ध और (मुकल्लया य,) मुक्त, ( तत्थ णं जे ते ) उन में वे (बदल्लया) बद्ध वैक्रिय शरीर हैं (ते एवं संखिज्जा) वे संख्येय हैं और उनका (समए २ अबहीरमाणा २) समय २ में अपहरण करने से (संखेजणं कालेणं) संख्यय कालसे (अवहीरंति) अपहरण
+ जिस समय संमृच्छिमों का अन्तर काल होता है उसी समय मनुष्य संख्येयक पद वाखे होते हैं, अन्य काल में नहीं होते ।
क्रोड की संख्या को कोड से गुणा करने पर कोटाकोटि होते हैं । + पाठ २ अंकों का एक यमल पद होता है ।
x पहिले और तीसरे वर्ग के साथ गुणा करने पर जी संख्या प्राप्त हो उतनी ही वह शरीर, गर्भज और संच्छिम मनुष्यों की संख्या होती है ।
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१५२
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] होते हैं, परन्तु (नो चेत्र णं अबहिया सिया) किसी ने *अपहरण नहीं किये, (मुकल्लया) मुक्त वैक्रिय शरीर ( जहा श्रोहिया ) जैसे औधिक श्रोरालियाणं) औदारिकों के (मुक्केल्लया ) मुक्त शरीर होते हैं ( तहा भाणियया, ) उसी प्रकार कहना चाहिये । (मणुस्साणं भंते ! ) हे भगवन् ! मनुष्यों के (केवइया) कितने प्रकार से (आहारगसरीरा पएणत्ता ?) आहारक शरीर प्रतिपादन किये गये हैं ? ( गोमा ! दुविहा परणत्ता,) हे गौतम ! दो प्रकारसे प्रतिपादन केये गये हैं (तं जहा) जैसे कि-(बल्लया य) बद्ध और (मुकल्लया य, ) मुक्त ( तत्य णं जे ते बदल्लया) उनमें जो वे बिद्ध आहारक शरीर हैं (ते णं सिय अत्थि) वे कदाचित् होते हैं (सिय नथि,) कदाचित् नहीं भी होते हैं, (जइ अत्थि) यदि हों तो (जह नेणं) जधन्य से (एको वा) एक अथवा (दो वा तिरिए। वा) दो या तीन या ( उकोसेणं ) उत्कृष्ट से ( सहस्सपुहर्रा,) सहस्रपृथत्व हो, (मुक्केल्लया ) मुक्त(जहा श्रोहिया,) औधिकों के समान होते हैं, (ते अगकम्मगसरीरा) तैजस और कार्मण शरीर जहा ) जैसे । एसिं चेव ) इनके (ओरालिश्रा) औदारिक शरीर होते हैं, (तहा भाणिश्रव्वा, ' उसी प्रकार कहना चाहिये ।
(वाणमंतरा पोरालिअसरीरा) वानभ्यन्तरों के औदारिक शरीर (जहा नेरइयाणं,) नारकियों के समान होते हैं । ( वाणमन्तराणं भंते ! ) हे भगवन् ! वानव्यन्तरों के (केवइया वेउब्वियसरीरा पएणता ?) वैक्रिय शरीर कितने प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं (गोयमा !) हे गौतम ! (दुविहा परणासा,) दो प्रकारसे प्रतिपादन किये गये हैं (तंजहा.)
जैसे कि-(बद्ध ल्लया य) बद्ध और ( मुकल्लया य) मुक्त, (तत्थ हां जे ते) उन में जो वे (बदल्लया) बद्ध शरीर हैं (ते असंखेजा,) वे असंख्येय हैं, क्योंकि (असंखिजाहि) असं ख्येय ( उस्सप्पिणीयोसप्पिणीहिं) उत्सर्पिणी और अवसर्पिणियों के ' अवहीरंति कालो,) काल से अपहरण होते हैं, (खेत्तश्रो) क्षेत्र से (असंखिजाग्रो सेढीओ) असंख्येय श्रेणियां जो कि (पयरस्स असंखिजइभागो) प्रतर के असंख्यातवें भाग में हों, तासिणं सेढोणं) उन श्रेणियों की (विक्खम्भसूई) विष्कम्भसुचि (संखेज जोयणसयवग्गपलिभागो पयरस्स,) प्रतर के संख्येय योजन शत वर्गों की * अंश रूप हो । (मुक्कल्लया) मुक्त वैक्रिय शरीर ( जहा मोहिया मोरालिश्रा ) जैसे औधिक औदारिक शरीर होते हैं (तहा भाणियव्वा, ) उसी प्रकार कहना चाहिये। तथा (आहारगसरीरा दुविहा वि ) दोनों
* सिर्फ उपमालकार दिया गया है। + क्योंकि इनका अन्तर काल होता है
पलिभागो-प्रतिभागः-अंशः । + अथवा उतने हिस्से में एक व्यन्तर स्थापन किया जाय तो सम्पूर्ण प्रतर भर जाता है।
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[उत्तरार्धम् ]
१५३
प्रकार के श्राहारक शरीर ( जहा श्रमुरकुमाराणं ) जैसे असुर कुमारों के होते हैं (तह erferoar | ) उसी प्रकार कहना चाहिये ( ( वाणमंतराणं भंते ! ) हे भगवन् ! वानव्यन्तर देवों के ( केवइया ते अगकम्मसरीरा पण्णत्ता ? ) कितने प्रकार से तैजस और कार्मण शरीर प्रतिपादन किये गये हैं ? (गोयमा !) हे गौतम ! (जहा एएसिं चेव वेन्निय सरीरा) जैसे इनके वैक्रिय शरीर होते हैं ( तहा ) उसी प्रकार (तेश्रगकम्मसरीरा) तैजस और कार्मण शरीर (भाणिवा । कहना चाहिये ।
[ ( जोइसियाणं भंते ! ) हे भगवन् ! ज्योतिषियों के (केवइया श्रोशलिश्रसरीरावear ?) औदारिक शरीर कितने प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं ? (गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता,) हे गौतम ! दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं (तं जहा-) जैसे कि - (जहा नेरइया) जिस प्रकार नारकियों के होते हैं ( तहा भाणियन्त्रा । ) उसी प्रकार कहना चाहिये ।]
( जोइरियाणं भंते !) हे भगवन ! ज्योतिषियों के (केवइया वेव्वियसरी पण्णत्ता ? ) कितने प्रकार से वैकिय शरीर प्रतिपादन किये गये हैं ? ( गोमा ! दुबिहा पता ) हे गौतम ! दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, (तंत्रा-) जैसे कि - ( बद्ध ेल्या य ) बद्ध और (मुकल्या य) मुक्त | ( तत्थ गं जे ते बद्धलेल्या य ) उनमें जो वे बद्ध शरीर हैं (जाव) यावत् (तासि णं सेढी) उन श्रेणियों की (विक्भसूई) विष्कम्भसूचि (वेपणंगुल गपतिभागी परस्स) प्रतर के अंश के २५६ अंगुल वर्ग प्रमाण, (मुक्केल्लया) मुक्त (जहा ओहिश्रा ओरालिया) जैसे औधिक औदारिक शरीर होते हैं, तहा भाणिवा ।) उस प्रकार कहना चाहिये । ( हरयसरीरा ) आहारक शरीर ( जहा नेरइयाणं ) जैसे नारकियों के होते हैं ( तहा भाणिवा, ) उसी प्रकार कहना चाहिये (तेमा कम्मसरीर) तैजस और कार्मण शरीर ( जहा एएपिं चेत्र ) जैसे इनके ( वेडसरी) are शरीर होते हैं (तहा भाक्रिया । उसी प्रकार कहना चाहिये ।
(वेमाणियाणं भंते ! ) हे भगवन् ! वैमानिक देवों के ( केवइआ ओरालि सरीरा पणता ?) कितने प्रकार से श्रदारिक शरीर प्रतिपादन किये गये हैं ? (गोयमा !) हे गौतम ! ( जहा नेरइयाणं ) जिस प्रकार नारकियों के होते हैं ( तहा भाणिवा, ) उसी प्रकार कहना चाहिये, ( तेस्रगकम्मसरीग) तैजस और कार्मण शरीर ( जहा एएसिं
* यथोक्तरीत्या प्रतर के एक २ अंशको ज्योतिषी देव अपहरण करें तो वह सम्पूर्ण अपहरण हो सकता है, अथवा एक २ ज्योतिषी देव उक्त प्रमाण से स्थापन किया जाय तो प्रतर पूरा हो सकती है । और व्यन्तरों से ज्योतिषी देव संख्यातगुणे अधिक होते हैं ।
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१५४
[ श्रीमदनुयोगद्वार सूत्रम् ]
चेत्र) जैसे इनके (वेडव्यियसरी ) वैक्रिय शरीर होते हैं, (नहा भाणिया ।) उसी प्रकार कहना चाहिये ।
( वैमाणियां भंते ! ) हे भगवन् ! वैमानिक देवों के ( केवइया ओरालिसरीरा पणता ?) कितने प्रकार से औदारिक शरीर प्रतिपादन किये गये हैं ? (गोयमा !) हे गौतम ! (जहानेर ) जिस प्रकार नारकियों के होते हैं ( तहा भाणियन्त्रा ।) उसो प्रकार कहना चाहिये । ( वेणियाणं भंते ! ) हे भगवन् ! वैमानिक देवों के (केवइया वेडनियसरीश पण्णत्ता) कितने प्रकार से वैक्रिय शरीर प्रतिशदन किये गये हैं? ( गोयमा !) हे गौतम! ( दुबिहा पत्ता.) दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, (तंजहा-) जैसे कि ~~ ( तया य) बद्ध और (मुल्लया य) मुक्त । (तथं जे ते बद्ध ल्या) उन में जो वे बद्ध शरीर हैं (ते संखिजा) वे असंख्येय हैं, क्योंकि - (संखिजाहिं ) असंख्येय (ह्स्पधिरणीश्रोराप्पिणीहिं) उत्सर्पिणियों और श्रवसपिणियों के (हीरति कालओ) काल से अपहरण होते हैं । (खेती) क्षेत्र से (असंखिजायो नेदीयां) असंख्येय श्रेणियां, जो कि (संभागो) प्रतर के असंख्यातवें भाग में हो, (तासगं सेठों) उन श्रेणियों की (विक्खभसुई) विषम्भसूचि (अंगुलीयन) प्रमाणांगुल के द्वितीय वर्ग मूल को पटुप ) * तृतीय वर्ग मूल के साथ गुणा करने से होती है ( ग्रहवणं) अथवा ( अंगुल ) प्रमाांगुल के तृतीय वर्ग मूल के (घप्पमाम्मेताओं) सिर्फ +घन प्रमाण (सेडीयो ) श्र ेणियां हों, (मुकतया य) मुक्त वैक्रिय शरीर ( जहा ओहिया श्ररातियाणं ) जैसे अधिक श्रदारिक शरीर होते हैं ( तहा भाणिया ।) उसी प्रकार कहना चाहिये । ( ग्राहाय्यसरी ) आहारक शरीर ( जहा नेपइयाणं ) नारकियों के समान होते हैं, (तेाकम्मसरीरा) तैजस और कार्मण शरीर ( जहा एएसिं क्षेत्र) जैसे इनके (वेजियसीरा) वैक्रिय शरीर होते हैं ( तहा मायिना ।) उसी प्रकार कहना चाहिये । ( से तं सुहुमे खेत्तपलिग्रीवमे ) यही सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम है, ( से त खेत्त लियोमे) और यही क्षेत्र पल्योपम है तथा (मं तं पलिओ मे ) यही पस्योपम है और ( तं विभागणिकरणे ) यही विभागनिष्पन्न और ( से तं कालामा ) यही काल प्रमाण | है ( सू० १४४ )
* प्रमाणाकुल प्रतर क्षेत्र की अपेक्षा सकल्पना से असंख्येय श्र ेणियां होती हैं, लेकिन असत्कल्पना के द्वारा यदि २५६ श्रेणियां मान ली जायें तो इसका प्रथम वर्गमूल १६, द्वितीय ४, और तृतीय २ है । अतः द्वितीय वर्ग सूत्र ४ को तृतीय वर्ग मृत २ के साथ गुणा करने पर ४ x २ = = होते हैं । यही प्रमाण विकम्भसूचि का जानना चाहिये ।
+ अर्थात् तीसरे वर्ग मूल को घन रूप करने से २x२x२=८ ही होते हैं । इसलिये यही विकम्भसूचि यहां पर ग्रहण करना चाहिये ।
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[ उत्तरार्धम् ]
१५५
भावार्थ - मनुष्यों के दो भेद हैं, संमूर्छिम और गर्भज । वात पित्तादि से उत्पन्न होने वाले को संमूच्छिम और स्त्री के गर्भ से उत्पन्न होने वाले को गर्भज कहते हैं । उनमें से संमूच्छिम तो कदाचिद् नहीं भी होते। क्योंकि इनकी जघन्य स्थिति एक समय की और उत्कृष्ट अन्तर काल- - चौबीस मुहूर्त्त की होता है । कदाचित् वे उत्पन्न हो जांय तो जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त स्थिति के पश्चात् समं का नाश होना संभव । यदि होवें भी तो जघन्य से एक या दो अथवा तीन, और उत्कृष्ट से असंख्यात तक हो सकते हैं । परन्तु गर्भज तो सदा संख्येय ही होते हैं। असंख्येय नहीं होते। जब संमूच्छिम नहीं होते तब जघन्य पदसे गर्भज ही ग्रहण किये जाते हैं, नहीं तो जघन्य पवर्तित्व ही न होता । तथा वे स्वभाव से संख्येय ही होते हैं । इसी कारण उनके बद्ध शरीर भी सं ये हैं । पुनः इस का विशेष वर्णन करते हैं ।
I
आठ २ अंक के रूपकों का एक २ यमल पद होता है। इसीको सामयिकी संज्ञा जाननी चाहिये । इन्हीं तीन यमल पदों के समाहार को त्रियमल पद कहते हैं । अर्थात् ८ x ३ = २४ चौवीस अंकोंके स्थान रूपको अथवा सौलह श्रंक की अपेक्षा ऊपर के आठ शंकों को त्रियमल पद कहते हैं । इनका भावार्थ एक ही है । इस लिये यमल पद के ऊपर उक्त गर्भज मनुष्य होते हैं । तात्पर्य यह है कि चोवीस अंकों के बाद अन्य पद वाले गर्भज मनुष्यों की संख्या होती है । पर भी होते हैं ?
या चार से आदि लेकर पांच यमल नहीं होते। क्योंकि चार यमल पहाँ के समाहार समूह को चतुर्थ यमल पद कहते हैं । इसलिये बत्तील अंक रूप अथवा चतुर्थ यमल अर्थात् चौवीस
1
क स्थानकों के ऊपर वाले जो अंक रूप हैं उसी को चतुर्थ यमल पद कहना चाहिये | इनका भावार्थ एक हो है । तात्पर्य यह है कि उस चतुर्थ गमल पद के नीचे उनतीस अंक स्थान के, जो आगे कहे जायेंगे, उनमें गर्भज मनुष्यों की संख्या होती है ।
अथवा दो वर्ग जिनका स्वरूप श्रव कहा जायगा, उन ( यमल पदों ) की सामयिकी संज्ञा होती है। इसी तरह तीन यमल पदों के समाहार को त्रियमल पद अर्थात् षट् वर्ग कहते हैं । इसलिये उसके ऊपर तथा चतुर्थ यमल पद अर्थात् ठ वर्ग के नीचे यह मनुष्य संता होती है याने छठे वर्ग के ऊपर
* 'संख्या कोटी कोट्यः' कोटाकोड की संख्या को 'संख्येय' कहते हैं ।
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१५६
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] और सातवें वर्ग के नीचे इन गर्भज मनुष्यों की संख्या प्राप्त होती है। यहां भी रूप के उनतीस अंक जानने चाहिये।
तथा अब छठे वर्ग को पंचम वर्ग से गुणित करें तो प्रस्तुत मनुष्य संख्या लब्ध होती है।
छठा वर्ग और पांचवां वर्ग किसको कहते हैं ?
किसी विवक्षित राशि को उसी राशि के द्वारा गुणा करने से जो गुणनफल आवे, उसको उस राशि का वर्ग' कहते हैं।
जैसे कि-एक का वर्ग एक ही होता है, क्योंकि एक को एक से गुणा करने पर १x१ = १ एक ही होता है। किन्तु वृद्धिका रहितपना होने से इस को वर्ग नहीं कह सकते । इस कारण एक को छोड़ कर दो से गिनती प्रारंभ की जाती है। जैसे कि-दो को दो से गुणा करने पर २४२ = ४ चार होते हैं। यही प्रथम वर्ग है । इसी प्रकार ४ का वर्ग ४४४ = १६, यह द्वितीय वर्ग है । तथा १६ का वर्ग १६४१६ = २५६, यह तृतीय वर्ग है । तथा-२५६ को इसी राशि से गुणा केरने पर चतुर्थ वर्ग को रूप २५६४ २५६ = ६५५३६ निकलता है। जिस का यंत्र यह है
२
५
६
फिर इसी राशि को इसी के साथ गुणा किया जाय । जैसे कि
६५५३६४ ६५५३६ = ४२६४६६७२६६, चार अरब, उनतीस करोड़, उनं श्वास लाख, सरसठ हजार, दो सौ छयानवे । यथा
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[ उत्तरार्धम् ]
" चतारिथ कोडिसया, श्रउणत्तीसं च हुंत्ति कोडीओ ।
५
५.
अडगाव लक्खा, ससद्धिं चेत्र य सहस्सा ॥ १ ॥
दो य लया छनउया, पंचमग्गो इमो विणिहिद्वो ।"
अर्थात् चार सौ उनतीस क्रोड़, उनचा सलाख सणसठ हजार दो सौ
छयानवे, वह पंचम वर्ग है
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०
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इसका *यंत्र निम्न लिखित है:
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* यह गणना और यन्त्रावलि इसलिये दिखलाई गई है कि पाठकों को मनुष्य संख्या अक्षी प्रकार से ज्ञात हो जाय ।
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१५८
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] इस यंत्र की शुद्धि के लिये नीचे का कोष्ठक देखना चाहिये।
इसी राशि को इसी राशिके साथ अर्थात् ४२१४६६७२६६४४.६४६६७२६६ गुणा करने से छठा वर्ग निकलता है। जैसे कि-२८४४६७४४०७३७०.५५१६१६ । इसकी गिनती निम्नलिखित तीन गाथाओं द्वारा की जाती है। जैसे कि
"लखं कोडाकोडी, चउरासीयं भवे सहस्साई। चत्तारि म सत्तवा, हुति सया कोडीकोडीणं ॥ १ ॥ चउयालं लक्खाइ, कोडीणं सत्त चेव य सहस्सा।
तिनि य सया य सत्तरि, कोडीणं हुंति नायव्वा ॥२॥
पंचाणऊह लक्खा, एगावन्नं भवे सहस्लाइ। छस्सोलसोत्तरसया, एसो छट्ठो हवइ वग्गो ॥३॥"
भावार्थ-एक लाख चौरासी हज़ार चार छः सौ सरसठ क्रोडाकोडा, चौवालीस लाख सात हजार तीन सौ सत्तर कोड, पंचानवे लाख इक्यावन हज़ार छः सौ सोलह, यह छठा वर्ग होता है। ..
इसका यंत्र यह है--
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[ उत्तरार्धम् ]
१५९
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इस यंत्र की शुद्धि के लिये निम्न लिखित यंत्र है--
इस छठे वर्ग को पूर्वोक्त पंचम वर्ग के साथ गुणा करने पर जो संख्या प्राप्त होती है, उसमें जघन्य पद वाले गर्भज मनुष्य होते हैं । जैसे
४२६४६६७२६६४१८४४६७४४८७३७०६५५१६१६ = ७६२२८१६२५१४२६ ४३३७५६३५४३९५०३३६ । यह संख्या नीचे के यंत्र से जानना चाहिये
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१६०
[ श्रीमद नुयोगद्वारसूत्रम् ]
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१६१
[ उत्तरार्धम् ] इस यंत्र की शुद्धि के लिये नीचे का यंत्र देखिये
ऊपर दी हुई संख्या को कोडाकोड अथवा और किसी उपाय से नहीं गिन सकते । इस लिये अन्तिम अंक से प्रारम्भ कर शुरू के अंक तक बतलाने के लिये ये दो गाथायें दी जाती है
"छत्तिन्नि तिनि सुन्नं, पंचेव य नव य तिन्नि चत्तारि । पंचेव तिषिण नव पंच सत्त तिन्नेव तिन्नेव ॥ १॥ चउ छ हो चउ एक्को, पण दो छकेकगो य अट्ठव । दो दो नव सत्तेव य, अंकट्ठाणा पण्हुत्ता ॥ २॥" भावार्थ सरल है।
इसलिये यह सिद्ध हुआ कि इन उनतीस अंक वाले रूप में जघन्य पद वाले गर्भज मनुष्य होते हैं।
अब अन्य प्रकार से इसका वर्णन किया जाता है
सब से प्रथम राशि को अर्द्ध करना चाहिये । पश्चात् उस अर्द्ध का भी अर्द्ध करना चाहिये। फिर इसका भी अर्द्ध करना चाहिये । इस अनुक्रम से करते करते यहां तक करना कि जिससे उसके छयानवे हिस्से हो जायें, और अन्त में परिपूर्ण एक रूप रहे, खंडित रूप न हो । उस राशि से गर्भज मनुष्यों की संख्या जाननी चाहिये । वह राशि यही है, अर्थात् जिसके पूर्व उनतीस अंक स्थानक निष्पन्न हुए हो, अन्य कोई राशि नहीं है । इस राशि को छेदन करते हुए-आधी
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२६२
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] श्राधी करते हुए छयानवे छेदन हो जाते हैं और अन्त में परिपूर्ण शेष एक रह जाता है । इसी को छयानवे छेदनक राशि कहते हैं ।
'छेदनक' किस प्रकार से होता है ?
जैसे कि-प्रथम वर्ग के ४ रूप पहिले दिखा चुके हैं। उसी प्रकार छेदन करने के लिये पहिले इसका आधा किया, तब २ हुओ। तदनन्तर इसी का अर्द्ध १ हुश्रा । तात्पर्य यह है कि-प्रथम वर्ग चार रूप के दो छेदनक होते हैं, अर्थात् वही वर्ग दो वार आधे से आधा किया जा सकता है, इल से अधिक वार नहीं । इस लिये इसके दो ही छेदनक हैं । इसी प्रकार द्वितीय वर्ग षोडश रूप में चार छेदनक है । यथा - = ८ अाठ, यह पहिला छेदनक है। फिर 3 = ४ चार, यह दूसरा छेदनक है तथा । = २ दो, यह तीसग; और = १ एक, यह चौथा छेदनक है। इसी प्रकार तृतीय वर्ग २५६रूप के पाठ छेदनक होते हैं। यथा-1 = 2: पहिला,' = ६४ दूसरा,'' = ३१ ती रा. = १६ चौथा, J2 = = पांचवां, 3 = ४ छठा, = २ सातयां; और = १ यह आठवां छेदनक है।
इसी प्रकार पांचवें वर्ग को छठे वर्ग से गुणित करने पर ७९२२८१६२५१ ४२६४३३७१६३५४३६५०३३६. यह राशि होती है । तथा पांचवें और छठे वर्ग के छेदन योग करने से इस राशि के छेदनक निकलेंगे। अर्थात् पंचम वर्ग ३२ और छठा ६४, इनका योग करने से ३२+ ६४ = ६६ छे रनक होते हैं । इसलिये स्वयमेव भाजित करके सावधानी से देखना चाहिये । यही जघन्य पद का स्व रूप है । इसके अनन्तर उत्कृष्ट पद का वर्णन किया जाता है
उत्कृष्ट से मनुष्यों के बद्धौदारिक शरीर अनेक है । इसका प्रमाण यह है कि काल से वे असंख्येय उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों के समयों की राशि के तुल्य हैं। क्षेत्र से यदि एक मनुष्य का रूप प्रक्षिप्त कर दिया जाय और फिर उसके शरीर से एक २ आकाश श्रेणि अपहरण की जाय नो असंख्येय उत्सर्पिण अवसर्पिणी जितना काल लगता है।
अथवा प्रमाणांगुल श्रेणि की जो प्रदेश राशि है उसके प्रथम वर्ग मूल को तृतीय वर्ग मूल की प्रदेश राशि के साथ गुणित करने पर जो फल आवे उस क्षेत्रप्रमाण में से एक २ मनुष्य शरीर अपहरण किया जाय । तात्पर्य यह कि यदि एक मनुष्य का शरीर हो तो यथोत प्रमाण क्षेत्र की श्रोणि में से प्रति समय एक२ को अनुक्रम से निकाला जाय तो वह असंख्येय उत्सर्पिणियों और अब सर्पिणियों से अपहरण होती है, लेकिन ऐसा नहीं, क्योंकि सर्वोत्कृष्ट गर्भज तथा
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Acharya Shri !
[उत्तरार्धम्]
१६३ संमूर्छिम मनुष्य योजित करने से इतने ही होते हैं, अधिक नहीं । इस प्रकार मनुष्य के बद्धौदारिक शरीर होते हैं।
मुक्तौदारिक शरोर तो श्रोधिकों के सहश जानना चाहिये ।
बद्ध वैक्रिय शरोर संख्येय हैं, क्योंकि ये सिर्फ वैक्रिगलब्धि वाले गर्भज मनुष्यों के ही होते हैं, तो भी पृच्छा के समय कितने ही संभव हैं । तथा प्रतिसमय एक २ अपहरण करने से संख्येय काल व्यतीत हो जाते हैं । यह प्ररूपणा केवल कल्पना मात्र ही है।
तथा मुक्त वैकिय शरीर औधिक के समान जानना चाहिये।
बद्र तथा मुक्त आहारक शरीर जैसे इन के औधिक होते हैं उसी प्रकार जानना चाहिये।
तेजस और कार्मण शरीर इनके औदारिकों के सदृश होते हैं।
इस प्रकार मनुष्यों के पांच शरीर होते हैं । इसके पश्चात् व्यन्तरों के शरीरों का वर्णन किया जाता है।
व्यन्तरों के सब शरीर नारकियों के समान जानना चाहिये । लेकिन विशष इतना ही है कि * व्यन्तर नारकियों से असंख्येय गुण हैं।
ध्यन्तर कितने अंश से सब प्रर को अपहरण कर सकते हैं ? सव्येय । योजन शत वर्गा का जो अंश है उससे अपहरण हो सकते हैं।
मोतिषियों का सभी वर्णन सुगम ही है, लेकिन विशष इतना ही है कि इनकी विष्कान सूचि अन्तरों की: विष्कम्भसूचि से संख्येय गुणी अधिक होती है।
* इनके असंख्य अंगियां की विनम्नचि का प्रमाण प्रज्ञापना सूत्र के महादण्डक पदानुसार त्वमेव जानना चाहिये । क्योंकि वे पति तिर्यञ्च पञ्चेंद्रियों की विकान सूचि की अपेक्षा असंख्येष गुणे हान होते हैं । अर्थात् प्रज्ञापना मूत्र महादण्डक पा में इनकी अपेक्षा व्यन्तरों का असंख्य गुण हीन पाठ प्रतिपादन किया गया है ।
यदि एक २ व्यस्त संख्यय योजन शत वर्ग रूप प्रतर के भाग को अपहरण करें तो सब प्रतर अाहरण हो सकते हैं । अावा यदि एक व्यन्तर उतने भाग मात्र में म्यापन किया भाय नो सभी प्रजा पूर्ण हो जाते है।
प्रज्ञापना महादगइक में व्यन्त मे मंख्येय गुणं अधिक श्रोधिक ज्योतिषी प्रतिपादन किये गये हैं। और यहां पा भी प्रनहार क्षेत्र उनके क्षेत्र मे संख्येय गुणे हीन होते हैं।
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१६४
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् । यदि एक २ ज्योतिषी २५६ प्रमाणांगुल के वर्ग रूप प्रतर के प्रतिभाग को अपहरण करें तो समस्त प्रतर अपहरण हो सकता है । अथवा इतने ही अंश में यदि एक २ ज्योतिषी स्थापन किया जाय तो समग्र प्रतर पूर्ण हो सकता है । इस लिये व्यन्तरों से ज्योतिषी संख्येय गुणे अधिक है।
वैमानिकों + के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिये । विशेष इतना ही है कि-उन श्रेणियों की विष्कम्भसूचि प्रमाणांगुल के द्वितीय वर्गमूल को तृतीय वर्गमूल से गुणा करना चाहिये । इसका भावार्थ यह है कि प्रमाणांगुल प्रतर क्षेत्र में सद्रप असंख्येय श्रेणियाँ होती हैं तो भी कल्पना से २५६ मान ली जायँ तो इसका प्रथम वर्गमूल १६, द्वितीय ४, तृतीय २ होता है । पश्चात् द्वितीय वर्गमूल ४ को तृतीय वर्गमूल २ के साथ गुणा करने पर-४४२ = = निष्पन्न होते हैं।
इसी प्रकार यहां पर सद्रप से असंख्येय श्रेणियां तथा कल्पना से - श्रेणि रूप विस्तार सूचि ग्रहण करना चाहिये ।
___ अथवा तृतीय वर्गमूल द्विक रूप का जो घन २x२x२ = = होता है, उन्हीं श्रोणियों की विष्कम्भसूचि होती है। दोनों का भावार्थ एक ही है। इससे यह सिद्ध हुआ कि भवनपत्योदिकों की सूचि से यह असंख्येय गुणी हीन होती है।
शेष भावार्थ क्षेत्र पल्योपम तक सरल ही है ।
इस प्रकार दोनों भेद तथा उपलक्षण से अन्य उच्छवासादिक कालविभाग भी वर्णन किये गये हैं।
यहां पर काल प्रमाण का स्वरूप पूरा हुआ। (सू० १४:) इसके अन तर भाव प्रमाण का स्वरूप प्रतिपादन किया जाता है
माक प्रमाणा
से किं तं भावप्पमाणे ? तिविहे पण्णत्ते तं जहागुणप्पमाणे नयप्पमाणे संखप्पमाणे (सू० १४६)
-
+ विशेष इतना ही है कि प्रज्ञापना सूत्र में भवनपति, व्यन्तर और नारकी, ये ज्योतिपियों की अपेक्षा प्रत्येक २ सब से असंख्येय गुणे हीन वर्णन किये गये हैं।
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[ उत्तरार्धम् ]
१६५ से किं तं गुणप्पमाणे ? दुविहे पण्णत्ते, तं जहाजीवगुणप्पमाणे अजोवगुणप्पमाणे य ।
से कि तं अजीवगुणप्पमाणे ? पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा--वण्णगुणप्पमाणे गंधगुणप्पमाणे रसगुणप्पमाणे फांसगुणप्पमाणे संठाणगुणप्पमारणे ।
से किं तं वरणगुणप्पमाणे ? पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-कालवण्णगुणप्पमाणे जाव सुकिल्लवण्णगुणप्पमाणे, से तं वरणगुणप्पमाणे । __ से किं तं गंधगुणप्पमाणे ? दुविहे पण्णत्ते, तं जहासुरभिगंधगुणप्पमाणे दुरभिगंधगुणप्पमाणे, से तं गंधगुणप्पमाणे ।
से किं तं रसगुणप्पमाणे ? पंचविहे पगणत्ते, तं जहा. तित्तरसगुणप्पमाणे जाव पहुररसगुणप्पमाणे, से तं रसगुणप्पमाणे।
से किं तं फासगुणप्पमाणे ? अट्टविहे पण्णत्ते, तं जहा-कक्खडफासगुणप्पमाणे जाव लुक्खफासगणप्पमाणे, से तं फासगुणप्पमाणे।
सेकिंतं संठाणगुणप्पमाणे ? पंचविहे पण्णत्ते, तं जहापरिमंडलसंठाणगुणप्पमाणे वटुसंठाणगुणप्पमाणे तंससंठाणगुणप्पमाणे चउरंससंठाणगुण पमाणे आययसंठाण गुणप्पमाणे, से तं संठाणगुणप्पमाणे, से तं अजीवगुण पमाणे ।
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१६६
[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] पदार्थ-विद्यमान पदार्थो के और वर्णादिकों के ज्ञानादि परिणाम का बोध होना उसे *भाव कहते हैं, और जिसके द्वारा पदार्थो का स्वरूप जाना जाय अथवा उनका निर्णय किया जाय वही प्रमाण है, और वह (तिविहे पएणत, तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा- ) जैसे कि-(गुणप्पमाणे ) जिन गुणां से द्रव्यादिकों का ज्ञान हो उसे गुण प्रमाण कहते हैं, ( नयप्पमार्ग ) जिन अनन्त धर्मात्मक वस्तुओं का एक ही अंश द्वारा निर्णय किया जाय उसे नय प्रमाण कहते हैं, और (संप्रमाणे) जिसके द्वारा संख्या की जाय उसे’ संख्या प्रमाण कहते हैं ।
(मे किं तं गुणप्पमाणे ?) गुण प्रमाण किसे कहते हैं ? (गुणापमाणे) जिन गुणों से द्रव्यादिकों का ज्ञान हो उसे गुण प्रमाग कहते हैं । और वह (दुविहे पणानं ,) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा.) जैसे कि-(जीवगुणप्पमाणे) जाव गुण प्रमाण ( अजीवगुण ८पमाणे ।) और अजीव गुण प्रमाण ।
(से कि तं अजीवगुणप्पमाणे ?) x अजीव गुण प्रमाण किसे कहते हैं और वह ६ तनी प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? (ग्रजीवगुणप्पमाणं) जिन गुणों के द्वारा अजीव पदार्थों की सिद्धि हो उस अजीव गुण प्रमाण कहते हैं। और वह (पंचविहे पएणते) पांच प्रकार से प्रतिपादन किया गया है. (तं जहा.) जैसे कि-(वगणगापमाणे) वर्ण गुण प्रमाण (मंथगुगागमागो) गन्ध गुण प्रमाण (रसगणप्पभाग ) रस गुण प्रमाण (फासगुणप्पनाग) म्पर्श गुण प्रमाण और (
गं गापमाग) संस्थान गुण प्रमाण । (से किं वरणगुग्गप्पमाणे ? ) वणं गुण प्रमाण किसे कहते हैं और वह कितनो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? ( वागण मागे , जिन वणों के द्वारा द्रव्यों का ज्ञान हो उसे वर्ण गुण प्रमाण कहते हैं, और वह पंचपिटे पणणात',) पांच प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, ( तं जहा.) जैसे कि - ( कालवगण गुगप्पागणे, )
* भवमं भाषी-चमनः परिणामी ज्ञानादिः वणादिश्च । प्रमीयां अनेन इति प्रमाणाम् । नीतयो नम:- तधर्मात्मयस्य वस्तुन एकांशपरिच्छितयः । । : माणं ..य.
प्रमाणाम्।
+संख्यानं संख्या सैव प्रमाग संख्याप्रमागम् ।
+अजीव गगा प्रमाण के विषय में अल्पवक्तव्य होने में प्रथम मी का स्वसमें प्रति. पादन किया जाता है।
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[ उत्तरार्धम] कृष्णादि वर्णो के द्वारा जिन पदार्थो का ज्ञान हो उसे कृष्णवर्ण कहते हैं. इसी प्रकार ( जाव सुकिल्लगुणप्पमाणे । ) शुक्ल वर्ण गुण प्रमाण तक जानना चाहिये (मे २ वएणगुणप्पमाणे ।) इस लिये वही वर्ण गुण प्रमाण है। ___(से किं तं गंवगुणप्पमाणे?) गंध गुण प्रमाण किसे कहते हैं और वह कितने प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? (गं गुणरमाणे) जिन पदार्थो का गन्ध द्वारा ज्ञान हो उसे गंध गुण प्रमाण कहते हैं और वह ( दुविहे पएणत, ) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा.) जैसे कि- सुरभिगंवगुणप्पमाणे, ) सुरभिगन्ध-सुगन्ध गुण प्रमाण और (दुरभिगं वगुणप्पमाणे, दुरभिगन्ध-दुर्गन्ध गुण प्रमाण, (से तं गंधगुणामाणे ।) यही गन्ध गुण प्रपाण है।
( से किं तं रसगुणप्पमाणे ? ) रस गुण प्रमाण किसे कहते है और वह कितने प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? (ग्स गुगरकोणे ) जिन पदार्थो का बोध रसों के द्वारा हो उसे रस गुण प्रमाण कहते हैं, और वह (पंचतिरे पर ण त',) पांच प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, ( त जहा- ) जैसे कि-(तित्तर न गापमाणे ) जिन पदार्थों का तिक्त-तीक्ष्ण रसों के द्वारा ज्ञान हो उसे तिक र ल गुण प्रमाण कहते हैं । इसी प्रकार (जाव महारसगुणप्पमाणे,) मधुर रस गुण प्रमाण तक जानना।
(से किं तं फासगुणप्पमाणे ?) स्पर्श गुण प्रमाण किसे कहते हैं और वह कितने प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? ( कासगुणप्रमाणे जिन पदार्थो का स्पर्शों के द्वारा बोध हो उसे स्पर्श गुण प्रमाण कहते हैं, और वह ( अविद पएणत्ते ) आठ प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा.) जैसे कि--(कक्खडफास गुणप्पमाण) जिन पदार्थों का कर्कश-कठिन स द्वारा ज्ञान हो उसे कर्कश सशं गुण प्रमाण कहते हैं। इसी प्रकार ( जाव 28 लुकास गुण रसाणे, ) रूक्ष स्पश गुण प्रमाण तक जानना चाहिये, (से : फास गुणप्पमाणे ।) यही स्पर्श गुण प्रमाण है ।
(मे किं । संठाणगाप्यमाणे? ) संस्थान गुण प्रमाण केस कहते हैं और वह कितने प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? ( संठाणगाप्रमाणे ) जिन पदार्थों का बोध संस्थानों से हो उसे संस्थान गुण प्रमाण कहते हैं और वह ( पंचविहे पराते,) पांच प्रकार से प्रतिपादन किया गया है (तं जहा) जैसे कि--(परिभण्डलसंगाणगुणापसाणे) जो बलयादि के समान हो उसे परिमंडल संस्थान जानना चाहिये,
* यावत् शब्द-मृदु. गुरु, लघु, शीत, उष्ण, निग्यादिका का सूचक है । +चूड़ी।
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१६८
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] (वसं ठाणगुणप्पमाणे) जो लोहेके गोलक सदृश हो उसे वृत्त संस्थान गुण प्रमाण कहते हैं, ( तंससंठाणगुणप्पमाणे ) जो सिंघाड़े के फल के समान त्रिकोण हो उसे व्यंश संस्थान गुण प्रमाण कहते हैं, (चउरंससंठाणगुण प्पमाणे) चतुरस्र संस्थान गुण प्रमाण जो चारों ओर से समकोण हो और (आययसंठाणगुणाप्पमाणे,) दीर्घ स्थान गुणप्रमाण, (से तं संठाणगुणप्पमाणे,) यही संस्थान गुण प्रमाण है, और (से तं अनीवगुणापमाणे ।) यही अजोव गुण प्रमाण है।
भावार्थ-भाव प्रमाण उसे कहते हैं जिसके द्वारा पदार्थों का भली भांति शान हो। उसके तीन भेद हैं, जैसे कि-गुण प्रमाण १, नय प्रमाण २ और संख्या प्रमाण ३।
जिन गुणों से द्रव्यों का बोध हो उसे गुण प्रमाण कहते हैं, अनन्त धर्मात्मक वस्तुओं का एक ही अंश के द्वारा वर्णन करना उसे नय प्रमाण कहते हैं और तीसरा संख्या प्रमाण है (सू० १४६)
गुण प्रमाण के दो भेद हैं, जैसे कि-जीव गुण प्रमाण और अजीव गुण प्रमाण।
अजीव गुण प्रमाण पांच प्रकार का है, जैसे कि-१ वर्ण गुण प्रमाण, २ गंध गुण प्रमाण, ३ रस गुण प्रमाण, ४ स्पर्श गुण प्रमाण और ५ संस्थान गुण प्रमाण।
वर्ण गुण प्रमाण पांच प्रकार से प्रतिपादन किया गया है। जैसे किकृष्णवर्ण गुण प्रमाण से लेकर शुक्लवर्ण गुण प्रमाण तक ।
गंध गुण प्रमाण के दो भेद है, सुरभिगंध गुण प्रमाण और दुरभिगंध गुण प्रमाण ।
रस गुण प्रमाण पांच प्रकार का है, जैसे कि तिक्तरस गुण प्रमाण, २ कटुकरस गुण प्रमाण, ३ कषायरस गुण प्रमाण, ४ आचाम्लरस गुण प्रमाण और मधुररस गुण प्रमाण ५।
स्पर्श गुण प्रमाण के आठ भेद हैं । जैसे कि-कर्कशस्पर्श गुण प्रमाण, इसी प्रकार मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध, कत, ये स्पर्श गुण प्रमाण होते हैं
संस्थान गुण प्रमाण के पाँच भेद हैं जैसे कि १ परिमण्डल संस्थान गुण प्रमाण, २ वृत्त संस्थान गुण प्रमाण, ३ त्र्यंस संस्थान गुण प्रमाण, ४ चतुरस्त्र संस्थान गुण प्रमाण और ५ दीर्घ संस्थान गुण प्रमाण ।
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[ उत्तरार्धम् ]
१६६
इस प्रकार ये सभी अजीव गुण प्रमाण के भेद हैं। इसके अनन्तर जीव गुण प्रमाण का स्वरूप निम्न प्रकार जानना चाहिये
जीव गुण प्रमाण ।
से किं तं जीवगुणप्पमाणे ? तिविहे पण्णत्त े, तं जहा गाणगुणष्पमाणे दंसणगुणत्पमाणे चरितगुणप्पमाणे । से किं तं गाणगुणष्पमाणे ? चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - पञ्चकखे अणुमाणे श्रवम्मे आगमे ।
से किं तं पञ्चकवे ? दुबिहे पराणते, तं जहा - इंदिय पञ्चकखे अ गोइंदियपच्चक वे अ ।
से किं तं इंदियपच्चक्खे ? पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा सोइंदियपञ्चकले चक्खुरिंदयपच्चक्त्रे घाणिंदियपच्चक्खे जिब्भिदियपच्चक्खे फासिंदियपच्चक्खे, से तं इंदियपच्चक्खे |
से किं तं गोइंदियपच्चक्खे ? तिविहे पण्णत्ते, तं जहा श्रहिणां पच्चवखे मरणपज्जवणारणपच्चक्खे केवलणारण पच्चक्खे, से तं गोइंदियपच्चक्खे, से तं पच्चक्खे |
पदार्थ - (से किं तं जीवगुणप्पमाणे ?) जीव गुण प्रमाण किसे कहते हैं, और वह कितने प्रकार का है ? (जीवगुण माणे ) ज्ञानादि गुणों के द्वारा जसकी सिद्धि हो उसे जीव गुण प्रमाण कहते हैं और वह (निविहे पण ते ) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि - ( या सगुणप्पमाणे) ज्ञान गुण प्रमाण ( दंसणगुण(मा) दर्शन गुण प्रमाण और (चरितगुणप्पमाये ।) चारित्र गुण प्रमाण ।
(से किं तं गाणगुणष्पमाणे ?) ज्ञान गुण प्रमारण किसे कहते हैं और वह कितने प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? (गाणगुण प्यमाणे ) जिसके द्वारा जीव की सिद्धि हो उसे ज्ञान गुण प्रमाण कहते हैं, और वह (चत्रि परते,) चार प्रकार से प्रति
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१७०
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] पादन किया गया है, (तं जहा.) जैसे कि-(पञ्चक्खे) *प्रत्यक्ष (अणुमाणे) अनुमान (प्रोवम्मे) औपम्य-उपमान और (अागमे ।) श्रागम ।
* अशेर्देवने । उ० । पा० ३ । सू० ६५ । 'अशुङ् व्याप्तौ' धातु से स प्रत्यय करने पर 'अक्ष' शब्द सिद्ध होता है । उज्ज्वलदत्तटीकायाम्-'अशोङ् याप्तौ' प्रतो देवनः वाच्ये सः । अश्चभ्रस्जेत्यादिना पत्वादि कार्यम् । 'अक्षोरथावयवे निमित्तके च' 'अक्षाणि पण्डितजना विदुरिन्द्रियाणि' 'अक्षः कर्षे तुषे चक्रे शकटव्यवहारयोः । आत्मज्ञे पाशके चाक्षं तुत्थे ऽसौ वर्चलेन्द्रिये ॥१॥' 'क्षान्तेर' इति सः।
तथा अश भोजने धातु से भिस् प्रत्यय करने पर भी अक्ष शब्द सिद्ध होता है । पश्चात् 'इको यणचि ।' पाणिनीय सूत्र के प्रति उपमर्ग के इक मात्रको यण हुआ। तब प्रत्यक्ष शब्द बन जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि जो ज्ञानरूपतया पदार्थों में व्याप्त होता है उसे अक्ष कहते है । वह कौन हैं ? जीव ।
और 'अश भोजने' धातु से जो अक्ष शब्द निप्पन्न होता है, उसका भावार्थ यह है कि जो सब अोंको भोगता है या पालता है, वह अक्ष है । उसका भी मतलव जीव ही होता है।
.. गतादिषु प्रादयः ।' शाकटायन: ।२।१।२१। इस सूत्र से यहां पर द्वितीयातत्पुरुष समास हुआ है । 'प्रत्ययोरव्ययीभावात् ।२।१।१५०। इस सूत्र से जो अव्ययीभाव समास किया जाता है, वह इस स्थान पर उपादेय नहीं होता। क्योंकि अव्ययीभाव समास नपुंसकलिङ्गीय है, और प्रत्यक्षा शब्द त्रिलिङ्गीय है । यथा-प्रत्यचा बुद्धिः, प्रत्यक्षो बोधः, प्रत्यचां ज्ञानम् । इस लिये सारांश यह हुआ कि जो ज्ञान जीवके साथ साचात्कारी वरने वाला होता है, उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं ।
तथाह न्यायदीपिकायां- "कश्चिदाह अक्षं नाम चक्षुरादिकमिन्द्रियं तत्पतीत्य यदुत्पद्यते तदेव प्रत्यक्षमुचितं नान्यत्" इति तदप्यसत् । अात्ममात्रसापेक्षाणामवधिमनापर्ययकेवलानामिन्द्रियनिरपेचाणामपि प्रत्यक्षात्वविरोधात् । स्पष्टत्वमेव हि प्रत्यचात्त्रपयोजक नन्द्रियजन्यत्वम् । अत एव हि मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानां ज्ञानत्वेन प्रतिपन्नानां मध्ये "आद्य परोक्षम्” "प्र यक्षमन्यत" इत्याद्ययोमंतिश्च तयोः परोक्षत्वकथनमन्येषां (वबधिमनःपर्ययकेवलानां प्रत्क्षत्ववाचो युक्तिः । कथं पुनरेतेषां प्रत्यक्ष शब्दवाच्यत्वमिति चेत् रूढित इहि ब्रूमः । अक्षणोति-व्याप्तोति अथवा जानातीत्यक्ष प्रामा, तन्मात्रापेक्षात्पत्तिकं प्रत्यक्ष मिति किमनुपपन्नम् ? इन्द्रियजन्यमप्रत्यक्ष तर्हि प्राप्तमिति चेत् हन्त विस्मरणशीलत्वं वत्सस्य । अवोचामः खल्वौपचारिक प्रत्यक्षत्वमक्षजज्ञानस्य । ततस्तस्याप्रत्यक्षवं कामं प्राप्नोतु, का नो हानिः । एतेनाक्षेभ्यः पराटतं परोक्षमित्यपि प्रसिविहितम् । अवैशद्यस्यैव परोक्षलक्षण वात् ।।
परीक्षामुखसूत्राणि प्रभहिषु न्यायग्रन्थेष्वपि प्राग्वदुल्लेखः । यथा-"आद्य परोते", "प्रत्यक्षामन्यत्" इति । व्यवहारनयात् इन्द्रियजन्यज्ञान प्रत्यक्षमिति नन्दीसूत्रादपि दृष्टव्यः । यथाइदिअपचक्खे णोइंडिय० इत्यादि ।
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[उत्तरार्धम]
१७१ (से किं तं पञ्चक्खे ?) प्रत्यक्ष प्रमाण किसे कहते हैं और वह कितने प्रकार से प्रतिपादन किया गया है। (पचरखे ) जिन पदार्थों का बोध प्रत्यक्ष प्रमाण से जाना जाय उसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं, और वह ( दुविहे पएणते, ) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा.) जैसेकि (इंदिअपचक्खे अ) इन्द्रिय प्रत्यक्ष और (गोइंदिअपचक्खे) नोइन्द्रियप्रत्यक्ष।
(से किं तं इंदिअपचक्खे ? ) इन्द्रिय प्रत्यक्ष किसे कहते हैं और वह कितने प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? (इंदिअपचक्खे +) जिन पदार्थों का ज्ञान प्रत्यक्ष इन्द्रियों द्वारा उत्पन्न हो उसे इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहते हैं और वह (पंचविहे पण्णत्ते, ) पांच प्रकार से प्रतिपादन किया गया है। (तं जहा.) जैसे कि-(सोइंदिअपचक्खे) श्रोत्रे. न्द्रिय प्रत्यक्ष ( चक्खुरिदिअपचक्खे ) चक्षुरिन्द्रिय प्रत्यक्ष ( घाणिदिअपचक्खे ) प्राणेन्द्रिय प्रत्यक्ष ( जिभिदिअपचक्खे ) जिह्वेन्द्रिय प्रत्यक्ष (फासिंदिअपञ्चक्खे,) स्पशन्द्रिय प्रत्यक्ष (से तं इंदिअपचक्ने ।) यही इन्द्रिय प्रत्यक्ष है ।
(से किं तं णोइंदिअपञ्चक्खे ? ) x नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष किसे कहते हैं और वह कितने प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? (णोइंदिअपचक्खे) जो ज्ञान इन्द्रियजन्य न हो उसे नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहते हैं, और वह (तिविहे पएणत्ते, ) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा.) जैसे कि-( योहिणाणपञ्चक्ले ) अवधिज्ञान प्रत्यक्ष (मणपज्जवणाणपञ्चक्खे) मनःपर्यवज्ञान प्रत्यक्ष और (केवलणाणपञ्चक्खे) केवलज्ञान प्रत्यक्ष, (से तं णोइंदिअपञ्चक्खे,) यही नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष है, (से तं पञ्चक्खे ।) यही प्रत्यक्ष है।
भावार्थ-जीव गुण प्रमाण तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, जैसे कि-ज्ञान गुण प्रमाण, दर्शन गुण प्रमाण, और चरित्र गुण प्रमाण। ज्ञानगुण प्रमाण के चार भेद हैं, जैसे कि-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, और पागम ।
+ इदं चेन्द्रलक्षणजीवात्परं व्यतिरिक्तनिमित्तमाश्रियोत्पद्यते इति धूमादग्निज्ञानमिव, वस्तुतोऽर्थसाचा कारिवाभावात् परोक्षमेव, केवलं लोकेऽस्य प्रत्यक्षतया रूढत्वात् संव्यवहारतो ऽवापि तथोच्यत इति । भावार्थ-यद्यपि इन्द्रियपत्यक्षज्ञान एवंभूत नयानुसार परोक्ष माना गया है, तथापि व्यवहार नय से यह प्रत्यक्ष भी है।
जो ज्ञान श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष हो उस श्रोत्रेन्द्रिय प्रत्यक्ष कहते हैं । इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय प्रत्यक्ष, घ्राणेन्द्रिय प्रत्यक्ष, जिह्वेन्द्रिय प्रत्यक्ष और स्पर्शेन्द्रिय प्रत्यचा जानना चाहिये ।
x'नो' शब्द निषेध वाचक भी है, और ईषत् वाचक भी है। यहां पर उसे निषेध वाचक जानमा चाहिये।
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१७२
[ श्रीमदनुयोगद्वार सूत्रम् ]
प्रत्यक्ष प्रमाण दो प्रकार का है, जैसे कि - इन्द्रिय प्रत्यक्ष और नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष | जो ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा उत्पन्न हो उसे इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहते हैं । उस के पाँच भेद हैं, जैसे कि-शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श; इनका ज्ञान होना उसे इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहते हैं ।
जो इन्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं होता अर्थात् साक्षादात्मा ही जिस अर्थ को देखती है उसे नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष कहते हैं । इसके तीन भेद हैं, श्रवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान । इनमें केवल जीव के उपयोग रूप शक्ति की ही प्रबलता होती है, न कि उनके सहकारी भाव की इस लिये यही प्रत्यक्ष प्रमाण है । इसके बाद अनुमान प्रमाण का वर्णन किया जाता है
1
अनुमान प्रमाण ।
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-
से किं तं अणुमा ? तिविहे पण्णत्ते, तं जहा- पुव्ववं सेसवं दिसाहम्मवं ।
से किं तं पुव्ववं ?
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माया पुत्तं जहा नटुं, जुवाणं पुणरागयं । काई पच्चभिजाणेज्जा, पुव्वलिंगे केई ॥ १ ॥ तं जहाखत्ते वा वराणेण वा लंकरणेण वा मसे वा तिलए वा से तं पुव्वत्रं ।
से किं तं सेसवं ? पंचविहे पण्णत्त, तं जहा- कज्जेणं कारणेणं गुणेणं अवयवेां श्रासए ।
से किं तं कज्जेणं ? संखं सद्द े भेरिं ताडिएणं वसi dari मोरं किंकाइएणं हयं हेसिएणं गं गुलगुलाइएणं रहं घणघणाइएणं, से तं कज्जेणं |
से किं तं कारणं ? तंतवो पडस्स कारणं ण पडो
* 'ग' पाठान्तरम् ।
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[उत्तरार्धम् ] तंतुकारणं एवं वीरणोx कहस्स कारणं ण कडो वीरणाकारणं, मिप्पिडो घडस्स कारणं ण घडो मिप्पिंडकारणं, से तं कारणेणं ।
से कि तं गुणेणं ? सुवरणं निकसेणं पुप्फ गंधे लवणं रसेणं मइरं आसायएणं वत्थं फासणं, से तं गुणेणं ।
से कितं अवयवेणं ? महिसं सिंगेणं कुक्कुडं सिहाएणं हत्थिं विसाणेणं वराहं दाढाए मोरं पिच्छणं आस खुरेणं वग्धं नहेणं चमरि वालग्गेणं वाणरं लंगुलेणं दुपयं मणुस्सादि चउपयं गवमादि बहुपयं गोमियादि सोहं केसरेणं वसहं कुक्कुहेणं महिलं वलयवाहाए । गाहा
परिअरबंधेण भडं, जागोजा महिलियं निवसणे । सित्थेण दोणपागं, कविं च एकाए गाहाए ॥१॥ से त अवयवेणं ।
से कि तं आसएणं ? अग्गिं धूमेणं सलिलं बलागेणं वुट्टि अब्भविकारेणं कुलपुत्तं सीलसमायारेणं ।
[इंगिताकरितै यः, क्रियाभिर्भाषितेन च । नेत्रवक्त्रविकारैश्च, गृह्यतेऽन्तर्गत मनः॥१] सेत आसएणं, से त सेसवं ।
से कि तं दिट्टसाहम्मवं? दुविहं पण्णत्तं, तं जहासामन्नदि, च विसेसदि, च ।
x एतदन्यत्र नोपलभ्यते।
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१७४
[श्रीमक्नुमोगद्वारसूत्रम् ] सेकित सामनदि जहा एगो परितो तहा बहवे पुरिसा जहा बहवे पुरिसा वहा एगो परिसो, जहा एगो करिसावणो तहा बहवे करिसावणा जहा बहवे करिसावणा सहा एगो करिसावणो, सेत सामन्नदिटुं। ___ से कित' विसेसदिट्ट ? से जहाणामए केई पुरुसे कंचि पुरिसं बहूणं पुरिसाणं मज्झे पुवदिटुं पच्चभिजागोजा-अयं से पुरिसे, बहूणं करिसावणाणं माझे पुत्वदि, करिसावणं पच्चभिजाणिज्जा, अयं से करिसावणे ।
पदार्थ-(से किं तं अणुमाणे १ ) अनुमान प्रमाण किसे कहते हैं ? और वह कितने प्रकार से प्रतिपादन किया मया है ? (अणुमाणे *) साधन से होने वाले साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैं, और वह ( तिविहे पएणन्ते, ) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है (तं जहा.) जैसे कि-(पुधव) पूर्ववत् (सेस) शेषवत् और (दिट्टसाहम्मवं ।) दृष्ट साधम्यवत् ।
( किं तं पुख्य ?) पूर्ववत् किसे कहते हैं ? (पुजन) पहिले देखे हुए लक्षणों से जो निश्चय किया जाय उसे पूर्ववत कहते हैं, जैसे कि-(मापा पुतं जहा नटुं, जुवाणं पुण गियं । ) जैसे कि-माता देशान्तर को गये हुए और वहां से युवा होकर वापिस पाये हुए पुत्र का (काई पञ्चभि नाणेजा, पुञ्चलिगेण केणई ॥१॥) किसी पूर्वाचित चिन्ह के द्वाप निश्चय करती है कि वह मेरा ही पुत्र है ॥ १॥ जैसे कि
(खत्रोण वा) अपने देह से उत्पन्न हुये चत से अथवा (वएणेण वा) श्वानादि के किये हुये ब्रण से या लिंकणेण वा) स्वस्तिकादिकों के लाग्छनों-चिन्हों से या (मसेण) मसे से या (तिलएण वा) तिल से, (वे तं पुनवं ।) यह पूर्ववत् अनुमान है।
___* साधनाताध्यविज्ञानमनुमानम् । तथा च, अनु-लिङ्गग्रहणसम्बन्धस्मरणस्य पश्चात् मीयते-परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति अनुमानम् ।
विशिष्टं पूर्वोपलब्ध चिह्नमिह पूर्वमुच्यते, तदेव निमित्तरूपतया यस्यानुमानस्यास्ति तत्पूर्ववत् ।
तिल मसादि के देखने से माता अपने मन में निश्चय करती है कि यह मेग ही पुत्र है, क्यों कि इसके अमुक लक्षण अमुक समय में उत्पन्न हुए थे अथवा जन्म काल से ही थे।
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[ उत्तरार्धम् ]
१७५
(से किं तं सेस + ?) शेषवदनुमान कितने प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? (सेसवं ) शेषवदनुमान ( पंचविहं परस ) पांच प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, ( तं जहा-) जैसे कि - (क) कार्य से ( कारणे) काररण से (गुणेणं) मुग से (अवयवे) ans से और (श्रसगं ।) आश्रय से ।
( से किं तं क्रन े ? ) कार्यानुमान किसे कहते हैं ? (ज े) कार्य के द्वारा जिसका अनुमान किया जाता है उसे कार्यानुमान कहते हैं, जैसे कि -- ( संखं सदेशां)
+ तथा चाह न्यायवादी पुरुषचन्द्रः-
" श्रन्यथा ऽनुपपन्नत्व - मात्रं हेतोः स्वलक्षणम् ।
सासवे हि तद्वमौ ष्टान्तद्वयलक्षणे ॥ १ ॥
"
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तद्धर्माविति — अन्यथानुपपत्रत्त्रधर्मो, कथम्भूते सखासत्त्वे इत्याह- साधर्म्यवैव रूपे दृष्टान्तद्वये लचयते - निश्चीयते । अथ यदि दृष्टान्तद्वयलक्षणेन च मिसत्तायां सर्वेऽपि धर्माः सर्वदा भवन्त्येव पटादेः शुक्लत्वादिधर्मैर्व्यभिचारात् । ततो दृष्टान्तयोः सवासवम ययपि कचिदे न दृश्यते तथापि धर्मिस्वरूपमन्यथानुपपन्नत्वं भविष्यतीति न कश्चिद्विरोध:, इति भावः । यत्राणि धूमादौ दृष्टान्तयोः सवासवे तोश्यते, तत्रापि साध्यान्यथानुपपत्त्रस्यैव प्रायान्यासस्यैवैकस्य हेतुलक्षणताऽवसेया । तथा चाह-
धूमादेयपि स्यातां, सवासवे च लक्षणे ।
श्रन्यथानुपपन्नत्व-प्राधान्याल्लक्षणैकता ॥१॥
किं च यदि दृष्टान्ते सवासवदर्शनाद तुर्गमक इष्यते तदा लोहलेख्यं वयं पार्थिवत्वात 'काष्ठादिवदित्यादेरपि गमकत्वं स्याद् । श्रभ्यधायि च
दृष्टान्ते सदसत्त्वाभ्यां हेतुः सम्यग् यदीध्यते ।
लोह लेख्यं भवेद्वज, पार्थिवत्वाद् दुमादिवत ॥१॥
यदि पक्षधर्मत्रपक्ष सत्त्रविपत्तासस्वलक्षणं हेतोस्त्रैरूप्यमभ्युपगम्यापि यथोक्तदोषभयात् साध्यै साम्यथानुपपत्रमन्वेषणीयं तहिं तदेवैकं लक्षणतया वक्तुमुचितम् किं रुपत्रयेणेति ।
ग्रह च
श्रन्यथानुपपत्रं, यत्र तत्र श्रयेण किम् ?
नान्यथानुपपन्नस्त्रं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ १ ॥ "
* अनुमान का श्रध्याहार सर्वत्र जान लेना चाहिये ।
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१७६
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
शङ्ख का शब्द से (भेरि ताडिए) भेरि का बजाने से (वसभं ढक्किएणं) वृषभ - बैल-सांड का डकारने से (मोरं किंकाइए) मयूर - मोर का किंकारव - शब्द से (हयं हेसिएणं) घोड़े का हिनहिनाने से (हथि गुलगुलाइए) हाथीका गुलगुलाहट शब्द से (रह घणचणाइए, रथ का घनघनाहट शब्द से अनुमान होता है, (से सं ज े शं ।) यही कार्यानुमान है।
+
(से कि ं कारणं ?) कारणानुमान किसे कहते हैं ? (कारण) जिन हेतुओं द्वारा कार्य का ज्ञान हो उसे कारखानुमान कहते हैं। जैसे (संत परस्त कारण ) तन्तु वस्त्र के कारण रूप हैं, लेकिन ( न पडो तंतुकारणं ) पट तन्तुओं का कारण नहीं है + ( एवं ) इसी प्रकार (वीरणा कडस कारणं) वोरण - तृण कट-मंचा का कारण है, लेकिन ( न कडो वरणकारणं ) कट वीरण का कारण नहीं है, ( मिप्पिंडो घडस्स कारणं ) मिट्टीका पिण्ड घड़ े का कारण है परन्तु ( घणो मिप्पिंडकार) घट मिट्टी के पिंड का कारण नहीं है, (से तं कारणं ।) यही #काररणानुमान है।
( से किं तं गुणं ? ) गुण से अनुमान किस प्रकार होता है ? (गुगी) जिन पदार्थों का गुण के द्वारा निश्चय किया जाय उसे गुणानुमान कहते हैं। जैसे कि( सुत्ररणं निकलें ) सोने का + कसौटी से, (पुफ गंवें ) पुष्प का गन्ध से (लव (से) निमक का रस से ( मइरं श्रसाइए ) मंदिरा का स्वाद लेने से, (वत्थं फासेणं) वस्त्र का स्पर्श करने से, (से तं गुणेां ।) यही गुणानुमान है ।
+ शंख का शब्द होना कार्य है । उस कार्य के होने पर यह अनुमान होना कि यहां पर शंख है । इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिये ।
+ उप उदाहरणों से निश्चय होता है कि जब कार्य हो जाय तब उसका ज्ञान होना- कि यहां पर श्रमुक पदार्थ है, इसी को कार्यानुमान कहते हैं ।
* चन्द्रमा के उदय से समुद्र की वृद्धि का अनुमान किया जाता है, क्यों कि वह वृद्धि का कारण भूत है और जलवृद्विरूप उसका कार्य है । इसी प्रकार सूर्य के उदय से कमलों के विकाश का, अतीव वर्षा से नाज की उत्पत्ति और कृषकों के मन- श्रल्हाद का अनुमान होता है । इत्यादि हेतुओं से सिद्ध होता है कि कारण से कार्य का अनुमान अच्छी तरह हो जाता है ।
+ क्यों कि तन्तुओं के समुदाय से पट की उत्पत्ति है, लेकिन पट से तन्तुओं की पत्ति नहीं होती, इसलिये तंतु ही कारणभूत हैं ।
+ सोने की कसौटी पर घिसने से उसके रूप गुण द्वारा सौने का यथार्थ ज्ञान होता है ।
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[उत्तरार्धम् ] (से किं तं अवयवेणं ?) अवयवानुमान किसे कहते हैं ? (अवयवेणं) जिस अवयव से अवयवी का ज्ञान हो उसे अवयवानुमान कहते हैं, जैसे कि ( माहिसं सिंगेणं )
महिष का शृंग-सींग से (कुक्कुडं सिहाएणं) मुर्गे का शिखा से (हत्यि + विलाणेणं) हाथी का दान्तों से (वराहं दाढाए ) बराह का दाढ से ( मोरं पिच्छणं) मयूर का पिच्छी से (आसं खुरेणं ) अश्व का खुर से (बग्धं नहेणं) व्याघ्र का नखों से (चमरिं वालग्गेणं) चमरी गाय का बालात्रों से ( वाणरं लागलेण) कपि-बन्दर का पूंछ से (दुपयं मणुस्सादि) मनुष्यादि का द्विपद से ( चउपयं गवमादि ) गो आदि का चार पैरों से ( बहुपयं गोमिश्रादि कर्णशृगाली--कानखजूरादि का बहुत पैरों से ( सीह केसरेण ) सिंह का केशर से (वसहं कुक्कुणं) वृषभ का ककुभ स्कन्ध से ( महिलं वलयबाहाए) महिला स्त्री का भुजाओंकी चूड़ियों से । ( परियरबंधेण भई, जाणिज महिलिग्रं निवसणेगां । ) * परिकरवन्धन--शस्त्र के धारण करने से सुभट तथा वेष पहनने से स्त्री का (सि थेण दोणपागं कविं च एक्काए गाहाए ॥ ॥) चावलों का सिक्त--एक दाने से और कवि का एक गाथा से ॥१॥ ( से तं अवयवेणं । ) वही अवयव से । अनुमान है।
- (से किं तं यासएणां ?) आश्रयानुमान किसे कहते हैं ?(ग्रासएए) आश्रय से जो पदार्थ का अनुमान होता है उसे आश्रयानमान कहते हैं । जैसे कि-(अलि धूमेणं ) अग्नि का धूएँ से, (सजिलं वलागेगां) जल का बलाकों से (बुष्टिं अन्भविकारेणां) वृष्टि का बादलों के विकार से (कुलपुत्तं सोलसमायारणां) कुलवान् पुत्र का शीलादि सदाचार से, ( इङ्गिताकारितैज्ञेयैः, क्रियानि पितेन च । नेत्रबक्रविकारैश्च, गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः॥१॥) शरीर की चेष्टाओं से, भाषण करने से, और नेत्र तथा मुख के विकार से अन्तर्गत मन जाना जाता है ॥१॥ (से तं प्रासए ।) यही आश्रयानुमान है, और (से तं सेसवं ।) यही शेषवत् अनुमान है।
ये उदाहरण अवयवी के अनुपस्थिति में ही सिद्ध होते हैं । प्रत्यक्षा में सिद्ध नहीं हो सकते । आगप में भी कहा है “अयं च प्रयोगो वृत्तिवरण्डकाद्यन्तरिक्षवादप्रत्यचा एवावयविनि दृष्टव्यः । तत्मत्यचातायामध्यचात एव तत्सिद्ध रनुमानवैयर्थ्यप्रसङ्गादिति ।
- 'विषाण' शब्द के संस्कृत में तीन अर्थ होते हैं-१ सींग, २ कोल, और ३हाथी के दांत । यथा-"विषाणं तु श्रङ्ग कोलेभदन्तयोः"-अभिधाननाममाला ।
* विशिष्टनेपथ्यरचनालक्षणेन । + अर्थात अवयव के देखने से अवयवी का ज्ञान होना । अवयवानुमान है।
भाश्रयतीति श्राश्रयः । हेतु का पर्याय ही आश्रय हैं।
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१७८
[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] ____ (से किं तं दिवसाहम्मवं ?) दृष्टसाधर्म्यवदनुमान किसे कहते हैं ? (दिट्ठसाहम्मवं) पूर्व में जाने हुए पदार्थ के द्वारा वर्तमान काल के तत्सदृश पदार्थों का ज्ञान होना, दृष्टसाधर्म्यवदनुमान है, और वह ( दुविहं पण्णत्त,) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि-- (सामनदिडं x च) सामान्यदृष्ट और (विसेसदिटुं च ।) विशेषदृष्ट।
(से किं तं सामनदिढ ?) सामान्य दृष्टानुमान किसे कहते हैं ? जैसे कि--(जहा एगो पुरिसो) जैसे एक पुरुष है, (तहा बहवे पुरिसा) उसो प्रकार बहुत से ।) मनुष्य हैं, (जहा वहवे पुरिसा) जैसे बहुत से पुरुष हैं, (तहा एगो पुरिसो) उसी प्रकार एक मनुष्य होगा, ( जहा एगो करिसावणो) जैसे एक कार्षापण-सोने की मोहर है । (तहा वहवे करिसावणा) उसी प्रकार बहुतसी मोहरें होंगी, और (जहा बहवे करिसावणा) जैसे बहुतसी मोहर होंगी (तहा एगो करिसावणो,) उसी प्रकार एक मोहर होगी (से तं सामन्नदिहूँ।) सामान्यदृष्टानुमान है।
(से किं तं विसेसदि) विशेष दृष्टानुमान किसे कहते हैं ? (से जहानामए) जैसे देवदत्तादि नामक ( कई पुरुसे ) कोई पुरुष हो ( कंचि पुरिसं ) किसी पुरुष को ( वहणं पुरिसाणं मझ) बहुत से मनुष्यों के मध्य में (पुवटिं) पहिले देखा था (पञ्चभिजाणेज्जा) जान लिया कि-(अयं से पुरिसे) यह वही आदमी है, तथा-(बहणं करिसावणाणं मझ) बहुत सी सोने की मोहरों के बीच में (पुत्रदिटुं करिसावां) पहिले देखी हुई को (पञ्चभिजाणिजा) पहिचान लिया कि (अयं से करिसावणे ।) यह वही सोने की मोहर है।
भावार्थ-साधन से जो साध्य का ज्ञान हो, उसे अनुमान प्रमाण कहते हैं। इसके तीन भेद हैं, जैसे कि-पूर्ववत् १, शेषवत् २, और दृष्टसाधर्म्यवत ३ ।
पूर्ववत् उसे कहते हैं जैसे किसी माता का पुत्र बाल्यास्था में परदेशचला गया परन्तु वह जब युवा होकर अपने नगर में वापिस आया तब उस की माता पहिले देखे हुए लक्षणों से अनुमान करती है यह मेरा हो पुत्र है,
x दृष्टेन पूर्वोपलब्धनार्थेन सह साधयं दृष्टसाधयं, तद्गमकत्वेन विद्यत यत्र तद् दृष्टसाधय॑वत् ।
() जैसे कि अन्य द्वीप से आये हुए एक पुरुष को प्राकृति को देख कर यह अनुमान करना कि उस द्वीप में और जो बहुत से मनुष्य होंगे वे ऐसे ही होंगे।
* जैसे कि देवदत्तादि नामक किसी व्यक्ति ने किसी पुरुष को बहुत से मनुष्यों के बीच में पहिले देखा था, उसको फिर देख कर अनुमान करता है कि यह वही पुरुष है जिसको मैंने पूर्व में देखा था, इसी को विशेषटष्टानुमान कहते हैं।
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[ उत्तरार्धम् ]
१७६
अर्थात् जब उसके लक्षणों से ठीक निश्चय हुआ तब उसको साध्य का ज्ञान साधनों द्वारा यथार्थ हो गया। इसी को पूर्ववत् अनुमान कहते हैं ।
हेतु के तीन भेद हैं, जैसे कि पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व विपक्ष असत्व । लेकिन यहां पर एक ही प्रकार से माना गया है । इसका कारण यह है कि मुख्यतयो हेतु एक ही प्रकार का होता है । शिष्यों के बोध के वास्ते प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, निगमन और उपनय भी वर्णन किये जाते हैं, तथा हि- 'बालव्युत्पत्यर्थं तत्रोपयोगे शास्त्र एवासौ न वादेऽनुपयोगात् ।”
बालकों को समझाने के लिये उदाहरण, उपनय और निगमन आदि का भी प्रयोग करना चाहिये । वाद-विवाद में इनकी आवश्यकता नहीं है । 'दृष्टान्तो द्र'धा, अन्वयतिरेकभेदात् ' दृष्टान्त के दो भेद हैं, श्रन्वय और व्यतिरेक | 'साध्यव्याप्तं साधनं यत्र प्रदश्यंते सोऽन्वयदृष्टान्तः ।' जिस स्थान में साध्य के साथ साधन की व्याप्ति प्रदर्शित की जाय उसे अन्वयदृष्टान्त कहते
Į
* उक्तञ्च न्यायदीपिकायाम्“ वीतरागकथायां तु प्रतिपाद्याशयानुरोधेन प्रतिज्ञाहेतृ द्वाववयवौ, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणानि त्रयः, प्रतिज्ञाहेतृदा हदणोपनयाश्चत्वारः, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि वा पचेति यथायोग्यं परिपाटी ।"
तदुक्तं कुपाश्नन्दिभट्टारकैः, 'प्रयोग परिपाटी तु प्रतिपायानुरोधत: । इति, तदेवं प्रतिज्ञादिरूपात्त परोपदेशादन्नं परार्थानुमानम् । तदुक्तम्
'परोपदेश सापेक्षं साधनात् साध्यवेदनम् । श्रोतुयंजायते सा हि परार्थानुमतिर्मता ॥ १ ॥ इति । तथा च - 'स्वार्थं परार्थं चेति द्विविधमनुमानम् । साध्याविनाभावनिश्चयैकलक्षणा तोरुत्पयते ।'
दीपिका में कहा है कि वीतरागकथा के अन्तर्गत शिष्य के श्राशयानुसार यथायोग्य प्रज्ञा और हेतु, इन दो अवयवों का प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, इन तीन श्रत्रयवों का प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण उपनय, इन चार अवयवों का अथवा प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन, इन पांचों वों का प्रयोजन होता है ।'
कुमारनन्दिभट्टारक ने कहा है - " अवयव करने की शैली तो आशयानुसार होती है।” तथा - परार्थानुमान प्रतिज्ञादि रूप दूसरे के उपदेश से उत्पन्न होते हैं । कहा भी है- "परोपदेश सुन कर जिस श्रोताको साधन से साध्य का ज्ञान होता है, उसीको परार्थानुमान कहते हैं" उसी तरह यह भी कहा है कि- स्वार्थ और पदार्थ दोनों ही प्रकार का अनुमान हेतु से उत्पन्न होता है, जिसका कि साध्य के बिना न होना निश्चित है ।
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१८०
[श्रीमदनुयोगदारसूत्रम् ] हैं। 'साध्याभावे साधनाभावो यत्र कथ्यते स व्यतिरेकदृष्टान्तः । जिस स्थान में साध्य के अभाव को दिखा कर साधन का अभाव दिखाया जावे, उसे व्यतिरेकदृष्टान्त जानना चाहिये।
__ शेषवत् अनुमान प्रमाण पांच प्रकार का है, जैसे कि-कार्य से १, कारण से २, गुण से ३, अवयव से ४, और श्राश्रय से ५।
कार्य होते हुए जो कारण का ज्ञान होता है, उसे कार्यानुमान कहते हैं, जैसे कि- शंख, भेरी, वृषभ, मयूर, अश्व, हस्ति, इत्यादि । जब इनके शब्द होते हैं, तो शीघ्र ही अनुभव हो जाता है कि अमुक स्थान पर अमुक का शब्द हो रहा है, इत्यादि।
जिन कारणों से कार्यका ज्ञान होता है उसे कारणानुमान कहते हैं । जैसे कि तन्तु पट के कारण हैं, पट तन्तुओं का कारण नहीं है । इसी प्रकार वीरण मंचा का कारण है, लेकिन मंचा वीरणों का कारण नहीं है । मिट्टी का पिण्ड घट का कारण है लेकिन *घट मिट्टी का कारण नहीं है।
गुण के ज्ञान से जो गुणी का ज्ञान होता है, उसे गुणानुमान कहते हैं, जैसे कि-सुवर्ण की परीक्षा कसोटी से, पुष्पों की गन्ध से, सैन्धवादि निमक की रस से, मदिग की आस्वादन से, वस्त्र की स्पर्श-छूने से होती।
जिन अवयवों से अवयवी को ज्ञान हो, वह अवयवानुमान है। जैसे किशृङ्गों से महिष का, शिखा से मुर्गे का, दान्तों से हाथी का, दाढों से सूअर का, खुरों से अश्व का, नखों से व्याघ्र का, वालाग्रों से गाय का, पूछ से वानर का, द्विपद से मनुष्यादि का, चार पैर से गौ आदि का, बहुत से पैरों से कानख.
अत्राह-ननु यदा कश्चिन्निपुणः पटभावेन संयुक्तानपि तन्तॄन् क्रमेण वियोजयति तदा पटोऽपि तन्तूनां कारणं भवत्येव, नैव, सत्वेनोपयोगाभावात, यदेव हि लब्धसत्ताकं सत् स्वस्थितिभावेन कार्यमुपकुरुते तदेव तस्य कारणत्वेनोपश्यिते, यथा मृत्तिण्डो घटस्य, ये तु तन्तुवियोगतऽभावी भवतः पटेन तन्तवः समुत्पद्यन्ते तेषां कथं पटः कारणं निर्दिश्यते, न हि ज्वराभावेन भवत पारोगिता सुखस्य ज्वरः कारणमिति शक्यते वक्तुम, यद्य वं पटेऽप्युत्सद्यमाने तन्तवोऽभावी भव न्तीति तेऽपि तत्कारणं न स्युरिति चेत्, नैवं, तन्तुपरिणाम रूप एव हि पटः, यदि च तन्तवः सर्वथाऽभावी भवेयुस्तदा मृगावे घटस्यैव सर्वथैवोपलब्धिर्न स्यात, तस्मात्पटकालेऽपि तन्तवः सन्तीति सत्त्वे नोपयोगात्ते पटस्य कारणमुच्यन्ते पटवियोजनकाले त्वेकैकतन्त्रवस्थायां पटो नोपलभ्यते, अतस्तत्र सत्वेनोपयोगाभावान्नासौ तेषां कारणए।
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१८१
[उत्तरार्धम् ] जूरादि को, केसर से सिंह का, स्कन्ध से वृषभ का, भुजाओं की चूड़ियों से स्त्री का, राज्य चिन्ह से सुभट का, का, एक सिक्त-दाने से चावल और एक गाथा से कवि की शान होता है।
साधन से साध्य का अर्थात् आश्रय से आश्रियी का ज्ञान हो उसे श्राश्रयानुमान कहते हैं । जैसे कि-धूएं से अग्नि का, बादलों से जल का, आसमान के विकारों से वृष्टि का, शीलोदि सदाचरण से कुलवान पुत्र का, भाषण करने से.या अंग की, चेष्टाओं से और नेत्र तथा मुख के विकार से मन का ज्ञान होता है।
दृष्टसाधर्म्यवत् के दो भेद हैं, जैसे कि-सामान्यदृष्ट और विशेषदृष्ट ।
जैसे कि-श्रागन्तुक के देखने से किसी पुरुष को अनुमान से निश्चय हुआ कि अन्य भी बहुत से मनुष्य इस आकृति वाले होंगे, तथा- जैले बहुत से मनुष्यों का शान हुआ तब एक का भी अनुमान किया जा सकता है। इसी प्रकार कार्षापण का भी भावार्थ जानना चाहिये।
विशेषदृष्ट उसे कहते हैं, जैसे कि-किसी पुरुष ने किसी व्यक्ति को पहिले किसी स्थान पर देखा था, फिर वह किसी समाज के बीच दिखलाई दिया, तब अनुमान किया कि मैं ने इस को कहीं पर देखा है । इस प्रकार स्मृति करते हुए अच्छी तरह निश्चय होगया कि मैं ने इसको अनुक स्थान पर देखा था। इसलिये इसी को विशेषदृष्ट अनुमान कहते हैं । इसी प्रकार कार्षापण का भी उदाहरण जानना चाहिये।
तस्स समासो तिविहं गहणं भवइ, तं जहा-अतीयकालगहणं पडुप्पण्णकोलगहणं अणागयकालगहणं ।
से किं तं अतीयकालगहणं ? उत्तणाणि वणाणि निप्फराणसव्वसस्संवा मेइणि पुण्णाणि य कुडसरणईदीहिआतडागाइं पासित्ता तेणं साहिजइ, जहा सुवुट्ठी
आसी, से तं अतीयकालगहणं । - से किं तं पडुप्पण्णकालगहणं ? साहुं गोयरग्गगयं विच्छडिडयपउरभत्तपाणं पासित्ता तेणं साहिजइ,जहा
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१८२
[ श्रीमनुयोगद्वारसूत्रम् ]
सुभिक्खे वह, से तं पडुप्पराणकाल गहणं । से किं तं प्रागयकालगहणं ?
अब्भस्स निम्मलत्तं, कसिणा य गिरी सव्विजुना मेहा । थखियं वा उब्भागो, संझा रत्ता पणिट्टा य ॥१॥ वारुणं वा महिंदं वा अरण्यरं वा पत्थं उप्पायं पासित्ता तेणं साहिजइ, जहा सुट्टी भविस्सइ, से तं अणामयकालगणं ।
एएसिं चैव विवज्जा से तिविहं गहणं भवइ, तं जहाप्रतीयकाल गहणं पडुप्पएकोल गहणं श्रणागयकाल गह।
से किं तं अतीय कालगणं ? नित्तिणाई वणाई अणिफण्णसस्तं वा मेइणीं सुकाणि श्र कुंडसरणईदीहिश्र तडागाईं पासित्ता तेां साहिजइ, जहा - कुबुट्टी आसी, से कालगणं ।
--
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से किं तं पडुप्पण्णकाल गहणं ? साहुं गोयरग्गगयं भिक्खं अलभमाणं पासित्ता तेणं सांहिज्जइ, जहा-दुभिक्खे वट्ट, से तं पडुप्पण्णकाल गहणं ।
से किं तं अणागयकालगहणं । धूमायंति दिखाओ, संविप्रमेइणी अपविद्धा ।
वाया नेरा खलु, कुट्टीमेवं नित्रेयंति ॥ १ ॥
अग्गेयं वा वायव्वं वा अन्नयरं वा अप्पसत्थं उप्पापं पासित्ता ते साहिज्जइ, जहा - कुवुट्टी भविस्सइ, से तं अणागयकालगहणं, से तं विसेसदिहं से तं दिट्टसाहम्मवं, से अणुमाये ।
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[उत्तरार्धम्]
१८३ पदार्थ-(तस्स* समासो) उसका संक्षेप से (तिविहं गहणं भवइ,) तीन प्रकार से ग्रहण होता है, अर्थात् विशेषदृष्टसाधर्म्यवद् अनुमान द्वारा तीनों काल के पदार्थो का निर्णय किया गया जाता है, (तं जहा.) जैसे कि--(अतीयकालगहण) अतीत काल प्रहण ( पडुप्पएणकालगहणं) प्रत्युत्पन्न-वर्तमान काल ग्रहण और (अणगयकाल गहणं ।) अनागत काल ग्रहण।
(से किं तं अतीयकालगहणं ?) अतीत काल प्रहण अनुमान किसे कहते है ? (अतीयकालगहणं ) अतीत काल के पदार्थों का निर्णय करना उसे अतीत काल ग्रहण अनुमान जानना चाहिये । जैसे कि-(उत्तणाणि वणाणि) बनों में घास उत्पन्न हुए हैं, (निप्फरणसम्बसस्सं वा) या सव नाज उत्पन्न हुये हैं (मेइणि पुरणाणि अ) पृथिवी परिपूर्ण है (कुड) कुण्ड, (सर) सरोवर, (ण) नही, (दीहियातडागा) बड़े बड़े तालाबादि को (पासित्ता ) देख कर ( तेगां साहिजइ ) उससे अनुणन किया जाता है, (तं जहा.) जैसे कि--( सुवुट्ठी प्रासी,) अच्छी वर्षा हुई. ( से तं अतीयकालगहणां । ) यही अतीत काल ग्रहण विशेषसदृष्टसाधर्म्यवद् अनुमान है।
(से किं तं पडुप्परगाकालर हणं ?) प्रत्युत्पन्न काल ग्रहण किसे कहते हैं ? (पटुप्पएणकालगहणं) वर्तमान काल में ग्रहण किये हुये पदार्थो का अनमान के द्वारा निर्णय करना उसे प्रत्युत्पन्न काल ग्रहण कहते हैं, जैसे कि--(साई गोयर गगय) गोचरो गये हुए साधु को (विच्छटिअपउर भत्तपाणां) गृहस्थोंसे विशेष आहार पानी पाते हुये (पासित्ता) देख कर ( तेणं साहिजइ उस से अनमान किया जाता है (जहा.) जैसे कि- (सुभिक्खे वट्ठइ) * सुभिक्ष वर्त्त रहा है, सुभिक्ष है । ( से तं पडुप्परणकालगह ।) यही प्रत्युत्पन्न काल ग्रहण विशेषदृष्टसाधर्म्यवद् अनुमान है।
(से किं तं प्रणागयकालगहणं ? ) अनागत काल ग्रहण किस कहते हैं ? (अण्णा गयकालगहणं) भविष्यकाल में ग्रहण किये जाने वाले पदार्थो का अनुमान के द्वारा
* विशेषटष्टसाधयंवरः । तस्येति सामान्येनानुवर्तमानमनुमानमात्रं सम्बध्यते ।
अर्थात् वन में घास उगा हुआ पृथ्वी में सभी नाज पैदा हुए हैं; कुण्ड, सरोवर, नदी श्रादि सब जल से परिपूर्ण हुए हैं। इनके देखने से अनुमान होता है कि यहां पर भी अच्छी सृष्टि हुई है' यह 'पक्ष' है, 'तृण धान्य जलाशयादि' ये उस के कार्य हैं । इस लिये यह हेतु' और 'अन्य देशवत्' यह अन्वयदृष्टान्त है। इसी प्रकार ये तीन २ सर्वत्र सभी के जानना चाहिये । जैसे कि-पक्ष हेतु और पृष्टान्त ।
* यहां पर 'सुभिक्ष', पक्ष बचन; 'प्रचुर अाहार पानी' हेतु; और 'पूर्वदृष्टदेशवत'; इष्टान्त है।
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१८४
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] निर्णय करना, उसे अनागत काल ग्रहण कहते हैं, जैसे कि-(अम्भस्स निम्मलतं, कसिणा य गिरी सविज्जुश्रा मेहा ।) निर्मल आकाश में काले रंग के पहाड़ जैसे बिजली सहित मेघों की- थणियं वा उम्भायो, संझा रत्ता पणिट्ठा य ॥१॥ ) गर्जना तथा अनुकूल हवा और सन्ध्या का लालपन ॥१॥ तथा-(वारुणं वा) वरुण के + नक्षत्र या (महिदं वा) * महेन्द्र के नक्षत्र अथवा ( अन्नयरं वा पसत्यमुपायं) अन्य कोई प्रशस्त उत्पोत-उल्का पात या दिग्दाहादि को (पासित्ता ) देख कर (तेणं साहिजइ,) उस से अनुमान किया जाता है (जहा ) जैसे कि-' सुवुट्ठी भविस्सइ,) * अच्छी वृष्टि होगी, ( से तं श्रणागय. कालगहणं । ) इसे x अनागत काल ग्रहण विशेषदृष्टसाधर्म्यवद् अनुमान जानना चाहिये ।
(एएसिं *चेव विवज'से इनका विपरीत भी (तिविहं गहणं भवइ,) ग्रहण तीन प्रकार से होला है, 'तं जहा.) जैसे कि-- अतीयकालगहणं) अतीत काल प्रहण पटुप्पनकालगहणं) वर्तमान काल ग्रहण और ( अणा स्यकालाहणं । ) अनागत-भविष्यत्काल ग्रहण।
(से किं तं अतीयकाजगहणं ? ) अतोत काल ग्रहण किसे कहते हैं ? (अतीयकाल गहणं) अतीत काल के पदार्थों को वर्तमान में अनुमान के द्वारा निर्णय करना उसे अतीत काल ग्रहण कहते हैं, जैसे कि-(नित्तिणाई वणाई) बिना घासके जंगल (अणिप्फ एणसस्सं वा मेइणी) अथवा पृथिवी में धान्य वगैरह न पैदा हुए हों, (सुक्काणि अ कुडसरणईदीहिअतहागाई) और सूखे हुए कुण्ड सरोवर नदो दीर्घाकार जलाशय तालाव आदि को ( पासित्ता ) देख कर (तेणं साहिजड) उससे अनुमान किया जाता है, (जहां-) जैसे कि-(कुवुट्ठीग्रासी,)* कुवृष्टि-खराब बर्षा हुई है, (से तं अतीयकालगहणं ।) यही अतीत काल प्रहण है।
न पूर्वाषाढ़ा १, उत्तराभाद्रपद २, आश्लेषा ३, पार्दा ४, मूल ५, रेवती ६, और शतभिः ।
अनुराधा १, अभिजित २, ज्येष्ठा ३, उत्तराषाढ़ा ४, धनिष्ठा ५,रोहिण ६, श्रवणी । · + यहां 'सुदृष्टि होगी', यह पक्ष वचन; श्राकाश का निर्मलपना इत्यादि, हेतु; और "जैते भागे हुई थी", यह दृष्टान्त है।
* 'चेव' निपात है और यहां पर वाक्यालंकार में पाया हुआ हैं ।
x पूर्वोक्त तृणादि कुदृष्टि के कारणों की अपेक्षा विपरीत प्रतिपादन करनेसे कुदृष्टि श्रादि का बोध होता है। और इसके भी पक्ष, हेतु, उदाहरण प्रादि यथासंभव पूर्व से विपरीत कल्पित कर लेना चाहिये।
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[ उत्तराधम् ]
१८५ (से किं तं पडुप्पएणकालगहणं ? वर्तमान काल ग्रहण किसे कहते हैं ? (पडुप्पबाजाहणं प्रहण किये हुए पदार्थों को अनुमान के द्वारा वर्तमान काल में निर्णय करना उसे प्रत्युत्पन्न-वर्तमान काल ग्रहण कहते हैं, जैसे कि--( साहुं गोअरण) -गोचरो गये हुए माधु को (भिक्खं अलभभाए) भना.नहीं मिलते हुए (पासित्ता) देख कर (तेगां सादिजइ) उस से अनुमान किया जाता है, जहा.) जैसे कि-(भिक्खे बट्टइ,) दुर्भिक्ष वर्त रहा है, (से तं पटुप्पएणकालाहां।) अतः यहा प्रत्युत्पन्न काल प्रहण है ।
(से किं तं.अणागपकालगहणं ?) अनागत काल ग्रहण किसे कहते हैं ? (अणागय कालग्रहणं) अनागत काल ग्रहण उसे कहते हैं, जैसे कि-(यूमायंति दिसाओ, संविअमेरणी अपडिवता । वाग नेरइया खलु. कुखुट्टामेवं निवेयोत ॥१॥) धूम युक्त दिशाओं के देखने से, पृथिवा का सिग्धपना न होने से, नैऋत कोग को हवा होने से, निश्चय हो कुवृष्टि के लक्षण प्रतीत होते हैं ।।१॥
(अग्गयं वा) अथवा आग्नेय भराइल के नक्षत्र * हो (वायचं वा) या वायव्य मण्डन के नक्षत्र हों (अए एयर वा अप्पत्य उपाय) या अन्य काई खराब उत्पाद हो, उस को (पासित्ता) देख कर (ते पाहिजइ,) उस से अनुमान किया जाता है, (जहा.) जैसे कि-कुधुट्ठी भविस्सइ) खराब बर्षा होमी, (से तं पणागयकालगहणं ।) यही अना. गत काल प्रहण जानना चाहिये । ( स तं वितसदि,) यही विशेषदृष्ट है, (से तं दिसाहमित्रं,) यही दृष्टसाधम्यवत् और (से तं अणुनाणे ।) यही अनुमान प्रमाण है ।
भावार्थ-उक्त सामान्य रूप अनुमान द्वारा तीनों काल के पदार्थों का बोध होता है, जैसे कि वन में तृण विशेष उत्पन्न हुए हैं, अथवा पृथ्वी में धान्यों की निष्पत्ति अतीव हु ईहै, या सभी जलाशय जलसे परिपूर्ण हैं, इत्यादिकों के देखने से अनुमान होता है कि यहां पर सुवृष्टि हुई है, यह भूत काल के पदार्थों का ज्ञान है। इसी को अतीत काल ग्रहण अनुमान कहते हैं।
वर्तमान काल के पदार्थों के लिये यह उदाहरण है, जैसे कि-पोचरी गये
* विशाखा १, भरणी २, पुष्य ३, पूर्वाफाल्गुनी ४, पूर्वाभाद्रपद् ४, मघा ६, और कृत्तिका ७।
+चित्रा १, हस्त २, अश्विनी ३, स्वाति ४, मार्गशीर्ष ५, पुनर्वसु ६, और उतरण २.फाल्गुनी.५।
यहां पर भी पक्ष, हेतु और दृष्टान्त यथासम्भव पूर्ववत् घटा लेना चाहिये ।
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[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] हुए साधु को गृहस्थों से विशेष-प्रचुर आहार पानी देते हुए देख कर अनुमान किया कि यहां पर सुभिक्ष-सुकाल है।
अनागत काल के लिये, जैसे कि--निर्मल आकाश में काले पहाड़ जैसे बिजली सहित मेघों की गर्जना तथा अनुकूल वायु, रक्त सन्ध्या, वरुण या महेन्द्र मण्डल के नक्षत्र हों अथवा शुभ उत्पतों को देख कर अनुमान होता है कि सुवृष्टि अवश्य होगी ।
इसी प्रकार ये तीनों उदाहरण विपरीत भी होते हैं, जैसे कि-वन निस्तृण हैं, पृथ्वी में धान्य भी उत्पन्न नहीं हुए, जलाशय भी शुष्क हो गये । इससे अनु. मान होता है कि यहां पर कुवृष्टि हुई है । यह अतीत काल का उदाहरण है।
वर्तमान काल का निम्न प्रकार से जानना चाहिये--नगर में गोचरी लेने के लिये गये हुए किसी साध को भिक्षा प्राप्त नहीं होते हुए देख कर अनुमान किया कि यहां पर दुर्भिक्ष है।
भविष्यत्काल के लिये, जैसे कि-अभी दिशाओं में धू'बाहो रहा है,पृथिवी भी शुरुक है, वायु वर्षा के अनुकूल नहीं है, अाग्नेय और वायव्य मंडल के नक्षत्र हैं, श्राकाश में भी अशुभ उत्पात हो रहे हैं । इस से अनुमान हुआ कि यहां पर कुवृष्टि होगी । इसी प्रकार अन्य उदाहरण भी जानने चाहिये।
उपरोक्त सभी उदाहरण अनुमान प्रमाण के तीनों काल के हैं। इन में पक्ष हेतु और दृष्टान्त, ये तीनों यथासम्भव घटाना चाहिये।
उपमान प्रमाण से कितं ओवम्मे ? दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- साहमोवणीए अवेहम्मोवणीए अ।
से कितं साहम्मोवणीए ? तिवहे पण्णत्ते, तं जहाकिंचिसाहम्मोवणोए पायसाहम्मोवणीए सव्वसाहम्मोवणीए।
से कि तं किंचिसाहम्मोवणीए ? जहा मंदरो तहा सरिसवो जहा सरिसवो तहा मंदरो, जहा समु. तहा गो.
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[ उत्तरार्धम् ]
१८७ प्पयं जहा गोप्पयं तहा समुहै, जहा आइच्ची तहा खजोतो जहा खज्जोतो तहा आइच्यो जहा चंदो तहा कुमुदो जहा कुमुदो तहा चंदो, से तं किंचिसाहम्मोवणीए ।
से कि त पायसाहम्मोवणीए ? जहा गो तहा गवओ जहा गवो तहा गो से तं पायसाहम्मोवणोए ।
से कि तं सम्बसाहम्मोवणीए ? सव्वसाहम्मे ओवम्मे नस्थि तहावि तेणेव तस्ल ओवम्म कोरइ, जहा अरिहंतेहिं अरिहंतसरिसं कयं, चकाहिणा चकवहिसारस कयं, बलदेवेण बल देवसरिसं कयं, वासुदेवेण वासुदेव सरिसं कयं साहुणा साहुसरिसं कयं, से तं सबसाहम्मे, से तं साहम्मोवणीए।
- से किं तं वेहम्मोवणोंए ? तिविहे पण्णत्ते, तं जहांकिंचिवेहम्मे पायवेहम्मे सव्ववेहम्मे । .. से किं तं किंचिवेहम्मे ? जहा साम मेरो न तहा बाहु लेरो जहा बाहुलेरो न तहा सामलेरो, से तं किंविवेहम्मे ।
से कि तं पायवेहम्मे ? जहा वायसो न तहा पायतो जहा पायसो न तहा वायसो, से तं पायवेहम्मे। ___ से कि तं सव्ववेहम्मे ? सबवेहम्ने ओवम्मे नत्थ, तहावि तेणेव तस्स ओवम्मं कोरइ, जहा णीएण णीमस रिसंकयं, दासेण दाससरिसं कयं, काकेण काकासरिसं कयं, साणेण साणसरिसं कयं, पागोण पाणसरिसं कयं, से तं सव्ववेहम्में, से तं वेहम्मोवणोए, से तं ओवम्मे ।
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१८८
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
पदार्थ - ( से किं तं * श्रोत्रम् ? ) उपमान प्रमाण किसे कहते हैं ? (ओत्र मे ) जिन सदृश वस्तुओं का परिमाण परस्पर तुल्य कर के दिखलाया जाय उसे उपमा कहते हैं और जिस में उपमा का भाव हा उसे औपम्य-उपमान जानना चाहिये, और वह (वि) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया, (तं जहा ) से कि(सामाणी ) साधर्म्यापनीत और (हम्मात्र सोए अ ) वैधम्र्योपनोत ।
( से किं तं साहम्नोत्रणीए ? ) साधम्योपनीत किसे कहते हैं ? ( साहम्मोन बोए: जिन पदार्थों को साधम्यता -संजातीयता उपमा के द्वारा सिद्ध की जाय उसे साधयोनीत कहते हैं, और वह (तिहि परणचे) तॉन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है। ( तं जहा - ) जैसे कि - ( किंचिसाहम्मात्रीए ) किंचित्साम्यपनोत ( पायसाहम्मीणीए) प्रायः साधर्म्यापनोत और (ससाहम्मोत्रणीए ) सर्वसाम्यापनीत |
(से किं तं किं चसाहम्मोवणीए ? ) किंचित्साचन्यापनीत किसे कहते हैं ? (किंांच साहम्पोवणीए) किंचित्साधम्र्म्यापनात उसे कहते है जिसमें किंचिन्मात्र साधर्म्यता पाई जाय, जैसे कि - ( जहा मंदो) जिस प्रकार +मन्दर है ( तहा सरिसवा) उसी प्रकार सरसों है, और (जहा सरिसवो तहा मंद) जैसे सरसों है उसी प्रकार मन्दर है, (जहा समुद्दो) जिस प्रकार समुद्र है ( तहा गोप्ययं ) उसी प्रकार गोष्पद - आखात है, ( जहा गोप्ययं ) जिस प्रकार गोष्पद हैं ( तहा समुद्दो) उसी प्रकार समुद्र हैं; तथा-( जहा श्राइवी तहा खजातो) जिस प्रकार आदित्य - सूर्य है, (तहा खजाता ) उसी प्रकार खद्योत -- पटवीजना है ( जहा खजाती तहा इच्चा ) जैसे खद्योत है वैसे ही सूर्य है,
अथवा ( जहा चंदो तहा कुमुदा ) जिस प्रकार चन्द्रमा है उसी प्रकार कमल हैं, और ( जहा कुमुदो तहा चंदा, ) जैसे कमल है वैसे हो चन्द्रमा है, (सेत किचितादम्माणए ।) यही किंचित्साधयेोपनीत है ।
( से किं तं पायसाहमात्र ? ) प्रायः नाधम्यापनीत किसे कहते हैं ? (पायसाहम्मोवीए ) जो सब प्रकार से साम्यता रक्खे लेकिन किसी में भेद हा जाय, वही
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* उपमीयते--पदृशतया वस्तु गृह्यते श्रनेनेत्युपमा सैौपम्यम् ।
+ पहाड़ या मेरु पर्वत ।
+ क्योंकि दोनों ही मूर्तिमान् हैं। यद्यपि उनके परस्पर बहुत भेद हैं तथापि मूर्तिमत्र में साम्यता है ।
+ अर्थात दोनों ही जलाशय रूप हैं
'
+ क्योंकि दोनों ही श्राकाशगामी और प्रकाशक हैं ।
x अर्थात चन्द्र और कुमुद दोनों ही शुक्ल
।
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[ उत्तरार्धम् ] प्रायःसा म्यो पनीत हैं । ( जहाँ *गो तहा गवनो) जैसे गौ है उसी प्रकार गवयनील गाय है, और (जहा गवत्रो तहा गो,) जिस प्रकार नील गाय है उसो प्रकार गौ है, (से तं पायसाहम्मोवणीए ।) वही प्रायःसाधम्यो पनीत है।
(से किं तं सवसाहम्मोवणीए ? ) सर्वसाधोपनात किसे कहते है ? (मध्वसा. हम्मोवणीए) जिस में सभी प्रकार की समानता पाई जाय, उस को सर्वसाधोपनीत कहते हैं परन्तु ( सव्यसाहम्मे ) सर्वसाधम्यंपने में (श्रोत्रम्मे नत्थिः ) उपमा नहीं होती, (तहावि) तो भो ( तेणेव तम्स ) उसीसे उसको (ोत्रम् कोड,) उपमा की जाती है, (जहः-) जसे कि-(x अरिहंतेहि अरिहंतपरिसं कयं,) + अरिहंत ने अरिहन्त के समान किया, (चक्कक्षिणा चकवट्टिसरिसं कयं,) चक्रवर्ती ने चक्रवर्ती के समान किया, (बलदेवेण बलदेवतरिसं कयं,) बलदेव ने बलदेव के सदृश किया, ( वासुदेवेण वासुदेवतरिसं कयं,) वासुदेव ने वासुदेव के समान किया, ( साहुणा ) साधु ने (साहुसरिसं कथं,) साधु के समान किया, (से तं सबसाहम्मे,) यही सर्वसाधोपनीत है, और (से तं साहम्मोवणीर) यही साधम्यो पनीत है।
(से किं तं वेहम्मोवणीए ?) वैधम्यो पनीत किसे कहते हैं ? ( वेहम्मोवणीए ) जो सामान्य धर्मसे विपरीत हो और वह (तिविहे पएणते,) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं ज्हा- ) जैसे कि--(किंचिवेहम्मे) किंचिद्वधर्म्य (पायवेहग्मे) प्रायः वैधर्म्य और (सब्यवेहम्मे ।) सर्ववैधर्म्य ।।
( से किं तं किंांचवेहम्मे ! ) किंचि द्वैधय किसे कहते हैं ? (कि वेहम्मे) जिसमें किचिन्मात्र वैधर्म्यता हो, जैसे कि- जहा सामलेरो) जिस प्रकार श्याम गौ का बछड़ा
* सकम्बलो गौः अर्थात् गौ सास्नादियुक्त होती है । टत्तकष्ठस्तु गवयः अर्थात् नील गाय के वत्तुलाकार कण्ठ हो । है । खुर, ककुद, सींग आदि सब में तो साम्यता है, सिर्फ नील गाय का वर्तलाकार करऽ है और गौ सास्नादियुक्त होती है । इसी लिये प्रायःसाधम्योपनीत है।
+"भिसो हि हिं हिं ।” प्रा० व्या० । ८ । ३। ७ । तथा "भिस् यस्सुपि ।" प्रा० व्या० । । ३ । १५ । इन सूत्रों से उक्त पद 'अहंत' शब्द का तृतीया का बहुवचन सिद्ध होता है।
x 'तीर्थं का स्थापन करना' इत्यादि कार्य अरिहन्त ने अरिहन्त के समान ही किया । क्योंकि लौकिक में यह भली प्रकार से प्रगट है कि किसी के किये हुये अद्भुत कार्य को देखकर ऐसा कहा जाता है कि-इस कार्य को आप ही कर सकते थे अथवा श्रापके तुल्य जो होगा वही इस कार्यको कर सकता था, अन्य नहीं।
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१९०
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] है (न तहा बाहुलेरो,) उसी प्रकार श्वेत गौ का बछड़ा नहीं है, और (जहा बाहुलेरो) जैसे श्वेत गौ का बछड़ा होता है, (न तहा सामलेगे,) उसो प्रकार श्याम गौ का बछड़ा नहीं होता * (से तं किंचिवेहम्मे ।) यही किंचिद्वैधर्म्य है।
- (से किं तं पायवेहम्मे ?) प्रायः वैधर्म्य किसे कहते हैं ? (पाथवेहम्मे) जिसमें करीब २ वैधर्म्यता हो, यथा-(जहा वायप्तो) जिस प्रकार कौआ होता है (न तहा पायसो,) उसी प्रकार दूध नहीं होता, और (जहा पायसो) जिस प्रकार होता है (न तहा वायसो) तद्वत् कौश्रा नहीं होता । (से तं पायवेहम्मे ।) यही प्राय:वैधर्म्य है ।
(मे किं तं सव्ववेहम्मे !) सर्ववैधर्म्य किसे कहते हैं ? (सव्ववेहम्मे) जिसमें किसी प्रकार की भी सजातीयता न हो, यद्यपि (मञ्चवेहम्मे) सर्ववैधर्म्यपने में । (प्रोवम्मे नत्थि) उपमा नहीं होतो, (तहावि) तथापि (तेणेव तस्स) उस को उसी के साथ (अोवम्मं कीरइ,) उपमा की जाती है, ( जहा:-) जेसे-(णीएण एीअसरिसं कयं, ) नीव ने नीच के समान किया, (दासेण दाससरिसं कयं,) दास-सेवक ने दासके समान किया, और (काकण काकसरिसं कयं,) कौए ने कौए जैसा किया, (साणेण साणसरिसं कयं,) श्वान-कुत्त ने श्वान
___ * अत्र च शेषवस्तुल्यत्वाद्भिननिमित्तजन्मादिमावस्तु वैलक्षण्यात किंचिद्वधम् भावनीयम् । अर्थात् यहां पर गोपन में तो कुछ भेद नहीं है लेकिन माता के गृथक भाव होने से वर्ण भेद अवश्य है। इसी कारण उसकी किंचिव चयंता सिद्ध को गई है।
- अत्र वायसपायसयोः सचेतनत्वाचेतनत्वादिभिर्वहुभिर्धमविसंवादात अभिवानगतवर्णद्वयेन सत्यादिनात्रतश्च साग्यात्प्रायोवैवयंता भावनीया । अर्थात् 'वायस' कौए का और 'पायस' दूध का नाम है, इस लिये दोनों में साम्यता नहीं हो सकती । कारण कि 'वायस' चैतन्य है और 'पायस' जड पदार्थ है। सिर्फ इनके नामों में दो दो वर्षों की सान्यता है । अतः यहां पर प्रायःवै. धम्ता जाननी चाहिये।
सर्यवेवम्यं तु न कस्यचित्केनापि सम्भवति, सत्त्वप्रमेयत्वादिभिः सर्वभावानां समानत्वात्, तैरप्यसमानत्वे ऽसत्त्वप्रसङ्गात् । तथापि तृतीयभेदोपन्यासवैवर्थ्यमाशङक्याह । अर्थात् सर्ववैधर्म्य तो वास्तव में किसी का किसी के साथ नहीं हो सकता । क्योंकि कम से कम सत्व और प्रमेयत्व
आदि गुणों से तो संपूर्ण पदार्थ परस्पर में समान ही हैं । यदि इनसे भी असमानता हो तो पसार्थ के अप्सत्व-प्रभाव का ही प्रसङ्ग हो जाय । तो भी तीसरे भेद सर्ववैवयं की व्यर्थता को दूर करने के लिये कहते हैं । 'इस ने गुरु मतादि जैसे अत्यन्त खराब काम किये हैं, जिसको नीच से नीच भी नहीं कर सकता।' इसी प्रकार दासादि के उदाहरण भी जानने चाहिये।
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[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] जसा किया. (पाणेण पाणसरिसं कर्य) नीच ने नीच के सदृश किया, (से तं सव्ववेहम्मे) यही सर्ववैधर्य है। और (से तं वेहम्मोवणीए । ) यही वैधम्या पनीत है। (से तं श्रोवम्मे ।) इसी को उपमान प्रमाण जानना चाहिये ।
भावार्थ-उपमोन के दो भेद हैं, जैसे कि-साधोग्नीत और वैधोपनीत।
साधोपनीत तीन प्रकार का है, जैसे किंचित्साधोपनीत, प्रायः साधोपनीत और सर्वसाधोपनीत ।
किंचित्साधोपनीत उसे कहते हैं जिसमें किंचित् साधर्म्यता हो; जैसे जिस प्रकार मेरु पर्वत है, उसी प्रकार सर्षप का बीज है, क्यों कि दोनों ही मूर्ति मान हैं । और जैसे समुद्र है, उसी प्रकार गोष्पद है, क्यों कि दोनों ही जलाशय हैं, तथा जैसे श्रादित्य है उसी प्रकार खद्योत भी है, क्यों कि दोनों ही प्रकाशक और आकाश गामी है. और जैसे चन्द्र है वैसे ही कुमुद है, क्यों कि दोनों ही श्वेत हैं । यही किंचित लोधोपनीत है।
प्रायः साधोपनीत उसे कहते हैं जो करीब २ साधर्म्यता रक्खे, जैसे गौ है वैसे ही गवय नील गाय है केवल सास्नादिवर्जित ही गवय होता है, शेष अङ्गोपाङ्ग गौ के ही सदृश होते हैं ।
देशकालादि भिन्न होने से सर्वसाधर्म्य की उपमा कभी हो ही नहीं सक्ती तथापि इसके निम्नलिखित उदाहरण हैं, जैसे कि-अर्हत् ने अर्हत् के तुल्य तीर्थ प्रवर्तनादि कृत्य किया अथवा चक्रवर्ती ने चक्रवर्ती के समान कार्य किया। इसी प्रकार अन्य उदाहरण जानने चाहिये । इसी को सर्वसाधोपनीत उपमान कहते हैं।
वैधयोग्नीत तीन प्रकार का है। जैसे कि-किञ्चिद्वधर्म्य, प्राय:वैधर्म्य और सर्ववैधर्म्य
किन्क्षिद्वधर्म्य उसे कहते हैं जिसमें किञ्चिन्मात्रा वैधर्म्यता हो, जैसेजैसा सांवली गौ का बछड़ा है वैसा सफेद गौ का नहीं है, क्यों कि वर्ण भेद है। इसी प्रकार
प्रायः वैधर्म्य-जैसे कौत्रा है उसी प्रकार दूध नहीं है। खर्व वैधर्म्य जैसे-नीच ने नीच के समान ही कृत्य किया है। इसी एकार
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.[उत्तरार्धम] दास, कौमा, श्वान, चाण्डाल आदि उदाहरण जानने चाहिये । इसी को सब पैवयंकहते हैं।
यही वैधोग्नीत तथा उपमान प्रमाण है। बागम-प्रमाण निम्न अनु. सार जाममा चाहिये
मागम प्रमाण
से किं तं आगमे ? दुविहे पण्णत्ते, तं जमा- लोउए अलोउत्तरिए अ।से किंतं लाइए ? जगणं इमं अण्णाणि. एहि मिच्छादिट्टीएहि सच्छंदबुद्धिमइविग्गप्पियं, तं जहा. भारहं रामायणं जाव चत्तारि वेया संगोवंगा, से तं लोइए आगमे ।
से किं तं लोउत्तरिए ? जगणं इमं अरिहंतेहिं भगवतेविं उप्पाणणाणदंसणधरेहिं तीयपच्चुपएणमणागयजाणएहि तिलुक्कवहिअमहिअपूइएहि सव्वएण हि सबदरसाहि पणींअं दुवालसंगं गणिपिडगं, तं जहा- यारो जाव “दिट्टिवाओ । अहया आगमे तिविहे पण्णत्ते. तं जहासुत्तागमे अत्थागमे तदुभयागमे । अहवा-आगमे तिविहे पएणते, तं जहा-भत्तागमे अणंतरागमे परंपराग तित्थगराणं अत्थस्स अत्तागमे गणहराणं सुत्तस्त अत्तगर्म 'अत्यस्स अणंतसगमे गणहरसीसाणं सुत्तस्स प्रणंतरागमे अत्थस्स 'परंपरागमे । तेणं परं सुत्तस्सवि अस्थस्सविणो अत्तागमे णो अणंतरागमे परंपरागमे, से तं लोंगुत्तरिए से तं आगमे, से तं णाणगुप्पमाणे ।
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१९३
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] पदार्थ-( से किं तं यागमे ? ) = आगम प्रमाण किसे कहते हैं ? (अागमे) जो गुरु परम्परा से आया हो अथवा जिससे सत्र प्रकार के जीवादि पदार्थ जाने जायं, उसे आगम कहते हैं, और वह ( दुविहे पण्णत्ते, ) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा- जैसे कि-(लोइए अ) लौकिक और (लोउत्तरिए अ।) लोकोत्तरिक।।
(से किं तं लोइए ?) लौकिक आगम किसे कहते हैं, ( + लोइए) जिसको लोगों ने रचा हो, जैसे कि-(जएणं इम) जिन को इन (अण्णाणिएहि मिच्छादिहीपहि) अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों ने ( + सच्छदबुद्धिमइविगप्पियं,) स्वच्छन्द बुद्धि और मति से रचा हो (तं जहा- ) जैसे कि-भारह) महाभारत (रामायण) रामायण (जाव चत्तारि वेया संगो. वंगा x ) और साङ्गोपाङ्ग चारों वेद (से तं लोइए श्रागमे ।) यही लौकिक आगम है।
(से किं तं लोउत्तगिए ? . लोकोत्तरिक आगम किसे कहते हैं ? (लोउत्तरिए) जो लोकोत्तर पुरुषों ने रचे हों, जैसे कि-(मरण इम) जिन को इन (अरिहंतेहिं भगवंतेहिं उप्परगणाणदसणथरेहिं) संपूर्ण ज्ञान, दर्शन को धारन करने वाले श्री अरिहंत भगवान् जो कि (तीय पच्छुपाए ण णायलागाए हैं) भूत, भविष्यत् और वर्तमान के जानने वाले, तथा (तिलुककैयहि अमहियाँ ) त्रिलोकवासा जीवा से सहर्ष पूजित ऐसे (सम्बएण हे सव्वदरसीहिं ) सर्वथा सर्वदर्शियों ने (पणीयं दुवालसंग गणिपिडगं,) जो कि द्वादशांग रूप
गणिपिटक रचना को, (नं जहा-, जैत कि-(अायारो : जाव दिहिवाग्री) आचारांग से लगाकर दृष्टिवाद तक । ये ही लाकोत्तरिक-प्रधान आगम हैं।
= गुरु (प्राचार्य) पारम्पयनागच्छत्तीत्यागमः, श्रा-समन्ताद्गभ्यन्ते-ज्ञायन्ते जीवादयः पदार्था अनेनेति वां आगमः ।
* लोकः प्रणीतं लौकिकम् । + स्वच्छन्दबुद्धिमतिविकल्पितं-स्यबुद्धिविकल्पनाशिल्पिनिर्मितम् ।
x तत्राङ्गानि-शिक्षा १, कल्य २, व्याकरण ३, च्छन्दो ४, निरुक्त ५, ज्योतिटकायन ६; उपाङ्गानि तद्व्याख्यारूपाणि, तैः सह वर्तन्ते इति साङ्गो गङ्गाः अर्थात् शिक्षा १, कल्प २, याकरण ३, च्छन्द ४, निरुत ५, और ज्योतिप्कायन ६, ये अङ्ग हैं, इनकी व्याख्या रूप ग्रन्थ उपाङ्ग हैं, इन सहित वेद, 'साङ्गोपाङ्ग वेद' कहलाते हैं ।
* वहिय' त्ति-विगलबहलानन्दाश्रुदृष्टिभिः सहर्ष निरीक्षिता यथावस्थितानन्यसाधारणगुणोत्कीर्तनलक्षणेन भावस्तवेन ।
नगणिपिटक-गुणगणोऽस्यात्तीति गणी-प्राचार्य--स्तस्य पिटक-सर्वस्वं गणिपिटकम् । अर्थात् जिसमें सभी प्रकार के गुणों के समुदाय हो, उसे 'गणिपिटक' कहते हैं।
यावत् शब्द से सूत्रकृत् १, स्थानाङ्ग २, समवायाङ्ग ३, व्याख्याप्रज्ञप्ति-भगवती सूत्र ४,
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१९४
[ उत्तरार्धम्] (अहवा ) अथवा (आगमे) आगम (तिविहे पण्णत्ते, ) तोन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि-(सुत्तागमे) * सूत्रागम (अत्यागमे ) अर्थागम और (तदुभयागमे ) तदुभय आगम अर्थात् सूत्र और अर्थ दोनों सहित ।
(अहवा) या आगमे) आगम (तिविहे पएणत्ते, ) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (जहा.) जैसे कि--(अत्तागमे) आत्मागम (अणंतरागमे ) अनन्तरागम और (परंपरागमे,) परम्परागम । (तित्थगराणं अत्थस्स) तीर्थकरों के अर्थ को ज्ञान (अत्तागमे)
+ आत्मागम जानना चाहिये, तथा--( गणहराणं सुत्तस्स ) गणधरों के सूत्र का ज्ञान (अत्तागमे) आत्मागम जानना चाहिये, और (अस्थस्स ४ अणंतरागमे) अर्थ का अनन्तरागम होता है, तथा (गणहरसीप्ताणं) गणधरों के शिष्यों के (सुत्तस्स + अणंतरागमे) सूत्र के ज्ञान को अनन्तरागम कहते हैं, और ( अत्यस्स परंपरागमे,) अर्थ का परम्परागम होता है, (तेणं परं) तत्पश्चात् सुत्तस्सवि अत्थस्सवि) सूत्र और अर्थ दोनों ही का (णो. अत्तागम) आत्मागम भी नहीं है और (णो अणंतरागमे) अनन्तरागम भी नहीं है सिर्फ (परंपरागमे,) परम्परागम जानना चाहिये, (से तं लोगुरु रिए,) यही लोकोत्तरिक है और (से तं आगमे,) यही आगम है, तथा (से तं णाणगुणप्पमाणे ।) इसी को ज्ञानगुणप्रमाण जानना चाहिये।
माताधर्मकथा ५, उपासकदशा ६, अन्तकृद्दशा ७, अनुत्तरोपपातिक दशा ८, प्रश्नव्याकरण ६,
और विषाकसूत्र १० । इत्यादि का ग्रहण करना चाहिये, शेष दो के नाम मूल पाठ में आ ही गये हैं। इन्हीं के समुदाय को गणिपिटक कहते हैं ।
+ अर्थात् सिर्फ मूल पाठरूप । मूल सूत्र का सिर्फ अर्थ ।
+क्योंकि वे केवलज्ञान से स्वयमेव पदाथों को जानते हैं। इसलिये उनके अर्थ को आत्मागम कहते हैं।
४ गणधर महाराज सूत्रों की स्वयमेव रचना कहते हैं, इसलिये उनके रचे हुए सूत्रों को सूत्रागम कहते हैं । अागम में भी कहा है-'अस्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंति गणहरा निउण" अर्थात् अहंदगवान् अर्थ कहते हैं, निपुण गणधर महाराज सूत्र को गूथते है'।
क्योंकि गणधर महाराज कोई भी अन्तर बिना तर्थंकरों से अर्थं सीखते हैं, इस लिये अर्थ से ज्ञान को अनन्तरागम जानना चाहिये ।
अर्थात् शिष्य, गणधरों के पास विना अन्तर अध्ययन करते हैं।
* क्योंकि तीर्थंकरों से अर्थ का ज्ञान गणधरों को प्राप्त हुआ, और गणधरों से उनके शिष्यों को अवगत हुआ, अर्थात परम्परा से प्राप्त हुआ, इसलिये इसे परम्परागम कहते हैं।
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[ उत्तरार्धम् ]
१९५
}
भावार्थ - जो परम्परा से श्राया हो, अथवा जिसके द्वारा जीवादि पदार्थों 'का पूर्ण ज्ञान हो, उसे श्रागम कहते हैं । जैसे कि - लौकिक और लोकान्तरिक । लौकिक श्रागम उसे कहते हैं, जिनको सम्यक्त्व रहित अज्ञानी जीवों ने रचा हो । जैसे कि-रोमायण महाभारतादि । ये लौकिक श्रागम हैं ।
लोकोत्तरिक श्रागम उन्हें कहते हैं, जिनको पूर्ण ज्ञान और दर्शन को धारण करने वाले, भूत भविष्यत् और वर्तमान तीनों काल के पदार्थों के ज्ञाता, तीन लोक के जीवों से पूजित सर्वज्ञ सर्वदर्शी श्री अरिहन्त भगवान् ने बनाया है । जैसे कि- द्वादशाङ्ग रूप गणिपिटक । क्योंकि
'श्राप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः । श्रर्थात् 'आप्त वचनादिकों से होने वाले पदार्थों के ज्ञान को आगम * कहते हैं ।
इस से यह सिद्ध हुआ कि लौकिक श्रागमों के प्रणेता पुरुष श्रात्मश्चानी नहीं है । इस लिये वह प्रमाणभूत नहीं है । और द्वादशाङ्गी प्राप्त रूप होने से प्रमाणभूत है ।
* प्रथागमो लक्ष्यते — प्राप्तवाक्यनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः ।
त्रागम इति लक्ष्यमवशिष्टं लक्षणम् ग्रर्थज्ञानमित्येतावदुच्यमाने प्रत्यक्षादावतिव्याप्तिः, श्रत उक्तम्' वाक्यनिबन्धन' मिति । 'वाक्यनिबन्धनमर्थज्ञानमागम' इत्युच्यमाने ऽपि यादृच्छिक संवादिषु विप्रलम्भवाक्यजन्येषु सुप्तोन्मत्तादिवाक्यजन्येषु वा नदीतीरफलसंसर्गादिज्ञानेष्वतिव्याप्तिः । अतः उक्तमाप्तेति, प्राप्तवाक्यनिबन्धनज्ञानमित्युच्यमाने ऽपि श्राप्तवाक्यकर्म के श्रावणप्रत्यन्ते ऽतिव्यादितः । श्रुतः उक्तम्–'श्रर्थे' ति, अर्थस्तात्पर्यरूप इति यावत् । 'तात्पर्यमेव वचसी' त्यभियुक्तत्रचनात् । ततः - श्राप्तवाक्यनिबन्धनमर्थज्ञानमित्युक्तमागमलक्षणं निर्दोषमेव । यथा - " सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्राणि मोक्षमार्गः ।” ( त० । १ । १ । ) इत्यादि वाक्यार्थज्ञानम् । 'सम्यग्दर्शनादित्रयमेव मोक्षस्य सकलकर्म चायस्य मार्ग उपयो न तु मार्ग: । ततो भिन्नलक्षणानां दर्शनादीनां त्रयाणं समुदितानामेव मार्गत्वं न तु प्रत्येकमित्यर्थः, मार्ग इ. येके वचनप्रयोगात् तात्पर्य सिद्धि: । श्रयमेव बाक्यार्थः । अत्रैवार्थे प्रमाणं साध्यसंशयादिनिवृत्तिः प्रमितिः । कः पुनरयमाप्त इति चेदुच्यते । श्राप्तः प्रत्यचाप्रमितसकलार्थत्वे सति परमहितीपदेशकः । प्रमितेत्यादावेवोच्यमाने च तकेवलिप्वतिव्याप्तिः । तेषामागमप्रमितसकलार्थत्वात् । अतः उक्त प्रत्यक्षेति । प्रत्यक्ष प्रमितसकलार्थं इत्येतावदुच्यमाने सिद्धवतिव्याप्तिः । श्रतः उक्त' 'परमेत्यादि' परमं हितं निश्रेयसम् । तदुपदेश एव श्रर्हतः प्रामुख्येन प्रवृत्तिः, अन्यत्र तु प्रश्नानुरोधादुपसर्जनत्वेनेति भावः । नैवंविधः सिद्धपरमेष्ठी तस्यानुपदेशकत्वाद । ततोऽनेन बिशेषी न । तत्र नातिव्याप्तिः । श्राप्तसद्भावे प्रमाणमुपन्यस्तम् । नैयायिका व्यभिमतानामाप्ताभासानामसर्वज्ञत्वात् प्रत्यक्षममितेत्यादि विशेषणेनैव निशसः । न्यायदीपिका ।
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
अथवा आगम तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, जैसे कि-सूत्रा गम १, श्रर्थागम २, और तदुभयागम ३ । अथवा श्रात्मागम १, अनन्तरागम २, और परम्परागम ३।
तीर्थंकरों से प्ररूपित श्रर्थ को आत्मागम जानना चाहिये । तथा गणधरों के रचे हुये सूत्र को श्रात्मागम और अर्थ को अनन्तरागम कहते हैं, श्रौर गणधरों के शिष्यों के सूत्र अनन्तरागम और अर्थ परम्परागम होता है तत्पश्चात् सूत्र और अर्थ दोनों ही परम्परागम होते हैं ।
क्योंकि - श्रात्मागम उसे कहते हैं जो स्वयमेव बोध हुश्रा हो, तथा जो बिना अन्तर गुरु से अध्ययन किया हो उसे अनन्तरागम जानना चाहिये । परपरागम उसे कहते हैं जो अनुक्रमपूर्वक वृद्ध लोग ज्ञान सीखते श्राये हों और आगे को भी परिपाट्यनुकूल सीखते जायं इस वर्णन से अपौरुषेय वाक्यों का भली भांति निषेध हो जाता है। क्योंकि वर्षों के तात्वादि श्रष्ट स्थान होते हैं और सूत्र भी वर्णमय होते हैं। तथा अशरीरी जीवों के वचनयोग नहीं होता, इस लिये अपौरुषेय वाक्य युक्तिसंगत नहीं होत | इसी को ज्ञान गुण प्रमाण कहते हैं । इसके बाद दर्शन गुण प्रमाण का स्वरूप जानना चाहियेदशक गुण पाया ।
से किं तं दंसणगुणष्पमाले ? चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - चक्खुदंससाणे अचवखुदंसण गुणप्पमाणे श्रहिंदंसणगुप्पमाणे केवल सगुणप्पमाणे । चक्खुदंसणं चक्खुदसणिस्स घडपडकडर होइएस सु अचक्खुदंसणं अचक्खुदंसणिस्स आयभावे श्रहिसणं ओहिदंसणिस्स सव्वरुविदव्वेसु न पुर्ण सव्वपज्जवेसु केवलदंसणं केवलदंसणिस्स सव्वदव्वेषु सव्वपज्जवेसु
अ,
से तं दंसणगुणप्पमाणे ।
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पदार्थ -- ( से किं तं सगुणमा ? ) दर्शन गुणप्रमाण किसे कहते हैं ? ( दस गुप्पमाणे ) #दर्शनावरणकर्म के क्षयोपशम से जो उत्पन्न हो, अथवा जो
* दर्शनावरण कर्मक्षयोपशमादिजं सामान्यमात्रग्रहणं दर्शनमिति । श्रागम में भी कहा है
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[ उत्तरार्धम् ]
१९७
आत्मा का निज गुण हो उसे दर्शन गुणप्रमाण कहते हैं । और वह (चउब्बिहे पण ते) चार प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि - (चक्खुदंसण गुणप्पमाणे) चक्षुर्दर्शनगुणप्रमाण ( अचक्खुदंसण गुणप्पमागी ) अचक्षुर्द र्शन गुणप्रमाण ( श्रहिसणगुणप्पमाणे ) अवधिदर्शन गुणप्रमाण और (केवल दस गुणप्पमाणे 1) केवलदर्शनगुणप्रमाण | इनका भिन्न २ स्वरूप निम्नानुसार जानना चाहिये
(† चक्खुदंसणं चक्खुदंसणिस्स ) चक्षुर्दर्शनी का चक्षुर्दर्शन ( धडपड कराइए ) घट, पट, कट-मंचा, रथादिक ( दबे ) द्रव्यों में होता है (चक्खुर्दणं श्रचक्खुदसणि'ए) अचक्षुर्दर्शनी का x अचतुर्दर्शन (श्रयभावे) श्रात्मभाव में होता है, (ओहिदंसणं श्रोहिदंसणिस्स) अवधिदर्शनवाले का अवधिदर्शन (सव्वरुविदव्वेसु) सभी रूपी द्रव्यों में होता है, ( न पुण सव्वपज्जवेसु) सभी पर्यायों में नहीं होता । ( + केवलदंसणं केवल दंसणिस्स ) (केवलदर्शनी का केवलदर्शन ( सव्वदव्वेसु अ ) सब द्रव्य और (सन्त्रपजवेसु श्र) सभी पर्यायों में होता है, (से तं दंसण गुणप्पमाणे ।) यही दर्शन गुणप्रमाण है ।
भावार्थ - - दर्शन गुणप्रमाण चार प्रकार का है, जैसे कि - चतुर्दर्शनगुण प्रमाण, अचक्षु दर्शन गुणप्रमाण, अवधिदर्शन गुणप्रमाण और केवलदर्शन गुण
प्रमाण ।
“जं सामन्नरगहणं, भावारणं नेव कट्ट, मागारं । श्रविसेसिज थे, दंसणमिइ बुच्चए समए ॥१॥" तदेवाननो गुणः स एव प्रमाणं दर्शन गुणप्रमाणम् । । चक्षुर्दर्शन उसे कहते हैं जो भावचक्षुरिन्द्रिय havan से और द्रव्येन्द्रिय के अनुपात से | क्योंकि चतुर्दर्शनी जीव सामान्यतया
घटादि द्रव्यों को भली प्रकार से देखता व जानता 1
X चक्षुरिन्द्रियको छोड़कर शेष चार इन्द्रिय और मन इनसे श्रचतुर्दर्शन होता है, तथा भाव - चतुरिन्द्रिय के क्षयोपशम से और द्रव्येन्द्रियों के अनुपधात से प्रगट होता है 1 + क्योंकि चक्षु श्रमाप्यकारी हैं तथा श्रोत्रादि प्राप्यकारी हैं । श्रागम में भी कहा है-'पुढं सुइ सदं रूवं पुरा पासई श्रपुट्ठे तु ।'
* जिन कमों के क्षय से अवधिदर्शन प्राप्त हो, इसे श्रवधदर्शन कहते हैं । श्रवधिदर्शन को इसलिये सामान्य माना गया है कि दर्शन सामान्यावबोध रूप होता है और ज्ञान विशेष रूप होता है।
+ केवलदर्शनावरण कर्मके क्षय होने से केवलदर्शन उत्पन्न होता है, जो कि सकल पदार्थों को देखता है। क्योंकि वे सर्वदर्शी हैं, इस लिये रूपी रूपी सभी द्रव्यों में केवलदर्शन होता है । तथा मनः पर्यायज्ञान सदैव ही विशेष ग्रहण करने वाला होता है, सामान्य को नहीं । इसलिये मनःपर्यायदर्शन नहीं होता ।
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] चक्ष दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से चक्षुर्दर्शन घट पटादि पदार्थों में होता है। _अचक्षु दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से अचक्षु दर्शन उत्पन्न होता है और वह आत्मभाव में ही रहता है।
___ अवधिदर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से अवधिदर्शन सभी रूपी द्रब्यों में होता है लेकिन सभी पर्यायों में नहीं होता, क्योंकि वह केवल रूपी द्रव्यों को ही देखता है, जैसे कि रूप रस गन्ध और स्पर्श ।
___ केवलदर्शनावरणीय कर्म के क्षय से केवलदर्शन सभी रूपी और अरूपी द्रव्य और पर्यायों में होता है, क्योंकि केवलदर्शन क्षयोपशम भाव में नहीं होता, सिर्फ क्षायिक भाव में होता है । इस लिये वह मूर्त अमूर्त दोनों प्रकार के द्रव्य
और पर्यायों में होता है। इसके बाद चारित्रगुणप्रमाण का स्वरूप वर्णन किया जाता है--
से किं तं चरित्तगुणप्पमाणे ? पंचविहे पण्णत्ते, ते जहा--सामाइअचरित्तगुणप्पमाणे छेओवटावरणचरित्तगु. णप्पमाणे परिहारविसुद्धिअचरित्तगुणप्पमारणे सहमसंपरायचरित्तगुणप्पमाणे अहक्खायचरित्तगुणप्पमाणे । ___ सामाइयचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, त जहाइत्तरिए अ आवहिए श्र! छेप्रोवट्ठावणचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, सं जहा-साइयारे य निरइयारे य । परिहारविसद्धिय वरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाणिव्विसमाणए अणिविटकाइए अ । सहुमसंपरायचरित्त गुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पडिवाई अ अपडिवाई अ । अहक्खायचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तें जहाछउमथिए अ केवलिए य । स तं चरित्तगुणप्पमाणे, से तं जीवगुणप्पमाणे, से तं गुणप्पमाणे । (सू०४७)
पदार्थ-(से किं तं चरित्तगुणप्पमाणे १ ) चारित्रगुणप्रमाण किसे कहते हैं ?
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[ उत्तरार्धम् ]
१९६
(चरितगुणप्पमाणे) जो अनिन्दतपने निरवद्यानुष्ठान* रूप काचरण है उसे चारित्र कहते हैं, और वह (पंचविहे पण त्ते) पांच + प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ( तं जहा ) जैसे कि - ( सामाइन चरितगुण पमा) सामायिक चारित्र गुणप्रमाण १, ( श्रवट्ठावणचरित्तगुणप्पमाणें ) छेदोपस्थापनीय चारित्रगुणप्रमाण २, (परिहारविसुद्धिचरिधगुणप्पमाणे ) परिहारविशुद्धि चारित्रगुणप्रमाण ३, ( मुहुमसंपरायचरितगुप्पमाणे ) सूक्ष्म सम्परायचारित्रगुणप्रमाण ४, (* श्रहखायचरिचगुणप्पमाणे) अथाख्यात चारित्रगुणप्रमाण ५ ।
( सामाइन चरिचगुणप्पमाणे ) सामायिक चारित्रगुणप्रमाण (दुविहे पण्णत्ते, ) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है (तं जहा-) जैसे कि -- ( इरिए ) इत्वरिक - स्वल्पकालिक और (आवहिए अ । ) यावत्कथिक - - आयुः पर्यन्त ं । (छेश्रोवट्ठावणचरितगुण पमाणे ) छेदोपस्थापनीय चारित्रगुण प्रमाण ( दुविहे पत्ते, ) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि - ( साइयारे य ) अतिचारों के निमित्त से जो छेदोपस्थापन प्रायश्चित्त प्राप्त हो उसे सातिचार कहते हैं, और (निरइयारं य ।) जो बिना + अतिचारों के कारण प्राप्त हो उसे निरतिचार कहते हैं । ( परिहारविसुद्धिश्रचरितगुरु
* चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चारित्रं, तदेव चरित्र, चारित्रमेव गुण: चारित्रगुणः, स एव प्रमाणं चारित्रगुणप्रमाणं - सावव्ययोगविरतिरूपम् ।
+ पञ्चविधमप्येतदविशेषतः सामायिकमेव छेदादिविशेषैः विशेप्यमाणं पञ्चधा भियते, तत्राय विशेषाभावात् सामान्यसंज्ञायामेवावतिष्ठते सामायिकमिति ।
* 'अथ' शब्दो ऽत्र अभिविधौ । अथवा यथाख्यातमित्यपि नामान्तरम् ।
+ भरत और ऐश्वत क्षेत्र के प्रथम और चरम तीर्थंकर के साधु जहां तक छेदोपस्थापनीय चारित्र अंगीकार नहीं करते वहां तक उनका सामायिक चारित्र ही होता है । इस लिये सामायिक चारित्र इत्वरिंक - स्वल्पकालिक कहलाता है । तथा-भरत और ऐश्वत क्षेत्र के शेषा बावीस तीर्थंकरों के तथा महाविदेह क्षेत्र के साधुओंों की सदैव सामायिक चारित्र होता है, इस लिये यावत्कथि अर्थादक श्रायुः पर्यन्त भी कहलाता है ।
x भरत और ऐश्वत क्षेत्र के प्रथम और चरम तीर्थंकर के साधुओं को प्रथम दीक्षा के समय सामायिक चारित्र के ७ दिन या ४ महीने या ६ महीने के बाद पांच महाव्रत श्रारोपण रूप निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र होता है । तथा पार्श्वनाथ भगवान् शासन कालके साधु यदि भगवान् महावीर स्वामी के शासन में था तब उनको भी निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र होता है । और जो साधु मूलगुण के नाशक हों उनको सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र होत है ।
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२००
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] प्पमाणे) ® परिहारविशुद्धिक चारित्रगुणप्रमाण ( दुविहे पण्णत्ते, ) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ( तं जहा-) जैसे कि--(णिविसमाणए य) निविश्यमानक और (णिविट्ठ काइए श्रI) निर्विष्टकायिक । (सुहुमसंपरायचरित्तगुणप्पमाणे ) सूक्ष्मसम्पराय चारित्र गुण प्रमाण (दुविहे पण्णत्ते,) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा)
* परिहार विशुद्धिक तप उसे कहते हैं जो परिहार नाम का तप विशेष हो अथवा अणेपणादि दोषों से जिसकी शुद्धि हो । उसके दो भेद हैं-निविश्यमानक अर्थात् आसेव्यमान और निर्विष्टकायिक अर्थात् जिन्होंने उक्त तप को विशेषतया काया के द्वारा प्रासेवन किया हो । तथाकई एक का यह भी अभिप्राय है कि-जिन्हों ने पूर्व इस तप को अङ्गीकार किया हो उनके पास अथवा तीर्थंकरों के पास नव साधुओं का समुदाय उक्त तप को ग्रहण करता है जिनमें एक साधु कल्पस्थित सभी सामाचारी करता है, तथा चार साधु तप को ग्रहण करते हैं, जिनको परिहारिक कहते हैं, और शेष चार परस्पर वैयाकृत्य करने वाले होते हैं, जिनको अनुपरिहारिक कहते हैं । परिहारिक साधु गर्मी की ऋतु में जघन्य से चतुर्थ-१ उपवास; मध्य से पट-दो उपवास और उत्कृष्ट से अप्ट अथात तीन उपवास तथा शिशिर ऋतु में जघन्त से पट , मध्यम से अप्ट और उस्कृष्ट से दश । इसी प्रकार वर्षाकाल में जघन्य से अष्ट, मध्यम से दश और स्कृष्ट से द्वादश करते हैं ! शेष कल्पस्थित पांचों ही साधु अनुपरिहारिक नित्यभक्त होने से उपवास नहीं करते हैं। सिर्फ प्रायविल करते हैं और कुछ नहीं । यथा--"शेषास्तु कल्पस्थितानुपरिहारिकाः पश्चापि प्रायो नित्यभक्ता नोपवासं कुर्वन्ति, भक्त च पञ्चानामप्याचाम्लत्वमेव ।"
इसके पश्चात् परिहारिक साधु षट् मास पर्यन्त उक्त तप करके अनुपरिहारिक होते हैं, और अनुपरिहारिक परिहारिक होते हैं । जब तप करते हुए इनको छह महीने हो जायँ तब आठ जनोंमें से एक कल्पस्थित रहता है और शेष सात अनुचरता आश्रय ग्रहण करते हैं और छह महीने तक तप करते हैं । इस प्रकार अठारह महीने में सम्पूर्ण तप पूरा होता है । तप पूरा होने पर साधु फिर से उसीको या जिनकल्प को अङ्गीकार करे या गच्छ में पाजाय, ये तीनरास्ते हैं । यह चारित्र सिर्फ छेदोपस्थापनचारित्र वाले को होता है, दूसरों को नहीं । इस लियेजो इस तप को करके अनुपरिहारिकता या कल्पस्थितपना अङ्गीकार करता है उसो को परिहारविशुद्धिक निर्विष्टकायिक कहते हैं।
संसार के अन्दर पर्यटन, करना इसी का नाम सम्पराय-क्रोधादिकषाय है । अंश मात्र लोभ रह जाय उसी को सूचमसम्पराय कहते हैं । 'सम्परैति-पर्यटति संसारमनेनति सम्परायः-- क्रोधादिकपायः लोभांशमात्राव शेषतया सूक्ष्मः संपरायो यत्र तत्सूक्ष्मसंपरायम् । अथवा-सूक्ष्मातुच्छः संपरायो यस्य तत् सूक्ष्म संपरायं संज्वलन लोभात्मकं दशमगुणस्थानधर्तिकमिति भावः।'
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[उत्तरार्धम् ] जैसे कि--(पहिवाई अ) प्रतिपाति और (अपडिवाई न ।) + अप्रतिपाति (+ ग्रहक्खायचरिचगुणप्पमाणे) यथाख्यात चारित्र गुण प्रमाण (दुविहे पण्णत्ते,) दो प्रकार से प्रति पादन किया गया है, ( तं जहा- ) जैसे कि--( छउमथिए अ) x छाद्मस्थिक और (केवलिए श्र।) केवलिक । (से तं चरित्तगुणप्पमाणे) वही चारित्र गुण प्रमाण है और (से तं जीवगुणप्पमाणे,) यही जोव गुण प्रमाण है, और (से 6 गुणप्पमाणे । ) यही गुणप्रमाण है । (सू० १४७)
भावार्थ--जो सम्यक्प्रकार से-अनिन्दितपने से आचरण किया जाय वही सच्चारित्र कहलाता है, और उस का जो प्रमाण हो उसे चारित्र गुण प्रमाण कहते हैं । इसके पांच भेद हैं, जैसे कि-सामायिक चारित्र गुण प्रमाण १, छेदोपस्थापनीय चारित्र गुण प्रमाण २, परिहार विशुद्ध चारित्र गुण प्रमाण ३, सूक्ष्मसम्पराय चारित्र गुण प्रमाण ४, और यथाख्यात चारित्र गुण प्रमाण ५।
जीव को सम्यक् प्रकार से ज्ञानादि का जो लाभ होता है उसे सामायिक चारित्र कहत हैं, और वह 'रेमि भले ! सापाइयं' इत्यादि सूत्र से धारण किया जाता है । मुख्यतया इसके दो भेद हैं, जैसे कि इत्वरिक-स्वल्पकालिक और यावत्कथिक-जीवन पर्यन्त ।
छेदोपस्थापनीय चारित्र उसे कहते हैं जो पूर्व पर्यायों को छेद कर प्रायश्चित्त के द्वारा पञ्च महाव्रत में प्रारोपण करे । यह दो प्रकार का है, साति चार और निरतिचार ! प्रथम और चरम जिनेश्वर भगवान के समय के साधुओं को सामायिक चारित्र के पश्चात् ७ दिन अथवा ४ या ६ मास के अनन्तर
* श्रोणि से गिरते हुए को प्रतिपाती-संक्लिश्यमानक कहते हैं।
भोणि चढ़ते हुए को अप्रतिपती-विशुद्धयमान कहते हैं ।
+प्राकृत में इसको जो 'ग्रहक्वाय चारित्र' कहते हैं, उसकी शब्दव्युत्पत्ति इस प्रकार जानना चाहिये-'अह' 'आ' 'अक्खाय' यहां पर अथ शब्द याथातथ्य अर्थ में, तथा 'पा' उपसर्ग अभिविवि अर्थ में होता है, 'अक्खाय' क्रिया पद है, जिसकी सन्धि होने से 'अहाक्खाय' पद होता है, फिर 'द्वस्वः संयोगे' इस सूत्र से आकार हस्व होने से "ग्रहक्खाय” पद बन जाता है। 'प्रादेयों जः' इत्यनेन पदार्थस्य जो भवति । बहुलाधिकारात्सोपसर्गस्थानादेरपि; यथा 'संजोगो' पार्षे लोपोऽपि, यथाख्यातम-अहक्खायं ।
' x ग्यारहवें गुणस्थान तक यथाख्यात चारित्र प्रतिपाती और बारहवें में अप्रतिपाती होता है। उपशान्तमोहनीय, क्षीणमोहनीय और छद्मस्थ केवली भगवान् के यह चारित्र होता है।
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[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] छेदोपस्थापनीय चारित्र अवश्य होता है, और वह निरतिचार रूप होता है। यदि मूल गुण का घात न हो तो सातिचार रूप होता है। महाविदेह क्षेत्र में इसका प्रभाव ही है।
संयम के दोषों को दूर करने वाला परिहार विशुद्धिक चारित्र जानना चाहिये । जिसमें संक्लिष्ट भावों का परित्याग और असंक्लिष्ट भावों का प्रहण किया जाता है, जिसे कि नव साधु यथोक्त विधि से अष्टादश मास उक्त तप करते हैं उसको भी परिहार विशुद्धिक चारित्र कहते हैं । उक्त तप को जो साधु तप रहा हो, उसे 'निर्विश्यमान' और जो तप चुका हो, उसे 'निर्विष्टकायिक' कहते हैं।
सूक्ष्मसम्पराय चारित्र वह है जो कि प्रतिपाती और अप्रतिपाती भेदों से युक्त हो।
यथाख्यात नामक चारित्र वह है जो कि यथार्थ पद का बोधक और शुद्ध क्रियानुष्ठान रूप होता है। यह चारित्र छद्मस्थ तथा केवली भगवान् दोनों ही को होता है । यही चारित्र गुण प्रमाण है। यही जीव गुण प्रमाण है और यही गुण प्रमाण है अर्थात् इनका वर्णन यहां समाप्त होता है। और इसके बाद नय प्रमाण का स्वरूप प्रतिपादन किया जाता है।
नयममागह।
[से किं तं नयप्पमाणे ? सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा-णेगमे १, संगहे २, ववहारे ३, उज्जुसुए ४, सद्दे ५, समभिरूढे ६, एवंभूए ७।]
से किं तं नयप्पमाणे ? तिविहे पण्णत्ते, तं जहांपत्थगदिटुंतेणं वसहिदिटुंतेणं पएसदिट्ठतेणं ।
से किं तं पत्थगदिद्रुतेणं ? से जहानामए केई पुरिसे परसु गहाय अडवीसमहुत्तो गच्छेज्जा, तं पासित्ता
*इसकी विशेष व्याख्या 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' 'भगवती' सूत्रसे जानना चाहिये । इस [कोष्ठक ] में दिये हुये पाठको अधिक पाठ जानना चाहिये ।
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२०३
[ उत्तरार्धम] केई वएज्जा-कहिं भवं गच्छसि ? अविसुद्धो लेगमो भणइ-पत्थगस्स गच्छामि, तं च केई छिदमाणं पासित्ता वएज्जा-किं भवं छिदसि ? विसुद्धो णेगमो भणइ-पत्थयं छिंदामि, ते च केई तच्छमाणं पासित्ता वऐजा-किं भवं तच्छसि ? विसुद्धतराओ णेगमो भणइ-पत्थयं तच्छामि, तं च केई उकीरमाणं पासित्ता वएज्जा-किं भवं उक्कोरसि, विसुद्धतरामो णेगमो भणइ-पत्थयं उकीरामि, तं च केई (वि) लिहमाणं पासित्ता वएजा-किं भवं (वि)लिहसि ? विसुद्धतराओणेगमोभणइ-पत्थयं (वि)लिहामि, एवं विसुद्ध तरस्स णेगमस्स नामाउडिओ पत्थो ,एवमेव ववहारस्सवि, संगहस्स मिउमेजसमारूढो पत्थओ, ऊज्जुसुयस्स पत्थो ऽवि पत्थो मेज्जपि पत्थो, तिरहं सदनयाणं पत्थयस्स अत्थाहिगारजाणो जस्स वा वसेणं पत्थओ निष्फज्जइ, से तं पत्थयदिळंतेणं ।
[(से किं तं नयप्पमाणे ?) नयप्रमाण किसे कहते हैं ? (नयप्पमाणे) जिन अनन्त धर्मात्मक वस्तुओं को एक ही अंश के द्वारा निर्णय किया जाय उसे नयप्रमाण कहते हैं,और वह (सत्तविहे पएण,) सात प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा.) जैसे कि-(णेगमे ) नैगम १, ( संगहे ) संग्रह २, (ववहारे ) व्यवहार ३, (उज्जुसुए) ऋजुसूत्र ४, (सई) शब्द ५, ( समभिरूढ़े ) समभिरूढ ६, और ( एवंभूए) एवम्भूत ।
(से किं तं नयप्पमाणे १) नयप्रमाण किसे कहते हैं ? (नयप्पमाणे) जिन अनन्त धर्मात्मक वस्तुओं को एक ही अंशके द्वारा निर्णय किया जाय उसे नयप्रमाण जानना चाहिये, और वह (तिविहे पएणत्ते,) + तीन प्रकारसे प्रतिपादन किया गया है (तं जहा.)
+ 'यद्यपि नैगमसंग्रहादिभेदतो बहवो नयास्तथापि प्रस्थकादिदृष्टान्तत्रयेण सर्वेषामिह निरूपयितुमिष्टस्वात्त्रैविध्यमुच्यते ।' अर्थात् यद्यपि नैगमसंग्रहादि के भेद से नयों के भेद हैं तथापि प्रस्थकादि ष्टान्तों के द्वारा यहां पर उन सब के ही निरुपण करने की इच्छा से तीन प्रकार से ही प्रतिपादन किया गया है।
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२०४
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् । जैसे कि--(पथगदिटुंतेणं ) प्रस्थक के दृष्टान्त से (वसहिदिटुंतेणं) वसति के दृष्टान्त से (पएसदिटुंतेणं ।) प्रदेश के दृष्टान्त से।
(से किं तं पत्थगदिटुंतेणं ?) प्रस्थक के दृष्टान्त से नयों का स्वरूप किस प्रकार जाना जाता है ? पत्थगदिटुंतेणं) जिन पदार्थों को प्रस्थक के दृष्टान्त द्वारा सिद्ध किया जाय उस को प्रस्थक दृष्टान्त जानना चाहिये, (से जहानामए)xयथा देवदत्तादि नामक ( केइ पुरिसे ) कोई पुरुष ( परसु गहाय ) कुल्हाड़े को लेकर (अडवासमहुशो) अटवी के सन्मुख-अर्थात् वन में (पच्छेजा) जाय (तं पासिया) उसको देख कर (केई वरज्जा) कोई कहे ( कहिं *भवं गच्छसि ? ) आप कहां जाते हैं ? ( अविसुढो गमो भणइ) अविशुद्ध नैगम नय कहता है कि (पथगरस गच्छामि, प्रस्थक के लिये जाता हूँ, फिर (तं च केई छिदमाण) कोई उसको छेदन करते-छीलते हुए (पासित्ता) देख कर (वएज्जा-) कहे कि
( किं भवं छिदसि ?) आप क्या छीलते हैं ? (विसुद्धो णेगमो भगाइ ) विशुद्ध नैगम नय कहता कि-(पत्थयं छिंदामि,) प्रस्थक को छीलता हूं । तदनन्तर तं च केई) कोई उस को तच्छमाणं) तक्ष्ण-समान करते हुए (पासिना) देख कर (वर जा.) कहे कि-(किं भवं तच्छसि ?) आप क्या समान बनारहे हैं ? (विसुद्धतराोणेगमो भगाइ-) विशुद्धतर नैगम
x जैसे कि कोई पुरुष मगध देश प्रसिद्ध 'प्रस्थक'--धान्यमानविशेप के लिये काष्ठमय भाजन बनाने के हेतु कुल्हाड़े को हाथमें लेकर लकड़ी काटने के लिये जंगल में गया ।
- 'पृस्थक' शब्द का अर्थ अमरकोपकारने 'परिमाणविशेष' ही किया है । यथा-"अस्त्रियामादकद्रोणौ खारीवाहो निबुजय : । कुडवः प्रस्थ इत्यायाः, परिमाणार्थकः पृथक् ॥१॥"
* यद्यपि भवान्' शब्द अन्य पुरुष के साथ ही प्रयुक्त होता है, तथापि यहां पर मध्यम पुरुष के साथ व्यवहृत किया गया है, क्योंकि प्रार्ष होने से ऐसा ही प्रमाण भूत है । अथवा"व्यत्ययश्च ।” प्राकृतादिभाषाल क्षणानां व्याययश्च भवति । प्रा० । व्या० । अ० ८ । पा० ३।सू० ४४७ । इससे भी 'गच्छसि क्रिया के साथ 'भवान्' शब्द का प्रयोग ठीक ही है । तथा-'भादीप्तौ' धातु से औणादिक डवतुप्' प्रत्यय का आगमन होने से भवतु' का भवान् रूप सिद्ध होता है और 'शतृ' प्रत्ययान्त होने से भी भा' का 'भवान्' और 'भू' का भवन प्रयोग सिद्ध होता हैं।
+ यद्यपि वह काष्ठ के लिये जा रहा है तथापि-'नके गमाः-वस्तुपरिच्छेदा यस्य' जिसके वस्तु परिच्छेद बहुत हैं वह नैगम नय है । नय अनेक प्रकार से वस्तु परिच्छेद मानते हैं । इस लिये कारण को कार्य का भाव मान कर उक्त प्रकार से उत्तर दिया है।
विशुद्धतर' शब्द इस लिये दिया है कि इसका प्रत्युत्तर पहिले से विशेष शुद्ध है । इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिये ।
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[ उत्तरार्धम् ]
२०५ नय कहता है कि-(पत्ययं तच्छामि,) प्रस्थक को ठीक करता हूँ पश्चात् ( तं च केई ) कोई उसको (उकीरमाणं) उकिरन-बीजने से ठीक करते हुए (पासित्ता) देखकर (च एजा.) कहे कि-(किं भवं उक्कीरसि ?) आप क्या उत्कीरन करते हैं ? (विसुढतरानो णेगमो भणइ.) विशुद्धतर नैगम नय कहता है कि (पत्थयं उक्कीगमि,) प्रस्थक को उत्कीरन करता हूं, (तं च के इ) फिर कोई उसको (निहमाणं पासिता) लेखन-घड़ते हुए देख कर (वए जा-) कहे कि-(कि भवं लिहसि ? ) ओप क्या लेखन करते हैं ? ( विसुद्धतरागो रखेगमो भणइ) निशुद्धतर नैगम नय कहता है कि ( पत्थयं हि हामि, ) प्रस्थक को लेखन करता हूं, (एवं विसुद्धतरस्स णेगमस्स) इसी प्रकार विशुद्धतर नैगम नय के मत से (नामाउ डिग्रो पत्थो ,) + नामाङ्कित प्रस्थक होता है । (एवमेव ववहारस्सवि,) इसी प्रकार व्यवहार नय से भी जानना चाहिये । ( संगहस्स ) : संग्रह नय के मत से ( मिउमेजसामरूढो ) धान्य से भरा हो तभी वह पात्र (पत्थश्रो) प्रस्थक होता है (उज्जुमुयस्स) + ऋजुमूत्र से (पत्यश्री उवि पत्यश्रो ) प्रस्थक भी प्रस्थक होता है, और ( मेजपि पत्थो, ) मेय-वस्तु भी प्रस्थक रूप ही है, तथा (तिरह सहनया ) तीनों *शब्द नयों के मतसे (पत्थयस्स
+ अर्थात प्रथम के नैगम नय से दूसरा कथन इसी प्रकार विशुद्धतर होता हुआ नामाश्चित प्रस्थक निष्पन्न हो जाता है। क्योंकि जब प्रस्थक का नाम स्थापन कर लिया गया तभी विशुद्धतर नैगम नय से परिपूर्ण रूप प्रस्थक होता है।
संग्रह नय सामान्यतया सभी पदार्थों को ग्रहण करता है इस लिये जो प्रमाण पूर्वक धान्य से भग हुआ हो और कर्य रूप में परिणित हो, तभी वह पान प्रस्थक कहा जाता है, नहीं तो घट पटादि पदार्थ भी प्रस्थक संज्ञक हो जायंगे ।
* क्योंकि यह नय सिर्फ वर्तमान काल को ही मानता है; भूत, भविष्यत को नहीं, इस लिये व्यवहार पक्ष में नाम रूप प्रस्थक को भी प्रस्थक और उसमें भरे हुए धान्य को भी प्रस्थक कहा जाता है। कहा भी है
'तस्य निष्पन्नस्वरूपोऽर्थक्रियाहेतुः प्रस्थकोऽपि प्रस्थकः, तत्परिच्छन्नं धान्यादिकमपि वस्तु प्रत्यकः, उभयत्र प्रस्थको ऽयमिति व्यवहारदर्शनात, तथा प्रतीतेः, अपरं चासौ पूर्वस्माद्विशुद्धत्वाद्वसमाने एव मानमेये प्रस्थकत्वेन प्रतिपद्यते, नातीतानागतकाले, तयोविनिप्टानुत्पन्नहोनासस्वादिति ।'
* शब्द १, ममभिरूढ २, और एवम्भूत ३, इन तीनों को 'शब्द नय' इस लिये कहते हैं कि ये शब्द को प्रधान मानते हैं । तथा प्रथम के गर नय 'अर्थ नय? कहलाते हैं, क्यों कि इनकी अर्थ में ही मान्यता है । कहा भी है
'शब्दपधानाः नयाः शब्दनयाः-शब्दसमभिरूढेवभूताः, शब्देऽन्यथस्थितेऽधमन्यथा नेच्छम्त्यमी, किन्तु यथैव शब्दो व्यवस्थितस्तथैव शब्देनार्थं गमयन्तीत्यतः शन्दनया उच्यन्ते, श्राद्यास्तु यथाकथञ्चिच्छदाः प्रवर्तन्तामर्था एव प्रधानमित्यभ्युपगमपरत्वादर्थनयाः प्रकीर्यन्ते ।'
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२०६
[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] अस्माहिगारजाणो) प्रस्थक के अधिकार का जो ज्ञात होता है ( जस्स वा वसेणं) अथवा जिसके लक्ष्य से ( पत्थश्रो निप्फजइ, ) प्रस्थक निष्पन्न होता है, (से तं पत्थयदिट्टतेए । ) यही प्रस्थक का दृष्टान्त हैं।
भावार्थ-जिन अनन्त धर्मात्मक वस्तुओं के स्वरूप को एक ही अंशद्वारा निरूपण किया जाय उसे नय प्रमाण कहते हैं। उनके सात भेद हैं, जैसे किनैगम १, संग्रह २, व्यवहार ३, ऋजुसूत्र ४, शब्द ५, समभिरूढ ६, और एवं भूत ७।
अथवा नय तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है-प्रख्यक के दृष्टान्त से १, घसति के दृष्टान्त से २, और प्रदेशों के दृष्टान्त से ३ । प्रस्थक का दृष्टांत निम्न प्रकार जानना चाहिये
जैसे कि-कोई पुरुष परशु हाथ में लेकर बन में जा रहा था, उसको देख कर किसी ने पूछा कि-श्रोप कहां पर जाते हैं ? तब उसने कहा कि-'प्रस्थक के लिये जाता हूँ। उसका ऐसा कहना अविशुद्ध नैगम नयाभिप्राय से है, क्यों कि
भी तो उसके विचार ही उत्पन्न हुए हैं। तदनन्तर किसी ने उसको काष्ट छीलते हुए देख कर पूछा कि-आप क्या छीलते हैं ? तब उसने उत्तर दिया कि प्रस्थक को छीलता हूँ। यह विशुद्ध नैगम नय का वचन है क्योंकि पहिले के बनिस्वत यह कथन शुद्ध है । इसी प्रकार काष्ट को तक्षण करते हुए, उत्की.
क्योंकि भावप्रधान नयों में उपयोग ही मुख्य लक्षण है, और उपयोग विना प्रस्थक की उत्पत्ति नहीं होती । अतः उपयोग को ही 'प्रस्थक' कहा जाता है। कहा भी है
___'प्रस्थकार्थाधिकारज्ञः' प्रस्थकस्वरूपपरिज्ञानोपयुक्तः प्रस्थकः, भावप्रधाना ह्यते नया इत्यतो भावप्रस्थकमेवेच्छन्ति, भावश्च प्रस्थकोपयोगोऽतः स प्रस्थकः, तदुपयोगवानपि च ततो ऽव्यतिरेकात् प्रस्थकः, यो हि तत्रोपयुक्तः सोऽमीषां मते स एव भवति, उपयोगलक्षणो जीवः, उप गश्चेत् प्रस्थकादिविषयतया परिणतः किमन्यजीवस्य रूपान्तरमस्ति ? यत्र व्यपदेशान्तरं स्यादिति भावः ।' अर्थात् जीव ही प्रस्थक है, क्योंकि उपयोग से ही प्रस्थक को निष्पत्ति है, कारण कि उपयोग और प्रस्थक एक रूप होते हैं इस लिये प्रात्मा ही प्रस्थक है अन्य नहीं । लेकिन यह न जानना चाहिये कि जड़रूप में उपयोग वर्तने से आत्मा भी जड़वत हो जाय; वह तो चैतन्य-कर्ता रूप ही है, और अचेतन चेतन का आधार ही नहीं । इस लिये प्रस्थक में जिसका पयोग हो वही प्रस्थक है, अन्य नहीं ।
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। [ उत्तरार्धम् ।
२०७ रन करत एप, लेखन करते हुए को देख कर जब किसीने पछा, तब उसने विशु. खतरनैगम नय के मतसे उत्तर दिया कि-'प्रस्थक को तक्षण करता हूँ, उत्कीरन करता हूँ, लेखन करता हूँ' इत्यादि । क्योंकि विशुद्धतर नैगम नय के मत से जब प्रस्थक नामांकित हो गया तभी पूर्ण प्रस्थक माना जाता है।
__संग्रह नय के मत से सब वस्तु सामान्य रूप है, इस लिये जब वह धान्य से परिपूर्ण भरा हो तभी उसको प्रस्थक कहा जाता है। यदि ऐसा न हो तो घटपटादि वस्तु भी प्रस्थक संशक हो जायगी। इस वास्ते जब वह घान्यों से परिपूर्ण भरा हो और अपना कार्य करता हो तभी वह प्रस्थक कहा जाता है।
इसी प्रकार व्यवहार नय का भी मत है।
ऋजुसत्र नय के मत से प्रस्थक और प्रस्थक से प्रमाण को हुई वस्तु. दोनों ही प्रस्थक रूप मानी जाती हैं, क्योंकि दोनों को ही प्रस्थक कहने की रूढ़ि है, और दोनों में प्रस्थक का शान होता है। यह नय वर्तमान काल को ही मानता है; भूत, भविष्य को नहीं। - शब्द, समभिरूढ़ और एवम्भूत, इन तीनों को शब्द नय कहते हैं, क्योंकि ये शब्द के अनुकूल अर्थ मानते हैं। आद्य के चार नय अर्थ को प्राधान्य मानते हैं। इस लिये शब्द नयों के मत से जो प्रस्थक के अर्थ का ज्ञाता हो, वही प्रस्थक है, क्योंकि-जिसके उपयोग से प्रस्थक की निष्पत्ति है वास्तव में यही प्रस्थक है, अन्य नहीं और बिना उपयोग के प्रस्थक उत्पन्न हो ही नहीं सकता। इस लिये ये तीनों भावनय हैं।
सभी वस्तु अपने सद्भाव में सदैव काल विद्यमान हैं। इस वास्त जिस वस्तु में जिस जीव का उपयोग होता है, शब्द नय के मत से उपयोग युक जीव को ही वस्तु कहा जाता है, क्योंकि-"उवभोगो जीवलक्खणं" उपयोग लक्षण आत्मा का ही होता है। इस लिये जिस के द्वारा प्रस्थक की उत्पत्ति होती है, उस जीव को ही इन नयों के मत से प्रस्थक कहा जाता है। इस प्रकार प्रस्थक के इष्टन्त द्वारा सातो नयों का स्वरूप दिखलाया गया है। भव द्वितीय वसति के दृष्टान्त से नयों का स्वरूप प्रतिपादन किया जाता है
से किं तं वसहिदिटुंतेणं ? से जहानामए केई पुरिसे
. * "वितस्ति-वसति-भरत-कातर-मातुलिंगे हः।" मा० ।। १ । २१४ । एषु तस्य हो भवति ।
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२०८
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
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कंचि पुरिसं वज्जा - कहिं भवं वससि ? तं विसुद्धो रोगमो भइ - लोगे वसामि, लोगे तिविहे पण्णत्ते तं जहाउड्डलोए होलोए तिरिअलोए, तेसु सव्वेसु भवं वससि ? विसुद्ध गमो भाइ - तिरिअलोए वसामि तिरिअलोए जंबूदीवाइ सयंभूरमणपज्जवसारणा असंखिजा दीवस - मुद्दा पण्णत्ता, तेसु सव्वेसु भवं वससि ? विसुद्ध तरात्रो रोगमो भइ - जंबूदीवे वसामि, जंबूद्दीवे दस खेत्ता पण्णत्ता, तं जहा - भरहे एखए हेमवए एररणवए हरिवस्ले रम्गवस्से देवकुरू उत्तरकुरू पुव्वविदहे अवरविदेहें, ते सु सव्वेषु भवं वससि ? विसुद्ध राम्रो गमो भाइ-भरहे वासे वसामि भरते वासे दुविहे पण्णत्ते तं जहा - दाहिगड्डभरहे उत्तरड्डभरहे अ, तेसु सव्वेसु (दो) भवं वससि ? विसुद्ध तरा रोगमो भणइ - दाहिणड्डूभरहे वसामि दाहिण्डभरहे अगाईं गामागर एगरखेड कब्बडमडंबदो - मुहपट्टणासमसंवाहसरिणवेसाई, तेसु सव्वेसु भवं वससि ? विसुद्धतराम्रो गमो भइ - पाडलिपुत्ते वसामि, पाडलिपुत्ते अग:इं गिहाई, तेसु सव्वेसु भवं वससि ? विसुद्ध तराओ रोगमो भाइ - देवदत्तस्स घरे वसामि, देवदत्त घरे अरोगा कोट्टगा, तेसु सव्वेसु भवं वससि ? विसुद्धतत्र गमो भगइ - गब्भघरे वसामि एवं विसुइस रोगमस्स वसमाणो वसई, एवमेव ववहारस्सवि, संगहस्स संथारसमारूढो वसइ, उज्जुसुयस्स जेसु, आगासपएसेसु श्रगाढो तेसु वसई, तिरहं समुदनयाणं भयभावे वसइ । सेतं वसहिदिट्टंतेां ।
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[उत्तरार्धम]
२०६ पदार्थ-(से किं तं वसहिदिटुंतेणं ?) वसति के दृष्टान्त से नयों का स्वरूप कैसे जाना जाता है ? ( वसहिदिटुतेणं ) वसति के दृष्टान्त से नयों का स्वरूप निम्न प्रकार जानना चाहिये--( से जहा नामए केई पुरिसे ) जैसे कोई नामधारी पुरुष (कंचि पुरिसं) किसी पुरुष को (वएज्जा.) कहे कि-(कहिं भवं वससि ?) आप कहां पर रहते हो ? (तं) उसको ( अविसुद्दो णेगमो भगइ-) अविशुद्ध नैगम कहता है-(लोगे वसामि,) *लोक में रहता हूँ, ( लोगे तिविहे पण्णत्ते, ) लोक तोन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि-(उडलोए होलोए तिरिय लोए,) ऊर्ध्व लोक, अधो लोक, तिर्यक् लोक । (तेसु सव्वेसु भवं वससि ?) तो क्या आप उन सभी में बसते हो ? (विसुद्दो) विशुद्ध (णेगमो भणइ) नैगम कहता है--(तिरिअलोए वसामि,) तिर्यक् लोक में रहता हूँ, (तिरिअलोए) तिर्यक् लोक में ( जंबूहीवाइमा सयंभूरमरापजवसाणा ) जम्बूद्वीप से लगा कर स्वयम्भूरमण पर्यन्त ( असंखिजा दीवतमुद्दा ) असंख्येय द्वीप समुद्र (परणत्ता,) प्रतिपादन किये गये हैं, (तेसु सव्वेसु) क्या उन सभी में (भव वससि ?) आप रहते हो ? (विसुद्धतरामो णेगमो, विशुद्धतर नैगम भाग:-) कहता है-(जंबूहोवे बसाभि,) जम्बूद्वीप में रहता हूँ। (जंबूद्दीवे दस खेत्ता) जम्बूद्वीप में दस क्षेत्र पणत्त ।) प्रतिपादन किये गये हैं, (भरहे) भारतवर्ष (एरवए) ऐरवत (हेमवए) हैमवत (एरएणवए ) ऐरण्यवत ( हरिवस्से ) हरिवर्ष (रम्भगवस्से' रम्यकवर्ष (देवकुरू) देवकुरु :उत्तरकुरू) उत्तरकुरु (पुत्रविदेहे) पूर्व महाविदेह
और (अवरवि देहे,) पश्चिम महाविदेह, (तेनु सब्बेमु एवं वससि ? ) क्या आप उन सबमें रहते हो ? ( विसुद्धतगो तमो भणइ-) विशुद्धतर नैगम नय कहता है--(भरहे वासे वसामि) भारतवर्ष में रहता हूँ। (भरहे वासे दुविहे पण्णत्ते) भारतवर्ष के दो भेद कहे गये हैं । (तं जहा-) वे इस तरह हैं-(दाहिणभरहे उत्तर दृभरहे श्र) दक्षिणार्द्ध भरत और उत्तरार्ध भरत । ( तेसु सव्वेसु ) क्या उन सभी में भवं वस.स ?) ओप रहते हो ? (विसुद्वतरामो णेगमो) विशुद्धतर नैगम (भणइ-) कहता है- दाहिणभरहे) दक्षिणाद्ध भारत में ( व सामि,) रहता हूँ, ( दाहिणभरहे ) दक्षिणार्द्ध भारत में (अणेगाई) अनेक (गाम-) ग्राम (आगर) खान (णार) ऐसा शहर जिसमें किसी भी प्रकार कर न लिया जाता हो (खेड) खेट-जिसके चारों ओर धूलका परकोटा हो (कम्बड) नगर (मडव) मंडप जिसके आस पास कोई न रहता हो अथवा कोई शहर या प्राम न हो (दोणमुह) द्रोण
* लोक तो चतुर्दशरज्यात्मक है, इस लिये अनर्थान्तर है । क्योंकि विशुद्ध नैगम नय अतिव्यप्ति होने से उसे असङ्गगत मानता है। प्रागम में भी कहा है-"तनिवासक्षेत्रस्यापि चतुर्दशरज्वात्मकलोकादनन्तरत्वाद्, इत्थमपि च व्यवहारदर्शनाद्, विशुद्धनैगमस्त्वतिव्याप्तिपरत्वादिदमस. असं मन्यते।"
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२१०
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ) मुख-जिसका जल और स्थल दोनों तरफ से रास्ता हो (पटण) पत्तन-शहर (ग्रासम)
आश्रम-मठ (संवाह) संवाह और (सन्निवेसाई) सन्निवेश-रहने के स्थान आदि, (तेसु सव्वेसु) क्या उन सभी में (भवं वससि ?) आप रहते हो ? (विसुद्धतगओ णेगमी) विशुद्ध तर नैगम (भणइ.) कहता है-( देवदत्तस्स घरे ) देवदत्त के घर में (वप्तामि,) बसता हूँ, ( देवदत्तस्स घरे* ) देवदत्त के घर में (अणेगा कोटगा,) अनेक कोठे हैं, (नेसु सव्वेमु) क्या उन सभी में ( भवं वससि ? ) श्राप रहते हो ? ( गम्भघरे ) गर्भ घर में (वसामि)) रहता हूँ. (एवं) इस प्रकार (विसुहस्प णेगमस्स) विशुद्ध नैगम नय के मत से (वसमाणो वसइ, ) वसते हुए को बसता हुआ माना जाता है।
(स्वमेव बगहारस्सवि) इसी प्रकार + व्यवहार नय का भी मन्तव्य है।
(संगहस्स) संग्रह नय के मत से (संथार समारूढा) शय्या पर आरूढ हुआ हो तभी वह (व सइ,) बसता हुआ कहा जाता है।
( उज्नुसुयस्स ) ऋजुसूत्र नय के मत से ( जेनु अागासपएमु ) जिन आकाश के प्रदेशों में (ोगाढो) अवकाश किया हो (तेनु वसइ.) उनमें ही बसता हुआ माना जाता है, + (तिएहं सदनयाणं) तीनों शब्द नयों के अभिप्राय से पदार्थ (अायभावे वसइ ।) श्रात्म
* "गृहस्य घरोऽपतौ । पा० । ८ । २ । १४४ : . गृहस्य 'घर' इत्यदेशो भवति, पतिशब्दश्चेत् परो न भवति । घर सामि । अाताविति किम् ? गहबई।" अर्थात् 'गृह' शब्द को 'घर' आदेश हो जाता है, यदि उसके परे 'पति' शब्द न हो तो। यहाँ पर 'गृह' शब्द के अनन्तर 'पति' शब्द नहीं है । इस लिये उक्त 'गृह' को 'घर' आदेश हो गया। ... + क्योंकि जहाँ पर जिसका निवास स्थान है वह उसी स्थान में बसता हुआ माना जाता है, तथा जहां पर रहे वही निवास स्थान उसका होता हैं । जैसे कि पाटलिपुत्र का रहने वाला यदि कारणवशात् कहीं पर चला जाय तब वहाँ पर ऐसा कहा जाता है कि-अमुक पुरुष पाटलिपुत्र का रहने वाला यहाँ पर आया हुआ है । तथा-पाटलिपुत्र में ऐसा कहते हैं-"अब वह यहाँ पर नहीं है अन्यत्र चला गया है ।" भावार्थ यह है कि विशुद्धतर नैगम नय और व्यवहार नय के मत से 'बसते हुए को वसता हुआ' मानते हैं। .
यह नय सामान्यवादी है, इस लिये जव चलनादि क्रियाओं से रहित होकर कोई व्यक्त स्वशय्याम शयन करे तभी उसको वसता हुआ कहा जाता है । यदि घर में ही बसता हुआ माना जाय तो अतिप्रसङ्ग होगा, क्योंकि फिर यह भी मानना होगा कि इसी तरह लोकमें भी रहता है।
___ + अर्थात् संस्तारक में जितने अाकाश प्रदेश उसने अवगाहन किये हों, इस नय से उतने ही प्रमाण में वह बसता हुआ कहा जाता है।
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[ उत्तरार्धम् ]
२११
भाव में रहता हुआ माना जाता है + । ( से तंत्र सहिदिते ।) यही वसति का
है।
भावार्थ -सानों नयों का पूर्ण बोध होने के लिये द्वितीय दृष्टान्त वसति का दिया गया है। उसे निम्न लिखित प्रश्नोत्तरों से इस प्रकार जानना चाहिये-
देवचन्द्र-हे प्रिय ! आप कहां पर बसते हैं ?
प्रमोद चन्द्र - (अविशुद्ध नैगम नय के आश्रित होता हुआ कहने लगी कि) मैं लोक में बसता हूँ ।
देवचन्द्र - लोक तो तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, जैसे किऊर्ध्वलोक, अधोलोक, और तिर्यक लोक, तो क्या श्राप तीनों लोकों में बसते हैं ? प्रमोदचन्द्र - प्रियवर ! मैं केवल तिर्यक् लोक में ही बसता हूँ। (यह वि• नैगम 'नय का वचन है ।)
शुद्ध
देवचन्द्र - तिर्यक् लोक में जम्बूद्वीप से लेकर स्वयम्भूरमण समुद्र पर्यन्त असंख्येय द्वीप समुद्र हैं, तो क्या थाप उन सभी में रहते हैं ?
alp
प्रमोद चन्द्र - मेरे परम प्रिय ! मैं जम्बूद्वीप में ही बसता हूँ । (यह विशुद्ध तर०)
देवचन: --- मित्रवर ! जम्बूद्वीप में दश क्षेत्र वर्णन किये गये हैं। जैसे किभारत वर्ष १, ऐरवत २, हैमवत ३, ऐरण्यवत ४, हरिवर्ष ५, रम्यक ६, देवकुरु ७, उरकुरु८, पूर्व महाविदेह है, और पश्चिम महाविदेह १० । तो क्या आप उन सभी में रहते हैं ?
प्रमोदचन्द्र - सुहृद ! मैं भारतवर्ष में बसता हूँ । (यह विशुद्धतर० ) देवचन्द्र– प्रिय ! भारतवर्ष के दो खण्ड हैं, जैसे कि - दक्षिणार्द्ध भारतवर्ष और उत्तरार्द्ध भारतवर्ष । तो क्या आप उन सभी (दोनों) में रहते हैं ?
प्रमोदचन्द्र - मायवर ! मैं दक्षिणार्द्ध भारतवर्ष में सता हूँ । (यह विशुद्धतर० )
देवचन्द्र - मित्रवर्य ! दक्षिणाद्धं भारतवर्ष में अनेक ग्राम, श्राकर, नगर,
+ जितने भी पदार्थ हैं वे सभी अपने २ ही स्वरूप में रहते हैं, अन्य स्वरूप में कोई भी निवास नहीं करता । यदि निवास करते माने जायँ तो सभी स्वरूप में रहते हैं या देश रूप में ? फिर श्राधाराधेय के भी प्रश्नोत्तर हैं, इत्यादि भावार्थ से जानना चाहिये । श्रतः सभी पदार्थ अपने ही स्वरूप में हैं, यही इन शब्द, समभिरूद और एवम्भूत नयों का मत है ।
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२१२
[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] खेड़, शहर, मण्डप, द्रोणमुख, पतन, आश्रम, संवाह, सन्निवेश । श्रादि स्थान हैं, तो क्या आप उन सभी में निवास करते हैं ?
प्रमोदचन्द्र--हे सखे ! मैं *पाटलिपुत्र में घसता हूँ (यह विशुद्धतर०)
देवचन्द्र--प्रियवर ! पाटलिपुत्र में अनेक घर है, तो क्या आप उन सभी में बसते हैं ?
प्रमोदचन्द्र"हे पयस्य ! मैं देवदत्त के घर में बसता हूँ। (यह विशुद्धतर०)
देवचन्द्र--हे प्रीतिवर्द्धक ! देवदत्त के घर में अनेक-कोठे-कमरे हैं, तो क्या आप उन सभी में बसते हैं ?
प्रमोदचन्द्र--मैं देवदत्त के गर्भ घर में बसता हूँ। (यह विशुद्धतर०)
इस प्रकार पूर्वपूर्वापेक्षया विशुद्धतर नैगम नय के मत से बसते हुए को बसता हुआ माना जाता है। यदि वह अन्यत्र स्थान को चला गया हो तब भी जहां निवास करेगा वहीं उस को बसता हुआ माना जायगा।
___ इसी प्रकार व्यवहार नय का मन्तव्य है। किन्तु विशेष इतना है कि जहां तक वह अन्यत्र अपना स्थान निश्चय न कर लेवे वहां तक उसके लिये यह शब्द उच्चारण किया जाता है कि-"अमुक पुरुष इस समय पाटलिपुत्र में नहीं है।" और जहां पर जाता है वहां पर ऐसा कहते हैं कि-"पाटलिपुत्र के बसने वाला अनुक पुरुष यहाँ पर शाया हुआ है, लेकिन बसते हुए को बसता हुआ मानना, यह दोनों नयों का मन्तव्य है।
___ संग्रह नय से जब कोई स्वशय्या में शयन करे तभी बसता हुआ माना जाता है, क्योंकि चलनादि क्रिया से रहित होकर शयन करने के समय को ही संग्रह नय बसता हुआ मानता है । यह सामान्यवादी है, इस लिये इसके मत से सभी शय्याएं एक समान हैं, चाहे वे फिर कहीं पर ही क्यों न हो।
+ आकर लोहाद्यु तत्तिस्थानम् । नगरं कररहिम् । खेट-बूलीमयप्राकारोपेतम् । कर्टनगरम् । मडम्ब--सर्वतो दूरवर्तिसनिवेशान्तरम् अथवा यस्य पार्श्वत आसन्नमपरं ग्रामनगरादिक नास्ति, तत्सर्वतश्छिन्नजनाश्रयविशेषरूपं मढम्वमुच्यते । द्रोणमुखं-जलपथस्थलपथोपेतम् । पचनम् नानादेशागतपण्यस्थानम् । तच्च द्विधा, जलपत्तनं स्थलपत्तनं च । रत्नभूमिरित्यन्ये । पाश्रमःतापसादि स्थानं, अतिवहुप्रकारलोकसङ्गीणस्थानविशेषः । सन्निवेशाः- घोपादिग्थवा ग्रामदीनां द्वन्द्व ते च ते सन्निवेशाश्चेत्येव योज्यते ।
* वर्तमान में इसको 'पटना' कहते हैं जो कि विहार और उड़ीसा की राजधानी है।
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[ उत्तरार्धम् ]
२१३ ऋजुसूत्र नय के मत से शय्या में जितने आकाश-प्रदेश अवगाहन किये गये हैं, वह उन्हीं पर बसता हुआ माना जाता है, कारण कि यह नय वर्तमान काल को ही स्वीकार करता है, शेष को नहीं । इस लिये जितने श्राकाश-प्रदेश किसी ने अवगाहन किये हैं, उन्हीं पर यह बसता है, ऐसा ऋजुसूत्र नय का मन्तव्य है।
शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत इन तीनों नयों का ऐसा मन्तव्य है कि जो २ पदार्थ हैं वे सब अपने २ स्वरूप में ही बसते हैं।
यदि अन्य पदार्थ अन्य परार्थ में बसता हुश्रा माना जाय तो यह शंका उत्पन्न होती है कि-अन्य पदार्थ यदि अन्य पदार्थ में बसता है तो क्या सर्व खरूप से बसता है या देश स्वरूप से ? यदि ऐसा माना जोय कि सर्व स्वरूप से बसता है तो आधार से श्राधेय पृथक् है, तब अपने स्वरूप का ही श्राप अशात होगा। क्योकि जैसे संस्तारकादि श्राधार है, उसका स्वरूप उसी में विराजमान है। इसी प्रकार देवदत्तादि सभी पदार्थ स्वरूप में रहते हुए श्राधार से पृथक प्रतीत नहीं होते, इसलिये यहपक्ष तो ठीक नहीं हुश्रा । अब यदि देश स्वरूप से श्राधेय आधार में ठहरता है, ऐसा माना जाय तो उसका स्वरूप भी देश मात्र ही रह जायगा। तथा देशमात्र में भी पदार्थ सब स्वरूप से रहता है या देश स्वरूप से ? यहां यदि प्रथम पक्ष प्रहण किया जाय तब देशमात्र का नोदेशमात्र हो जायगा । यदि द्वितीय पक्ष प्रहण किया जाय तो देश में देशमात्र की ही वर्तना सिद्ध होगी। इस प्रकार अनवस्था दोष श्राजायगा । इस लिये यह सिद्ध हुआ कि सभी पदार्थ स्वरूप-श्रात्मभाव में ही निवास करते हैं। क्योंकि यदि परस्वरूप में निवास करते हुए माने जायें, तब स्व स्वरूप का भी प्रभाव हो जायगा।
इस प्रकार बसति के दृष्टान्त से सातों नयों का स्वरूप वर्णन किया गया है। अब प्रदेशों के दृष्टान्त द्वारा सातों नयों का विशेष विचार किया जाता है
प्रदेश दृष्टान्त। से किं तं पएसदि,तेणं ? णेगमो भणइ-छह पएसो, तं जहा-धम्मपएसो अधम्मपएसो आगासपएसो जीवपएसो खंधपएसों देसपएसो।
एवं वयं णेगम संगहो भणह-जं भणसि छण्हं
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२१४
[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] पएसो, तं न भवइ, कम्हा ? जम्हा जो देसपएसो सो तस्सेव दव्वस्स, जहा को दिटुंतो ? दासेण मे खरो कीओ दासोऽवि मे खरोऽवि मे तं; मा भणाहि छण्हं पएसो, भणाहि पंचएह पएसो, धम्मपएसो आगासपएसो अधम्म पएसो जीवपएसो खंधपएसो।
एवं वयंतं संगहं ववहारो भणइ-जं भणसि पंचण्हं पएसोतं न भवइ, कम्हा ? जइ जहा पंचण्हं गोट्टियाणं पुरिसाणं केइ दव्वजाए सामण्णे भवइ, तं जहा-हिरणणे वा सुवरणे वा धने वा धणे वा, ते जुत्तं वत्तुं तहा पंचण्हं पएसो, त मा भणिहि--पंचण्हं पएसो, भणाहि-पंचविहो पएसो, तं जहा-धम्मपए सो अधम्मपएसो आगासपएसो जीवपएसो खंधपए सो।
एवं वयंतं ववहारं उज्जु सुत्रो भणइ-जं भणसि पंचविहो पएसो तं न भवइ, कम्हा ? जड़ ते पंचविहो पएसो एवं ते एक को पएसो पंचविहो एवं ते पणवीसतिविहो पएसो भवइ, तं मा भणाहि पंवविहो पएसो, भणाहि भइयव्वो पएसो-सिम धम्मपएसो सिअ अधम्मपए सो. सिप आगासपएसो सिम जीवपएसो सिअ खंधपएसो, ___एवं वयं उज्जु सुयं संपइ सददनोभणइ-जं भणसि भइयव्वो पएसो, तं न भवइ, कम्हा ? जइ भइयव्वो पएसो, एवं ते धम्मपएसोऽवि सिय धम्मपएसो सिय अधम्मपएसो सिय आगासपएसो सिय जीवपएसो सिय खंधपएसो, अधम्मपएसोऽवि सिय धम्मपएसो जाव सिय
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[ उत्तरार्धम् ]
२१५ खंधपएसो, जीवपएसोऽवि सिय धम्मपएसो जांव सिय खंधपएस, खंधपएसोऽवि सिय धम्मपएसो जाव सिय खंधपएसो, एवं ते अणवत्था भविस्सह, तं मा भणाहि भइयव्वो पएसो, भणाहि धम्मे पएसे से पए से धम्मे, अहम्मे पएसे से पएसे अहम्मे, पागासे पए से से पएसे
आगासे, जीड़े पए से से पएसे नोजोवे, खंधे पएसे से पएसे नोखंधे। ____एवं वयंतं सद्दनयं समभिरूढो भणइ-जं भणसि धम्मे पएस से पएस धम्मे, जीवे पएसे से पएसे नोजीवे, खंधे पएसे से पएसे नोखंधे, तं न भवइ, कम्हा ? इत्थं खलु दो समासा भवंति, तं जहा-तप्पुरिसे अ कम्मधारए अ, तं ण णजइ कयरेणं समासेणं भणसि ? किं तिप्पुरिसणं किं कम्मधारएणं ? जइ तप्पुरिसेणं भणसि तो मा एवं भणाहि, अह कम्मधारएणं भणसि तो विसेसो भणाहि, धम्मे असे पएसे असे पएसे धम्मे, अहम्मे असे पएसे अ से पएमे अहम्मे, आगासे असे पएसे अ से पएसे आगासे, जीवे असे पएसे असे पएसे नोजीवे, खंधे अ से पएसे असे पएसे नोखंधे । ___एवं वयंतं समभिरूढं संपइ एवंभूओ भणइ-जं जं भणलि तं तं सव्वं कसिणं पडिपुण्णं निरवसेस एगगहणगहियं देसेऽवि मे अवत्थू पएसेऽवि मे अवत्थ । सेत पएसदिटुंतेणं । से तं नयप्पमाणे ।
(से किं तं पएसदिढतेणं ? ) * प्रदेश दृष्टान्त किसे कहते हैं ? (पएसदि8 x)
* 'प्रकृष्टो देशः प्रदेशो-निविभागो भाग इत्यर्थः' अर्थात् जो अति ही सूचम हो और जिसका विभाग न हो सके इसे प्रदेश कहते हैं। ४ एतदन्यप्रतिषु नास्ति ।
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२१६
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] प्रदेशों के दृष्टान्त से सप्तनयों का स्वरूप निम्न प्रकार जानना चाहिये । (णेगमो भणइ-) नैगम नय कहता है-(छएह पएसो) छह प्रकार के प्रदेश हैं, (तं जहा.) जैसे कि(धम्मपएसो) धर्मास्तिकाय ४ का प्रदेश (अधम्मपएसो) अधर्मास्तिकाय का प्रदेश (पागास पएसो) आकाशास्तिकाय का प्रदेश (जीवपएसो) जीव का प्रदेश (खंधपएसो) स्कन्ध का प्रदेश और (देसपएसो) देश का प्रदेश । इस प्रकार नैगम नय से षट् प्रदेश हुए।
___( एवं वयंत ) इस प्रकार भाषण करते हुए ( गम ) नैगम को (संगहो भणा-) संग्रह नय कहता है (जं भणसि ) जो तू कहता है कि ( छण्ह पएसो) छत्रों के प्रदेश हैं (तं न भवइ,) वह नहीं होता है, (कम्हा ?) क्यों ? (जम्हा) इस लिये कि (जो देसपएसो) जो देश का प्रदेश है (सो तस्सेव दव्वस्स) वह उसी के द्रव्य का है, (जहा को दिटुंतो ?) जैसे कोई दृष्टान्त है ? (दासेण में खरो की ग्रो) मेरे नौकर ने गधा खरोदा है, दासोऽवि मे) दास भी मेरा हो है और (खiऽवि मे) गिधा भी मेरा ही है । (तं मा भणाहि) इस लिये ऐसा मत कहो कि ( छगह पएसो ) छओं का प्रदेश है, लेकिन (भणहि पंचए हैं पएसो,) कहो कि पांचों के प्रदेश हैं, (तं जहा- जैसे कि ( धम्मपएसो अधम्मपएसो प्रामासपएसो जीवपएसो खंधाएसो,) धर्मास्तिकाय का प्रदेश, अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, आका शास्तिकाय का प्रदेश, जीवास्तिकाय का प्रदेश और स्कन्ध का प्रदेश ।
(एवं वयंत संगह) इस प्रकार कहते हुए संग्रह नय को ( ववहारो भणइ. ) व्यवहार नय कहता है कि (जं भणसि पंचएह पएसो,) जो तू कहता है कि पांचों के प्रदेश है, (तं न भवइ,) वह सिद्ध नहीं होता है ( कम्हा ?) कैसे ? (जइ जहा)
x धर्म शब्द से यहाँ पर धर्मास्तिकाय जानना चाहिये ।
* जैसे कि द्रव्य का देश और उसी का प्रदेश, तो वह प्रदेश उस द्रव्य का ही है, अन्य का नहीं।
+ देश प्रदेश सम्बन्धी होने से प्रदेश का ही है, अन्य का नहीं ।
* यहाँ पर इतना विशेष जानना चाहिये कि यह वर्णन अवशुद्ध संग्रह नय का है, क्यों कि विशुद्ध संग्रह नय अनेक द्रव्य और प्रदेशों के विकल्पों को नहीं मानता और सभी पदार्थों को सामान्य रूप से ही स्वीकार करता है।
संग्रह नय ने उत्तर दिया कि यह दृष्टान्त है, जैसे कि लौकिक में यह व्यवहार देखा जता है और कहा जाता है।
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[ उत्तरार्धम् ]
२१७ "दि जैसे (पंचण्हं गोटिप्राणं पुरिसाणं ) पांच गोष्ठिक पुरुषों की (केइ दव्यजाए) किंचित् द्रव्य जाति (सामण्णे भवइ,) सामान्य होती है, (तं जहा.) जैसे कि-हिरपणे वा सुवरणे वा धणे वा धरणे वा) हिरण्य या सोना या धन या धान्य इत्यादि, (ते जुत्तं वत्तु तहा) तो तुम्हारा वैसा कहना युक्त था कि (पंचगह पएसो,)* पांचों के प्रदेश हैं, (तं मा भणाहि.) इस लिये ऐसा मत कहो कि (पंचएह पएसो,) पांचों के प्रदेश हैं, लेकिन (भणाहिपंचविहो पएसो,) कहो कि-प्रदेश ४ पाँच प्रकार का है, (तं जहा-) जैसे कि-(धम्मपएसो अधम्मपएसो अागासपएसो जीवपएसो खंधपए सो ) धर्मास्तिकाय का प्रदेश, अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, आकाशास्तिकाय का प्रदेश, जीवास्तिकाय का प्रदेश और स्कन्ध का प्रदेश ।
(एवं वयंत वाहार) इस प्रकार कहते हुए व्यवहार नयको (उज्जुसुनो भाइ-)ऋजु सूत्र * कहता है कि-(जं भणसि-पंचविहे पए सो,) जो तू कहता है कि पाँच प्रकार के प्रदेश हैं, (तं न भवइ ,) वह नहीं होता है, (क. हा ?) क्यों ? (जइ ते) यदि तेरे मत में (पंचविहो पएसो) पांच प्रकार के प्रदेश हैं, तो (एवं ते एक को परसा) इस प्रकार तेरे मतसें एक २ प्रदेश ( पंचविहो ) पाँच प्रकार का होता है, (एवं ते पणवीसतिविहो) इस तरह तेरे मत से पच्चीस प्रकार का ( पएसो भवड, ) प्रदेश होता है, (तं मा भणाहि-) इसलिये ऐसा मत कहो कि-(पंचविही पएसो,) पांच प्रकार का प्रदेश है, लेकिन (भणाहि-) कहो कि (भइयव्वो पएसो) प्रदेश भिजनीय हैं। (सिय धम्मपएसो) धर्मास्तिकाय का प्रदेश हो (सिश्र अधम्मपएसो, अधर्मास्तिकाय का प्रदेश हो (सिय आगासपएसो) आकाशास्तिकाय का प्रदेश हो, (सिय जीवपएसो) जीवास्तिकाय का प्रदेश हो (सिय खंधपएसो) या स्कन्ध का प्रदेश हो।
+ जैसे कि पांच गोष्टिक पुरुषों का किञ्चित् द्रव्य सोना-धान्य श्रादि सामान्य-साधारण होता है, उसी प्रकार यदि पांचों द्रव्यों के प्रदेश सामान्य-इकट्ठे हों तब संग्रह नय का कहना ठीक है कि 'पाँचों के प्रदेश हैं लेकिन ऐसा नहीं है, क्योंकि पांचों के प्रदेश भिन्न २ हैं ।
x द्रव्य पाँच प्रकार के हैं और प्रदेश तदाश्रयभूत हैं इसलिये प्रदेश भी पांच प्रकार का कहना चाहिये।
* यह नय वर्तमान काल को ही मानता है, भूत और भविष्यत् काल को नहीं । इसलिये सभी पदार्थ अपने २ गुण स्वरूप हैं और पर गुण में नास्ति रूप हैं । स्वगुण वाले पदार्थ अपने ही गुण के बोधक हैं, पर गुण के नहीं ।
+ भाज्य, विभजनीय, ये एकार्थी हैं।
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२१८
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
एवं वयंतं उज्जुसुयं) इस प्रकार कहते हुये ऋजुसूत्र को (संपइ सहनी भइ-) सम्प्रति शब्द नय कहता है, (जं भरणसि) जो तू कहता है कि - ( भइयो पएसी) प्रदेश भजनीय है, ( न भवइ, ) वह नहीं होता ( कम्हा ?) क्यों ? (ज) यदि ( भयो परसो) प्रदेश विभजनीय हैं ( एवं ते) इस प्रकार तेरा मत है तो (धम्मपएसो ऽवि) धर्मास्तिकाय का प्रदेश भी ( सिय धम्मपसी ) शायद धर्मास्तिकाय का प्रदेश हो ( सय अधम्म पसी) या धर्मास्तिकाय का प्रदेश हो ( सिय श्रागासपएसी) या आकाशास्तिकाय का प्रदेश हो (सिय जीवसो) अथवा जीवास्तिकाय का प्रदेश हो ( सिय खंधपरसो ! कदाचित्. स्कन्ध का प्रदेश हो, तथा - ( अधम्मपए सोऽवि ) अधर्मास्तिकाय का प्रदेश भी (सिय धम्म
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सो) कदाचित् धर्मास्तिकाय का प्रदेश हो ( जात्र मिश्र खंधपरसो) यावत् स्कन्ध का प्रदेश हो, इसी प्रकार ( ज. वपएसोऽवि ) जीवास्तिकाय का प्रदेश भी (सिय धम्मपरसो) शायद धर्मास्तिकाय का प्रदेश हो (जाब) यावत् ( सिय संथपएस) स्कन्ध का प्रदेश हो, ( संधपर सोडवि) स्कन्ध का प्रदेश भी (सि धम्मपरसो) शायद धर्मास्तिकाय का प्रदेश हो ( जाव) यावत् (सिश्र संघपएसो) शायद स्वन्धका प्रदेश हो ( एवं ते) इस प्रकार तेरे मतसे (त्था भविस्स ) + अनवस्था हो जायगी, ( तं मा भाहि-) इस लिये ऐसा मत कहो कि ( भइयो परसो, ) प्रदेश भजनीय हैं, किन्तु ( भणाहि ) कहो कि (धर्म पसे) धर्मरूप जो प्रदेश है ( से पए से धम्मे, ) वही प्रदेश धर्म है अर्थात् *धर्मात्मक रूप है, इसी प्रकार ( मे पर से) जो अधर्मास्तिकाय का प्रदेश है ( से पएसे हम्मे ) वही प्रदेश अधर्मात्मक है, और ( श्रागा पसे) जो आकाशास्तिकाय का प्रदेश है (सेप
गा) वही प्रदेश x आकाशात्मक है, और ( जीव परसे) जीवास्तिकाय का जो प्रदेश है ( से पसे नोजीवे, ) वह प्रदेश | नोजीव है, इसी प्रकार (खंधे परसे) जो स्कन्ध का + इस प्रकार से अनवस्था दोष होगा | जैसे कि - एक देवदत्त राजा का मौर है शायद वह श्रमात्य - मंत्रीका भी हो, इसी प्रकार प्राकाशास्तिकायादि के प्रदेश भी जानना चाहिये ।
* सकल धर्मास्तिकाय के देश से एक प्रदेश अभिन्न रूप है इस लिये प्रदेश को धर्मात्मक
माना गया F
* धर्म १ अधर्म २ र श्राकाश ३ ये तीनों एक २ द्रव्यात्मक हैं, इस लिये इनका एक २ प्रदेश भी तद्रूप है।
+ जीव द्रव्य अनन्त हैं और एक प्रदेश सभी जीव द्रव्यों के एक देश में संगठित है तथा सकल जीवास्तिकाय के एक देश में उसकी वृत्ति है । यहाँ पर 'नो' शब्द देशवाची हैं। जो एक जीवद्रव्यात्मक प्रदेश हैं वह किस प्रकार अनन्त जीव द्रव्यात्मक हो सकता है ? घर्थात् सकत tartery में किस प्रकार व सकता है १
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[उत्तरार्धम]
२१६ प्रदेश है ( से पएसे नोखंधे, ) वही प्रदेश नो स्कन्धात्मक ' है।
(एवं वयंतं सदनयं) इस प्रकार भाषण करते हुए शब्द नय को ( समभिरूढो भणइ, ) समभिरूढ नय कहता है कि-(जं भणसि.) जो तू कहता है कि (धम्मे पएसे ) धर्मास्तिकाय का जो प्रदेश है (से पएसे धष्मे) वही प्रदेश धर्मात्मक है, (जाव) यावत् ( जीवे पर ) जीव का जो प्रदेश है ( से पएसे नोजोवे, ) वही प्रदेश नोजीवास्मक है, तथा (खंधे पएसे ) स्कन्ध का जो प्रदेश है (से परसे नोखंधे,) वही प्रदेश नोस्कन्धात्मक है। (तं न भवइ,) ऐसा नहीं होता है, अर्थात् तेरा यह कहना युक्ति पूर्वक नहीं है, (कम्हा?) कैसे ? (इत्थं खलु) इस प्रकार से निश्चय ही (दो समासा भवंति) दोसमास होते हैं, अर्थात् यह वाक्य दो समास का है । (तं जहा-) जैसे कि-(तप्पुरिसे श्र कम्मधारए अ) तत्पुरुष और कर्मधारय, इस लिये ( ण णज्जइ) नहीं मालूम होता है कि (कयरेणं समासेणं भणसि ?) तू कौन से समास से कहता है ? (किं तप्पुरिसेणं किं कम्मधारएणं ?) तत्पुरुष से या कर्मधारय से ? ( जद तप्पुरिसेण भणसि ) यदि तत्पुरुष से कहता है (तो मा एवं भणाहि,) तब ऐसा मत कह, (छह कम्मधारएणं भणसि) अथवा कर्मधारय *से कहता है (तो विसेसो भणाहि,) तब विशेषतया कहना चाहिये
* स्कन्ध द्रव्य असन्त होते हुए भी एक देशवर्ती हैं, इस लिये वही प्रदेश नो कन्यात्मक कहा जाता है। नोजीव और स्कन्ध इसी लिये कथन किये गये हैं। जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य पृथक् २ अनन्त हैं।
+'त पुरुष समास माननेसे 'धर्म प्रदेश' में भेदापत्ति होती है, यथा 'कुण्डे बदराणि ।' प्रदेश और प्रदेशी का अभेद होता है। कारण कि अभेद में भी सप्तमी होना चाहिये, जैसे कि 'घटे रूपम्' इत्यादि, यदि ऐसो कहें तब दोनों पद सप्तम्यन्त होने से संशय रूप दोषापत्ति होती है, जैसे कि'धम्मे पएसे ।' इस लिये तत्पुरुष के मानने से दोषापति अवश्य है। प्रथम तो प्रदेश प्रदेशी के भिन्न होने की और दूसरी संशयात्मक होने की
* यदि 'धम्मे पएसं' में धर्म शब्द सप्तम्यन्त माना जाय तन्त्र-'हलताः सप्तम्यः । २ ।२ ।१०।' सूत्र की प्राप्ति होती है, जैसे-'वने हारिद्रका ।' यदि धर्म शब्द प्रथमान्त माना जाय तब 'विशेषणं व्यभिचार्येकार्थं कर्मधारयश्च । २ । १:५८ ।' सूत्र से कर्मधारय समास होता है, जैसे 'धर्मश्च स प्रदेशश्च स इति ।' इस लिये इस उपचार से भी दोनों समासों की और अनुकूल विवक्षा से भी दोनों समासों की प्राप्ति होती है। जैसे-'अकामे ऽमृद्ध मस्तका० । २ । २ । १२ ।' इस सूत्र से 'कण्ठे कालः' इत्यादि प्रयोग सिद्ध होते हैं।
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२२०
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
C
जैसे कि - ( धम्मे से एसे अ + ) धर्म और उसका जो प्रदेश है (से पसे घम्मे) वही प्रदेश धर्मास्तिकाय है, इसी प्रकार ( अहम् य से पएसे ) अधर्म और उसका जो प्रदेश है (से पएसे हम्मे) वही प्रदेश अधर्मात्मक है, (गासे से पहले श्र) आकाश और उसका जो प्रदेश है ( से पए से आगासे ) वही प्रदेश आकाश है, (जीवे से प अ) जीव और उसका जो प्रदेश है (से पर से नोजीव) वही प्रदेश नोजीवात्मक है, (खंधे से पसे अ) स्कन्ध और उसका जो प्रदेश है ( से पएसे नोबंध ) वही प्रदेश स्कधात्मक है,
( एवं वयं तं ) इस प्रकार करते हुए (समभिरूढं समभिरूढनय को (संपइ एवंभू श्री ) सम्प्रति एवम्भूत नय (भाइ - ) कहता है - ( जं जं भस ) जो २ ते ने धर्मास्तिकायादि पदार्थों का स्वरूप कहा है ( तं तं सव्वं ) वे सब (कसिणं) देश प्रदेश के कल्पना रहित तथा - ( पडिपुराणं ) प्रतिपूर्ण - आत्मस्वरूप से अविकल और (निरवसेस) अवयव रहित ( ए गगह गहियं) एक नाम से ग्रहण की गई है, * (देवि मे वत्थू ) मेरे मत में देश भी है, और (सेवि मे अवत्थू) प्रदेश भी मेरे मत में दिट्ठे तेणं । ) यही प्रदेशों का दृष्टान्त है । (से तं नयप्पमाणे) और यही नियों के प्रमाण हैं । (सू० १४८)
वस्तु हैं । (से ं पएस
भावार्थ- प्रदेशों के दृष्टान्त से नयों का जो स्वरूप अवगत हो, उसे प्रदे दृष्टान्त कहते हैं। जैसे कि --
+ समानाधिकरण कर्मधारय मानने से सब शंकाए दूर हो जाती हैं क्योंकि धर्मास्तिकाय से वह प्रदेश पृथक् तो हैं लेकिन देश से पृथक् नहीं है ।
* वस्तु एक नाम युक्त ही होती है, अनेक नाम युक्त नहीं होगी, क्योंकि पृथक् २ नाम होने से मतभेद अवश्य ही होगा। इस लिये वस्तु को देश प्रदेश न कहना चाहिये ।
+ अर्थात् मेरे मत में परिपूर्णात्मक रूप हो वस्तु है । प्रदेश और प्रदेशी का भेद नहीं है यदि प्रदेश मान लिया जाय तो दो पदार्थ हो जाएँगे, लेकिन दो होते नहीं हैं । अथवा प्रदेशी मान लिया जाय तो धर्म और प्रदेश शब्द पर्याय रूप हो जायँगे, और फिर दोनों का एक ही साथ उच्चारण करना पड़ेगा, जो कि युक्ति से प्रसिद्ध हैं, इस लिये सम्पूर्ण वस्तु को ही वस्तु मानना चाहिये ।
* यहां पर संक्षेप मात्र वर्णन किया गया है, विशेष वर्णन श्रागे 'नय द्वार' से जानना चाहिये । यद्यपि नयप्रमाण गुणप्रमाण के ही अन्तर्गत है, तथापि स्थान २ में ऋत्युपयोगी और अतिगहन विषय होने से इसका पृथक् वर्णन किया गया 1
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[ उत्तरार्धम् ]
२२१ नैगम नय कहता है कि प्रदेश छह हैं-धर्म प्रदेश १, अधर्मप्रदेश २,श्रीकाश प्रदेश ३, जीवप्रदेश ४, स्कन्ध प्रदेश ५ और देश प्रदेश ६। इस प्रकार नैगम नय के वचन को सुन कर
संग्रह नय ने कहा कि जो तूने षट् प्रदेश माने हैं वे ठीक नहीं है, क्योंकि जो तूने देश का भी प्रदेश मान लिया है वह युक्ति संगत इस लिये नहीं है कि जब द्रव्य का देश और फिर प्रदेश है तो वास्तव में वह द्रव्य ही का है, जैसे कि किसी ने कहा कि- मेरे दास ने गधा खरीद लिया यहां पर दास भी उसी का है
और गधा भी उसी का है । इस लिये षट् प्रदे न कहना चाहिये.किन्तु पांच ही प्रदेश कहना चाहिये । जैसे कि-धर्म प्रदेश १, अधर्म प्रदेश २, अाकाश प्रदेश ३, जीव प्रदेश ४ और स्कन्ध प्रदेश ५ । इस प्रकार अविशुद्ध संग्रह नय के वचन को सुन कर
___ व्यवहार नय ने कहा कि जो तू ने पांच प्रदेश प्रतिपादन किये हैं वे भी ठीक नहीं है, जैसे कि - पांच गोष्टिक पुरुषों का कई जाति का द्रव्य जैसे हिरराय, सुवर्ण, धन अथवा धान्य साधारण साझी हो, यदि उसी प्रकार पांच प्रदेश साधारण हो, तब तो तेरा कहना युक्ति संगत है, लेकिन वे तो पृथक् २ हैं, इस लिये तेरा कहना युक्ति संगत नहीं है, किन्तु पांच प्रकार से प्रदेश कहने चाहिये, जैसे कि-धर्म प्रदेश यावत् स्कन्ध प्रदेश । इस प्रकार व्यवहार नय के वचन को सुन कर... ऋजु सूत्र नय ने कहा कि-तेरा वाक्य भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक २ द्रव्य के पांच २ प्रदेश मानने से २५ हो जाते हैं, इस लिये यह कथन सिद्धान्त बाधित है । इस लिये ऐसा न कहना चाहिये, किन्तु मध्य में 'स्यात्' शब्द का प्रयोग करना चाहिये । जैसे कि-स्यात् धर्म प्रदेश यावत् स्यात् स्कन्ध प्रदेश । क्योंकि वर्तमान में जिसकी अस्ति है उसी की अस्ति है, जिसकी नास्ति है उसी की नास्ति है। जो पदार्थ है, वह अपने मुण में सदैव काल विद्यमान है, क्योंकि पांचों द्रव्य साधारण नहीं हैं, इस लिये स्यात् शब्द का प्रयोग करना चाहिये । इस प्रकार ऋजुसूत्र नय के वचन को सुन कर
शब्द नय ने कहा कि-यदि स्यात् शब्द का ही सर्वत्र प्रयोग किया जायगा तो अनवस्था दोष की प्राप्ति होजायगी। जैसे कि-स्यात् धर्म प्रदेश, स्यात् अधर्म प्रदेश इत्यादि । जैसे देवदत्त राजा का भी भृत्य है और वही अमात्य का भी है।
* विशुद्ध संग्रह नय भेद को विकल्प नहीं मानता ।
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२२२
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] इसी प्रकार श्राकाशादि प्रदेश भी जानना चाहिये । इस लिये ऐसान कहना चाहिये, किन्तु ऐसा कहना चाहिये कि जो धर्म प्रदेश है वह प्रदेश ही धर्मात्मक है इसी प्रकार जो स्कन्ध है वह प्रदेश नोस्कन्धात्मक है । इत्यादि इस प्रकार शब्द नय के वचनों को सुन कर
स्मभिरूढ़ नय ने कहा कि-यह भी वाक्य युक्ति युक्त नहीं है, क्योंकि इस स्थान पर दो समासों की प्राप्ति है, जैसे कि-तत्पुरुष और कर्मधारय । क्योकि-'धम्मे पएसे-से पएसे धम्मे-इन वाक्यों में दो समासोंका बोध होता है। यदि धर्म शब्द को सप्तम्यन्त माना जाय तब तत्पुरुष समास होता है। जैसे कि-'बने हस्ती' इत्यादि । यदि प्रथमान्त माना जाय तब कर्मधारय समास होता है। जैसे कि-'नीलेसु उत्पलेसु नीलोत्पलम्' अलुक् समास की अपेक्षा से भी दो समास सिद्ध होते हैं । जैसे कि-'कण्ठे कालः।' इत्यादि । इस लिये नहीं जाना जाता, कि तू कौन से समास के श्राश्रय होकर प्रतिपादन करता है ? क्योंकि-यदि तत्पुरुष मान लिया जाय तब दोषापत्ति आती है, जैसे कि 'धम्मे पएसे' धर्म शब्द को सप्तम्यन्त तत्पुरुष के मानने से भेदापत्ति सिद्ध होती है, यथा 'कुण्डे बदराणि ।' इत्यादि । यदि अभेद में सप्तमी मानी जाय यथा--'घटे रूपम् तब दोनों पद सप्तम्यन्त मालूम होने से संशयात्मक दोष उत्पन्न होता है, इस लिये तत्पुरुष समास तो किसी प्रकार सिद्ध ही नहीं हो सकता। यदि कर्मधारय है तो विशेष से कहना चाहिये । जैसे कि--
धर्मश्च स प्रदेशश्च स इति । 'समानाधिकरणः कर्मधारयः' इति वचनात् ।
इस लिये ऐसा कहना चाहिये कि-मेरे मत में प्रदेश धर्मास्तिकाय है, क्योंकि वह उस से तो पृथक् है, लेकिन उसके देश से पृथक् नहीं है । इसी प्रकार नोस्कन्ध पर्यन्त जानना चाहिये । इस प्रकार समभिरूढ नय के वचन को सुन कर
एवंभूत नय ने कहा कि-जो जो तू ने सब संपूर्ण प्रतिपूर्ण निरविशेष एक ग्रहण वस्तु वर्णन की हैं वे सभी एक ही नामसे मेरे मत में ग्राह्य हैं, क्योंकि मेरे मत में देश और प्रदेश दोनों ही अवस्तु हैं, भेद है नहीं । यदि द्वितीय पक्ष ग्राह्य है तब धर्म शब्द और प्रदेश शब्द पर्यायवाची सिद्ध हुए । दोनों शब्दों का युगपत् उच्चारण करना युक्ति से बोधित है । क्योंकि दोनों एक ही अर्थ के बोधक हैं, और एक उच्चारण करने से द्वितीय शब्द निरर्थक हो जावेगा। इस लिये एक अखंडरूप वस्तु ही प्राह्य हो सकती है।
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[ उत्तरार्धम् ]
२२३
इस प्रकार यह सातों नयों का संक्षेय स्वरूप है । ये सातों नय अपना २ मत निरपेक्षता से वर्णन करते हुए दुर्नय हो जाते हैं 'सौगतादि समयवत्' और परस्पर सापेक्ष होते हुए सन्नय हो जाते हैं। उन सतों नयों का जो परस्पर सापेक्ष कथन है, वही सम्पूर्ण जैन मत है। क्योंकि जन मत अनेक नयात्मक है, एक नयात्मक नहीं । जैसे कि -स्तुतिकार ने भी कहा है कि"उदधाविव सर्वसिन्धवः, समुदीर्णास्त्वभि नाथदृष्टयः ।
न च तासु भवान् प्रदृश्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः ॥ २॥”
'हे नाथ ! जैसे सब नदियां समुद्र में एकत्र होजाती हैं, इसी प्रकार आप के मत में सब नय एक साथ हो जाते हैं । किन्तु आपका मत किसी भी नय में समावेश नहीं हो सकता । जेले कि समुद्र किसी एक नदी में नहीं समाता इसी कार सभी वादियों का सिद्धान्त तो जैन मत है, लेकिन सम्पूर्ण जैन मत किसी वादी के मत में नहीं है ।'
जिस प्रकार तीनों दान्तों के द्वारा सप्त नयों का स्वरूप दिखलाया गया है, उसी प्रकार सब पदार्थों में इन को घटा लेना चाहिये ।
इस प्रकार प्रदेशका दृष्टान्त यहां पूर्ण हुआ और नय प्रमाणका वर्णन भी यहां पूर्ण हुआ। अब इसके अनन्तर संख्या प्रमाण जानना चाहिये-
संख्या प्रमाण |
से किं तं संखष्पमाणे ? अट्टविहे पण्णत्ते, तं जहांनामसंखा ठवणसंखा दव्वसंखा श्रवम्मसंखा परिमाणसंखा जोगणसंखा गणणासंखा भावसंखा ।
से किं तं नामसंखा ? जस्स णं जीवस्स वा जाव, से तं नामसंखा ।
से किं तं ठवणसंखा ? जगणं कटुकम्मे वा पोत्थकम्मे वा जाव से तंठवणसंखा । नामठवणारां को पइविसेसो ? नाम [प] श्रावकहियं ठवरणा इत्तरिया वा होजा श्रावकहिया वा होज्जा ।
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२२४
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] सकिं तं दव्वसंखा ? दुविहा पण्णत्ता, तं जहाआगमो य नोआगमो य जाव, से किं तं जाणयसरीर भविषसरीरवइरित्ता दव्यसंखा ? तिविहा पण्णत्ता, तं जहाएगभविए बद्धाउए अभिमुहणामगोत्ते अ। एगभविए णं भंते ! एगभविएत्ति कालो केवचिरं होइ ? जहरणेणं अंतोमुहत्तं, उकासेगां पुवकोडी। बद्धाउएणं भंते ! बद्धाउएत्ति कालमो केवञ्चिरं होइ ? ज० अं०, उ० पुवकोडीतिभागं। अभिमुहनामगोए णं भंते ! अभिमुहनामगोएत्ति काल. श्रो केवच्चिरं होइ ? जहणणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं । इयाणी को णो के संखं इच्छइ, तत्थ नेगमसंगहववहारा तिविहं संखं इच्छंति, तंजहा-एगभवियं बद्धाउअं अभिमुहनामगोत्तं च। उज्जुसुमो दुविहं संखं इच्छइ, तंजहा-बद्धाउअं च अभिमुहनामगोत्तं च ।तिरिण सदणया अभिमुहनामगोत्तं संखं इच्छंति,सेतं जाणयसरीरभवियसरीस्वइरित्ता दव्यसंखा, से तं नोआगमओ दव्यसंखा, से तं दव्वसंखा।
__ पदार्थ-(से किं तं संखपमाणे ?) सङ्घ याप्रमाण किसे कहते हैं ? (संखप्पमाणे) जिसके द्वारा गणना को जाय उसे संख्याप्रमाण के कहते हैं, और वह (अटविहे पएणते,)
*प्राकृत भाषा के "शषोः सः सूत्रसे 'शङ्ख' के 'श' को 'स' प्रादेश होजाता है । अतः यहाँ पर 'संखा' शब्द से ' सङ्ख्या' और 'शङ्ख' दोनों ही का ग्रहण किया जाता है । जैसे कि 'गो' शब्द से पशु, भूमि इत्यादि का । यथा-गोशब्दः पशुभूभ्यप्तु, वाग्दिगर्थप्रयोगवान् । मन्दप्रयोगे दृष्टयम्बुवजूस्वर्गाविधायकः ॥१॥” इसी प्रकार यहाँ पर भी 'संखा' प्राकृत में होने से 'सङ्ख्या' और 'शङ्ख' की प्रतीति होने से दोनों ही का ग्रहण किया गया है । इमलिये सुज्ञ जन नाम-स्थापना-द्रव्यादि विचार में 'सङ्ख्या' अथवा 'शङ्ख' जो शब्द घटे उसी का प्रयोग करें।
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[उत्तरार्धम]
२२५ आठ प्रकार की कही गई है । ( तं जहा. ) जैसे कि-(नामसखा ) नाम संख्या १, ठवणसंखा) स्थापना संख्या २, (दव्वसंखा ) द्रव्य संख्या ३, (श्रोवम्मसखा ) औपम्यउपमान संख्या ४. (परिमाण संखा ) परिमाण संख्या ५, (जाणणासंखा) ज्ञान संख्या ६, (गणणासंखा) गणना संख्या ७, और (भावसंखा) भाव संख्या ।
.. (से कि तं नामसंखा ?) नामसंख्या किसे कहते है ? (नामसंखा) नाम संख्या उसे कहते हैं कि, ( जस्स | जीवरस वा जाव ) जिस किसीका अथवा जीव का (से तं नामसंखा ।) यही नाम संख्या है।
(से किं तं ठवणसंखा ? ) स्थापना संख्या किसे कहते हैं ? (ठवणसंखा) स्थापना संख्या उसे कहते हैं कि (जएगा कट कर मे वा) जो काष्ठ का कर्म हो अथवा (पोत्थकम्मे वा) पुस्तक का कम हो (जाव) यावत् (२.२ टवणसंखा ।) यही स्थापना संख्या है।
( नामटवणाग ) नाम और स्थापना में ( को पइविसंसो ? ) कौन प्रतिविशेष है ? ( नाम [पाएणं]) प्राय: नाम हो है, क्योंकि यह ( श्रावकहिय) आयुपर्यन्त होता है, और (ठवणा) स्थापना (इत्तरिया वा होजा) स्वल्प काल भी होता है और प्रावकहिया वा होना। आयुपर्यन्त भी होता है।
( से किं तं दव्वसंखा ? ) द्रव्य संख्या किसे कहते हैं ? ( दवसंखा ) द्रव्य संख्या (दुविहा पएणत्ता, दो प्रकार से प्रतिपादन की गई है (त जहा.) जैसे कि-(भागमो य) प्रागम से और (मोआगमी य) नो आगम से (जाव) यावत् । ।
(से किं तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वसंखा ?) ज्ञशरीर, भव्य शरीर और व्यतिरिक्त द्रव्य संख्या किसे कहते हैं ? (जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वसंखा) ज्ञशरीर, भव्य शरीर और व्यतिरिक्त द्रव्य संख्या (तिविहा परणत,) तीन प्रकार से प्रतिपादन की गई है, ( तं जहा-) जैसे कि-(एगभविए) जिस जीव को मत्यु के पश्चात् विना अन्तर शंख में उत्पन्न होना है उसे एकभविक शंख कहते हैं, (बढाउए) जिसने शंख भव की आयु उपार्जन करली है उसे बद्धायुष्क कहते हैं, (अभिमुहनामगोत्ते श्र।) और अभिमुख हो गया है नाम और गोत्र जिसका उसे अभिमुखनामगोत्र कहते हैं।
(एगभविए णं भंते !) हे भगवन् ! अब एक भवका वर्णन कीजिए (एगभविएत्ति) एक भव (कालो केवच्चिर होइ ? ) काल से कितने समय का होता है ? (जहणणेणं भंतोमुहुत्त) जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और ( उक्कोसेणं पुव्वकोडी,) उत्कृष्ट से पूर्व क्रोड वर्ष प्रमाण।
(बढाउए णं भंते !) हे भगवन् ! अब बद्धायुष्क जीव का वर्णन कीजिए (पहा•इसका विशेष वर्शन प्रथम भाग सूत्र ११ से जानना चाहिये ।
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२२६
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] उएत्ति) बद्धायुष्क भाव में (कालो केवचिरं होइ ? ) काल से कितने समय तक रह सकता है ? (जहन्नेणं अंतोमुहत्त) जघन्य से अन्तर्मुहूर्त (उक्कोसेणं) उत्कृष्ट से (पुवकोडीतिभागं,) पूर्व क्रोड वर्ष के तीसरे भाग* प्रमाण
(अभिमुहनामगोए णं भंते !) हे भगवन् ! अभिमुखनामगोत्र बाला (अभिमुहनामगोएत्ति) अभिमुखनामगोत्र के भाव में ( कालो केवचिर होइ ? ) कितने काल तक रह सकता है ? (जहन्नेणं एक समयं) जघन्य से एक समय (उकोसेणं अंतोमुहुरा ।) उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ।
(इयाणी) इस समय (को णो) कौन २ नय (कं संखं) किस २ शंख को (इच्छा) चाहता है-(तत्य णेगमसंगहववहाग ) उन सातों नयों में से नैगम, संग्रह और व्यवहार (तिविहं संख) तीन प्रकार के शंख को (इच्छति,) चाहते हैं 1, (तं जहा.) जैसे कि( एगभविअं) एक भविक ( बढाउनं ) बद्धायुष्क (अभिमुहनामगोत्तं च,) और अभिमुखनामगोत्र को।
( उज्जु सुनो दुविहं) ऋजुसूत्र दो प्रकार के ( संखं इच्छइ ) शंख को चाहता है, (तं जहा.) जैके कि-(बढाउग्रं च) बद्धायुष्क और (अभिमुहनामगोत्तं च) अभिमुख नामगोत्र को। (तिरिण सद्द नया ) तीनों शब्द नय’ सिर्फ (अभिमुहनामगोत्तं सखे ) अभिमुख नामगोत्र शख को (इच्छति) चाहते हैं । (से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वसंखा ।) यही ज्ञशरीर, भव्यशरीर और व्यतिरिक्त द्रव्य संख्या है। (से तं नोश्रागमश्रोदव्वसंखा ।) यही नोपागम द्रव्य संख्या है । ( से तं दव्वसंखा । ) और इसी को द्रव्य संख्या कहते हैं।
___* अर्थात् अन्तमुहूर्त प्रमाण श्रायु के शेष रहने पर परभव की आयु का बन्धन होता है और वह उत्कृष्ट से पूर्वक्रोड के तीसरे भाग में होता है । इस लिये जब से किसी जीव ने शङ्ख भव को आयु का बन्धन किया है, तब से उसे बदायुष्क कहते हैं ।
जैसे कि व्यवहार में राज्य के योग्य कुमार को राजा अथवा घृत के योग्य घड़े को धी का घड़ा कहते हैं उसी प्रकार ये तीनों नय स्थूलदृष्टि से तीनों प्रकार के शंख मानते हैं ।
+ क्योंकि यह नय पूर्व नयों की अपेक्षा विशेष शुद्ध है। इसका मत यह है कि यदि एक भविक जीव शंख माना जाय तो अतिप्रसङ्ग दोष को प्राप्ति होगी, क्योंकि वह भाव शंख से 'बहुत अन्तर पर है।
___ + ये नय अतीव शुद्ध हैं। इस लिये इनके मत में प्रथम दोनों प्रकार के शंख भाव शंख के अन्तर पर होने से अकार्य रूप हैं । यद्यपि नयों में भाव की ही प्रधानता है, तथापि अतिप्रसा की निर्टत्ति करते हुए और भाव शंख के समीप होने से तीसरे को ही मानते हैं ।
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[ उत्तरार्धम् ]
२२५ भावार्थ-जिसके द्वारा संख्या-गणना की जाय उसे संख्या प्रमाण कहते हैं और वह आठ प्रकार से वर्णन किया गया है। जैसे कि-नाम संख्या १, स्थापना संख्या २, द्रव्य संख्या ३, उपमान संख्या ४, परिमाण संख्या ५, शान संख्या ६, गणना संख्या ७, और भाव संख्या ८ । नाम संख्या और स्थापना संख्या का स्वरूप पूर्व कथित आवश्यक स्वरूप की तरह जानना चाहिये।
द्रव्य संख्या भी अागम से और नो पागम से वर्णन की गई है । तथा शशरीर, भव्यशरीर और व्यतिरिक्त द्रव्य संख्या तीन प्रकार से वर्णित है। जैसे कि-जिसे एकभव के अनन्तर मृत्यु प्राप्त कर शंख में उत्पन्न होना है उसे एकभविक शंख कहते हैं । इसमें द्विभविक त्रिभविकादि भवों की गणना नहीं है, क्यों कि वह भोव शंख के बहुत ही अन्तर पर है ? तथा जिसने शंख आयु का बन्धन कर लिया है उसे बद्धायक शंख कहते हैं और जो भाष शंख के सन्मुख है उसे अभिमुखनामगोत्रकर्मपूर्वक शंख कहते हैं। ___एकभविक शंख की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट कोर पूर्व वर्ष की होती है । बद्धायुष्क की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट क्रोड पूर्व के तीसरे भाग की होती है । तथा असंख्येय वर्षों की स्थिति वाले जीव मृत्यु प्राप्तकर देवयोनि में ही प्राप्त होते हैं, शंखमें नहीं । इसी लिये उत्कृष्ट पद में पूर्व क्रोड उपादोन कारण है। अभिमुखनामगोत्र पूर्वक जीव जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण रह कर भाव शंख को प्राप्त हो जाता है।
नैगम, संग्रह और व्यववहार नय स्थूल दृष्टि से तीनों शंखो को मानते हैं। जुसत्र नय के मत में दो शंख और शेष तीन शब्द नयों के मन में केवल तृतीय शंख ही प्राह्य है, क्योंकि वही भाव शंख प्राप्त होने योग्य है।
इस प्रमाण से केवली तीन काल के शाता सिद्ध किये गये हैं। क्योंकि कतिपय मत सर्वच को तीन काल के शाता नहीं मानते ।
संख्या प्रमाण के अनन्तर अब उपमान प्रमाण को वर्णन किया गया जाता है
प्रौपम्य संख्या प्रमाणा। से किं तं ओवम्मसंखा ? चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-अस्थि संतयं संतएणं उवमिजइ, अस्थि संतयं असं
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२२८
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] तएण उवमिज्जइ, प्रत्थि असंतयं संतएां उवमिज्जइ, अस्थि असंतयं असंतपणं उवमिज्जइ तत्थ संतयं संतएां उवमिज्जइ जहा - संता अरिहंता संतएहिं पुरवरेहिं संतएहि कवाडेहिं संतएहिं बच्छेहिं उवमिज्जइ, तं जहा
पुरवरकवाडवच्छा, फलिहा दुदुहित्थणियघोसा । सिरिवच्छंकि प्रवच्छा, सव्वे वि जिणा चउव्वीसं ॥१॥ संतयं असंत उवभिज्जइ जहा - संताई नेरइयतिारक्खजोणिय मरणस्तदेवाणं श्राउयाइ असंतएहि पलिओ - 'वमसागरोवमेहि उवमिति २ । असंतयं संतएणं उवमिज्जइ तं जहा -
परिजूरियपेरंतं, चलंतबिंटं पडंतनिच्छीरं । पत्तं व वसणपत्तं, कोलप्पत्तं भरणइ गाहं ॥ १ ॥ जहतुब्भे तह अम्हे, तुम्हेऽवि होहिहा जहा अम्हे । अप्पा पडतं, पंडुयपत्तं किसलयां ॥ २ ॥
विथि विहोही, उल्लावो किसलपंड़पत्ताणं । उवमा खलु एस कया, भवियजणविबोहराट्टाए ॥ ३ ॥ संतयं असंतएहिं उवमेिजइ, जहा - खरविसाणे तहा ससविसाणे + | से तं वम्मसंखा |
I
पदार्थ - ( से किं तं श्रोत्रम्मसंखा ? ) औपम्य - उपमान संख्या किसे कहते हैं ? ( श्रोत्रम्मसंखा ) किसी वस्तु का उपमा के द्वारा प्रमाण जानना उसे भौपम्य संख्या कहते हैं, और वह ( चउविहा पण्णत्ता, ) चार प्रकार से प्रतिपादन की गई है, (₹ जहा - ) जैसे कि -- ( श्रत्थि संतयं) विद्यमान पदार्थ को ( संतए ) विद्यमान पदार्थ से (उवमिज्जइ) उपमा दो जाती है १ । (अस्थि संतयं) विद्यमान पदार्थ को (असंतपणं) -
* क्वचित 'वंदा जिणे चउव्वीसं' ।
+ कचित्र 'जहा खरविसाणं तहा ससविसाणं' ।
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[ उत्तरार्धम् ]
२२६
विद्यमान पदार्थ से ( उवमिज्जइ ) उपमा दी जाती है २, ( श्रत्थि श्रसंतयं ) अविद्यमान पदार्थ को (i) अविद्यमान पदार्थ से ( उवमिज्जइ ) उपमा दी जाती है ३, ( अस्थि संतयं ) अविद्यमान पदार्थ को (संत) अविद्यमान पदार्थ से ( उवमिज्जा ) उपमा दी जाती है ४ ।
(तत्थ संतयं) अब इनमें से विद्यमान पदार्थ को (संतए) विद्यमान पदार्थ से ( अवमिज्जइ ) उपमा दी जाती है (जहा) जैसे कि - ( संता श्ररिता) विद्यमान अर्हन्तको (संतएहिं पुरवरेहिं) विद्यमान प्रधान नगरों के (संतएहिं कबाडेहिं ) विद्यमान कपाटों-दरवाजों के (संत वच्छ हिं) विद्यमान वक्षःस्थल से (उवमिजर) उपमा दो जाती है, (तं जहा - ) जैसे कि
( पुरवरकवाडवच्छा, फलिहभुआ दुंदुहित्थणि घोसा ! )
(सिविच्छ विच्छा, सव्वेऽवि जिया चव्वीसं ॥ १ ॥ )
प्रधान नगरके कपाटों के समान जिनके वक्षः स्थल, अर्गला के समान भुजाएं, देवदुन्दुभि या स्तनित - विद्युत् के समान शब्द और जिनका वक्षः स्थल स्वस्तिक से अङ्कित है, इसी प्रकार चौवीस तीर्थङ्कर हैं १ ।
(संत) विद्यमान पदार्थ को ( श्रसंत ) अविद्यमान पदार्थ से ( उवमिज्जर, ) उपमा दी जाती है, ( जहा-) जैसे कि
(संताइं नेश्इअतिरिक्खजोणिश्रम गुस्सदेवाणं श्राड्याई ) नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवताओं की विद्यमान आयु (असं एहिं पविसावशेत्रमे हि) श्रविद्यमान जो पल्योपम और सागरोपम हैं उन से ( उपमिति, ) उपमाएं दी जाती हैं।
(संत संत) श्रविद्यमान को विद्यमान से ( उवमिज्जइ) उपमा दी जाती है, ( जहा-) जैसे कि --
(परिजूरिपेतं, चलंतबिंटं पतनिच्छीरं । )
(पत्तं च वसणपत्तं, कालप्पत्तं भाई गाई ॥१॥ )
वसमत समय में जो अतिजीर्ण कल्प है वह दूध रहित परिपक्व होनेके कारण बींट से नीचे गिर जाता है । पुनः पत्र वियोग रूपी व्यसन से नष्ट हो जाता है, ऐसे गाथा कहती है ॥ १ ॥
(जह तुम्भे तह श्रम्हे, तुम्हेऽवि श्र होहिहा जहा अम्हे | )
(अप्पा पतं, पंडुप किसलयाणं ॥ २ ॥ )
कोई जीर्ण पत्र वृक्ष से गिरता हुआ अभिनव कान्ति रूप किशलय को कहता है कि- जैसे तुम हो वैसे ही हम पहले थे और तुम भी अब हमारे जैसे हो जायोगे । किसलयों को कहता हुआ जोर्ण पत्र नीचे गिर जाता है ॥ २ ॥
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२३०
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] - अर्थात् जैसे तुम सब जीवोंको आनन्द पहुँचाने वाले हो और अपनी श्री से अलंकृत हो उसी प्रकार हम भी पूर्व में ऐसे ही थे, और तुम भी अब हमारे जैसे हो जाओगे। क्योंकि तुम्हारा यही भाव होगा, जो इस समय हमारा हो रहा है । इस लिये अपनी: ऋद्धि को देख कर अहंकार न करो और दूसरों की निन्दा मत करो।
( णवि अस्थि णवि अ होही, उल्लावो किसलपंडुपत्ताणं । ) ( उवमा खलु एस कया, भविअजणविबोहणटाए ॥ ३ ॥)
किशलय और जीर्ण पत्रोंका पास्पर कभी वार्तालाप न हुआ, न होता है और न होगा, सिर्फ भव्यजीवों के बोध के लिये निश्चय ही यह उपमा की है ॥३॥
प्रथम पक्षमें किशलयों की जो अवस्था विद्यमान है उसी प्रकार अवस्था जीर्ण पत्रों की भूत काल में थी, वर्तमान में नहीं । तथा द्वितीय जो जीर्णावस्था पत्रों की वर्तमान में है वहाँ दशा भविष्यत काल में किशलयों को होगी। इस प्रकार निर्वेद के वास्त उपमा और उपमेय का स्वरूप जानना चाहिये।
चतुर्थ भंग में--(असंतयं) अविद्यमान पदार्थ की (असंतएणं) अविद्यमान पदार्थ से (उवमिजइ) उपमा दी जाती है । (जहा-) जैसे कि-(खरविसाणे) गधे के शृंग अविद्यमान हैं ( तहा ससविसाणे । ) उसी प्रकार खरगोश के शृंग भी अभाव रूप हैं और जैसे शश के श्रृंग अभाव रूप हैं उसी प्रकार खरके शृग हैं। (से तं प्रोवम्मसंखा ।) वही पूर्वोक्त उपमान संख्या का स्वरूप है, अर्थात् इसे ही उपमा संख्या कहते हैं ।
भावार्थ उपमान प्रमाण भी चार प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, जैसे कि-विद्यमान पदार्थों को विद्यमान पदार्थो से उपमेय करना १, विद्यमान को अविद्यमान से उपमेय करना २, अविद्यमान को विद्यमान से उपमेय करना ३, और अविद्यमान को अविद्यमान से उपमेय करना ।
विद्यमान पदार्थ की विद्यमान पदार्थ से उपमा दी जाती है । जैसे-विद्यमान अर्हन् भगवन्तों के वक्षः स्थल की विद्यमान नगर के कपाटादि से उपमेय करना १, विद्यमान पदार्थ की अविद्यमान पदार्थ से उपमा दी जाती है । जैसे चारों गतियों के जीवों की आयु को पल्योपम और सागरोपमों से मान करना २, अविद्यमान दृष्टान्तों से विद्यमान पदार्थ को भव्यजनों के बोध के वास्ते बोधित करना । जैसे कि-वृक्ष के बीट से गिरते हुये जीर्ण पत्र ने किशलयों को कहा कि हे पल्लवो! सुनो-जैसे तुम हो इसी प्रकार हम भी थे, और जैसे इस समय हम है तुम भी कालान्तर में इसी प्रकार हो जाओगे । इस लिये अपनी श्री का अहंकार मत करो। तुम को जीर्ण पत्र पुनः २ कह रहा है । यद्यपि पत्रों
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[ उत्तरार्धम् ]
२३१
को परस्पर वार्त्तालाप करना असंगत है तथापि भव्यजनों के बोध के लिये इस प्रकार कहा जाता है । यह श्रविद्यमान पदार्थ से विद्यमान पदार्थ को उपभा देना तीसरा भंग है ३, चतुर्थ भंग वह है कि जो श्रविद्यमान को अविद्यमान से उपमान दिया जाय, जैसे गधेके रंग हैं उसी प्रकार शशके विषाण हैं। क्यों कि दोनों अभाव रूप हैं ४ । यही उपमा संख्या है-
अब इसके अनन्तर परिमाण संख्या का वर्णन किया जाता है 1 परिमाण संख्या +
से किं तं परिमाणसंखा ? दुबिहा पण्णत्ता, तं जहा कालियसुयपरिमाणसंखा दिट्ठवायसुयपरिमाण संखा य । से किं तं कालियसुयपरिमाणसंखा ? अगविहा पण्णत्ता, तं जहा - पज्जवसंखा अक्खरसंखा संघायसंखा पयसंखा पायसंखा गाहासंखा संखायसंखा सिलोगसखा वेदसंखा निज्जत्तिसंखा, अणुओगदारसंखा उसगांखा अज्झ यसंखासुखंधसंखा अंगसंखा, से तं कालिय सुयपरिमाणसंखा ।
से किं तं दिट्टिवायसुयपरिमाणसंखा ? अगविहा पण्णत्ता, तं जहा - पज्जवसंखा जाव अण ओोगदारसंखा पाहुडसंखा पाहुडियासंखा पाहुहपाहुडियासंखा वत्थुसंखा, सेतं दिट्टिवायसुयपरिमाणर्सखा । से तं परिमाणसंखा ।
७
पदार्थ --- ( से किं तं परिमाणसंखा ? ) परिमाण ं संख्या किसे कहते हैं और वह कितने प्रकार से वर्णन की गई है ? (परिमाणसंखा ) जिसके + द्वारा पर्याय आदिकों की संख्या की जाय उसे परिमाण संख्या कहते हैं, वह दुविहा) दो प्रकार से (पणता ) प्रतिपादन की गई है, (तं जहा-) जैसे कि - (काल्यिसुयपरिमाणसंखा ) कालिक श्र तपरिमाग संख्या, (दिद्विवायसुपरिमाणसंखा य ।) और दृष्टिवादत्र तपरिमाण संख्याँ ।
(से किं तं कालिय परिमाणसंखा ?) कालिकन तपपिमाण संख्या किसे कहते हैं ? ( कालियसुयपरिमाणसंखा ) जिन २ सूत्रों को प्रथम या दूसरे प्रहर में वाचना दी जाय
* एतदम्यत्र नोपलभ्यते ।
+ संख्यायते श्रनयेति संख्या - परिमाणं पर्यवादि तद्पा संख्या परिमाणसंख्या ।
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२३२
[श्रीमद्नुयोगद्वारसूत्रम् ] और उनका जो परिमाण हो उसे कालिक अ तपरिमाण * संख्या कहते हैं, और वह (अणेगविहा पएणत्ता,) अनेक प्रकार से प्रतिपादन की गई है, (तं जहा-) जैसे कि(पजवसंखा) पर्यव-पर्याय संख्या, ( अक्खरसंखा ) अक्षर संख्या, (संघायसंखा) संघात संख्या, ( पयसंखा ) पद सख्या, (पायसंखा) पाद संख्या, (गाहासंखा) गाथा संख्या, ( संखायसंखा) संख्यात संख्या, (सिलोगसंखा) श्लोक संख्या, ( वेढसंखा ) वेष्टक संख्या, (निज त्तिसंखा) नियुक्तिसंख्या , (अणुशोगदारसंखा) अनुयोगद्वार संख्या, (उदेसगसंखा ) उद्देश संख्या, ( अज्झयणसंखा ) अध्ययन संख्या, ( सुयखंघसंखा) श्रुतस्कन्ध संख्या, अंगसंखा) अंगसंख्या, (से तं कालिप्रसुअपरिमाणसंखा ।) यही कालिक श्रु तपरिमाण संख्या है।
(से किं तं दिठिवायसुअपरिमाणसंखा ?) दृष्टिवादश्रुतपरिमाण संख्या किसे कहते हैं ? (दिट्टि वायसुअपरिमाणसंखा) दृष्टिवादश्रु तपरिमाण संख्या ( भणेगविहा पएणत्ता,) अनेक प्रकार से प्रतिपादन की गई है, (तं जहा- ) जैसे कि--(पजवसंखा) पर्यव-पर्याय संख्या (जाव अणुयोगदारसंखा) यावत् अनुयोगद्वार संख्या, (पाहुडसंखा) प्राभृति संख्या, ( पाहुडियासंखा ) प्राभतिका संख्या, (पाहुडपाहुडियासंखा) प्राभूत प्राभृतिका संख्या, ( वत्थुसंखा ) वस्तु संख्या ( से तं दिटिवायमुअपरिमाणसंख।। ) यही दृष्टिवादश्रुतपरिमाण संख्या है और (से तं परिमाणसंखा ।) यही परिमाण संख्या है।
* कालिकश्च तपरिमाणसंख्यायां पर्यवसंख्या इत्यादि, पर्यवादिरूपेण-परिमाणविशेषेण कालिकश्रुतं संख्यायत इतिभावः । इनका नाम अन्वर्थ है । जैसे-१-जिसमें पर्यायौंको संख्या हो। २-जिसमें अक्षरों की गणना हो । ३-द्वयादि संयोगादि व्यंजनों की गणना हो। ४-जिसमें वाक्यों के पदों की संख्या हो । अथवा- 'सुतिङन्तं पदम् । १ । ४ । १४ । पा० ।' जिस के अन्त में सुप् और तिङ हो उसे पद जानना चाहिये । ५-श्लोकादि के चतुर्थांश को पाद कहते हैं । इनकी जिसमें संख्या हो उसे पाद संख्या कहते हैं । ६-जिसमें गाथाओं की संख्या हो। -जिसमें गणना की संख्या हो । --जिसमें श्लोकों की संख्या हो । -जिसमें वेष्टकबन्द विशेषकी संख्या हो । १०-जिसी नियुक्ति की संख्या हो । ११-जिसमें अनुयोग द्वार की संख्या हो । १२-जिसमें दशकों की संख्या हो । १३-जिसमें अध्ययनों की संख्या हो । १४ जिसमें श्रुत स्कन्धों की गणना हो । १५-जिसमें अङ्गादिको की संख्या हो । इनका विशेष वर्णन नन्दी और अनुयोगद्वार से जानना चाहिये । १६-जिसमें प्रभृतों की संख्या हो। १७जिसमें प्राभूति की संख्या हो । १८-जिसमें प्राभूतप्राभृतिका की संख्या हो । १६-जिसमें जीवादि वस्तुओं की संख्या हो । ये सब पूर्वान्तर्गत श्रु ताधिकारविशेष हैं । यथा-"पाभूतादयः पूर्वान्तर्गतः श्रुताधिकार विशेषः।"
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[उत्तरार्धम]
२३३ भावार्थ-जिसकी गणना की जाय उसे सङ्ख्या कहते हैं, और जिसमें पर्यवादि का परिमाण हो उसे परिमाण संख्या कहते हैं । इसके दो भेद हैं, जैसे कि-कालिकश्रु त परिमाण संख्या १, और दृष्टिवादश्रु त परिमाण संख्या २।
जिन २ सूत्रों की प्रथम या दूसरे प्रहर में वाचना दी जाय और उनका जिसमें परिमाण हो उसे कालिकश्रु त परिमाण संख्या कहते हैं । इसके अनेक भेद है, जैसे कि-पर्याय संख्या १, अक्षर संख्या २, संघात संख्या ३, पद संख्या ४, पाद संख्या ५, गाथा संख्या ६, संख्या संख्या ७, श्लोक संख्या ८, वेष्टक संख्या ६, नियुक्ति संख्या १०, अनुयोगद्वार संख्या ११, उद्देशक संख्या १२, अध्ययन संख्या १३, श्र तस्कन्ध संख्या १४, और अंग संख्या १५ । ।
तथा--दृष्टिवादश्रत परिमाण संख्या भी इसी प्रकार जानना चाहिये। लेकिन प्राभत संख्या, प्राभृतिका संख्या, प्राभृत प्राभृतिका संख्या और वस्तु संख्या, इतना विशेष जानना चाहिये । इसी का परिमाण संख्य' कहते हैं। इसके बाद अब ज्ञान संख्या का स्वरूप वर्णन किया जाता है
ज्ञान संख्या से किं तं जाणणासंखा ? जो जं जाणइ. तं जहासईसटिओ गणिअं गणिो निमित्तं नैमित्तिो कालं कालणाणी वेजयं वेजो, से तं जाणणासंखा ।
पदार्थ-(से के तं जाण सखा ?) ज्ञान* संख्या किसे कहते हैं ? (जाणणासंखा) ज्ञान संख्या उसे कहते हैं कि-(जो जं जाणइ,) जो जिसको जानना हो, ( जहा-) जैसे क-(सदं सदियो) जो शब्द को जानता हो उसे शाब्दिक (गणिनं गगियो) जो गणित को जानता हो उसे गणितज्ञ, ( निमित्तं नेमत्तियो ) जो निमित्त को जानता हो उसे नैमित्तिक, ( कालं कालणाणी ) जो काल को जानता हा उसे कालज्ञानी-कालज्ञ (वेजय वेजो,) जो वैद्यक जानता हो उसे वैद्य कहते हैं, ( से तं जाणणासंखा । ) यही ज्ञान संख्या है।
* "ज्ञो यः ।" प्रा० । सू० । ८ । २ । ८३ । ज्ञः सम्बन्धिनो अस्य लुग वा भवति । माणं-णाणं-ज्ञानम् । इत्यादि ।
+ यहां पर अभेदोपचार नयके मतसे वर्णन किया जारहा है। इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिये।
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२३४
[श्रामद्नुयोगद्वारसूत्रम् ] भावार्थ-जिसके द्वारा पदार्थों का स्वरूप जाना जाता है उसे शान कहते हैं और जिसमें उसकी संख्या का परिमाण हो उसे शान संख्या कहते हैं । जैसे कि जो शब्द को जानता है वही शाब्दिक है, जो गणित को जानता है वही गणित है, जो निमित्त को जानता है वही नैमित्तिक है, जो काल [ भूत, भविष्यत् और वत्त मान आदि को जो जानता है वही कालशानी है, जो वैद्यक जानता है वही वैद्य है। इसी को ज्ञान संख्या कहते हैं। इसके अनन्तर अब गणना संख्या का स्वरूप जानना चाहिये
गणाना संख्या से कि तं गणणाशंखा ? एको गणणं न उवेइ, दुप्पभिइ संखा, तं जहा-संखेजए १, असंखेज्जए २, अणंतए ३,
से कि तं संखेज्जए ? तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-जहगणए उक्कोसए अजहण्णमणुक्कोसए ।
से किं तं असंखेज्जए ? तिविहे पण्णत्ते, ते जहापरित्तासंखेज्जए जुत्तासंखजए असंखेज्जासंखेज्जए ।
से किं तं परित्तासंखेजए ? तिविहे पण्णते, तं जहाजहण्णए उक्कोसए अजहएणमणुक्कोसए ।
से किं तं जुत्तासंखजए ? तिविहे पण्णत्ते, तं जहाजहण्णए उक्कोसए अनहराणमणुकोसए ।
से कि तं असंखेज्जासंखेज्जए ? तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-जहण्णए उक्कोसए अजहण्णमणुक्कोसए ।
से कि तं अणंतए ? तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-परिताणंतए जुत्ताणंतए अणंताणंतए ।
से कि तं परित्ताणंतए ? तिविहे पण्णत्ते, तं जहाजहण्णए उकोसए अजहण्णमणुकोसए ।
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२३५
[ उत्तरार्धम् ] से किं तं जुत्ताणंतए ? तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-ज. हगणए उक्कोसए अजहरणमणुक्कोसए ।
से कितं अणंताणंतए ? दुविहे पण्णत्ते, तं जहाजहण्णए अजहण्णमणुकोसए ।
जहणणयं संखेज्जयं केवइयं होइ ? दोस्वयं, तेणं पर अजहण्णमणकोसयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं संखेज्जयं न पावइ ।
उक्कोसयं संखेज्जयं केवइयं होइ ? उक्कोसयस्स संखेज्जयस्स परूवणं करिस्सामि-से जहानामए पल्ले सिया एग जोयणसयसहस्सं आयामविक्रखंभेणं तिण्ण जोयणसय. सहस्साइं सोलस सहस्साइं दोगिण अ सत्तावीसे जोयण. सये तिरिण अकोसे अट्ठावीमं च धणसयं तेरस य अंगुलाई अद्ध अंगुलं च किंचि विसेसाहिअं परिक्खेवेणं पण्णत्ते, से णं पल्ले सिद्धत्थयाणं भरिए, तो णं तेहिं सिद्धत्थएहिं दीवसमुदाणं उद्धारो घेप्पइ, एगो दोवे एगो समुद्दे एवं पक्खिप्पमाणेणं जावइया दीवसमुददा तेहि सिद्धस्थएहिं अप्फुण्णा एसणं एवइए खेत्ते पल्ले आइट्टा पढमा सलागा, एवइयाणं सलागाणं असंलप्पा लोगा भरिया तहोवि उक्कोसयं संखेज्जयं न पावइ । जहा को दिटुंतो? से जहानामए मंचे सिया आमलगाणं भरिए, तत्थ एगे
आमलए पक्खित्ते सेऽवि माते अण्णेऽवि पक्खित्ते सेऽवि माते अण्णेवि पक्खित्ते सेऽविमाते एवं पक्खिप्पमाणेहि २७
ॐ कचिदेतत् 'पक्खिप्पमाणेणं' ।
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[
श्री
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] होही सेऽवि आमलए जंसि पक्खित्ते से मंचए भरिज्जिहिइ जे तत्थ आमलए न माहिइ ।
एवामेव उक्कोसए संखेज्जए रूवे पक्खित्ते जहणणयं परित्तासंखेज्जय भवइ ।
पदार्थ-(से किं तं गणगासंखा ?) गणना संख्या किसे कहते हैं ? (गणणासंखा) जिनकी संख्या गणना के द्वारा की जाय उसे गणना संख्या कहते हैं, (एको गणणं न उवेइ,) 'एक' गणन संख्याको प्राप्त नहीं होता, इस लिये (दुप्पभिः सखा,) दो प्रभृति -दो से संख्या शुरू होती है, (तं जहा) जैसे कि--( संखेज्जए ) संख्येयक ( असंखेजए ) असंख्येयक और (प्रगए ।, अनन्तक ।
(मे किं तं संखेजए ?) संख्ययक किसे कहते हैं ? (संखेज्जए) जिस की संख्या की जाय, और वह (सिविह गए पत्ते,) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, ( जहा.) जैसे कि-(जहणणए) जघन्य (कास ए) उत्कृष्ट और (अनहगमणुकासए ) मध्यम । . (से किं तं असंखेजए ?) असंख्येयक किसे कहते हैं ? (असंखेजए, जो संख्येयक न हो, और वह (तिविहे पण्णत्ते, ) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है तं जहा.) जैसे कि--(परित्तासंबेजए) परीतासंख्येयक (जुत्तासंखेजा) युक्तासंख्येयक और (असं वेजासंखेजए ।) असंख्येयासंख्येयक । . (से किं तं परि तासंखेज्जए ?) परोतासंख्येयक किसे कहते हैं ? (परित्तासंखेजए) जो उत्कृष्ट संख्येयक न हो, और वह (तिविहे पण्णत्ते, ) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा.) जैसे कि- (जहएणए) जघन्य (उक्कोसए) उत्कृष्ट और (अजह. रणमणुकोसए ।) मध्यम।
( से किं तं जुत्तासंखेजए ?) युक्तासंख्येयक किसे कहते हैं ? (जुत्तासंखेज्जए) जो
___ * एतावन्त एते इति संख्यानं गणनसंख्या ।
यत एकस्मिन् घटादौ दृष्ट घटादि वस्त्विदं तिष्ठतीत्येवमेव प्रायः प्रतीतिरुत्पद्यते, नैकसंख्याविषयत्वेन, अथवा आदानसमर्पणादिव्यवहारकाले एक वस्तु प्रायो न कश्चिद्रणयत्यतोऽसंव्यवहार्यत्वादल्पत्वाद्वा नैको गणनसंख्यामवतरति । अर्थात्
__ जैसे कि कोई एक घटादि वस्तु देख कर घटादि वस्तु का तो ज्ञान हो जाता है, लेकिन संख्या नहीं मालूम होती । तथा-लौकिक व्यवहार में भी परम स्तोक होने से देने लेने में इसकी गणना नहीं की जाती।
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[ उत्तरार्धम् ]
२३७
उत्कृष्ट परोत न हो, और वह (तिविहे पण्णत्ते) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा - ) जैसे कि - ( जहएगए ) जघन्य (उक्कोस ए) उत्कृष्ट और (अजहरा णमणुकोसए ।) मध्यम ।
(से किं श्रसंखेजासंखेज्जए ? ) अ ख्येया संख्येयक किसे कहते हैं ? ( श्रसंखेज्जा - संखेज्जए) जो उत्कृष्ट युक्त न हो, और वह (तिविहे पण्णत्ते) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि -- (जहरए) जघन्य (उक्कांसए) उत्कृष्ट और ( श्रजहमोस) मध्यम ।
( से किं तं त ?) अनन्तक किसे कहते हैं ? (त) जो उत्कृष्ट असंख्येयासंख्येयक न हो, और वह ( तिविहे परागात्ते, ) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि - (परतात) परीतानन्तक, जुत्ता संतए) युक्तानन्तक और ( श्रयं तात ।) अनन्तानन्तक ।
( से किं तं परितात ? ) परीतानन्तक किसे कहते हैं ? ( परित्ताणंतर ) जो उत्कृष्ट अनन्तानन्तक न हो, और वह (तिविहे पत्ते) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, । (तं जहा-) जैसे कि - ( जहरण्ए ) जघन्य (कोसए) उत्कृष्ट और (जहरणमगुकोसए ।) मध्यम ।
( से कि तं जुत्ता संत ए ? ) युक्तानन्तक । किसे कहते हैं ? ( जुत्ताख्तए ) जो परीत उत्कृष्ट न हो और वह (तिविहे पण ) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि -- (जहर) जघन्य ( उक्कोस ) उत्कृष्ट और ( अजहरणमगुकोस ए 1 )
मध्यम ।
( मे किं तं श्रताणंए ? ) अनन्तानन्त किसे कहते हैं ? (दुविहे पण ते) वह समुद्र में डालें तो जितने में वे व्याप्त हुए हों उनका एक शलाका होता है । दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है (तं जहा ) जैसे कि - ( जहए गए | अजहरणमणुकोसए) जघन्य और ! मध्यम |
( जहणणयं संखेज्जयं ) जघन्य संख्येयक ( केवइयं होइ ?) कितने प्रमाण में होता है ? (दोरुवयं) दो रूप प्रमाण, (ते परं) उसके पश्चात् ( श्रनहरणमकोसया ठाणाई) मध्यम स्थान हैं, ( जाव ) यावत् ( उक्कोसयं संखेजयं ) उत्कृष्ट संख्येयक ( न पावइ । ) प्राप्त नहीं होता ।
(उक्कोमयं संखेज्जयं) उत्कृष्ट संख्येयक (केवइयं होइ ?) कितने प्रमाण में होता है ? (उक्कोसयस्स संखेज्जयस्स) उत्कृष्ट संख्येयक का (परूवणं) । प्ररूपण ( करिस्सामि ) करूँगा - (से जहानामए) तद्यथा नामक - जैसे कि - - (पल्ले सिश्रा) पल्य हो, जो कि ( एगं जोय -
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२३८
[ श्रीमदनुयोगद्वार सूत्रम् ]
सयसहस्i) एक लाख योजन (श्रयामविक्वं भेग, लम्बा चौड़ा हो, और (तिरिण जोयणसयसहस्साइं ) तीन लाख ( सोलह सहस्साएं दोरिण सतावी से जोयगसए) सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन (तिरिण थ कोसे) और तीन कोश (श्रद्धा च धणुस ) एक सौ अट्ठाईस धनुष (तेरस य अंगुलाई श्रद्ध* अंगुलं च) साढ़े तेरह अलसे (किचि विसेसा हिश्रं) कुछ अधिक (परिक्खेवेणं पण्णत्ते) परिधि प्रतिपादन की गई है, पश्चात् (से णं पल्ले) उस पल्य को (सिद्धत्थमाणं भरिए) सर्षपों से भर दिया जाय, (तणं तेहिं सिद्धत्थए हिं) फिर उन सर्पपों से ( दीवसमुद्दा ) द्वीप और समुद्रों का (उद्धारो घेप्पड़ ) उद्धार प्रमाण निकाला जाता है, जैसे कि - ( एगो दीवे एगो समुद्दो) एक २ द्वीप में और एक २ समुद्र ( एवं निहिं ) इस प्रकार प्रक्षेप करते -- फेंकते हुए ( जावइया दीवसमुरा ) जितने द्वीप समुद्र हैं, (तेहिं सियहिं) उन सरसों से (अष्फुरणा) भर जायं ( एस णं एवइए खेत्ते पल्ले) इतने क्षेत्र पल्य का ( आइट्ठा पडमा सलाना ) प्रथम शलाका होता है, (एवइया णं सलागाणं) इतने शलाकों के ( अमंलप्पा लोगा ) अकथनीय लोक (भरिया,) भरे हुए हैं, (ताव ) तो भी वे (उक्कोसयं संखेज्जयं) उत्कृष्ट संख्येयक को ( न पाव) प्राप्त नहीं होते ( जहा को दितो ?) जैसे कोई दृष्टान्त भी है ? ( से जहानामए) तद्यथा नामक - जैसे कि (मंचे मिश्रा) मञ्च - चार पार्टी हो या स्थान विशेष हो. जो कि - ( श्रमल वा भरिए) यांवलों से भरी हुई हो (तत्व) तदनन्तर (एंगे श्रामलए ) एक आँवला ( पक्खित्ते ) डाला ( से मा) वह भी समा गया ( गणेऽनि पक्वि) अन्य अन्य भी डाला (सेविते) वह भी समा गया, ( अन्नेऽवि पक्वित्ते ) दूसरा और भी डाला (सेऽवि माते) वह भी
कहते !
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* यहां पर मूल सूत्रकार ने ३१६२२७ योजन, ३ कोश, १२८ धनुष और १३ ॥ अङ्गुल की जो परिधि प्रतिपादन की है, उसे जम्बूदीप दी जानना चाहिये । वृत्तिकार का भी यही अभिप्राय है । यथा-
"परिही तिलक्ख सोलस, सहस्स दो य सय सत्तावीस ऽहिया । कोसतिय अट्टवी, धणुसय तेरंगुलदहियं ॥ १ ॥”
परिधिस्त्रयो लक्षाः षोडश सहस्रा शते सप्तविंशत्यधिके ।
क्रोशत्रिकमष्टाविंशं धनुःशतं त्रयोदशाङ्गुलानि श्रर्थाधिकानि ॥ २ ॥
* क्योंकि वह पल्य चोटि तक भरा हुआ नहीं है इस लिये उसे उत्कृष्ट संख्येयक नहीं
+ शिखा के बिना भी लौकिक रूढि है कि यह मंच चोटी तक भर गया है ।
+ कल्पना की जाय कि कोई देव उस पल्य में से उन सरसों को एक २ द्वीप और एक २
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[ उत्तरार्धम् ]
२३९ समा गया, ( एवं पक्खिप्पमाणेहिं २ ) इस प्रकार प्रक्षेप करते २ (होही सेऽवि अमलए) वही ऑवला होगा (जसि पक्खित्ते) जिसके डालने से (से मंचए) वह मञ्च (भरिजिहित) भर जायगा ( जे नत्थ ) जिसके बाद (आमलए) ऑवला (न माहिइ,) न समा सकेगा। (एवामेव) इसी प्रकार (उकोसए सखेज्जए) उत्कृष्ट संख्येयक हो (रूवं पक्खिरो) रूप प्रक्षेप करने से (जहएणयं) जघन्य (परित्तासंखेज्जयं) परीतासंख्येयक (भवइ ।) होता है ।
भावार्थ--जिसके द्वारा गणना की जाय उसे गणना संख्या कहते हैं । एक का अंक तो संख्या की गिनती में नहीं आता, इस लिये दो से गिनती शुरू होती है । इसके तीन भेद हैं-संख्येयक १, असंख्येयक २, और अनन्तक ३।
१, संख्येयक-जघन्य २, मध्यम २, और उत्कृष्ट ३।
२, असंख्येयक-जघन्य परीत असंख्येयक ?, मध्यम परीत असंख्येयक२, और उत्कृष्ट परीत असंख्येयक ३; जघन्य युक्त अख्येयक ४, मध्यम युक्त असं. ख्येयक ५, और उत्कृष्ट युक्त असंख्येयक ६; जघन्य असंख्ययक असंख्येयक ७, मध्यम असंख्येयक असंख्येयक , और उत्कृष्ट असंख्येयक संख्येयक ।।
३, अनन्त - जघन्य परीतानन्त १, मध्यम परीतानन्त २, और उत्कृष्ट परीतानन्त ३; जघन्य युक्तानन्त ४, मध्यम युक्तानन्त ५, और उत्कृष्ट युक्तानन्त ६; जघन्य अनन्तानन्त ७, और मध्यम अनन्तानन्त :, इस प्रकार संक्षेप से कुल बीस अंक वर्णन किये गये हैं । अब इन्हीं का विस्तार पूर्वक विवेचन करते हैं। जैसे. . असत्कल्पना के द्वारा चार पल्य जम्बूद्वीप प्रमाण कल्पित __ कर लिये जाये और उनकी परिधि ३ लाख, १६ हजार, २२७ योजन, . . कोश, १२८ धनुष, १३॥ अंगुल से कुछ विशेष होती है। इनके नाम अनुक्रम से शलाका १, प्रतिशलाका २, महाशलाका ३ और अनवस्थित है। ये एक सहस्र योजन प्रमाण गहरे और जम्बूद्वीप की वेदिका के समान ऊंचे हैं। उनमें से अनवस्थित पल्य को सर्षपों से भर दिया जाय फिर उसको असत्कल्पना के द्वारा कोई देवता उठाकर एक २ सर्षप एक २ दीप और एक २ समुद्र में प्रक्षेप करता जाय । जिस समय उन सब सर्षपों का अवसान आजाए तब एक सर्षप प्रथम शलाका पल्य में प्रक्षेप कर दिया जाय । तथा--जहां तक वे सब सर्षप प्रक्षेप किये थे इतने ही क्षेत्र का एक और अनवस्थित पल्य कल्पित कर लिया जाय । फिर वे सर्षप पूर्ववत् अन्य द्वीप समुद्रों में प्रक्षेप कर दिये जायें। जब एक सर्षप शेष रह जाय तब उसी शलाका पल्य में प्रक्षेप किया जाय । इसी प्रकार पूर्णतया शलाका पल्य को अनवस्थित पल्य के द्वारा भर दिया जाय तर.
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२४०
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] नन्तर अनवस्थित पल्य को रख कर शलाका पल्य को उठा कर शेष द्वीप समुद्रों में सर्पप प्रक्ष प करें। जब एक सर्षप शेष रह जाय तब प्रतिशलाका पल्य में उसे प्रक्षेप करें ।पश्चात् अनवस्थित पत्य के द्वारा प्रथम शलाका पल्य को भरना चाहिये । जब अनवस्थित और शलोका पल्य दोनों ही भर जाय तब फिर शला. का पल्य में से दूसरे द्वीप समुद्रों में सर्षप प्रक्षेप किया जाय । जब एक सर्षप रह जाय तब उसे प्रतिशलाका पल्य में प्रक्षेप कर दिया जाय । इस प्रकार अनवस्थित पल्य से शलाका पल्य भर दिया जाय और शलाका से प्रतिशलाका । पश्चात् प्रतिशलाका के सर्षप के बीज उठाकर अन्य द्वीप समुद्रों में प्रक्षेप किया जाय । जब शेष एक सर्षप रह जाय तब उसे महाशलाका नामक पल्य में रख देना चाहिये । पश्चात् शलाका पल्य में से उठा कर दूसरे द्वीप समुद्रों में बीज प्रक्षेप करने चाहिये । फिर उसका एक शेष सर्पप प्रतिशलाका में रखनाचाहिये, अर्थात् इतने परिमाण का श्रानवस्थित पल्य कल्पित कर लेना चाहिये, और उसके द्वारा पूर्ववत् प्रथम शलाका पल्य भरना • चाहिये ।।
इसी प्रकार शलाका से प्रतिशलाका को और प्रतिशलाका से महाशलाका भरना चहिये । जब चारों पल्य भर जायं तब उनके सर्षपो की एक राशि कर लेना चाहिये । क्योंकि-जब तृतीय पल्य के द्वारा भरा जाय तब द्वितीय पल्य को उसे पहले के द्वारा भरना चाहिये, और प्रथम पल्य को अनवस्थित पल्य से भरना चाहिये जब तीनों भर जायं तब अनवस्थित को भर कर पुनः चारों को एक राशि कर लेनी चाहिये, उस राशि के एक रूप अधिक को उत्कृष्ट संख्येयक कहते हैं । क्योंकि दो जघन्य संख्येयक हैं । जघन्य से अधिक उत्कृष्ट से न्यून मध्यम संख्येयक जानना चाहिये । सूत्र में जहां २ पर संख्येयक को वर्णन आता है वहां २ पर मध्यम संख्येयक ही जानना चाहिये । तथा जब उत्कृष्ट संख्ययक में एक रूप अधिक प्रक्षप किया जाय तब उस राशि को जघन्य परीत असंख्येयक कहते हैं।
अब शेष असंख्येयक का निरूपण कियाजाता है
• जब तृतीय पल्य द्वितीय पल्य के द्वारा पूर्णतया भर दिया जाय तो अनवस्थित पल्य के साथ २ प्रथम शलाका पल्य भी भर देना चाहिये । जब शलाका पल्य भी पूर्णतया भर जाय । तहफिर अनवस्थित के साथ ही प्रतिशलाका पल्य भरना चाहिये । जब वह भी पूर्ण भर जाय तब अनवस्थित को भी भर कर चारों की एक राशि कर लेनी चाहिये, उस राशि में से एक सांप न्यून करने से उत्कृष्ट संख्येयक होता है।
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[ उत्तरार्धम् ]
२४१ असंख्येयासंख्ययक तेण परं अजहण्णमणकोसयाइं ठाणाइं जाव उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं न पावइ ।
उकोसयं परित्तासखेज्जयं केवहयं होइ ? जहएणयं परित्तासंखेज्जयं जहएणयं परित्तासंखेज्जमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णब्भातो रूवूणो उक्कोसं परित्तासंखेज्जयं होइ, अहवा जहएणयं जुत्तासंखेज्जयं रूवूणं उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं होइ। ___ जहणणयं जुत्तासंखेज्जयं केवइयं होइ ? जहण्णयपरित्तासंखेज्जयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णब्भासो पडिपुगणो जहएणयं जुत्तासंखेज्जयं होइ, अहवा उक्कोसए परित्तासंखेज्जए रूवं पक्खित्ते जहएणयं जुत्तासंखेज्जयं होइ, श्रावलियावि तत्तिा चेव, तेण परं अजहएणमणक्कोसयाइं ठाणाइं जाव उक्कोसयं जत्तासंत्रे जयं न पावइ । .. उक्कोसयं जुत्तासंखेजयं केवइयं होइ ? जहण्णएणं जुत्तासंखेज्जएणं आवलियो गुणिया अण्णमण्णब्भासो रूवूणो उक्कोसयं जुत्तासंखज्जयं होइ, अहवा जहएणयं असंवेज्जासंखेजय रूवूणं उक्कोसयं जुत्तासंखेज्जयं होइ।
जहएणयं असंखेज्जासंखेजयं केवइयं होइ ? जहण्णएणंजुत्तासंखेज्जएणं भावलिया गुणिया अण्णमण्णब्भासो पडिपुण्णो जहणणय असंखेज्जासंखेज्जयं होइ, अहवा उक्कोसए जुत्तासंखेज्जए रूवं पक्खित्तं जहण्णयं असंखेज्जासंखज्जयं होइ, तेण परं अजहएणमणुक्कोसयाई
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૨૪૨
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] ठाणाईं जाव उक्कोसयं असंखेज्जासंखेज्जयं ण पात्र | उक्कोसयं श्रसंखेज्जासंखेज्जयं केवइयं होइ ? जहराणर्य असंखेज्जासंखेज्जयमेत्ताणं रासीणं श्ररणमराभासो रुवूणो उक्कोस असंखेज्जासंखेज्जयं होइ, हवा जहरणयं परित्ताणंतयं वयं उक्कोसयं असंखेज्जासंखेज्जय होई ।
4
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पदार्थ - (ते परं) उसके बाद ( श्रजहणणमणुकोसयाई ठाणाई) मध्यम स्थान हैं, (आव) यावत् (कोयं परित्तासंखेज्जयं ) उत्कृष्ट परीता संख्येयक ( न पावइ) नहीं प्राप्त होता (कोसयं परितासंखेज्जयं वइयं होइ ?) उत्कृष्ट परीतासंख्येयक कितने प्रमाण में होता है ? (जहरणयं परित्तासंखेज्जयं) जघन्य परीता संख्येयक को (जहरण्यं परित्तासंखेज मे ताणं रासणं) सिर्फ जघन्य परोतासंख्येयक की राशि से ( श्रवणमणभासो ) परस्पर गुणित कर (रू) एक रूप न्यून (उकोर्स परित / संखेजयं होइ) उत्कृष्ट परीतासंख्येयक होता है, (हवा) अथवा (रूवूर्ण) एक न्यून ( जहरग्यं जुत्तासंखेज्जयं) जघन्य युक्तासंख्येयक (उकोसयं परित्तासंखेज्जयं) उत्कृष्ट * परीता संख्येयक ( होइ ।) होता है ।
(जहरणयं जुत्तासंखेजयं ) जघन्य युक्तासंख्येयक (केवइयं होइ ? ) कितने प्रमाण में होता है ? ( जहणणयपरित्तासंखेज्जयमेत्ताणं रासीगं ) जघन्य परीतासंख्येयक मात्र राशि का ( श्रएणमण्णग्भासी ) उसी को उसी के साथ गुणा करने से ( पडिपुरणो ) प्रतिपूण ( जहरण्यं जुत्तासंखेज्जयं) जघन्य युक्तासंख्येयक (होइ,) होता है, (हवा) अथवा (उक्कोस ए परिक्षासंखेजए) परीता संख्येयक में ( रूवं पक्खित्तं ) रूप प्रक्षेप करने - जोड़ने से (जह भुत्तासंखेज्जयं) जघन्य युक्तासंख्येयक ( होइ ) होता है, ( श्रावलियावि तत्तिश्रा चेव, ) भावलिका का प्रमाण भी उतना ही होता है, + ( तेण परं) तत्पश्चात् ( श्रजहरणमगुको
* श्रर्थात् जितने जघन्य परीतासंख्येयक के रूप हों उनको परस्पर गुणा कर उनमें एक म्यून करने से उत्कृष्ट परीतासंख्येयक होता है । जैसेकि - असत्कल्पनया जघन्य परीत राशिके पांच २ रूप पांच २ वार स्थापन कर लिये जायँ × × × × × × × ×५ = ३१२५ पश्चात् प्रथम पांच को द्वितीय पांच से गुणा करने पर -- ५ x ५ = २५ होते हैं । इसी संख्या को तीसरे पांच
से
'गुणा करने पर —–२५ x ५ = १२५ होते हैं। इसी प्रकार शेष अंकों को गुणा करने से १२५ x ५ x ५ = ३१२५ होते हैं। इन में से यदि एक न्यून कर दिय जाया तो उत्कृष्ट परीत असंख्येयक होता है, जैसे कि -- ३१२५-१ = ३१२४ ।
+ जघन्य युक्ता संख्येयक के जितने सरसों लब्ध हों उतने ही श्रावलिका के समय होते हैं।
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[ उत्तरार्धम् ]
२४३
सयाईं ठाणाई ) मध्यम स्थान हैं (जाव) यावत् (उक्कोसयं) उत्कृष्ट ( जुत्तासंखिज्ज :) युक्तासंख्येयक को ( न पावइ ।) नहीं प्राप्त होता ।
(उक्कोसयं जुत्तासंखेज्जयं) उत्कृष्ट युक्तासंख्येयक (केवइ होइ ?) कितना होता है ? ( जहणणं जुत्तासंखेज्जए ) जघन्य युक्तासंख्येयक से ( श्रवलिया ) आवलिका को ( गुणिश्रा श्रण्णमण्णब्भासां ) परस्पर गुणा करने से ( रूवृणो ) एक न्यून (उकोसयं जुत्तासंखेज्जयं) उत्कृष्ट युक्तासंख्येयक ( होइ,) होता है । (हवा जहरणयं ) अथवा जघन्य ( श्रसंखेज्जासंखेज्जयं ) असंख्येयासंख्येयक का ( रूवूर्ण ) एक न्यून ( उक्कोसय ं उत्कृष्ट (जुत्तासंखेज्जयं) युक्तासंख्येयक (होइ ।) होता है ।
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( जहण्णयं श्रसंखेज्जासंखेज्जयं ) जघन्य असंख्येया संख्येयक (केवइयं होइ ?) कितना होता है ? (जहणणं जुधासंखेज्जए णं) जघन्य युक्तासंख्येयक के साथ (श्रावलिश्रा ) आवलिका की राशि को (गुणिश्रा । श्ररणमरण भासो) परस्पर गुणा करने से (पढिपुरणो ) परिपूर्ण ( जहण्ण्यं श्रसंखेज्जासंखेज्जयं ) जघन्य असंख्येयासंख्येयक ( होइ, ) होत है, (हवा) अथवा ( उक्कोस जुत्तासंखेज्जए ) उत्कृष्ट युक्तता संख्येयक में ( रूवं पक्खित्तं) रूप प्रक्षेप करने - जोड़ने से (जहरणयं श्रसंखेज्जासंखेज्जयं) जघन्य असंख्येया संख्येयक ( होइ ) होता है, (ते परं ) तत्पश्चात् ( अजहरणमणुकोसयाई ठाणाई ) मध्यम स्थान हैं (जान) यावत् ( उक्कोसयं श्रसंखेज्जासंखेज्जयं ) उत्कृष्ट असंख्येयासंख्येयक को ( पावइ ।) नहीं प्राप्त होता ।
(उक्कोसयं असं खेज्जासंखेज्जयं) उत्कृष्ट असंख्येया संख्येयक (केवइ होइ ? ) कितना होता है ? (जयं । श्रसंखेज्जासंखेज्जयमेत्ताणं रासीणं ) जघन्य असंख्येयासंख्येयक मात्र राशि को ( मरणभासो) उसी के साथ परस्पर गुणा करने से (रूवूगी) एक न्यून ( उक्कोसयं श्रसंखेज्जासं खेज्जयं) उत्कृष्ट असंख्येया संख्येयक (होइ, होता है, (हवा) अथवा (रूवूणं) एक न्यून ( जरणयं परित्ताणंतयं) जघन्य परीतानन्तक (उक्कोसयं श्रसंखेनासंखेज्जयं) उत्कृष्ट * असंख्येयासंख्येयक ( होइ ।) होता है ।
* श्रन्ये त्वाचार्या उत्कृष्टम संख्येया संख्येयकमन्यथा प्ररूपयन्ति, तथाहि-- जघन्यासंख्येयासंख्येयक शेर्वगः क्रियते, तस्यापि वर्गराशेः पुनर्वंग विधीयते, तस्यापि वर्गवर्गराशेः पुनरपि वर्गों निष्पद्यते, एवं च वारत्रयं वर्गे कृते ऽन्ये ऽपि प्रत्येकम संख्येयस्वरूपा दश राशयस्तत्र मक्षिष्यन्ते,
तयथा
"लोगागासपरसा, धम्माधम्मेगजीवदेसा य ।
दव्वट्टिमा निश्रो, पत्या चेत्र बोद्धव्वा ॥ १ ॥
oriधवसाणा, अणुभागा जोगच्छ अपलिभागा ।
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२४४
[ श्रीमद्नुयोगद्वारसूत्रम् ] भावार्थ-उस के पश्चात् वहां तक अजघन्योत्कृष्टस्थान ही है जहां तक कि परीत असंख्यात नहीं होता । तथा उत्कृष्ट परीत असंख्येयक वह होता है जो जघन्य परीत असंख्येयक को जघन्य परीत असंख्ये यक की राशि के साथ परस्पर गुण किया जाय फिर उस में से एक रूप न्यून कर दिया जाय । जैसे कि-५४,५४,५४,५४,५= इस राशि में से प्रथम पांचवें अंक को पाँच के । साथ गुणा किया तब २५ हुए, फिर २५ को अगले पांच से गुणा किया तब १२५ हुए, फिर १२५ को ५ से गुणा किया तो ६२५. हुए, फिर ६२५ को ५ से गुणा किया तब ३१२५ हुए, अथवा जवन्य युक संख्येयक में से यदि एक रूप न्यून कर दिया जाय तब भो उत्कृष्ट परीत असंख्येयक होता है।
__तथा-जघन्य युक्त असंख्येयक उसे कहते हैं जो जघन्य युक्त परीत अ. संख्येयक राशि को उसी के साथ अर्थात् परस्पर गुणा किया जाय, अथवा उत्कृष्ट परीत असंख्येयक में यदि एक रूप प्रक्षप किया जाय तब भी जघन्य
दोण्ह य समाण समया, असंखपक्खेवया दसउ ॥ २॥” ।
इदमुक्त भवति-लोकाकाशस्य यावन्तः प्रदेशास्तथा धर्मास्तिकायस्य अधर्मास्तिकायस्यैकस्य च जीवस्य यावन्तः प्रदेशाः 'दध्वटिया निग्रोअरि:---सृचमाणां बादराणां चानन्तकायिकवनस्पतिजीवाना शरीराणीत्यर्थः 'पत्तेया चेव' त्ति, अनन्तकायिकान् वर्जगि वा शेपाः पृथिव्यप्तेजोवायु वनस्पतित्रसाः प्रत्येकशरीरिणः सर्वे ऽपि जीवा इत्यर्थः, ते चासंख्यया भवन्ति, 'ठिइवंधज्झवसाण' चि, स्थितिवन्धस्य काणभूतानि अध्यवसायस्थानानि तान्यप्यसंख्येयान्येव, तथाहिज्ञानावरणस्य जघन्यो ऽन्तमुहर्गप्रमाणः स्थितिबन्धः, स.प्टस्तु त्रिंशत्तागगेपमकोटीकोटीप्रमाणः मध्यमपदे त्वेकद्वित्रिचतुरादिसमयाधिकान्तमुहर्तादिकोऽसंख्येयभेदः, एपां च स्थितिबन्धानां निर्वतकानि अध्यवसायस्थानानि प्र येकं भिन्नान्येव, एवं च सत्येकस्मिन्नपि ज्ञानावरणे ऽसंख्येयानि स्थितिबन्धाध्यवसायेस्थानानि लभ्यन्ते, एवं दर्शनावरणादिष्वपि वाच्यमिति । 'टणुभाग' त्ति, अनुभागाः--ज्ञानावरगणादिकर्मणां जघन्यमध्यमादिभेदभिन्ना रसविशेषाः, एतेषां चानुभागविशेषाणां निवर्तकान्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि भवन्ति, अतोऽनुभागविशेषा अप्येतावन्त एव द्रष्टव्याःकारणभेदाश्रितत्वात कार्यभेदानां, 'जोगच्छयपलिभाग' ति, गेगो-मनोवाकायविषयं वीर्यं तस्य केवलिप्रज्ञाच्छ देन प्रतिविशिष्टा निविभागा भागा योगच्छदप्रतिभागाः, ते च निगोदादीनां संक्षिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तानां जीवानामश्रिता जघन्यादिभेदभिन्ना असंख्येया मन्तव्याः । 'दुण्ह य समाण समय' गि, द्वयोश्च समयोः--उत्सर्पिण्यवसर्पिणीकालस्वरूपयोः समया असंख्येयस्वरूपाः, एवमेते प्रत्येकमसंख्येयस्वरूपाः दश प्रक्षेपाः पूर्वोक्त वारत्रयवर्गिते राशौ प्रक्षिप्यन्ते, इत्थं च यो राशिपिण्डितः सम्पद्यते स ।
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[ उत्तरार्धम् ]
२४५ युक्त असंख्येयक होता है, और एक श्रावलिका के समय भी इतने ही प्रमाण में हो ते हैं । फिर यावत्पर्यन्त उत्कृष्ट स्थानक प्राप्त नहीं हुआ तावत्पर्यन्त मध्यम स्थानक ही होते हैं, और यदि जघन्य युक्त असंख्येयक के साथ एक श्रावलिका के समयों की राशि को परस्पर गुणा किया जाय तब फिर उसमें से एक रूप न्यून करने से जघन्य युक्त असंख्येयक होता है।
अथवाजघन्य असंख्येयक असंख्येयक में से एक रूप न्यून करदें तब उस्कृष्ट युक्त असंख्येयक होता है, जघन्य युक्त असंख्येयक के साथ श्रावलिका के समयों को परस्पर गुणा किया जाय तब जो प्रतिपूर्ण राशि हो उसे ही जघन्य असंख्येयासंख्येयक कहते हैं, अथवा उत्कृष्ट यक्त असंख्येयक में यदि एक रूप प्रक्षेप करें तब भी जघन्य असंख्येयासंख्येयक ही होता है । तथा-जहां तक उत्कृष्ट असंख्येयासंख्येय न हो वहां तक मध्यम असंख्येयासंख्येयक होता है। यदि जघन्य असंख्येयासंख्येयक की राशि को परस्पर गुणा करके फिर उसमें से एक रूप न्यून कर दिया जाय तब उत्कृष्ट असंख यासंख्येयक होता है, अथवा जघन्य परीत अनन्त में से यदि एक रूप न्यून कर दिया तब भी उत्कृष्ट असं. ख्येया संख्येयक होता है।
तथा-किसी २ श्राचार्य का ऐसा मत है कि--जी असंख्येयक २ गशि है उसी का वर्ग करना , फिर उस वर्ग की जितनी राशि श्रावे उसका भी फिर वर्ग करना, पुनः उस वर्ग की जो राशि आवे उसका भी वर्ग करना । इस तरह तीन वर्ग करके फिर उस वर्ग की राशि में दश असंख्येयक राशि प्रक्षेप करने चाहिये। जैसे कि
"लोगागासपएसा, धम्माधम्मेगजीवदेसा य। दव्वटिया निरोश्रा, पत्तेत्रा चेव बोद्धव्वा ॥१॥ ठिइबंधज्भवसाणा, अणुभागा जोगच्छेअपलिभागा। दोण्ह य समाण समया असंखपक्खेवया दस उ ॥२॥"
लोकाकाश के प्रदेश १, धर्म के प्रदेश २, अधर्म के प्रदेश ३, एक जीव के प्रदेश ४, द्रव्यार्थिक निगोद-सूक्ष्म साधारण वनस्पति के शरीर ५, अनन्तकाय को छोड़कर शेष प्रत्येक कायिक पांचों जातियों के जीव ६, ज्ञानावरणीय
आदि कर्मों के बन्धन के असंख्येयक अध्यवसायों के स्थानक ७, अध्यव. सायों का विशेष उत्पन्न करने वाला असंख्यात लोकाकाश की राशि प्रमाण अनुभाग ८, योग प्रतिभाग ६, और दोनों कालों के समय १०, जब ये दश प्रक्षेप
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२४६
[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] कर दिये जायं तब फिर उस राशि का तीन वार वर्ग करना चाहिये । फिर उन में से एक कप न्यून करने से उत्कृष्ट असंख्येयासंख्येयक होता है। योग प्रतिभाग उसे कहते हैं जो मन वचन काया के योग हैं। उनका केवली द्वारा कल्पित प्रतिभाग रूप जो एक अंश है उसी को योग प्रतिभाग कहते हैं। स्थिति बन्धन करने वाले अध्यवसाय प्रत्येक २ असंख्येयक होते हैं, इस लिये वे ग्रहण किये गये हैं । इस प्रकार असंख्यातों का वर्णन किया गया। अब अनन्त का स्वरूप प्रतिपादन किया जाता है
अनन्त के भेद। जहएणयं परित्ताणतयं केवइयं होइ ? जहएणयं असंखेज्जासंखेजयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णब्भासो पडिपुण्णो जहएणयं परित्ताणतयं होइ, महवा उक्कोसए असंखेजा. संखेजए रूवं पक्खित्तं जहएणयं परित्ताणतयं होई. तेण परं अजहएणमणुक्कोसयाई ठाणाइं जाव उक्कोसए परित्ताणतयं रा पोवई।
उक्कोसयं परित्ताणतयं केवइयं होइ ? जहण्णयपरि तागतयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णभासो रूवूणो उक्कोसयं परित्तोणंतय होइ. अहवा जहएणय जुत्ताणतय रूवूर्ण उस्कोसयौं परित्ताणतय होइ । ___ जहण्णय जुत्ताणतयं केवइयं होइ ? जहएणयपरि. ताणतयमेत्ताणं रासीणं अगणमण्णब्भासो पडिपुण्णो जहएणय जुत्ताणतय होइ, अहवा उक्कोसए परित्ताणंतए रूवं पक्खिरं जहएणय जुत्ताणंतयं होइ, अभवसिद्धियावि तत्तिा होइ, तेण परं अजहएणमणुक्कोसयोइं ठाणाई जाव उक्कोसयं जुत्ताणतयण पावइ ।
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२४७
[ उत्तरार्धम् ] उक्कोसय जुत्ताणंतय केवइय होइ ? जहण्णएणं जुत्ताणतएणं अभवसिद्धियो गुणिया अण्णमण्णब्भासो रूवूणो उक्कोसय जुत्तागतय होइ, अहवा जहरणय अणताणतयं रूवूण उक्कोसय जुत्ताणतय होइ,। ___ जहण्णय अणंताणंतय केवइय होइ ? जहण्णएणं जुत्ताणतएणं अभवसिद्धिया गुणिमा भण्णमण्णब्भासो पडिपुराणो जहएणयं अणंताणंतय होइ, श्रहवा उक्कोसए जुत्ताणतए रूपं पविखत्तं जहएणय अणंताणतयं होइ, तेण परं अजहएणमणुक्कोसयोई ठाणाई, से तं गणणा संखा।
पदार्थ--(जहएणयं परिवाणं तय केट इयं होइ ? ) जघन्य परीत अनन्तक कितने प्रमाण में होता है ? (जहएण्य) जघन्य (असर जार र जर) असंख्येयासंख्येयक (मेराणं रासीण) मात्र राशि को (एणमरणभासो) परस्पर गुणा व.रने से (परिपुरण) प्रतिपूण (जहरणयं) जघन्य (परित्तार तयं) परीत अनन्तक (होड,) होता है, (हवा) इ.थवा (कोसए) उत्कृष्ट (असे जार र उजए स्वं पविरू) असंख्ययासंख्येयक में यदि एक रूप प्रक्षेप कर दिया जाय तो भी (जहएए यं) जघन्य (परिमाणतः) परीत अनन्तक (होड,) होता है, ( तेण परं ) उस के पश्चात् ( अजहरण मणुकीसयाई ठाए ।ई) अजघन्योत्कृष्ट ही स्थान है (जाव) यावत् (क्कोसयं) उत्कृष्ट ( परिवार तय ) परीत अनन्तक ( ण पावर) नहीं प्राप्त होते।
( उक्कोसय) उत्कृष्ट (परिणतय) परीत अनन्तक (केवाय) कितने प्रमाण में (होइ ?) होता है ? (जहएणय) जघन्य (परित्ताण्तर मेत्ताणं रासीण) परीत अनन्तक मात्र राशि को ( अण्णमएणम्भासो ) परस्पर गुणा करके उसका ( रुचूणो) एक रूप न्यून ( उक्कोसयं ) उत्कृष्ट ( परित्ताणतय) परीत अनन्तक (होइ,) होता है, (अहवा) अथवा (जहएणय) जघन्य (जुताणतय) युक्त अनन्तक का (रूवूणं) एक रूप न्यून (तकोसय) उत्कृट (परित्ताणतय) परीत अनन्तक (होइ ।) होता है।
(जहएणय) जघन्य (जुत्ताणतय') युक्त अनन्तक (केवइय होर ?, कितने प्रमाण में होता है ? (जहएणय) जघन्य (परित्ताणतय मेत्ताणं रासीणं)अजन परीततक मात्र
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.२४८
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] गशि को (अण्णमएणभासो) परस्पर अभ्यास करने से (पडि पुराणो) प्रतिपूर्ण (जहएणयं) जघन्य (जुताणतय) युक्त अनन्तक (होइ,) होता है, (अहवा) अथवा (उचोसए) उत्कृष्ट (परित्ताणतए) परीत अनन्तक में ( स्वं परिखस) एक रूप प्रक्षेप करने से (जहएण्य) जघन्य ( जुधाणतय) युक्त अनन्तक (होइ,) होता है, तथा (अभवसिहियावि तत्तिया होड,) अभव्यसिद्धि क जीव भी उतने ही होते हैं, (तेणं परं ) उसके पश्चात (अजह एणमणुकोसयाई ठाणाई) अजघन्योत्कृष्ट स्थान हैं ( जाव ) यावत् पर्यन्त ( कोसयौं जुनाणंतय ) उत्कृष्ट रक्त अनन्तक को (न पावइ ।) नहीं प्राप्त होता ।
(कोसयौं जुत्ताणतय') उत्कृष्ट युक्तानन्तक (केवइयं होइ ?) कितने प्रमाण में होता है ? ( जहएणएणं जुत्ताणंतरण ) जघन्य युक्त अनन्तक के साथ ( अभवसिद्धिया गुणिया अरणमएणब्भासो ) अभव्य सिद्धिक जीवों की राशि को परस्पर गुणा करनेसे (रूवूणो) एक रूप न्यून (उक्कोसयं) उत्कृष्ट ( जुत्ताणतयं) युक्त अनन्तक (होइ,) होता है, (अहवा) अथवा ( रूपूण) एक रूप न्यून (जहएणयं ) जघन्य (अणंताणंतय ) अनन्तानन्तक (उकोसयं) उत्कृष्ट (जुत्ताणतय) युक्त अनन्तक (होइ,) होता है।
(जहएण्यं ) जघन्य (अणंतागतयं ) अनन्तानन्तक (केवइय) कितने प्रमाण में (होइ?) होता ? (जहएणए जुत्ताण्तरणं ) जघन्य रक्तानन्तक के साथ (मभवसिहिया गुणिया अएणमएणभासो) अभव्य सिद्धिक जीवों के प्रमाण को परस्पर गुणा करने से (पडिपुराणो) प्रतिपूर्ण (जहएणयं अगताणत्य) जघन्य अनन्तानन्तक (होइ,) होता है, (अहवा) अथवा (कोसए) उत्कृष्ट (जुत्ताणांतए) युक्त अनन्तक में (रुवं पक्खित्त) एक रूप प्रक्षेप करने से (जहएणय) जघन्य (अपंतारातयः) अनन्तानन्तक (होइ,) होता है, (तेण परं) तत्पश्चात (अजहएणमणु कोसयाई ठाणाई) अजघन्योत्कृष्ट-मध्यम स्थान होते हैं, अर्थात मध्यम अनन्तानन्तक होते हैं । (से तं गणणासंखा) यही गणना संख्या है।
यद्यपि किसी । आचार्य के मत में अनन्तों के नव ही भेद वर्णन किये गये हैं लेकिन वे सुत्रविहित नहीं है, और सूत्र में जहां कहीं अनन्तों का वर्णन किया गया है वहां पर मध्यम अनन्तों का ही स्वरूप जानना चाहिये।
भावार्थ-जघन्य संख्येयासंख्येयक मात्र राशि को परस्पर गुणा करने से जो प्रतिपूर्ण अंक हो वे जघन्य परीत अनन्तक होते हैं, अथवा उत्कृष्ट असंख्येयासंख्येयक राशि में एक रूप और प्रक्षेप कर दिया जाय तो भी परीत अनन्तक होता है । तथा-जहां तक उत्कृष्ट परीत अनन्तक नहीं होता यहां तक मध्यम परीत अनन्तक ही रहता है।
उत्कृष्ट परीत अनन्तक को जघन्य परीत अनन्तक राशि के साथ परस्पर
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[ उत्तरार्धम् ]
२४६ गुणा करके एक रूप न्यून कर दिया जाय तब उत्कृष्ट परीत अनन्तक होता है, अथवा जघन्य युक्तानन्तक में से यदि एक रूप न्यून कर दें तब भी उत्कृष्ट परीत अनन्तक हो जाता है।
___ तथा-जघन्य परीत अनन्तक राशि को उसी के साथ गुणा करें तो प्रतिपूर्ण युक्तानन्तक होता है, अथवा उत्कृष्ट परीत अनन्तक में एक और प्रक्षेप कर दें तो भी जघन्य युक्तानन्तक ही होता है । तथा उतनी ही अभव्य जीवों की राशि जानना चाहिये । तत्पश्चात् जहां तक उत्कृष्ट युक्त अनन्तक नहीं होता वहां तक मध्यम युक्त अनन्तक ही रहता है।
यदि जघन्य यक्त अनन्तों की राशि को अभव्यों की राशि के साथ पर. स्पर गुणा करके उसमें से एक रूप न्यून कर दे तब उत्कृष्ट युक्त अनन्तक होता है, अथवा जघन्य अनन्त अनन्त की राशि में से यदि एक रूप न्यून कर दिया जाय तो भी उत्कृष्ट युक्त अनन्तक होता है।
जघन्य यक्त अनन्तक की राशि के साथ अभव्य जीवों की राशि को परस्पर गुणा करने से प्रतिपूर्ण जघन्य अनन्तानन्त होता है, अथवा यदि उत्कृष्ट यक्त अनंत की राशि में एक रूप और प्रक्षेप कर दिया जाय तो भी जघन्य अनंतानंत होता है, तत्पश्चात् अजघन्योकृष्ट-मध्यम अनन्तानन्त ही होता है, उत्कृष्ट अनंतानंत नहीं होता। इस प्रकार मूल सूत्र से सिद्ध है । लेकिन--
किसी २ प्राचार्य का मत है कि-जघन्स अनन्तों का तीन वार वर्ग करके फिर उसमें षट् अंक अनंतों के प्रक्षेप करने चाहिये । जैसे कि
सिद्धा निगोयजीव, वणस्सई कालपुग्गला चेव । सब्बमलोगागासं, छप्पेतऽणंतपक्खेवा ॥१॥
सिद्ध १, निगोद के जीव २, वनस्पति ३, तीनों कालो के समय ४, सर्व पुद्गल ५, और अलोकाकाश ६, ये षट् प्रक्षेप करना चाहिये । फिर सब राशि का तीन वार वर्ग करना चाहिये, तो भी उत्कष्ट अनन्तानन्तक नहीं होता यदि उसमें केवल ज्ञान और केवल दर्शन के पर्याय प्रक्षप कर दिये जाय तब उत्कृष्ट अनन्तानन्तक हो जाता है । इस प्रकार सब पदार्थों को केवल ज्ञान और केवल दर्शन के अन्तर्गत कर दिया है, कोई भी पदार्थ इससे बाहिर नहीं है। __लेकिन सूत्र में उत्कृष्ट अनन्तानन्त प्रतिपादन नहीं किया गया है, वहां पर तो मध्यम अनन्तानन्तक पर्यन्त ही गणन संख्या की पूर्ति कर दी है, यही
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२५०
गणन संख्या का स्वरूप है |
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
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अब इसके आगे भाव संख्या -- शंख जाननाचाहिये ।
भावसंख्या [सं०] विपय ।
से किं तं भावसंखा ? जे इमे जोवा संखगइनामगोई कम्मा वेदेति ( न्ति ) से तं भावसंखा, से तं संखष्पमाणे से तं भावपमाणे से तं प्रमाणे । पमाणेत्ति
पयं समत्तं । (सूत्र १४० )
(से किं तं ?) भाव शंख किसे कहते हैं ? (जे इमे जीवा ) जो इस लोकके जीव (संखगइनगोत्ताई ) शंख गति नाम गोत्र ( कमाई ) कर्मोदिकों को (वेतिति ) वेदते हैं ( से तं भात्रसंखा ) उसी को भाव शंख कहते हैं । ( मे तं संखापमा ) यही संख्या प्रमाण है, तथा - ( सं तं भावना, ) यही भाव प्रमाणका वर्णन है ( मे तं पणे !) और यही प्रमाण है । ( पनाधिपर्व सम्मतं । ) यहाँ पर ही प्रमाण पद की समाप्ति होगई है । [सू० १५०]
भावार्थ - जो जीव नीच गोत्र और तिर्यग योनि के भाव में शंख नामक जीव की गति को भोगता हो और उसी के अनुकूल जिसे नामादिक कर्मों की प्रकृतियों का उदय प्राप्त हुआ हो, उसी को भाव शंख कहते हैं । यही संख्या प्रमाण का वर्णन है । इस तरह इस स्थान पर भाव संख्या का वर्णन पूर्ण होते हुये प्रमाण द्वार समाप्त हो जाता है 1
इसके अनन्तर वक्तव्यता का स्वरूप जानना चाहिये
वक्तव्यता विषय ।
से किं तं वक्तव्वया ? तिविहा पण्णत्ता, तं जहा - स
समयत्रन्त्तव्वया परसमयवत्तव्यया ससमय पर समयत्तव्वया ।
* यद्यपि 'संख्या' शब्द गणना का भी वाचक है, किन्तु पूर्वमें भला प्रकार से सिद्ध कर चुके हैं कि प्राकृत भाषा में संख्या शब्द शंख का भी वाचक है, इस लिये यहां पर 'भाव संख्या ' शब्द द्वन्द्रिय जीव का हो वाचक जानना चाहिये ।
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*
[ उत्तरार्धम् ]
से किं तं ससमयवत्तव्वया ? जत्थ णं ससमए आघ विज्ञ पराविजइ परुविजइ दंसिजइ निदंसिजइ उवदंसिज्जइ, से तं ससमयवत्तव्वया ।
से किं तं परसमयवत्तव्वया ? जत्थ णं परसमए afars जाव उवढंसिजइ, से तं परसमयवत्तच्वया । से किं तं ससमयपरसमयवत्तव्वया ? जत्थ गं ससमए परसमए घविज्जइ जाव उत्रदंसिजइ, से तं ससमय परमयवत्तव्या इयाणि को ओकं वक्तव्वयं इच्छइ ? तत्थ नेगमसंगहवारा तिविहं वत्तव्वयं इच्छति, तं जहा - ससमयवत्तव्वयं परसमयवत्तव्वयं ससमयपरसमयवत्तव्यं । उज्जुसु दुविहं वत्तव्वयं इच्छइ, तं जहा - ससमयवत्तव्वयं परसमयवन्तव्वयं । तत्थ गांजा सा ससमयवत्तव्वया सा ससमय पदिट्ठा, जा सा परसमयवक्तव्वया सा परसमयं पविट्टा | तम्हा दुविहा वत्तव्वया, नस्थितिविहा वक्तव्या । तिरिण सणया एवं ससमयवत्तव्वयं इच्छति, नत्थि परसमयवत्तव्या कम्हा ? जम्हा परसमए अट्ठे अहेऊ असावे अकरिए उम्मग्गे अणुविएसे मिच्छादंसणमितिकटु तम्हा सव्वा ससमयवत्तव्वया, नत्थि परसमयवत्तव्वया, नत्थि ससमयपरसमयवत्तव्त्रया, से तं वत्तव्या । ( सू० १५१)
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२५१
पदार्थ - ( से किं तं वतव्वया ? ) वक्तव्यता किसे कहते हैं ? और वह कितने प्रकार से प्रतिपादन की गई है ( वत्तव्वया ) अध्ययनादि विषयों के अर्थों का यथा -- सम्भव विवेचन करना उसे वक्तव्यता कहते हैं, अथवा गाथादिकों को अनुकूलता पूर्वक अर्थ का जो विवेचन है उसे वक्तव्यता कहते हैं और वह (तिविहा परणत्ता, ) तीन प्रकार से प्रतिपादन की गई है, (तं जहा-) जैसे कि - ( सस. यवत्तया) स्वसमय वक्तव्यता
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२५२
[ श्रीमद्नुयोगद्वारसूत्रम् ] अर्थात् जिसमें स्वसिद्धान्त का विवेचन हो ( परसमयवत्तव्यया ) परसमयवक्तव्यतो अर्थात् जिसमें अन्य मतका विवेचन हो और (ससमयपरसमयवचधया) स्वसमय परसमय की वक्तव्यता अर्थात् जिसमें स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्त दोनों का विवेचन हो ।
(से किं तं ससमयवत्तव्यया ? ) स्वसमय वक्तव्यता किसे कहते है ? (ससमयवरःव्वया) स्वसमय वक्तव्यता उसे कहते हैं (जन्य णं*) जहां पर (ससमए) स्वसिद्धान्त का (अाघतिजइ ) व्याख्यान किया जाता है, (परणविजइ ) प्रतिपादन किया जाता है, (परूविजइ ) स्वरूप को प्ररूपणा को जाती है, (सिजइ) सामान्य प्रकार से धर्मास्ति काय आदि का निदर्शन किया जाता है, (निदंसि जइ) दृष्टान्त के द्वारा सिद्धि की जाता हैं (उवदंसिजइ) उपनय के द्वारा उसका स्वरूप निरूपण किया जाता है.(से तं ससमयवत्त. अया।) यहो पूर्वोक्त स्वसमय वक्तव्यता है ।
(से किं तं परस यवत्तव्यया ? ) परसमय-परमत वक्तव्यता किसे कहते हैं ? ( ससमयवत्तव्वया ) परसमय की वक्तव्यता उसे कहते हैं (जस्थ णं) जिस में (पासमए) परमत का + स्वरूप ( प्रायविजइ ) प्रतिपादन किया जाय (जाव) यावत् (उवदंतिजइ,) निगमन के द्वारा उसका स्वरूप दिखलाया जाय ( से तं परसमयवत्तवया ।) यही परसमयवक्तव्यता है।
(से किं तं ससमयपरवत्तव्वया ? ) स्वसमय परसमय वक्तव्यता किसे कहते हैं? ( ससमयपरसमयवत्तव्यया ) स्वसमयपरसमयवक्तव्यता उसे कहते जैसे कि-(नत्य ) जहाँ पर (ससमए) स्वसमय और (परसमए) परसमय (प्रायविजइ) प्रतिपादन किया जाता है (जाव) यावत् (उदसिजई,) निगमन के द्वाग दिखलाया जाता है, (से तं, वही ( ससमयपरसमयवत्तवया । ) स्वसमयपरसमयवक्तव्यता है। ( इयाणीं) इस समय (को णश्रो कं वत्तव्ययं इच्छइ ?) कौन २ नय किस किस वक्तव्यता को मानता है ?
(तत्थ नेगमसंग्गहववहारा ) उन सातों नयों में से नैगम नय १, संग्रह नय २, और व्यवहार नय ३ (तिविहं वत्तव्यय) तीनों प्रकार की वक्तव्यता को (इच्छति,) मा. नते हैं, (तं जहा.) जैसे कि--(ससमयवत्तवयं) स्वसमय को वक्तव्यता (परसमयवत्तव्वयं) परसमय को वक्तव्यता औ (ससमयपरसमयवत्तव्वयं) स्वसमय परसमय की वक्तव्यता, तथा (ज्जुसुरो) ऋजुसूत्र नय (दुविहं) दो प्रकार की (वत्तव्वयं) वक्तव्यता को (इच्छइ.) मातता है, (तं जहा-) जैसे कि- ससमयवव्वयं) स्वसमय की वक्तव्यता और (परसमय: वत्तव्वयं,) परसमय की वक्तव्यता, (नत णं ना सा) उन वक्तव्यताओं में से जो वह
* 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे,-'ण' वाक्य से अलङ्कार अर्य में होता है। + विशेष अर्थ भावार्थ से जानना चाहिये ।
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[ उत्तरार्धम् ।
२५३ (ससमयवत्तव्वया) स्वसमयवक्तव्यता है ( सा ससमय पविट्ठा,) वह स्वसमय प्रविष्ट हो जाती है, अर्थात् प्रथम वक्तव्यता के अन्तर्भूत है, और ( जा सा परसमयवतव्वया ) जो परसमय की वक्तव्यता है (सा परसमय पविट्ठा,) वह परसमय में प्रविष्ट होती है, अर्थात द्वितीय वक्तव्यता के अन्तर्भूत होती है, (तम्हा दुविहा वाव्वया,) इस लिये यह दो ही प्रकार की वक्तव्यता को ग्रहण करता है, नित्य तिलिहा वत्त व्यया) तीनों प्रकार की वक्त. व्यताओं को नहीं। तिषिण ) तीनों ( सद्दणय ) शब्द नय ( एगं ससमयं वत्तव्वय) एक स्वसमय वक्तव्यता को हो (इच्छति) मानते हैं, क्योंकि तीनों नय के मत में] (नत्थि परसमयवरावया,) परसमय को वक्तव्यता नहीं होती, ( कम्हा ? ) क्यों ? (जम्मा) इस लिये कि--(पासमय) परसमय का जो कथन है वह (श्रण) अनर्थ रूप है, अर्थात् कतिपय वादी आत्मादि पदार्थों की ही नास्ति कहतें है, और ( अहेऊ ) अहेतु रूप है तथा (असम्भावे) असद्भाव रूप भी है, और (अकरेए) अक्रिया रूप है और (उम्मग्गे) परसमय उन्मार्ग भी है, ( अणुवएसे ) अनुपदेश रूप भी है, (मिच्छादसिणमिति कटु,) परसमय मिथ्यारूप है, इस करके; (तम्हा) और इसी लिये (ससमययतव्यया) स्वसमय की ही वक्तव्यता है, (णतिय परसमयवतव्वया) परसमय की वक्तव्यता नहीं होती, (से तं वरालया) यही वक्त पता है।
भावार्थ-अध्ययनादि के विषय-प्रतिनियत अर्थ को वक्तव्यता कहते हैं, इसके तीन भेद हैं, जैसे कि-स्वसमयवक्तव्य ता, परसमयवक्तव्यता और उभयसमयवक्तव्यता।
स्वसमय की वक्तव्यता उसे कहते हैं जैसे-पंचास्तिकाय का वर्णन करना और परसमय की वक्तव्यता उसका नाम है जो स्वमत के अतिरिक्त अन्य मतों की व्याख्या करनी और उभय मत की वक्तव्यता वह है, जैसे कि-"प्रागारमावसंता वा, अरण्णा वावि पब्वया । इमं दरसणंमाघन्ना सम्बदुक्खा विमुच्चइ ॥१॥" इस गाथा का तात्पर्य यह है कि घर में वा अटवी में बसता हुआ अथवा दीक्षित होकर हमारे मत को ग्रहण करने वाला दुखों से विमुक्त हो जाता है । इस गाथा का जो अर्थ है वह उसी के मतानुसार हो जाता है । इस लिये यह उभयसमयों की वक्त ब्यता है, फिर नैगम १, संग्रह, २ और व्यवहार ३, इन तीनों नयों के मत में तीनों ही वक्तव्यता होती हैं । ऋजुसूत्र नयके मतमें दो वक्तव्यता और तीनों शब्द नयों के मत में केवल स्वसमय की ही वक्तव्यता है । क्योंकि सातों नयों में पूर्व नयों से उत्तर नय विशुद्ध हैं।
अब इसके अनन्तर अर्थाधिकार के विषय में कहते हैं
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२५४
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
अर्थाधिकार विषय से किं तं अत्याहिगारे ? जो जस्स अज्झयणस्स अत्थाहिगारो, तं जहा---
सावज्जजोगविरई, उकित्तण गुणवो य पडिवत्ती । खलियस्त निंदणा वणतिगिच्छ गुणधारणा चेव॥॥ से तं प्रत्याहिगारे । (सू० १५२) ।
पदार्थ-( से किं तं ग्रस्थाहिगारे ? ) अर्थाधिकार किसे कहते हैं ? (प्रत्याहिगार) अर्थाधिकार उसे कहते हैं कि-(नो जस्स अज्झ रणस्स) जो जिस अध्ययन को (अत्याहि गारो,) अर्थाधिकार हो, (तं जहा-) जैसे कि-(सावज जोगविरई) सावध योग की निवृत्ति रूप प्रथमाध्याय है ( उकितण) चतुर्विशित स्तवरूप द्वितीयाध्याय है (गुणवो य पडिवी) गुणघान की प्रतिपत्ति रूप तृतीय वन्दनाध्याय है, (खलियस्त निंदणा) पापोंकी आलोचना रूप प्रतिक्रमण चतुर्थ अध्याय है, और (वणतिगिच्छ ) व्रणचिकित्सा रूप-कायोत्सर्स नाम का पांचवां अध्याय है, (गुग्णधारणा चेत्र ॥१॥) गुणधारणा रूप प्रत्याख्यान नामक छठा अध्याय है ॥ १॥ ( से तं अथाहिगारे। ) वही * अर्था धिकार है । (स. १५२)
भावार्थ-अर्थाधिकार उसे कहते हैं जो जिस अध्ययन के अर्थ का अधि कार हो, जैसे कि-श्रावश्यक स्त्र के ६ अध्याय हैं, वे उसी के अधिकार रूप होते हैं । इसी प्रकार अन्य सूत्रों के विषय में भावार्थ जानना चाहिये। ___अर्थाधिकार और वक्तव्यता में सिर्फ इतना ही भेद है कि-अर्थाधिकार अध्ययन के आदि पद से प्रारम्भ होकर सब पदों में अनुवर्तता है, जैसे किपुद्गलास्तिकाय का प्रत्येक परमाणु मूर्तमान् है, और वक्तव्यता यह है, कि जैसे उसी के देशादि का निरूपण करना । (सू० १५२)
इसके बाद समवतार का स्वरूप जानना चाहिये-- * विशेष अधिकार प्रथम भाग स्० ५८ से जानना चाहिये ।
समक्तार विषय से कि त समोआरे ? छव्विहे पण्णते, तं जहा-णामसमोआरे ठवणासमोआरे दव्वसमोआरे खेत्तसमोआरे
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[ उत्तरार्धम् ] कालसमोरे भावसमोआरे । नामठवणाओ पुव्वं भणिया जाव से तं भवियसरीरदव्वसमोरे ।
से किं तं जाणयसरीरभवियसरीरखइरिते दव्वसमोआरे ? तिविहे पण्णत्ते, तं जहा - प्रायसमोरे परसमोप्रारे तदुभयसमोयारे, सव्वदव्याविणं प्रायसमोच्चारेण आयभावे समोअरंति, परसमोआरेणं जहा कुडे बदराणि - तदुभयसमोआरेणं जहा घरे खंभो प्रायभावे अ, जहा घडे गीवा आयभावे अ ।
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२५५
अहवा जाणयसरीरभवियसरीरखइरित्ते दव्वसमोच्चारे दुविहे पत्ते, तं जहा - प्रायसमोआरे अ तदुभयसमो - आरे । चउसट्टिया आयसमोयारें आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं बत्तासिया समोयरइ अायभावे अ बत्तीसिया आयसमोआरेणं प्रायभावे समोयरइ तदुभयसमोयारेणं सोलसियाए समोयरइ आयभावे अ सोलसिया आयसमोयारें आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं अभइया समोर आयभात्रे अ, अट्टभाइया श्रायसमोआरेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोआरेण चउभा इयाएं समोर आयभावे अ चउभाइ श्रायसमश्रा. रेणं श्रायभावे समोअरइ, तदुभयसमोरे अद्धमाणीए समोअर आयभावे अ, अद्धमाणी श्रायसमोरेणं आयभावे समोअरइ, तदुभयसमो श्रारेण माणीए समोअरइ प्रायभावे असे ते जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वसमोआरे । सेतं नोश्रागमन दव्वसमोरे, से तं दव्वमसोआरे
"
* कचिद् 'वारणा', पाठः ।
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
पदार्थ – (से किं तं समोअरे ?) समवतार किसे कहते हैं ? (समोआरे) वस्तुओं # का स्वपर उभय भाव में चिन्तन करना, अर्थात यह वस्तु आत्मभाव, परभाव अथवा उभय भाव में अन्तभूत कैसे होती है, उसीको समवतार व हते हैं, और वह बिहे पण्णत्ते,) षटू प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, ( तं जहा-) जैसे कि - ( नामसमोधारे) नाम समवतार (ठवणासमोरे ) स्थापना समवतार ( दव्वसमोरे ) द्रव्य समवतार (खेत्तसमोआरं) क्षेत्र समवतार (लसमोआरे) कोल समवतार और (भांगसमोआरे) भाव समवतार |
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(नावा) नाम और स्थापना (पुत्रं भणियो) पूर्व वर्णन की गई है (जाब) यावत् (से तं भवियसरीरदव्वसमोयारे ।) यही भव्य द्रव्य शरीर समवतार हैं ।
(से किं तं जायसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वसमोरे ?) ज्ञशरोर और भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य समवतार किसे कहते हैं ? ( जाण्यसरीर भवियसरीरवइरिचे दव्वसमोचारे) ज्ञशरोर - भव्य शरोर-व्यतिरिक्त द्रव्य समवतार (तिविहे पण्णचे) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि - ( श्रायसमोरे) आत्मसमवतार ( परसमोर ) परसमवतार और (तदुभयसमो चारे) तदुभयसमवतार । (सव्वाविं) सभी द्रव्य ( श्रायसमो श्रारें आत्मसमवतार के विचार से ( प्रायभावे समोग्ररंति ) आत्मभाव अपने ही भाव में समवतीर्ण होते हैं ( परसमोरे ) परसमवतार के विचार से परभाव में भी रहते हैं, ( जहा कुडे बदराणि, ) जैसे कुण्ड में बदरी फल, (तदुभयसमो प्रारेणं) तदुभय-दोनों समवतार के विचार से ( जहा घरे खंभो श्रयभावे ) जेसे कि - घर में स्तम्भ - खंभा, अतः यह परभाव तथा आत्मभाव दोनों ही में है, और ( जहा ) जैसे ( घडे गीवा ) घट में ग्रीवा, जो कि कपालादि के समुदाय में और ( आयभावे य ) आत्मभाव में भी है।
(हवा) अथवा (जाणयसरीर ) ज्ञशरीर (भवियसरीर ) भव्य शरीर ( वइरिचे) व्यतिरिक्त (दव्वसमोरे ) द्रव्य समवतार ( दुविहे पत्ते) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि - ( श्रायसमोरे अ ) आत्मसमवतार और (तदुभयसमोरे अ) तदुभयसम्वतार, ( चउसट्टिया ) चतुः षष्टिकाचार पल प्रमाण ( श्रायसमो रे ) आत्मसमवतार से ( श्रायभावे ) अत्मिकभाव में ( समोयर, ) समवतीर्ण होती है, और ( तदुभयसमोआरें ) तदुभयसमवतार से ( बचीस आए ) द्वात्रिंशिका अष्ट पल प्रमाण में ( समोयरइ ) समवतीर्ण होती है ( श्रयभावे श्र ) आत्मभाव में तथा
* समवतरणं - वस्तूनां स्वपरोयेष्वन्तर्भावचिन्तनं समवतारः ।
+ 'अपि' शब्द समुच्चय वाचक तथा '' वाक्य के अलङ्काकारार्थ जानना चाहिये ।
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[ उत्तराधम् ]
२५७ (बत्तीसिआ) द्वात्रिंशिका (आयसमोयारेणं) आत्मसमवतार से (प्रायभाव) आत्मभाव में ( समोयरइ,) समवतीर्ण होती है, और (तदुभयसमोयारणं) तदुभयसमवतार से (सोल. सिमाए) पोडशिका-१६ पल प्रमाण ( समोयरइ प्रायभाव अ,) आत्मभाव में समवतीर्ण होती है, फिर (सोलसिया) षोडशिका ( प्रायसमोयारेणं ) आत्मसमवतार से (प्रायभावे) आत्मभाव में (समोयरइ) समवतीर्ण होती है, और (तदुभयसमोयारेणं) तदा भय समवतार से ( अट भाइयाए ) अष्टभागिका ( समीपरइ यायभावे श्र,) आत्मभाव में समवतीर्ण होतो है, फिर (अहभाइया) अष्टभागिका (आयसमोपारेणं) आत्मसमवतार से ( प्रायभावे ) आत्मभाव में (समोघरइ) समवतीण होता है, लेकिन (नदुभयसमोपारेणं) तदुभयसमवतार से ( चरभाइयाए ) चतुर्भागिका-६४ पल प्रमाण (समोयरट अायभावे , ) और अात्मभाव में समवतीर्ण होती है, ( चउभाइ या ) चतुर्भागिका (श्रायसमोपारेणं) आत्मसभवतार से (प्रायभावे) आत्मभाव में (समोयर ५,) समवतोर्ण होती है, और (तदुभयसनोयारेणं) तदुभयसमवतार से (अदमाणीए) अर्द्ध माणिका--- १२८ पल प्रमाण में ( समायरइ अायभावे य, ) और आत्मभाव में समवतीर्ण होती है, ( अद्धमाना ) अर्द्ध माणिका (अयसमीयारेणं) आत्मसमवतार से ( आयभावे समोयरद )
आत्मभाव में समवतोण होती है, (तदुभयसमोयारेण:) तदुभयसमवतार से ( माणीए ) माणिका १५६ पल प्रमाण में ( समोपरइ अायभावे अ.) और प्रात्मभाव में समवतीर्ण होती है, ( से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरिने व्वसमीपारे ।) यही पूर्वोक्त ज्ञशरीर, भव्यशरीर, व्यतिरिक्त द्रव्यसमवतार है, और ( से तं गोमागमो दव्वसमोयारे । ) यहो नोमागम से द्रव्यसमवतार है । तथा (से तं दब्बसमोयारे ।) यही द्रव्यसमवतार है।
भावार्थ-किसा भी वस्तु का स्वरूप आत्मभाव, परभाव अथवा तदुभय भाव में समवतरण हो उसे समवतार कहते है । इसक ६ भेद हैं, जैस कि-नाम समवतार १, स्थापनासपमतार २, द्रव्यसमवतार ३, क्षेत्रसमवतार ४, कालस. मवतार ५, और भावसमवतार ६ ! नाम और स्थापना का वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिय । शरीर, भव्यशरार और व्यतिरिक्त द्रव्यसमवतार भो तोन प्रकार से वणन किया गया है, जैसे कि-सब द्रव्य अपन गुण को अपेक्षा प्रात्मभाव में समवतार्ण होते हैं, किन्तु व्यवहारनय की अपेक्षा परस्वरूप में भी समवतीर्ण होते हैं, जैसे कि-कुंड में बदरी फल, अथवा घर में स्तम्भ । इस प्रकार उभय स्वरूप में भी समवतीर्ण होते हैं। परन्तु श्रात्मभाव में पेसं समवतरण होते हैं,
+ निश्चय से सभी द्रव्य अपने ही स्वरूप में होते हैं पृथक् कोई नहीं होता, लेकिन व्यवहार से पृथक् भी होते हैं।
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२५८
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
जैसे घट में ग्रीवा। यदि ऐसी शंका की जाय कि परसमवतरण तो होती ही नहीं, तो उसका सूत्रकार उत्तर देते हैं कि वास्तव में समवतार दो दो होते हैं, जैसे कि-- श्रात्मसमवतार और तदुभयसमवतार । तृतीय पररूप समवतार केवल नाम मात्र ही वर्णन किया गया है।
इसी प्रकार द्रव्य की अपेक्षा जैसे चतुःषष्टिका चार पल प्रमाण श्रात्म• समवतार में भी रहती है और तदुभय समवतार की अपेक्षा द्वात्रिंशिका आठ पल प्रमाण में भी होती है, इसी प्रकार मानी पर्यन्त जानना चाहिये । यही ज्ञ शरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्यसमवतार नो श्रागम से द्रव्यसमवतार है ।
st
समवतार है ।
इसके बाद क्षेत्रसमवतार का वर्णन किया जाता है
क्षेत्र समक्तार।
से किं तं खेत्तसमोआरे ? दुविहे पण्णत्ते, सं जहांप्राय समोरे अ तदुभयसमोरे छ, भरहे वासे प्रायसमोआरणं श्रयभावे समोअरइ, तदुभयसमो श्रारेणं जंबूद्दीवे समोयरइ आयभावे अ, जंबूद्दीवे प्रायसमो - अरे आयभावे समोअर इ, तदुभयसमो रे तिरियलोए समारइयभावे अ, तिरियलोए आयसमो मारेणं आयभावे समोअरइ, तदुभयसमोआरेणं लोए समोअरइ, श्रयभावे, सेतं खेत्तसमोयारे ।
-
पदार्थ - (से कि तं खेससमोरे ?) क्षेत्रसमवतार किसे कहते हैं ? (खेत्तसमी नारे) क्ष ेत्र समवतार (दुबिहे पण्णत्ते) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है. (तं जहा-) जैसे कि -- (आयसीआरे अ) आत्मसमवतार और (तदुभयसमाचार अ) तदुभयसम
तार (भरहे वासे) भारतत्र' (आयसमोरे) आत्मसमवतार से आयभावे) आत्मभाव में (समोर, ) समवतीर्ण होता है, और ( तदुभयसमोरे ) तदुभयसमवतार से
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* इत्तः 'लोए श्रायसमोचारेण श्रायभावे समोयाड, नदुभयसमो श्रारेणं अलोए समोurs Heera ' इत्यधिक afer ।
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[ उत्तराधेम]
२५९ (जीवे) जम्बूद्वीप में (समीयरइ श्रायभाव अ) और आत्मभाव में समवतीर्ण होता है, (जंबृद्दीवे) जम्बूद्वीप ( अग्यासमोआरेणं ) श्रात्मसमवतार से (प्रायभावे) अात्मभाव में (समोयाइ,) समवतीर्ण होता है, और (तदुभयसमोसारेण) तदुभयसमवतार से तिरियलाए) तिर्यक् लोक ( समोयरइ अायभावे अ, ) और श्रात्मभाव में समवतीर्ण होता है, (तिरिअलोए) तिर्यक लोक में (आयसभोवारेण) आत्मसमवतार से (प्रायभावे) आत्मभाव में (सनोयाइ) समवतीर्ण होता है, और (तदुभयसमोआरेणं तदुभयसमवतार से (लोए) लोक में (सनोग्ररइ श्रायभावे अ,) और आत्मभाव में भी समवतार्ण होता है, (से तं खेत्तसमोपारे ।) यहो क्षेत्रसमवतार है।
भावार्थ- क्षेत्र समवतार उसे कहते हैं जो लघु क्षेत्र का प्रमाण बृहत्क्षेत्र समवतीर्ण किया जाय । इसके दो भेद हैं-श्रोत्मसमवतार और तदुभयसमा वतार । आत्मसमवतार उसे कहते हैं जो अपने ही स्वरूप में हो, जैसे किभारतवर्ष आत्मसमवतार से प्रात्मभाव में अर्थात् अपने ही क्षेत्र में समवतीर्ण होता है। - तथा तदुभयसमवतार उसे कहते हैं जो आत्म स्वरूप और पर स्वरूप दोनों में हो, जैसे कि--भारतवर्ष, तदुभयसमवतार से जम्बूद्वीप में समवतीर्ण होता है और श्रात्मभाव में भी इसी प्रकार अलोक पर्यन्त जानना चाहिये । यही क्षेत्र समवतार है। इसके बाद अब कालसमवतार का वर्णन किया जाता है
कालसमकतार । से किं तं कालसमोआरे ? दुविहे पण्णत्ते तं जहाआयसमोआरे अ तदुभयसमोआरे अ, समए आयसमोआरेणं आयभावे समोअरइ, तदुभयसमोआरेणं आव. लि पाए समोयरइ आयभावे अ, एवमाणापाणू थोवे लवे मुहत्त अहोरत्त पनवे मासे ऊऊ अयणे संवच्छरे जुगे वाससए वाससहस्से वाससयसहस्सं पुव्वंगे पुवं तुडिअंगे तुडिए अडडंगे अडडे अववंगे अबवे हहअंगे हहए उप्पलंगे उप्पले पउमंगे पउमे णलिणंगे णलिणे अच्छनि
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२६०
[ श्रीमदनुयोगहारसूत्रम ] उरंगे अच्छनिउरे अउअंगे अउए नउअंगे नउए पउअंगे पउए चूलिअंगे चूलिया सीसपहतिअंगे सीसपहेलिया पलिअोवमे सागगेवमे आयसमोआरेणं आयभावे समो. यरइ, तदुभयसमोआरेणं ओसप्पिणीउस्सप्पिणीसु समोयरइ आयभावे अ, ओसप्पिणीउस्सप्पिणीओ आयसमो.
आरेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोआरेणं पोग्गलपरिअट्टे समोयरइ आयभावे अ, पोग्गलपरिअ आयसमो.
आरेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयपमाआरेणं तोतद्धा'अणागतद्धासु समोयरइ प्रायभावे अ, तीतद्धाश्रणागतद्धाउ आयसमोआरेगां प्रायभावे समोयरइ, तदुभयसमो. आरेणं सव्वद्धाए समोयरइ आयभावे अ। से सं कालसमोआरे। - पदार्थ-- से कि तं कालसमोसारे ? ) कालसमवतार किसे कहते हैं ? (कालसमोआर) अतिसूक्ष्म समय का वृहत समय में अवतरण करना-इसी का नाम काल समवतार है । और वह ( दुविहे पण्णत्ते, दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है (तं महा.) जैसे कि-(प्रायसमोसारे अ) श्रात्मसमवतार और (दुभयसमोआरे अं) तदु भयसमवतार, (समए अायसमोसारेणं समय आत्मसमवतार से (आयभावे) आत्मभाव में (समोयरइ,) समवतीर्ण होता है, और (तदुभर समोसारण) तदुभयसमवतार से (आ.नि. आए) श्रावलिका में ( समोयरइ प्रायभावे अ ) और आत्मभाव में समवतीर्ण होता है, ( एवमाणा पाण थोवे लवे मुहुत्ते अहोरते पक्व मासे) इसी प्रकार प्रान, प्राण, स्तोक, लव, मुहूत', अहोरात्र, पक्ष, मास (ऊऊ) ऋतु (अयण) अयन (संवच्छर) सम्वत्सर (जुगे) युग (वाससए) सौ वर्ष (वाससहरस) हजार वर्ष (वाससयसहम्स) लाख वर्ष (पुव्वंगे) पूर्वाङ्ग (पुवे) पूर्व (तुडि*ग) त्रुटितोङ्ग (तुडिए) त्रुटित (अडडंग) अडडाङ्ग (अडडे) अडड (भववं गे) अववाङ्ग (अव) अवव (होंग) हुहुअङ्ग (हुहुए) हुहु (उत्पलंगे) उत्पलाङ्ग (उप्पले) उत्पल (पउमंगे) पद्माङ्ग (प मे) पद्म (गलियांग) नलिनाङ्ग (सलिणे) नलिन अच्छंनिउरंगे) अक्षनिकुराङ्ग (अच्छनि) अक्षानकुर (अ अंग) अयुताङ्ग (अडए) अयुत नउअंग)
+इन सब का विशेष वर्णन इसी भाग के पू० ६२-६४ से जानना चाहिये ।
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[ उत्तरार्धम् ]
२६१ नयुताङ्ग (न3ए) नयुत (पउअंगे) प्रयुताङ्ग (पउए) प्रयुत (चुलिअंगे) चूलिकाङ्ग (चूलिया) चूलिका (सीसपहे लअंगे ) शीर्षप्रहेलिकाङ्ग ( सीसपहलिना ) शीर्षप्रहेलिका (पलि ग्रोवमे सागरोवमे) पल्योपम सागगेपम (आयसमोसारेणं ) आत्मसमवतार से (प्रायभावे) आत्मभाव में (समोयरइ,) समवतीर्ण होता है, और ( तदुभयसमो पारेणं ) तदुभयसमवतार से (ोसप्पिणीस्तपिणीस) अवसर्पिणो उत्सर्पिणी में (समोयरइ अायभावे अ) ओर आत्म भाव में समवतीण होता है (ोसदिमणीउस्स प्पिणोश्रो ) अवसर्पिणी उस्मर्पिणी (प्राय समोआरेणं) अत्मसमवतार से (आयभावे) श्रात्मभाव में (समोयरड) समवतोर्ण होता है
और (तदुभयसमोप्रारंणं) तदुभयसमवतार से (पोगल परिअटे) पुद्गलपरावर्ग में (समोयरइ प्रायभावे अ,) और आत्मभाव में समवतीर्ण होता है, (पोग्गलपरिअ) पुद्गलपरावत (आयसमोसारेणं) प्रात्मसमवतार से (प्रायभावे) आत्मभाव में (लमोयाड,) समवतीर्ण होता है और ( तदुभयसमोआरेणं) तदुभयसमवतार से (तीतहाअणागतद्वानु) अतीत
और भविष्यत काल में ( समोयरइ प्रायभावे अ,) और आत्मभाव में समवतीर्ण होता है, (तीतद्वाअणागतद्वाउ प्रायसमोसारेणं) अतीत और भविष्यकाल अात्मससवतार से (प्रायभावे) आत्मभाव में (सामोयरइ) समवतीर्ण होता है. और (तदुयभसमोसारेणं) तदुभयसमवतार से (सव्वदाए) सभी काल में ( समोयग्इ अायभावे श्र।) और आत्मभाव में समवतीर्ण होता है । (से तं कालसमोपारे ।) यही कालसमवतार है। - भावार्थ-न्यून से न्यून समय का सभी काल में समवतरण करना उसे काल समयतार कहते हैं । इसके दो भेद है-अात्मसमवतार और तदुभयसमय. सार । आत्मसमवतार उसे कहते हैं जो अपने ही भाव में हो, जैसे कि --'श्रीन'
आत्मसमवतार से अपने ही रूप में समवतीर्ण होता है । तथा तदुभयसमवतार इसे कहते हैं जो परस्वरूप और श्रात्मभाव, दोनों में हो, जैसे--'आन' तदुभयसमवतार से श्रात्मभाव में भी है और परस्वरूप से 'प्राण' में भी समवतीर्ण होता है। इसी प्रकार सब काल का स्वरूप जानना चाहिये । इसी को काल. समवतार कहते हैं। अब भावसमवतार का वर्णन किया जाता है
भासमवतार से किं तं भावसमोआरे ? दुविहे पण्णत्ते, तं जहाआयसमोआरे अ तदुभयसमोआरे अ। कोहे आयसमोआरेणं आयभावे समोअरइ, तदुभयसमोआरेणं माणो
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२६२
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् समोयरइ आयभावे अ, एवं माणे माया लोभे रागे मोहणिज्जे अटकम्मपयडीओ आयसमोआरेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोआरेणं छव्विहे भावे समोयरइ आयभावे अ, एवं छविहे भावे, जीवे जोवस्थिकाए आयसमोआरेणं प्रायभावे समोयरइ, तदुभयसमोआरेणं सव्वदव्वेसुसमोअग्इ आयभावे । एत्थ मंगहणीगाहा--
कोहे माणे माया, लोभे रागे य मोहणिज्जे अ। पगडीभावे जोवे, जीवस्थिकाय दव्वा य ॥११॥
से तं भावसमोआरे । से तं समोआरे । से तं उवकमे | उवक्कम इति पठमं दारं (सू. १५३)
___ पदार्थ ( से किं सं भावममा पारे ? ) भावसमवतार किसे कहते हैं ? (भावसमा. पारे) भावसमवतार (दुविहे पएणते.) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा.) जैसे कि-(आयसमोसारे अ) आत्मसमवतार और (तदुभयसमोसारे अ,) तदुभयसमवतार (कोहे) क्रोध (आयसमोारेणं, आत्मसमवतार से ( आयभावे ) आत्मभाव में (समोयरइ) समवतीर्ण होता है, और (नदुभयममोकारेण) तदुभयसमवतार से (माणे) मान में ( समोयरइ पायाभावे श्र,) और आत्मभाव में समवतोर्ण होता है (एवं) इसी प्रकार (माणे माया लोभे रागे ) मान, माया लोभ, राग को जानना चाहिये, तथा( गोहणिज्ने अटक मपयड ओ ) मोहनीय कर्म की आठ कर्म प्रकृतियें (आयसपोयारेणं)
आत्मसमवतार से (प्रायभावे) आत्मभाव में (समोयाइ.) समवतीर्ण होती हैं, और (तदुभयसमो पारेणं) तदुभयसमवतार से (छविहे भाव) क्षायोपशमिकादि छह प्रकार के भाव में (समोयरइ अायभावे अ,) और आत्मभाव में समवतोर्ण होती है (एवं छबिहे भावे,) इसी तरह छह प्रकार के भाव जानने चाहिये, (जीवे) जीव (जीवधिकार) जीवास्तिकाय ' प्रायसमोआरेणं ) आत्मसमवतार से ( श्रायभावे ) आत्मभाव में (समोयरड,) समवतीर्ण होती है, और (तदुभयप्स मोअरेणं) तदुभयसमवतार से (सबवे समापार प्रायभावे अ) सब द्रव्य और आत्मभात्र में समवतीर्ण होतो हैं, (एस्य संगठणीगाहा--) यहां पर एक संग्रह गोथा + भो है
+ जिन अधिकारों का संग्रह कर के गाथा रूप में संक्षेप से वर्णन किया जाता है उसे संग्रहणी गाथा कहते हैं।
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[ उत्तरार्धम् ]
२६३
( कोहे मा माया, लोभे रागे य मोहणिज्जे । पगडीभावे जीवे, जीवथिकाय दत्राय ॥१॥) क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और मोहनीय कर्म, प्रकृतियें, भाव, जोव, जीवास्तिकाय और द्रव्य, ये सभी श्रात्मसमवतार से अपने ही स्वरूप में रहते हैं और तदुभयसमवतार से परस्वरूप में भी होते हैं । ( से तं भावसमोारे । ) यही भावसमवतार है । (से तं समोग्रारे) यही समवतार है । ( से तं उवकमे । ) यही उपक्रम है | ( कम इति पदमंदा ) उपक्रम नामक प्रथम द्वार समाप्त हुआ । (सू० १५२) भावार्थ - भावसमवतार के दो भेद हैं, श्रात्मसमवतार और तदुभयसमव तरि आत्मसमवतार उसे कहते हैं जो अपने ही स्वरूप में हो, जैसे कि-'क्रोध' श्रात्मसमवतार के अपने ही स्वरूप में समवतीर्ण होता है ।
तथा तदुभयसमवतार उसे कहते हैं जो स्वरूप और पररूप दोनों में हो । जैसे कि--'क्रोध' तदुभयसमवतार से आत्मभाव में भी है और पर स्वरूप से मान में समवतीर्ण होता है । इसी प्रकार जीवास्तिकाय श्रादि सभी द्रव्यों को जानना चाहिये |
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" अत्र च प्रस्तुते श्रावश्यके विचार्यमाणे सामायिकाद्यध्ययननपि चायापशमिकभावरूपत्वात् पूर्वोक्तेष्वानुपूर्व्यादिभेदेषु क्व समवतरतीति निरूपणीयमेव, शास्त्रकारप्रवृत्तेरन्यत्र तथैव दर्शनात्, तच्च सुखावतेयत्वादिकारणात् सूत्रे न निरूापतम् सापयोगत्वात्स्थानशून्यत्वार्थं किंचिद्वयमेव निरूपयामः । तत्र सामा यिकं चतुर्विंशतिस्तव इत्याद्यत् तिनविषयत्वात सामायिकाद्यध्ययनमुत्कीर्तना
き
नुपूर्व्यां समवतरति, तथा गणनापूर्व्यां च तथाहि - पूर्व्यानुपूर्व्या गण्यमानमिदं प्रथमं, पश्चानुपूर्व्या तु षष्ठम्, अनानुपूर्व्यां तु द्वयादिस्थानवृत्तित्वादनि यतमिति प्रागेवोक्तम् । नाम्नि च श्रदयिकादिभावभेदात्षण्णामनि प्रागुक्तम्, तत्र सामायिकाध्ययनं श्रुताझनरूपत्वेन चायोपशमिकभाववृत्तित्वात्थायापशमिकभावनाम्नि समवतरति । श्राह च भाष्यकारः
"छव्विहनामे भावे, खोवसामिए सुय समोयरद्द |
जं सुयनारणावरण खोव समियं तयं सव्वं ॥ ॥”
प्रमाणे च द्रव्यादिभेदैः प्राग्निर्णीते जीवभावरूपत्वाद्भावप्रमाणे इदं समत्र
तरतीति । उक्तञ्च -
"द वाइच उन्भेयं, पमीयए जेण तं पमाणंति ! इज्यरणं भावोति भाव माणे समोयरइ । "
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२६४
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
भावप्रमाणं च गुणनयसंख्याभेदतस्त्रिवा प्रोक्तं । तत्रास्य गुणसंख्याप्रमायोरेवावतारो, नयप्राणे तु यद्यपि -
बूया"
" श्रासज्जउ सोयारं, नए नयविसार इत्यादिवचनात् क्वचिन्नयतमवतार उक्तः, तथापि साम्प्रतं तथाविधनयविचाराभावाद्वस्तुवृत्त्याऽ नवतार एव, यत इदमव्यक्तम् ।
" मूढनइयं सुयं कालियं तु न नया समोयति इह" इत्यादि । महामतिनाऽप्युक्तम् ' मूढनइयं तु न संपइ नयप्यमाणावारो से' त्ति, गुणप्रमाणमपि जीवाजीवगुणभेदता द्विधा प्रोक्तं तत्रास्य जीवोपयोगरूपत्वाज्जीवगुप्रमाणे समवारः, तस्मिन्नपि ज्ञानदर्शनचारित्रभेदतस्त्रयात्मके अस्य ज्ञानरूपतया ज्ञानरूप्रमाणेऽवतारः । तत्रापि प्रत्यक्षानुमानोपमा नागमभेदाच्चतुर्विधे प्रकृताध्ययनस्याप्तोपदशरूपतया श्रागमेऽन्तर्भाव:, तस्मिन्नपि लौकिक लोकोत्तरमेदभिन्न परमगुरुप्रणीतत्वेन लोकोत्तरि तत्रापि श्रात्मागमानन्तरागम परंपरागम भेद तस्त्रिविधेऽप्यस्य समवतारः संख्याप्रमाणेऽपि नामादिभेदभिन्ने प्रागुक्ते परिमाणसंख्यायामस्यावतारः, वक्तव्यतायामपि स्वसमयवक्तव्यतायामिदमवतरति, यत्रापि परभयसमयवर्णनं क्रियते तत्रापि निश्चयतया स्वसमयवक्तव्यं तव ।”
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अर्थात् यद्यपि उपक्रम द्वारमें शास्त्रकार की प्रवृत्ति सामायिकादि पट् अध्यायोंके समवतार के विषय में है तथापि सुगमता के कारण सूत्रकार ने उनका वर्णन नहीं किया, अतः वृत्तिकार स्थान शून्य रहने से स्वयं इसका किंचिन्मात्र वर्णन करते हैं -
सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव इत्यादि उत्कीर्तन के विषय होने से उत्कीनानुपूर्वीय में समवतीर्ण होते हैं। इसी प्रकार गणनानुपूर्वी जानना चाहिये । क्योंकि गणन विषय होने से पूर्व्यानुपूर्वी या पश्चानुपूत्र होती है । तथा-श्रीद यिकादि भावों की अपेक्षा सामायिकाध्ययन श्रुतज्ञान रूप होने से क्षायोपश मिकादि षट् प्रकार के भाव में समवतीर्ण हाता है। पूर्वोक्त द्रव्यादि भेदतया प्रमाण द्वार की अपेक्षा जीव भाव रूप होने से + सामायिकाध्ययन भाव प्रमाण
+ गम में भी कहा है
" दवा उभे, पमीयए जेण तं पमाणंति ।
इणमज्झणं भावोति ( प ) माणे समोयइ ॥ १ ॥” द्रव्यादिचतुर्भेद, प्रमीयते येन तत्प्रमाणमिति । मध्ययनं भाव इति भावप्रमाणे समवतरति ॥ १ ॥
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[ उत्तराधम् ]
२६५ में समवतीर्ण होता है क्योंकि जीव भावप्रमाण में ग्रहण किया गया है । तथाभावप्रमाण के गुण, नय और संख्या यो तीन भेद होनेसे गुण और संख्या प्रमाण में समवतीर्ण होता है । यद्यपि नयविचार की अपेक्षा परमार्थ से कचित् समवतार :: होता है, लेकिन उसी प्रकार नयविचार के प्रभाव से अनवतार ही होता है। तथा गुण प्रमाण के दो भेद होने से इसका जीव गुण प्रमाण में समवतीर्ण होता है, तथा इसके ज्ञान, दर्शन और चारित्र, यो तीन भेद होने से ज्ञान प्रमाण में समवतीर्ण होता है । फिर प्रत्यक्षादि ज्ञानगुण के चार भेद होने से यह अध्याय आत्मोपदेश रूप आगम प्रमाण में समस्तीर्ण होता है। पश्चात् आगम के दो भेद होने से इसका लोकोत्तरिक ओगम में समवतार होता है। तथा लो. कोत्तरिक आगम के तीन भेद श्रात्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम होने से इसका तीनों ही में समवतीर्ण होता है, और संख्या प्रमाण के पाठ भेद होने से इसका परिमाण संख्या में समवतीर्ण होता है, तथा तीन वक्तव्यताओं में से स्वसमय की वक्तव्यता में इसका समवतीर्ण होता है । यद्यपि उभय समय की वक्तव्यताओं में से स्वसमय की वक्तव्यता में भी समवतीर्ण होता है लेकिन निश्चय से स्वसमय को वक्तव्यता ही जानना चाहिये । क्योंकि सम्यग्दृ प्टि परसमय और उभय समय की वक्तव्यता को व्याख्यान के समय स्वसमय को कर लेते हैं। कारण कि वे एकान्तबादी नहीं होते, अनेकान्ती होते हैं । इसलिये परमार्थ से सभी अध्ययन स्वसमय की वक्तव्यता में समवतीर्ण होते हैं । इसी प्रकार चतुर्विशतित्तवादिकों का जानना । इस तरह समवतार का वर्णन करते हुए उपक्रम नामक प्रथम द्वार समाप्त हुआ। :पागम में भी कहा है--- "आसज 3 सीयारं, नए नर्यावसारो वृया ।" [आसाद्य तु श्रोतारं नया नयविशारदो व यान]
महामतिनाप्युक्तम्1. "मूदनइयं सुयं कालियं तु न नया समोयरंति इह ।
मूढनयं तु न संपई नयप्पमाणावारो से।" [मूडनयिकं अतं कालिकं तु न नया समवतगन्तीह ।
मृढनयं तु न संप्रति नयप्रमाणावतारस्तस्य ।] * अागम में भी कहा है"परसमग्रो उभयं वा, सम्महि हिस्स ससमयो जेणं ।
तो सबझयणाई, ससमयवत्तनिययाई ॥१॥" पिरसमयं उभयं वा सम्पहरे स्वसमयी येन । नन· सांगणापलानि मा समानतालियानानि ॥१॥
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२६६
[श्रोमदनुयोगद्वारपूत्रम् ] इसके बाद निक्षेपद्वार नामक तृतीय अयोगद्वार का स्वरूर जानना चाहिये
निक्षेप द्वार ।
से किं तं निक्खेवे ? तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-ओहनिष्फरणे नामनिप्फरणे सुत्तालावगणिप्फरणे ।।
से कि त ओहनि फरणे ? चउबिहे पण्णत्ते. तं जहा-अज्झयणे अज्झोणे आए खवणा । ___ से कि त अझयणे ? चउठिरहे पण्णत्ते त जहाणामज्झयणे, ठवण कयणे दबझयणे भावज्झयणे, णामटवणाओ पुव्वं वरिणाओ।
से कि त दव्यज्झयणे ? दुविहे पण्णत्ते, त जहाआगमओ अ णोआगमो अ।
से कि त आगमओ दवझयणे ? जस्स णं अ. ज्झयणेत्ति पदं सिक्खत ठित जित मित परिजित जाव एवं जावइया अणव उत्ता आगमओ ताव इयाइं दव्वज्झ. यणाई, एवमेव वहारस्सवि संगहस्स णं एगो वा अगा। गो वा जाव, से तं आगमओ दव्वज्झयणे । - से कितणोआगमओ दवझयणे ? तिविहे पएणत्ते, तं जहा-जाणगसरीरदव्यज्झयणे भवियसरीरदव्वज्झयणे जाणगसरोरभवियसरोरवइरित्ते व्वझपणे ।
से कि तं जाणगसरीर दव्यज्झयणे ? अज्झयणपयस्थाहिगारजाणयस्स जं सरीरं ववगयचुयचावियवत्तदेहं
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[ उत्तरार्धम]
२६७ जीवविप्पज जाव अहो णं इमेणं सीरसमुस्सएणं जिणदिदेणं भावेण अभपणेत्तिस्यं आपवितं जाव उवसितं, जहा को दिनैतो ? अयं घपलुभे आसी अयं महुकुभे आसो, से तं जाणगसरोरदव्वझयणे ।
से कि तं भवियसरीर दवझयणे ? जे जीवे जोणिजम्मणनिक्वंते इमेण चेव आदत्तएणं सरीरसमुस्सएणं जिणदिट्टेणं भावणं अझयणे त्तपयं सेअकाले सिक्खिस्तइ न ताव सिक्खइ, जहा को दिळेंतो ? अयं महुकुंभे भविस्सइ, अयं घयकुंभे भविस्सइ से तं भवियसरीर दवझरणे ।
से किं तं जाणगसरीरभवियसरीरवइरित्ते दवझयणे ? पत्त स्पोत्ययलिहियं, से तं जाणगसरोरभवियसरीरवइरित्ते दव्यज्झयणे, से त णोआगमओ दव्यज्झयणे, से त दव्यज्झरणे।
से कि त भावज्झयणे ? दुविहे पण्णत्ते, त जहाआगमओ अ णोआगमो अ।
से कि त आगमो भावज्झयणे ? जाणए उवउत्ते, से तं आगमओ भावज्झयणे ।
से कि त नोआगमो भाव झयणे ? . अ.झप्पस्साणयणं, कम्नाणं अवचओ उबविआणं । अणुवचओ अ नवाणं, तम्हा अझयणमिच्छति ।
से तणोप्रोगमओ भावज्झयणे । से त भावज्झ. यणे । से त अझयणे ।
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२६८
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् पदार्थ --- से किं तं निकखेधे ? ) निक्षेप किसे कहते हैं ? (निखेव) जिन पदार्था' का स्वरूप निक्षेप द्वारा वर्णन किया जाय उसे निक्षप कहते हैं. और वह (तिविहे पएणते,) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा.) जैसे कि -(ोहनिफरणे) ओघनिष्पन्न (नामनिप्फरणे) नामनिष्पन्न और (मुत्तालावगनिष्फरणे ।) सूत्रालारकनिष्पन्न
(से किं तं श्रोहणिप्फरणे ? ) श्रोधनिष्पन्न किसे कहते हैं ? श्रोह निकरणो) जो सामान्यतया अध्ययनादि श्रुत के नाम से निष्पन्न हुए हों उसे अोघनिष्पन्न निक्षप कहते हैं, और वह ( चउबिहे पण्णत्ते, ) चार प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा.) जैसे कि-(अ.ज्झयगणे ) अध्ययन ( *अझीगणे ) अक्षीण (ग्राप) आय - लाभ, (खवणा) क्षपणा।
(से किं तं श्रझयो ? ) अध्ययन किसको कहते है ? ( अझयणे ) अध्ययन (चउबिहे पण्णत्ते,) चार प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा) जैसे कि(णामज्झयणे) नामाध्ययन (ठवणज्झयणे) स्थापनाऽध्ययन (दव्यझयणे) द्रव्याध्ययन (भावज्झयणे ।) भावाध्ययन । ( णामटवणाग्रो ) नाम और स्थापना (पुवं वरिणाश्रो, ) पूर्व वर्णन की गई हैं।
(से किं तं दव्यज्झयणे ? ) द्रव्याध्ययन किसको कहते हैं ? (दबझयण) द्रव्या ध्ययन (दुविहे पएणत्ते, ) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा.) जैसे कि(श्रागमओ ) आगम से और (नोागमो अ) नोपागम से।
(से किं तं नागमो दव्वझयणे ?) आगम से द्रव्याध्ययन किसे कहते हैं ? ( भागमश्रो दबज्झयणे ) आगम से द्रव्याध्ययन उसे कहते हैं कि--- ( जम्म णं ) जिसने (अज्झयणत्ति पयं) अध्ययन रूप पद को ( सिक्खिर) श्रादि से अन्त तक सोख लिया हो ( ठितं ) हृदयमें अवस्मरण रूप स्थिर कर लिया हो ( जितं ) आवृत्ति करते हुए
* "अक्षीणशब्दम्य क्ष: खः क्वचित छझो" प्रा० । अ० ८ । पा० ७ । म० ३ । इत्यनेन क्षस्य खो भवति क्वचित् छझावपि ।
ये चारों नाम सामायिकादि चतुर्विशतिम्तवविशेषों के हैं । विशेष वर्णन आगे दिया गया है।
* श्रादित प्रारभ्य पठनक्रियया यावदन्तं नीतं तच्छिक्षितमुच्यते । स्थितं-अविस्मग्गाश्चेतप्ति स्थित स्थितत्वात स्थितमप्रच्युतमित्यर्थः । जितं-परावर्तनं कुर्वता परेण वा क्वरिष्टम्य यच्छ घमागच्छति तजितम् । विज्ञातश्लोकपदवर्णादिसंख्यां मितम परिजितम-परि समन्तात्सर्वप्रकानितं परिजितं परावर्तनं कुर्वतो यत्रमेणोत्व मेण वा समागच्छति ।
अनुपयुक्त होनेसे व्याध्ययन एक ही होता है।
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[ उत्तरार्धम् ] कोई पूछे तो शीघ्र उत्तर देता हो ( मतं) श्लोक और पदादि वो वो संख्या भी जान ली हो (परिनितं जान ) यावत अननुक्रम से पठ भी लिया हो, ( एवं ) इसी प्रकार ( जावइया ) जितने ( अणुवउमा अागपत्रो) श्रागम से अनुपयोग युक्त पुरुष हैं (तावइयाई दवज्झयणाई ।) उतने ही द्रव्याध्ययन होते हैं। ( एवमेव ववहारस्सवि, ) इसी प्रकार व्यवहार नय का भी मत है, (संगहस्स ण) संग्रह नय के मत से (एगो वा अणेगो वा जाव)एक या अनेक यावत (से तं प्रागमयो दयज्झयणे ।) यही आगमसे , व्याध्ययन
__ (से किं तं नोबागमश्री दव्यज्झयणे ?) नोआगम से द्रव्याध्ययन किसे कहते हैं ? (नोग्रागमो दवझयणे) नोआगम से जो अध्ययन क्रियायुक्त पठन-पाठन किया जाता है उसे नोआगम से द्रव्याध्ययन कहते हैं, और वह (तिविहे. पगणने,) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा- ) जैसे कि-( जाणगसरीरदव्यज्झयणे ) ज्ञशरीर द्रव्याध्ययन ( भवियसरीरदव्वज्झयणे ) भव्यशरीर द्रव्याध्ययन और ( जाणगसरीर. भवियसरीर वइरिसे दव्य ज्झयणे) ज्ञशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्त द्रव्याध्ययन ।
(से किं तं जाणगसरीरदव्यज्झयणे ? ) ज्ञशरीर द्रव्याध्ययन किसे कहते ? (जाणासरीरदवज्झयणे) ज्ञशरीर द्रव्याध्ययन उसे कहते हैं जो (अज्झयणपयत्थाहिगार) अध्ययन के पदार्थाविकार के ( जाणयस्स ) शाता का (जं सरीरं) जो शरीर हो (वाय) चेतना से रहित हो (चुअ) श्वासोच्छ वासादि दश प्रकार के प्राणोंसे रहित हो (च:त्रिय) प्राणों से विमुक्त हो चत्तदेह) देह छोड़ दिया हो (जीवविप्पजढं) आत्मा को अनेक बार छोड़ा हुआ हो, (नाव) यावत् (अहोणं) अाश्चर्य है कि (इमेणं) इस (सरीरसमुस्सएणं) शरीर के समूह से (जिण दट्टेणं भावेणं) जिनेश्वर भगवान के उपदेश किये हुये को अपने भाव से ( अझयणेतिपदं ) अध्ययन रूप एक पद का (प्राधवित) प्रहण किया हो (जाव) यावर (स्वदंसितं) सबनय और युक्तियों से उपदेश किया हो (नहा को दिéतो ?) जैसे कोई दृष्टान्त भी है ? (अयं) यह (घयकुभे) घो का घड़ा (ग्रासी) था
* व्यपगतं चैतन्यपर्यायादचैतन्य लक्षणं पर्यायान्तरं प्राप्तम् । च्युतं--उच्छ्वासनिःश्वासजीवितादिदशविधप्राणेभ्यः परिभ्रटम् । च्यावितं-बलीयसा प्रायुःक्षयेण तेभ्यः परिभ्रशितम् । त्यक्तदेह-'दिह उपचये' त्यस्तो देह आहारपरिणति जनित उपचयो येन तत् त्यक्तदेहम् । जीवविप्पजई-जीवेन-श्र त्मना विविधम्-अनेकधा प्रकरण मुक्त-जीवविप्रमुक्तम् । पुद्गलसंख्यतत्वात्समुच्छरस्तेन । प्राघत्रियं-नाकृतशैल्या छान्दसत्वाच्च द्वयोः सकाशादागृहीतम् । उवदंसितं-उपदर्शितं सर्वनययुक्तिभिः । छान्दसत्वादागामिनि काले भाविनि भृतवदुपचार इति ।
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२७०
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् (प्रयं) यह (महुकुभे) मधु का घड़ा (प्राप्त ) था (से तं जाणगसरीरदव्यज्क्रपणे ।) यहो ज्ञशरीर द्रव्याध्ययन है।
(से किं तं भवियसरीर दबझयणे ? ) भव्यशरीर द्रव्याध्ययन किसे कहते हैं ? (भवियसरीरदवझयणे ) भव्यशरीर द्रव्याध्ययन उसे कहते हैं जैसे (जे जीवे ) जो जीव (जोणिजम्मणनिक्खंते) योनि से जन्म को प्राप्त हुआ अर्थात् योनि से बाहर निकला, (इमेणं चेत्र) और इस (आदतएण) ग्रहण किये हुए (सरीरसगुरसरण) शरीर समुदाय से (निणदिष्टेणं भावेणं) जिनेश्वर के उपदेश किये हुए को (भावेणं) अपने भाव से (अज्झयणेत्तिपयं, अध्ययन रूप पद को ( सेयकाले सिक्खिस्सइ) वह भविष्य काल में सोखेगा लेकिन (न ताव सिक्वइ) अब नहीं सोखता है, (नहा को दिदंतो) जैसे काई दृष्टान्त भो है ? (अयं) यह (महुकुंभे ) मधु का कुंभ (विर इ) होगा (Ii) यह (वयकु भे) घृत का कुंभ (भविस्सइ.) होगा ( तं भवियसरीरदव्यज्य णे ।) यही भव्य. शरीर द्रव्याध्ययन है।
(ते किं तं जाणगसरीरभवियसरीरवइरित्ते दबझपणे) ज्ञशरीर-भव्यशरीर-व्यति रिक्त द्रव्याध्ययन किसे कहते हैं ? ( जाणासर र नवियसरोरवहरिचे दबझपणे ) ज्ञशरीर भव्यशरीर-व्यतिरिक्त द्रव्याध्ययन उसे कहते है जो ( पत्तय ) पत्ते और ( पोत्यय ) पत्रसंचय रूप पुस्तक (लिहि ) लिखे हुए हों, (से तं) वहो ( जाणासरोर) भवियसरीवइरित्ते दबझयणे) ज्ञशरीर-भव्यशरीर-व्यतिक्ति द्रव्याध्ययन है । (से तं णोप्रागमो दवज्झषणे ।) यही पूर्वोक्त नोआगम से द्रव्याध्ययन है । (मे तं दव्यमयणे ।) यही द्रव्याध्ययन है।
( से किं तं भावज्झयणे ? ) भावाध्ययन किसे कहते हैं ? ( भावझयणे ) जिसके द्वारा कर्मों का उपचय निवृत्त हो उसे भागाध्ययन कहते है, और वह (दुवि पर गत्ते,) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया हैं, (तं जहा.) जैसे कि-'पागमो अ) आगम से और (*नोप्रागमत्रो अ।) नोआगम से।
(से किं तं अगमो अभावझयणे ? ) आगम से भावाध्ययन किसे कहते हैं ? (भावकणे ) आगम भाव ध्ययन उसे कहते हैं-(नाणर उचउर) जो अध्ययन के अर्थ के उपयोग से युक्त है । ( से तं आगमो भावज्झयणे । ) यही आगम से भावाध्ययन होता है।
( से किं तं नोग्रागमो भावज्झघणे ? : नोआगम से भावाध्ययन किसे कहते हैं ? (नोभागमो भावज्झयणे ) जिसके द्वारा कर्मों का उपचय न हो, उसे नोआगम से भावाध्ययन कहते हैं, जैसे कि
*मो शन्द देशवाचक जानना चाहिये।
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[ उत्तरार्धम् । (अज्झापस्साणयां कम्पाणं अवचो उचिप्राणं । अणुवचनो अ वराणं तम्हा अज्झयणमिच्छति ॥१॥) अध्यात्म में आने के लिये उपार्जित किये हुये कर्मों का क्षय हो तथा नये कर्मों की उत्पत्ति न होगा, इसी लिये आचार्य लोग 'अध्ययन' को चाहते हैं।२।। (से तं गोमागम यो भावमयणे ।) यहो नोआगम से भावाध्ययन है, (से तं भावज्झयो,) तथा यही भावाध्ययन है, ( से तं अज्झयणे ।) और इसी को अध्ययन कहते हैं।
भावार्थ-निक्षप तीन हैं, जैसे कि-ओघनिष्पन्न १, नामनिष्पन्न २, और सूत्रालापकनिष्पन्न ३ ।
ओघनिष्पन्न चार प्रकार का है, जैसे कि-अध्ययन १, अक्षीण २,आय ३, ओर क्षपणा ४।
अध्ययन के चार भेद हैं, जैसे कि -- नाम १, स्थापना २, द्रव्य ३ और भाव ४। नाम ओर स्थापना का स्वरूप पूर्ववत् जानना चाहिये।
द्रव्य अध्ययन के दो भेद है, जैसे कि -आगम से १, और नोआगम से २। जो अध्ययन को उपयाग पूर्वक नहीं पढ़ता है उसे आगम से द्रव्य अध्ययन कहते है । और नोआगम से द्रव्याध्ययन तीन प्रकार से वर्णन किया गया है, जैसे कि-शरीर द्रव्याध्ययन १, भव्यशरीर द्रव्य अध्ययन २, शशरीर-भव्य शरीरव्यतिरिक्त द्रव्याध्ययन ३ । प्रथम दोनों का स्वरूप नो प्रागम ही है लेकिन तृतीय व्यतिरिक्त द्रव्याध्ययन वह है जो पत्र और पुस्तक रूपमें लिखा हुआ हो, इस लिये इसे नोअगम से द्रव्याध्ययन कहते हैं । तया भावाध्ययन भी दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, जैसे कि-आगम से और नोश्रागन स, अगम से भावाध्ययन वह है जो उपयोग पूर्वक होता है और नोआगम से भावाध्ययन वह है जिसके द्वारा नूतन कर्मों का उपचय न हो और प्राचीन कर्मों का तय हो,यही नोआगम से भावाध्ययन का स्वरूप है तथा यहो भावाध्ययन है और यहा अध्ययन है। इसके बाद अक्षीण निक्षेप का वर्णन किया जाता है
अक्षीण हार। से किं तं अज्झोणे? चउविहे पएणत्ते, तं जहा-नामझोणे ठवणझणे दबझोण भावज्झागो । नामठव
"अज्झप्पस्साणयण'-सूत्र के निपात द्वारा 'प' 'स' 'श्रा ण' के लोप करने से 'अज्झयण' शब्द की प्राकृत भाषा में व्युत्पत्ति होती है, लेकिन मंस्कृत में 'अध्ययन' कहते हैं।
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२७२
[ श्रीमनुयोगद्वारसूत्रम् । णाओ पुवं वरिणाओ।
से किं तं दव्व झोणे ? दुविहे पण्णत्ते, तं जहाआगमओ अ नोआगमओ य ।
से किं तं आगमओ दबाझोणे ? जस्स णं अज्झीणेत्ति पयं सिक्खियं जियं मियं परिजियं जाव, से तं आगमो दबाझोणे।
से किं तं नोआगमओ दव्वझोणे ? तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-जाणयसरीरदव्यज्झोणे भपियसरीरदवझोणे जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्यज्झोणे।
से किं तं जाणयसरीरदव्यज्झोणे ? अज्झीणपयत्थाहिगारजायस्स जं सरीरयं ववगयचुयचावियवत्तदेहं जहा दव्यज्झपणे तहा भाणियव्वं जाव. से तं जाणयसरोरदव्यज्झोणे।
से किं तं भवियसरीरदवझोणे ? जे जीवे जोणिजम्मणनिक्वंते जहा दवझयणे जाव, से तं भवियसरीरदव्यज्झीणे ।
से किं तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्यझोणे ? सव्वागाससेढी, से तं जाणयसरीरभविसरीरवइरित्ते दव्वज्झोगो। से तं नोओगमओ दवझीणे, से तं व्वझोणे।
से किं तं भावभीगे ? दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-आगममो अ नोआगमो य।
से किं तं आगमओ भावझोणे ? जाणए उवउत्ते. से तं आगमशो भावज्झीणे ।
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[ उत्तरार्धम्]
२७३ से किं तं नोआगमओ भावज्झोणे ? जह दीवा दीवसयं, पइप्पए दिप्पए अ सो दीवो । दीवसमा आयरिया, दिप्पंति परं च दीवंति ॥१॥
से तं नोआगमओ भावझोणे । से तं भावज्झोणे, से तं अज्झोणे।
पदार्थ--( से किं तं अज्झोणे १ ) अक्षीण किसे कहते हैं ? और वह कितने प्रकार का है ? (अज्झोणे) अक्षीण उसे कहते हैं सामान्यश्रुत विशेष सामायिक चतुविंशतिस्तवादि का नाम हो, और वह चउबिहे पण्णते, ) चार प्रकार से प्रति गदन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि-(णामीणे) नाम अक्षोण, (वणज्झीणे) स्थापना अक्षीण, (दव्वज्झीण) द्रव्य अक्षोण और (भावमाण।) भाव अक्षाण । (नामठवणाग्रो) नाम स्थापना (पुव्वं वरिणामाग्री,) पूर्व में वर्णन को गई है।
(मे किं तं दबझोणे ?, द्रव्य अक्षोण किसे कहते हैं ? (व्यझोणे) जो द्रव्य से क्षीण न हो, वह (दुविहे पएणते, ) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि-(भागमो अ) आगम से, और (नायागमयो अ) नो आगम से।
( के किं तं श्रागमत्रो दव्यज्झीणे ?) आगम से द्रव्य अक्षीण किसे कहते हैं ? ( श्रागमो दव्वज्झीणे ) आगम से द्रव्य अक्षाण उसे कहते हैं कि- जस्सए।) जिसन (अज्झीणेत्तिपयं) अक्षोण रूप एक पद को (साक्खयं) प्रारम्भ से अन्त तक साख लिया हा, (जियं, आवृत्ति करत हुए काई पूछ तो शान उत्तर दता हो उसे जित कहते हैं, (मियं) पदादि श्लाकों के वर्गों को संख्या जानता हा । ( पाराजतं जाव) आवृत्ति करत हुए कोई उलट पुलट पूछे तो सब प्रकार उत्तर दता हा, यावत (स तं पागमा दबज्झीणे ।) यही आगम से द्रव्य अक्षीण है।
(से किं तं नायागमा दव्वझीणे ? ) ना मागम से द्रव्याक्षीण किस कहते हैं ? (नोग्रागमो दवझीण) नोआगम स द्रव्याक्षीण ((तावह पएणच ) तान प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि--(जाणयसरीरदव्यमाण,) ज्ञशरीर द्रव्याक्षीण ( भवियसरीरदव्वझीणे ) भव्यशरोर द्रव्याक्षाण और ( जाण्यसरीरभवियसरीरवहारतं दवज्झीणे ।) ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य अक्षाण ।
(से कि तं जाणयसरीरदव्वझाणे ?) शरीर द्रव्याक्षीण किसे कहते हैं ? (जाणयसरीरदश्वज्झीणे) ज्ञशरीर द्रव्याक्षीण उसे कहते हैं जो (अज्झीणपयत्थाहिगरजाणयस्स) भतीण शब्द पदार्थाधिकार के ज्ञाता का (सरीर) जो शरीर (वायचुचावयः
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् । चत्तदेह) व्यपगत, जीव से च्युत, त्यागा, त्यक्तदेह हो, ( जहा दबझीणे ) जैसा द्रव्य अध्ययन में वर्णन किया गया है ( तहा भाणिग्रव्वं ) उसी प्रकार कथन करना चाहिये, (जात्र) यावत् (से तं जाणयसरीरदबन्झीणे ।) यही ज्ञशरीर द्रव्याक्षीण है।
(से कि तं भविग्रसरीरदव्यज्झोणे ?) भव्यशरीर द्रव्याक्षीण किसे कहते हैं ? ( भविसरीरदबझीणे ) भव्यशरीर द्रव्याक्षोण उसे कहते हैं कि-(जे जीवे) जो जीव ( जोणिजन्मणनिक्खंते ) योनि से निकल कर जन्म को प्राप्त हुआ, (जहा दबझयणे,) जैसे द्रव्य अध्ययन अर्थात् शेष स्वरूप द्रव्य अध्ययनवत् जानना चाहिये । (जाव) यावत् (से तं भविग्रसरीरदव्यज्झोणे ।) यही भव्यशरोर द्रव्याक्षीण है।
(से किं तं जाणयसरीरभविग्रसरीरवइरित्तं ? ) ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्याक्षीण किसे कहते हैं ? ( जाणय. ) ज्ञशरोर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य अक्षीण उस कहते है, कि --, सव्यागाससंदी) लोकालोकाकाश के सब श्रेणियों से प्रदेशों का अपहरण किया जाय ता भी क्षाण नहीं हो सकते, (से तं जापय० ) यही ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्या जाणता है । ( से तं नोग्रागमी दवज्झीणं । ) यही नो आगम से द्रव्याक्षोण है । (से तं दव्वज्झोणे ।) यही द्रब्याक्षीण है।
(से किं तं भावउझीणे ? ) भाव अक्षीण किसे कहते हैं ? (भावझीण) जो भाव से क्षोण न हो उसे भाव अक्षोण कहते हैं, और वह ( दुविहे पण्णत्ते, ) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा.) जैसे कि-- आगमी य) आगम से और (नोग्रागमयो य ।) नो आगम से ।
(से कि तं आगमनी भावज्झीणे ? ) आगम से भाव अक्षीण किसे कहते हैं ? (आगमओ भावज्झीणे) आगमसे भावाक्षाण उसे कहते हैं कि-(माणए उवउत्ते) जो अक्षीण के अर्थ को * उपयोग पूर्वक जानता हो, ( से तं अागमश्रो ) यही आगम से (भावज्झ णे ।) भाव अक्षोण है।
(ते किं तं नोागमा भावझीण ?) नोभागम से भाव अक्षीण किसे कहते हैं ?
* अत्र वा व्याचक्षते -यस्माचतुदशपूर्वविदः भागमापयुक्तस्यान्तमुहर्तमात्रोपयोगकाले ये ऽथोपलम्भोपयोगपर्यायास्ते प्रांतसमयमकैकापहारंणानन्ताभिर प्युत्सपिण्यवसर्पिणीभिनापहियन्ते, अतो भावाक्षोणतेहावसेया।
चदुर्दश पूर्व जानने वाले के उपयोग मात्र एक अन्तमु हत्त काल में जितने पर्याय होते हैं वे अनन्त काल चक्रो से भी अपहरण नहीं हो सकते, क्योंकि वे अनन्त हैं। यही भावाक्षीणता यहां पर जानना चाहिये।
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[ उत्तराधेम]
૨૫ (नोग्रागमो भावज्झीणे ? नो पागम से भावाक्षीण उसे कहते हैं-कि जो श्रत ज्ञान का दान करने से श्रुत का क्षय न हो वही नो भागम से भाव अक्षोणता है।
(नह दीवा दोवसयं पइप्पए दिप्पए अ सी दीबो । दीवसमा आयरिया दिप्पंति परं च दीवंति ॥१॥) जैसे कि दीपक स्वयं प्रकाशमान रहते हुए सैकड़ों दूसरे दीपकों को प्रकाशमान करता है, उसी प्रकार आचार्य महाराज स्वयं दीपक के समान देदीप्यमान हैं और दूसरों को अर्थात् शिष्य वर्ग को देदीप्यमान करते हैं।
(से तं नोप्रागपनो भावज्झीणे ।) यहो नोआगम से भावाक्षीण है । (से तं भावज्झीणे ।) यही * भावाक्षीण है । (से तं अज्झोणे ।) यही अक्षोण है।
भावार्थ-भावाक्षीणता के चार भेद हैं,-नामाक्षीण, स्थापनाक्षीण, द्र. व्याक्षण और भावाक्षीण । नाम और स्थापना पूर्ववत् जानना चाहिये । द्रव्याक्षीण दो प्रकार से प्रतिपादन की गई, जैसे कि-श्रागम से और नोागम से । जो अक्षीण शब्द को उपयोग पूर्वक जानता हो उसे पागम अक्षीण कहते हैं। तथो-नोआगम से अक्षीण पूर्ववत् तीन प्रकार से जानना चाहिये, सिर्फ व्यतिरिक्त तृतीय भेद में सब आकाश की श्रेणिये ग्रहण करना चाहिये क्योंकि वे अनन्त होने से किसी प्रकार भी क्षीण नहीं हो सकतीं तथा-भावाक्षीणता के द. भेद हैं जैसे कि-आगम से और नोआगम से । श्रागम से भाव अक्षण उसे कहते हैं जो अक्षीण शब्द के अर्थ को उपयोग पूर्वक जानता हो, और पागम से भाव अक्षीण उसे कहते हैं जो किसी प्रकार भी व्यय करने से क्षीण न हो, जैसे-एक दीपक से सैकड़ों दुसरे दीपक प्रदीप्त किये जाते हैं परन्तु असली दीपक किसी प्रकार भी नष्ट नहीं होता. इसी प्रकार प्राचार्य महाराज श्रत का दान-पठन-पाठन करते हुए आर भी दीप्त रहते हैं, और दूसरों को अर्थात् शिष्य वर्ग को भी प्रकाशमान करते हैं । श्रत का क्षीण न होगा यही भावाशीण है। अतः यही नोागम से भाव अक्षीणता है। भावाक्षीण तथा अक्षीण का वर्णन यहां समाप्त होता है। इसके अनन्तर पाय-लाभ का स्वरूप जानना चाहिये
प्राय से किं तं आए ? चउविहे पण्णत्ते, तं जहो-नामाए * अत्र च नोग्रागमतो भावाक्षीणता श्रुतदायकाचायोपयोगस्यागमत्वादाकाययोगयोश्चानागमत्वानोशब्दस्य मिश्रवचनत्वाद्भावनीयेति रडा व्याचक्षते।
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसुत्रम् । ठवणाए दवाए भावाए । नामठवणाश्रो पुव्वं भणिभाओ।
से किं तं दवाए ? दुवहे पण्णत्ते, तं जहा-आगमओ अ नोआगमओ अ।
से किं त आगमओ दवाए ? जस्स णं आयत्ति पदं सिक्खित ठित जित मित परिजित जाव कम्हा ? अणुवओगो दव्वमितिकट्ट, नेगमस्स णं जावइया अणवउत्ता आगमओ तावइया ते दवाया जाव, सेतं आगमओ दव्वाए।
से कि त नोआगमओ दवाए ? तिविहे पण्णत्ते. तौं जहां-जाणगसरीरदव्वाए भवियसरीरदव्वाए जाणगसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वाए।
से किंत जाणगसरीरदठवाए ? आयपयत्थाहिगारजाणयस्स जं सरीरयं ववगयचुयचावियचत्तदेहं जहा दव्वज्झयगो जाव, सें तं जाणगसरीरदव्वाए।
से कि त भविसरीरदव्याए ? जे जीवे जोणिजम्मणणिक्खंते जहा दव्वज्झयणे जाव, से सं भवियसरोरदवाए।
से कि त जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वाए ? तिविहे पण्णत्ते, त जहा-लोइए कुप्पावयणीए लोगुत्तरिए ।
से कि तं लोइए ? तिविहे पण्णत्ते, तं नहा-.चि. चे अचित्ते मीसए अ।
से कि त सचित्ते ? तिविहे पण्णत्ते, त जहा-दुपयाणं चउप्पयाणं अपयाणं दुपयाणं दासाणं दासीणं चउ
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[ उत्तरार्धम् ]
२७७ प्पयाणं आसाणं हत्थीणं अपयाणं अंबाणं अंबाडगाणं आए, से त सचित्ते । ____ से कि त अचित्ते ? सुवरणरयय पणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणाणं संतसावएजस्स आए, से तं अचित्ते ।
से कि तमीसए ? दासाणं दासीणं आसाणं हत्थी. णं समाभरिआउज्जालंकियाणं आए, से तमीसए से तं लोइए।
से कि त कुप्पावयणिए ? तिविहे पण्णत्ते, तं जहा. सचित्ते अचित्ते मीसए अतिरिणवि जहा लोहए जाव, से तमीसए, से त कुप्पावयणिए ।
से कि त लोगुत्तरिए ? तिविहे पण्णत्ते, तं जहासचित्ते अचित्ते मीसए अ।
से कि त सचित्ते ? सीसाणं सिस्सणियाणं, से त सचित्ते ।
से कि त अचित्ते ? पडिग्गहाणं वत्थागां कंबलाणं पायपुंछणाणं आए, से त अचित्ते ।
से कि तमीसए ? सिस्साणे सिसणियाणं सभंडोवगरणाणं आए, से त मीसए, से त लोगुत्तरिए, सेत जाणगसरीरभवियसरीरवइरित्त दवाए, से तनोभागमओ दवाए, से त दवाए ।
से कि त भावाए ? दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-आग. मओ अ नोभागमओ अ।
से कि त आगमओ भावाए ? जाणाए उवउत्ते, रो तं आगमओ भावाए।
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२७
[ श्रोमदनुयागद्वारसूत्रम् ] __ से कि त नोआगमो भावाए ? दुविहे पण्णते, तं जहा-पसत्थे अ अपसत्थे ।
से किं तं पसत्थे ? तिविहे पण्णत्ते, त जहा-णाणाए दंसणाए चरित्ताए से तपसत्थे ।
से कि त अपसत्थे ? चउठिवहे पण्णते, त जहाकोहाए माणाए मायाए लोभाएं, से त अपसत्थे, से त णोआगमो भावाए, से त भावाए, से ताए।
___ पदार्थ -(से किं तं पाए ? ) आय किसे कहते हैं ? ( ग्राए) जो अप्राप्त की प्राप्ति हो उसे आय-लाभ कहते हैं, और वह (चरविहे पएणत्ते,) चार प्रकार से प्रति पादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि-(नामए) नाम आय (उवणा) स्थापना प्राय (दव्वाए) द्रव्य आय और (भावाए)भाव आय । (नामठवणायो) नाम और स्थापना (पुव्यं भणियायो ।) पूर्व में वर्णन की गई है।
(से कि तं दव्याए ?) द्रव्य आय किसे कहते हैं ? (दवाए) जिसे द्रव्य की प्राप्ति हो उसे द्रव्य आय कहते हैं, और वह दुविहे पण्णते, दो प्रकार से प्रतिपादन को गई. है,(तं जहा.) जैसे कि-(आगम यो अ) आगमसे और (नोग्रागमनो श्र1) नो आगम से।
(से किं तं आगमत्रो दवाए ?) आगम से द्रव्य आय किसे कहते हैं ? (श्रागम. श्रो.) आगम से द्रव्य आय उसे कहते हैं कि (जस्सणं) जिसने (आयत्तिपदं) 'आय' रूप एक पदको (सिक्खिय) सीख लिया हो (ठित) हृदय में स्थित कर लिया हो (जितं) अनुक्रम से पढ़ भी लिया हो (मितं) श्लोकादि अक्षरों के प्रमाण को जान लिया हो (परिजितं) अननुक्रम से भी पढ़ लिया हो (जाव) यावत, कम्हा ?) क्यों ? (अणुपयोगी दव्वमितिकह) द्रव्य अनुपयुक्त होने से, (नेगमस्स णं नैगमनय के मत से (जावइया) जितने (अणुवउत्ता आगमओ) आगम से अनुपयुक्त हैं (तावइया) उतने ही (ते दव्याया) वे द्रव्याय हैं (नाव) * यावत् ( तं प्रागमो दबाए ।) यही आगम से द्रव्य आय है।
(से किं तं नोआगमनो दव्याए ?) नोआगम से द्रव्याय किसे कहते हैं ? (नोग्रागमश्री दवाए) नोआगम से द्रव्याय (तिविहे पएणत्ते,) तीन प्रकार से प्रतिपादन की गई है, (तं जहा-) जैसे कि-(नाणगसगेरदवाए) ज्ञशरीर द्रव्य आय (भवियसरीरदबाए) भ.
* 'जाव' यावद शब्द पूर्व में वर्णन किये हुये अधिकार का सूचक है । इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिये।
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[उत्तरार्धम् ।
२७९ न्यशरीर द्रव्य आय (जाणयसरीरवइरिने दवाए ।) और ज्ञशरीर भन्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य प्राय। .
(से किं तं जाणगसरीरदबाए ?, ज्ञशरीर द्रव्याय किसे कहते हैं ? (जाणग०) - ' शरीर द्रव्य आय उसे कहते हैं कि-(प्रायपयत्थाहिगारजाणयस्स) आयपदार्थाधिकार के
जानने वाले का (जं सरीरयं) जो शरीर है, जो कि (ववगय) चैतन्यसे रहित हो अथवा (चुअ) च्युत हुआ हो (चाविय) दश प्रकार के प्राणों से रहित हुआ हो या (चत्तदेह) देह छोड़ दिया हो (जहा) जैसे (दव्यज्झयणे,) द्रव्य अध्ययन, (से : जाणगसरीरदबाए ।) यही शरीर द्रव्य आय है।
(से कि तं भवियसरीरदव्वाए १ ) भव्यशरीर द्रव्य आय किसे कहते हैं (भवियसरीरदबाए) भव्यशरीर द्रव्य आय उसे कहते हैं कि-(जे जीवे) जो जीव (जोणिजम्मणनिक्खंते) योनि से निकल कर जन्म को प्राप्त हुआ हो ( जहा दबज्झयणे,) द्रव्य अध्ययन के समान, (से तं भवियसरीरदवाए ।) यही भव्यशरोर द्रव्य आय है।
(से किं तं जाणग० वइरित्ते दवाए ?) ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य माय किसे कहते हैं ? ( जाणग० वइरित्ते दबाए ) ज्ञशरीर भव्यशरीर ब्यतिरिक्त द्रव्य प्राय (तिविहे पएणत्ते,) तीन प्रकार से प्रतिपादन की गई है, (तं जहा.) जैसे कि-- (लोइए, लौकिक (कुप्पावयपिए) कुप्रावचनिक और (लोगुचरिए ।) लोकोतरिक ।
(से किं तं लोइए ?) लौकिक किसे कहते हैं ? (लोइए) जो सांसारिक लाभ हो उसे लोकिक कहते हैं, और वह (तिविहे पण्णत्ते,) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि-( सचिचे) सचित्त (अचिने ) अचित्त ( मीसा अ।) और मिश्र ।
___ (से किं तं सचित्ते १) सचित्त किसे कहते हैं ? (सचिते) जो सचित्त पदार्थ का लाभ हो उसे सचित्त कहते हैं, और वह (तिविहे पण्णत्ते,) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा) जैसे कि-(दुपयाणं ) दो पांव वालों का (चउप्पयाणं) चार पैर वालों का (अपयाणं) और बिना पैर वालों का । (दुपयाणं) दो पैर वालों का जैसे-(दासाणं) दास-सेवकों और (दासीणं) दासियों-सेवकनियों का (चप्पयाणं, चतु. पदों का, जैसे-(आसाणं) अश्व-घोड़ों और (हत्थीणं) हस्तियों का (अपयाणं) बिना पैर वालों का, जैसे-(अंबाणं) आम और (अंबाडगाणं) अम्बाडियों का (आए,) लाभ, (से तं सचित्ते ।) इसी को सचित्त आय कहते हैं !
(से किं तं चिचे १) अचिर पाय किसे कहते हैं ? (अचिरी) जिस अचित्त वस्तु +शेष अधिकार द्रव्य अध्ययन के अनुसार जानना चाहिये।
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२८०
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
का लाभ हो उसे अचित्त कहते हैं, जैसे कि - ( सुवण्णा) खोना (रयय) चान्दी (मि मणि (म) मौलिक - माता ( संख) शंख (सल ) शिला बहुमूल्य पत्थर अथवा राज्याभिषेक योग्य पदार्थ (वाल) प्रवाल- मूंगा, ( रत्तरयणा) पद्मराग रत्न( * संतमावएजस्स ) विद्यमान द्रव्य का आए ) लाभ होना ( से तं चित्ते । ) यही चित्त लाभ है ।
(से किं तं मीसए ?) मिश्र लाभ किसे कहते हैं ? (मोसए) मित्र लाभ उसे कहते हैं जैसे - ( दातागं दासीणं) दास और दासियों का (आसाणं हत्थी) अश्व और हस्तियों का (समाभरिग्राउज्जालंकिया) सोने तथा साङ्कलादि झल्लरी प्रमुख आभूषणों से विभू पितका (ए) लाभ होना, (से तं मीसए) इसा को मिश्रलाभ कहते हैं, (से तं लोइए ।) यहो लौकिक लाभ है ।
+
( से किं तं कुप्पावयएि ? ) कुप्रावचनिक लाभ किसे कहते हैं ? ( कुप्पावयणिए) जिससे कुप्रावचनिक लाभ हो, और वह ( तिहि परणी ) तान प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि -- (सचित ) सचित्र (चित्त) अचित्त ( मीस ए 1 ) और मिश्र । (तिवि ) उक्त तीनों हो ( जहा लाइए, ) लौकिक जैसे होते हैं, (जाव ) यावत ( से तं मीसए ।) यही मिश्र है । (सेतं कुपात्रयणिए ।) और इसे हो कुप्रावचनिक 'कहते हैं ।
( से किं तं लोगुतरिए ? ) लोकोत्तरिक लाभ किसे कहते हैं ? (लोगुत्तरिए) लोकोतरिक लाभ (तिविहे पण्णरो) तोन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि-- (सचित चिच मीतए श्र ) सचित्त अचित्त और मिश्र ।
(से कि तं सचित्ते ?) सचित्त किसे कहते हैं ? (सचित्ते ) सचित्त, जैसे - ( सीसा सिस्मणि ) शिष्य और शिष्यानियां साध्वियों का, ( से तं सचिते । ) इसा को
कहते हैं ।
( से किं तं चि १ ) अचित्त किसे कहते हैं ? ( डिग्गहाणं त्याचं ) वस्त्र पात्र (कंबलाएं) कम्बलों का ( पायपु छणा ) पादप्रोन्नादिकों का (ए) लाभ होना, (ले तं
। यही चित्त है ।
+ रक्तरस्नानि पद्मरागरत्नानि ।
(से किं तं मी ?) मिश्र किसे कहते हैं ? (मांसए) मिश्र जैसे - ( सिस्साएं सिरसा शिश्राणं) शिष्य और शिष्यनियों का ( सभंडोवगरणा आए) भाण्डोपकरण सहित लाभ - होना, ( से तं मीलए, ) इसी को मिश्र कहते हैं, ( से तं लोगुतरिए ) यहो लोको
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* 'संत'
' - सदू - विद्यमान, 'सावएज्जस्स' - खापतेयं द्रव्यं ।
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[ उत्तरार्धम् ]
२१
तरिक है, ( से सं जाय सरीरभवि प्रसरीग्वारिचे दबाए, ) यही ज्ञशगेर भव्यशरोर व्यतिरिक्त द्रव्य आय है । ( से तं नोघ्रागमओ दव्त्राए, ) यही नोआगम से द्रव्याय है और (सेतं दoare i) यही द्रव्य आय है ।
( से किं तं भावाए ? ) भाव आय किसे कहते हैं ? (भावाए) जो भाव से लाभ हो, और वह ( दुविहे पणण, ) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि- (आगमओ अ ।) आगम से और (नाश्रागमश्री श्र ।) नो आगम से I
(से किं तं श्रागमओ भावाए ?) आगम से भाव लाभ किसे कहते हैं ? ( श्रागमश्री भावाए) आगम भाव लाभ उसे कहते हैं कि - ( जाए उधउसे ) जा उपयोग पूर्व जानता हो, (से तं श्रागम भावाए ।) यही आगम से भाव लाभ है ।
(नो
( से किं तं नो आगमन भावाए ? ) नोआगम से भाव लाभ किसे कहते हैं ? भाषा) नो आगम से भाव धाय ( दुविह परराचे, ) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है (1 जहा-) जैसे कि - ( पास थे ) प्रशस्त और (सत्थे य ।) अप्रशस्त । (से किं तं पत्थे ?, प्रशस्त किसे कहते हैं ? (पस थे) प्रशस्त (तिविहं पराशे) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि - ( याणाए ) ज्ञान भाव ( दंसणाए ) दर्शन आय और ( चरित्ताए, ) चारित्र आय, ( से पसत्थे । ) यहो प्रशस्ताय है ।
(से किं तं श्रपत्थे ?) अप्रशस्त किसे कहते हैं ? ( अपसत्थे) अप्रशस्त (चउष्विहे पण्णच) चार प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैस कि - ( कोहार ) क्रोध श्राय (माया) मान आय ( नाय. ए) माया आय (लाहाए) लाभ आय, (ते श्रपत्ये ।) यहो अप्रशस्त है । और (से तं यात्रागमश्री भावार ) यद्दा नाभागम संभाव हैं, (से भावा ।) यहो भाव आय है (से तं आए ।) और यहो आय है ।
भावार्थ-लाभ चार प्रकार का है, जैसे कि नाम लाभ, स्थापना लाभ, द्रव्य लाभ और भाव लाभ । नाम और स्थापना का वर्णन पूर्ववत् जानना चा हिये । द्रव्य लाभ दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, जैसे कि-आगम से और नोभागम से । शेष वर्णन प्राग्वत् जानना चाहिये, सिर्फ व्यतिरिक्त तृतीय भेद के तीन भेद है, लौकिक, लोकोत्तरिक और कुप्रावचनिक । लोकिक आय, जैसे- सचित द्विपादि, श्रचित्त सुवर्णादि, मिश्र दास दासी अश्व भल्लरीप्रमुख अलंकृत किये हुए का लाभ होना । इसी प्रकार कुप्रावचनिक लाभ जानना चाहिये । लोकोत्तरिक आय, जैसे-सचिश शिष्यादि, अचित्त वस्त्रादि, मिश्र भाण्डोपकरण सहित शिष्यादि ।
भाव भय के दो भेद हैं, जैसे कि-भागम से और नोभागम से । मानम
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२८२
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
I
से उपयोग पूर्वक तथा नोश्रागम से प्रशस्त अप्रशस्त रूप होता है । जैसे कि - ज्ञान दर्शन और चारित्र का लाभ प्रशस्त लाभ और क्रोध मान माया लोभ का लाभ अप्रशस्त लाभ होता है । इस तरह से यहाँ पर नोश्रागम से भाव श्राय, भाव, और आय का वर्णन समाप्त हुआ
इसके बाद अब क्षपणा का स्वरूप कहते हैं
क्षपणा ।
से किं तं वरणा ? चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहानामज्वरणा ठवरणज्भवणा दव्वज्भवरणा भावज्भवणा ।
नामटवणा पुव्वं भणिश्राश्रो
से किं तं दव्वज्वणा ? दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - आगमओ नोआगमत्र अ ।
से किं तं गमओ दव्वज्भवणा ? जस्स झवणेतिपयं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजिनं जाव, से तं आगम दव्वज्भवणा ।
से किं तं नोआगमओ दव्वज्भवणा ? तिविहा परणत्ता, तं जहा - जाणवसरीरव्वज्भवणा भवियसरीरदव्वज्वणा जाण्यसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वज्भवणा ।
·
से किं तं जाणयसरीरदव्वज्भवणा ? भवणापयत्थाहिगारजाणयस्स जं सरीरयं ववगयचुचाविश्रचत्तदेहं सेस जहा दव्वज्भणे जाव, से तं जाणयसरीरदव्व
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ज्झवणा ।
से किं तं भविसरीरदव्वज्भवणा ? जे जीवे जोणिजम्मणणिक्खते, सेसं जहा द्रव्वज्झयणे जाव, से तं भविअसरीरदव्वज्भवणो ।
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[ उत्तरार्धम् ]
२८३
से किं तं जाणयसरीरभविय सरीरवइरित्ता दव्वज्झवरणा ? जहाँ जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वाए तहा भागिव्वा जाव, से तं मीसिया, से तं लोगुत्तरिया, सेतं जाण्यसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वज्भवणा, से तं नोआम दव्वज्वरणा, से तं दव्वज्भवणा |
से किं तं भावज्भवणा ? दुविहा पण्णत्ता, तं जहाआगमओ अ गोयागमओ अ ।
से किं तं आगमओ अ भावज्झवरणा ? दुविहा प गणत्ता, तं जहा - जाणए उवउत्ते से तं श्रागमत्रो भाव
"
ज्वणा ।
से किं तं नोआगमश्र भावज्झवणा ? पसत्था य अपसत्था य ।
से किं तं सत्था ? तिविहा पण्णत्ता, तं जहानाणज्भवणा दंसणज्भवणा चरितवणा से त
पसत्था ।
से किं त अपसत्था ? चउव्विहा पण्णत्ता, त जहा कोहवणा माणवरणा मायज्भवणा लोहज्भवणा, सेत असत्था से तं नोआगमत्रो भावज्भवणा, से त भावभवणा, सेत झवणा से त ओहनिष्कगणे |
पदार्थ - (से किं तं झत्रणा ?) क्षपणा किसे कहते हैं ? और वह कितने प्रकार से प्रतिपादन की गई है । ( झवणा ) क्षपणा उसे कहते हैं जिससे कर्म की निर्जरा हो, और वह (चव्हा पणत्ता) चार प्रकार से प्रतिपादन की गई है, (तं जहा - ) जैसे कि - (नामज्भवणा) नामक्षपणा (ठवणज्झत्रणा) स्थापना क्षपणा (दव्वज्भवणा) द्रव्य क्षपणा और ( भावज्झत्रणा । ) भाव क्षपणा । ( नामठवणा पुव्वं भणिश्राश्र । ) नाम और स्थापना का स्वरूप पूर्व में वर्णन किया जा चुका है।
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] (से कि त दव्वझवणा ?) द्रव्य क्षपणा किसे कहते हैं ? (दव्वझवणा) द्रव्यक्षप. णा (दुविहा परणत्ता,) दो प्रकार से प्रतिपादन की गई है, (तं जहा-) जैसे कि-(भागम ओ य) आगम से और (नोभागमश्री य । ) नोआगम से ।
(से किं तं श्रागमश्रो दबज्झवणा १ ) आगम से द्रव्य क्षपणा किसे कहते हैं ? (श्रागमश्रो दव्वज्झवणा ) आगम से द्रव्य क्षपणा उसे कहते हैं कि ( जस्स णं) जिसने (झवणेत्तिपर) क्षपणा रूप पद को (सिक्खि) सीख लिया हो या ठिय) हृदय में स्थित कर लिया हो वा (जिर) अनुक्रम से पढ़ भी लिया हो अथवा (मयं) अक्षों को परिमाण भी जानता हो या (परिजि) अननुक्रम से पढ़ लिया हो (जाव) यावत् (से तं आगमओ दव्यज्झवणा) यही आगम से द्रव्य चपणा है।
(से कि तंगोत्रागमो दवझवणा ?) नोभागम से द्रव्य क्षपणा किसे कहते हैं ? (नोआगममो दव्वज्झवणा ) नोआगम से द्रव्य क्षपणा (तिविहा पगणता,) तीन प्रकार से प्रतिपादन की गई है, (तं जहा.) जैसे कि-( जाणयप्तगीरदव्वझवणा ) ज्ञशरीर द्रव्य दपणा, (भवियसरीरदव्वज्झवणा) भव्यशरीर द्रव्य क्षपणा, (नाणय सरीरभवियप्तरीरवइरित्ता दव्वझवणा) ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य क्षपणा ।
(से किं तं जाण यसरीरदबझवणा ? ) ज्ञशरीर द्रव्य क्षपणा किसे कहते हैं ? (जाणयसरीरदब्वझवणे ) ज्ञशरीर द्रव्य क्षपणा उसे कहते हैं कि-(झवणापयत्याहिगारजाण यस्स) क्षपणा पदार्थाधिकार जानने वाले का (जं सरीर) शरीर, जो कि( ववगय ) चेतना से रहित हुआ हो या चु ) श्वासोच्छासादि से रहित हुआ हो अथवा (चाविय) जव दस्ती दश प्राणों से अलग हुआ हा या चत्तदेह) त्यक्तशरीर हो (नेस) शेष (जहा दव्वज्झवणे,) द्रव्य अध्ययन जैसे, अर्थात् शेष स्वरूप द्रव्य अध्ययनानुसार जानना चाहिये, (गव) यावत् ( से तं जाण यसरीरदव्वझवणा ।) यही ज्ञशरीर द्रव्य क्षपणा है।
(पे किं तं भवियसरीरदव्यज्झरणा ?' भव्यशरीर द्रव्य क्षपणा किसे कहते हैं ? (भवियसरीग्दवज्झवणा) भव्य शरीर द्रव्य क्षपणा उसे कहते हैं कि-(जे जीवे) जो जीव (जोणिजम्मक्खिं ) योनि से निकल कर जन्म को प्राप्त हुआ, (सेसं जहा दब्वझवणे.) शेष वर्णन द्रव्य अध्ययनरत जानना (जाव) यावत (से तं भविसरीरदवझवणा ।) यही भव्य शरीर ,व्य क्षपणा है।
(मे किं तं जाणयसरीरभविश्रमगंग्व त्तिा दव्वज्झवणा ?) शगेर भव्यशरोर व्यतिरिक्त द्रव्य क्षपणा किसे कहते हैं ? ( जाणयसरीरभविप्रसरीरबारिचा इव्वझवण)
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[ उत्तरार्धम् ]
२८५
शशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य क्षपणा ( जहा जाण्यसरीरभ वे सरीरवइरते दव्वाए) जैसे ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य आय होती है । तहा भागिवा) उसी प्रकार कहना चाहिये, (जाव) यावत् (ते तं मीसिया ) यही मिश्र क्षपणा है । ( से तं लोगुतरिश्रा ) यही लोकोत्तरिक है, ( से तं जाणयसरीरभविश्र सरीश्वइरित्ता दव्वज्भवणा, ) यही ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य क्षपणा है, ( से तं नोश्रागमश्री दव्वज्भवणा,) यही नोभागम से द्रव्य क्षपणा है, और (से तं दव्वज्भवणा ) यही द्रव्य क्षपणा है ।
( से किं तं भावज्झत्रणा ? ) भाव क्षपणा किसे कहने हैं ? ( भावज्भवणा ) भाव क्षपणा ( दुविहा पत्ता, ) दो प्रकार से प्रतिपादन को गई है, (तं जहा-) जैसे कि ( आगमओ) श्रगम से और ( श्रागमश्री य ।) नोआगम से ।
से किं तं श्रागमश्र भावज्झत्रणा ? ) आगम से भाव क्षपणा किसे कहते हैं ? ( श्रामश्री भावज्झत्रणा) आगम से भाव क्षपणा उसे कहते हैं कि ( जाणए उत्र, ) जो क्षपणा शब्द के अर्थ को उपयोग पूर्वक जानता हो, ( से तं श्रागमश्री भावकाणा । ) यही आगम से भाव क्षपणा है ।
( से किं तं गोश्रागमश्र भावकवणा ? ) नोआगम से भाव क्षपणा किसे कहते हैं ? ( श्रागमश्री भावकवणा ) नोश्रागम से भाव क्षपणा ( दुविहा गणत्ता) दो प्रकार से प्रतिपादन की गई है, (तं जहा-) जैसे कि - (पसत्था य) प्रशस्त और ( श्रपत्थाय ) अप्रशस्त ।
( से किं तं सत्या ? ) प्रशस्त किसे कहते हैं ? ( स ) प्रशस्त क्षपणा (तिविहा पचा) तीन प्रकार से प्रतिपादन की गई है, (तं जहा-) जैसे कि -- (नाणज्भाणा ) ज्ञान क्षपणा दिसणा) दर्शन क्षपणा (चरितज्भवणा) चारित्र क्षपणा, (सेतं पसFथा ।) यहो प्रशस्त क्षपणा है ।
(किं तं था ?) प्रशस्त किसे कहते हैं ? ( अपसत्था) अप्रशस्त ( चउत्रिहा पचा) चार प्रकार से प्रतिपादन की गई है, (तं जहा-) जैसे कि - (कोहज्झत्र गा क्रोध क्षपणा ( माज्झत्रणा ) मान क्षपणा ( मायज्झत्रणा ) माया क्षरणा (लोहकणा) लभ क्षपणा (सेतं असत्या, ) यही अप्रशस्त क्षपणा है । ( से तं नोग्राम श्री भावका ) और यही आगम से भाव क्षपणा है, (से तं भावज्भवणा ) यही भाव क्षपणा है, (तं हनिफ ।) और यही प्रोघनिष्पन्न है ।
भावार्थ - क्षपणा उसे कहते हैं जिससे कर्म की निर्जरा हो। इसके चार भेद हैं, नामक्षरणा, स्थापनाक्षपणा, द्रव्यक्षपणा और भावक्षपणा । नाम ओोर स्थापना पूर्ववत् जानना चाहिये । तथा शशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य
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२८६
[श्रोमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] आय के समान जानना चाहिये । भाव क्षपणा के दो भेद हैं, आगम से और नो आगम से । आगम से भाव क्षपणा उसे कहते हैं जो क्षपणा शब्द के अर्थ को उपयोग पूर्वक जानता हो । तथा-नोश्रागम से भाव क्षपणा दो प्रकार की है, प्रशस्त और प्रशस्त । प्रशस्त क्षपणा उसे कहते हैं जो ज्ञान दर्शन चारित्र रूप हो, और अप्रशस्त उसे कहते हैं जो क्रोध मान माया लोभ रूप हो । इसी को नो. आगम से भाव क्षपणा, तथा यही भाव क्षपणा, और यही क्षपणा है । इस तरह पूर्वोक्त सभी अधिकार ओघनिष्पन्न निक्षेप के हैं। इसके बाद नामनिष्पन्न निक्षेप का स्वरूप प्रतिपादन किया जाता है
नामनिष्पन्न निक्षेप। से कि त नामनिप्फरणे ? सामाइए, से समासओ चउविहे पण्णत्ते, त जहा-णामसामाइए ठवणासामाइए दव्वसामाइए भावसामाइए । णामठवणाओ पुव्वं भणि. आओ। दव्वसामाइएवि तहेव जाध, से त भवियसरीरदव्वसामाइए।
से किं तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वसामाइए ? दव्वपत्तयपोत्थयलिहियं । से तजाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वसामाइए । से त नोशागमओ दव्वसामाइए । से त दव्वसामाइए ।
से कि त भावसामाइए ? दुविहे पण्णत्ते, त जहा आगमओ य नोआगमओ य ।
से कि तं आगमओ भावसामाइए ? जाणए उवउत्ते, से तं आगमओ भावसामाइए।
से कि त नोआगमओ भावसामाइए ? जस्स सामाणिओ अप्पा, संजमे णियमे तवे । तस्त सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ॥१॥
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२८७
__ [ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासिय ॥२॥ जह मम ण पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । ण हणइ न हणावेइ अ, सममणति तेण सो समणो णत्थिय से कोइ वेसो, पिरो य सव्वेसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो. एसो अन्नोऽवि पन्जाओ ॥४॥ उरगगिरिजलणसागरनहतलतरुगणसमोअजो होइ। भमरमियधरणिजलरुहरविपवणसमो असो समणो ५ तोसमणोजइ सुमणो, भावेण य जइण होइ पावमणो सयणे अ जणे य समो, समोअ माणावमाणेसु॥६॥
से तं नोआगमओ भावसामाइए, से तं भावसामाइए, से त सामाइए, से तं नामनिप्फण्गो ।
पदार्थ (से किं तं नामनिप्फरणे ?) नामनिष्पन्न निक्षेप किसे कहते हैं ? (नामनिप्फरणे) पूर्व कथित जो अक्षीणाद्यध्ययन के नाम से विशेषतया निष्पन्न हुए हो उस को नामनिष्पन्न निक्षेप कहते हैं, जैसे कि ( सामाइए,) सामायिक, (से) वह ( समासो) संक्षेप से ( चरब्बिहे पएणत्ते,) चार प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा.) जैसे कि-(णा सामाइए) नाम सामायिक (ठवणासामाइए) स्थापना सामायिक (दव्वसामाइए) द्रव्य सामायिक और (भावसामाइए ।) भावसामायिक । (णामठवणात्रो) नाम और स्थापना (पुव्वं भणियाश्री।) पूर्व वर्णन की गई है। (दव्वसामाइएवि) द्रव्य सामायिक भी (तहेव ।) उसी प्रकार जानना चाहिये । (जाव) यावत (से त भविश्रसरीरदव्वसामाइए ।) यही भव्य शरीर द्रव्य सामायिक है।
(से किं तं जाणगसरीर भविय० ?) ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य सामाथिक किसे कहते हैं ? (जाणय०) ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य सामायिक उसे कहते हैं (पत्तयपोत्थयलिहियं,) जो पत्र अथवा पुस्तक रूप लिखा हुआ हो, (से तं जाणयसरीर०) यहो ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य सामायिक है, (सेतं आगमश्री दन०) यही नोआगम से द्रव्य सामायिक है, (से तं दव्वसामाइए । ) और यही द्रव्य सामायिक है।
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२८८
[ उत्तरार्धम् ]
( से किं तं भावसामाइए ? ) भाव सामायिक किसे कहते हैं ? ( भावसामाइए ) जो आत्मिक सामायिक हो उसे भाव सामायिक कहते हैं, (दुविहे पण्णत्ते) दो प्रकार से प्रतिपान को गई है, तं जहा - ) जैसे कि -- ( श्रागमत्र श्र ) आगम से और (नोश्रागमश्री (1) नो मागम से ।
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(से किं तं श्रागमओ भावसामाइए ? ) श्रागम से भाव सामायिक किसे कहते हैं ? ( आगमी भावसामाइए ) भागम से भाव सामायिक उसे कहते हैं जो सामायिक का शब्दार्थ ( जाए उवउत्ते, ) उपयोग पूर्वक जानता हो, (सेतं आगमी भावसामाइए | ) यही आगम से भाव सामायिक है ।
( से किं त नोआमश्र भावसामाइए १ ) नोआगम से भाव सामायिक किसे कहते हैं ? (नोश्रागमश्र भावसामाइए ) नो आगम से भाव सामायिक निम्न प्रकार जानना चाहिये । (जस) जिसकी (* सामाग्रिो थप्पा ) आत्मा सब प्रकार के व्यापार से निवृत्त होकर (संजमे) मूल गुरण रूप संयम में (पियम) उत्तर गुण रूप नियम में (a) अनशनादिक तप में हो, (तम्स) उसकी (+सामाइयं) सामायिक ( होइ ) होती है, (इ) इस प्रकार (केवतिभासियं ॥ १ ॥ ) केवलि भगवान् ने कहा है ।
( जो समोसव्वभूएस) जिसका सब जोवों में सम-- मैत्री भाव है, (तसेसु थावरंसु 1) त्रस और स्थावरों में । ( तस्स) उसकी (सामाइयं) सामायिक (इ) होती है (इ केवलिभासियं ॥२॥) इस प्रकार केवलि भगवान् ने कहा है ।
(जह ) जैसे (मम) सुझको ( पिअं दुक्खं) दुःख प्रिय नहीं है (जाणि एमेत्र) इस प्रकार जान कर (सव्व जीवाण :) सब जीवों का, (न हाइ) न मारता है ( न हा वेड् य) न मरबाता है (सम इ) समान मात्रता है (ते) इस कारण से ( सो समणी ॥३॥ ) साधु है ।
श्रम
* सामानिकः सन्निहित श्रात्मा सर्वकालं व्यापारात् ।
+ जीवेषु च समत्वं संयमसात्रिध्यप्रतिपादनात् पूर्वश्लोकेऽपि लभ्यते, किन्तु जीवदयामूलवाइर्मस्य तत्प्राधान्यख्यापनाय पृथगुपादानमिति |
चशब्दात धनताश्चन्यान समनुजानीत-च शब्द से हिंसा करते हुए को श्रच्छा न समझे । तदेवं सर्वजीवेषु समन सममणतीति 'समण' इत्येकः पर्यायो दर्शित, एवं समो मनोऽस्येति समना इत्यन्योऽपि पर्यायो भवत्येवेति दर्शयत्राह ।
अर्थात् समभावपन से जो सब जीवों को समान मानता है, वही 'श्रमण' है, यह भी एक व्युत्पत्ति उक्त शब्द की होती है, इसी प्रकार जिसका मन समान है, वही 'श्रमण' हैं, यह भी इस शब्द की एक व्युत्पत्ति होती है ।
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
२८६
नहीं है (पिश्रो य सव्वेतु चेत्र
( णत्थि य से कोइ वेसो) किसो के साथ उसका द्वेष जीवे ।) और सब जोवों के साथ प्रेम है। एए) इस कारण ( होइ समणो ) श्रमण होता है (एसो) यह (अण्णोऽवि पजाओ ॥ ४ ॥ ) भी दूसरा पर्याय है ॥ ४ ॥ अब अन्य प्रकार से साधु की उपमा घटाते हैं ।
*(उरग) सर्पके समान (गिरि) पर्वत के समान ( जणय) अग्नि के समान (सागर) समुद्र के समान (नहतल ) आकाश के तुल्य ( तरुणसमग्र जो होइ । ) बृक्षों के समूह के समान जो हो । और ( अमर ) भ्रमर समान (मिय) मृग समान (धरण) पृथि - वी समान (जलरुह ) कमल समान (रवि) सूर्य समान (पत्रसमो अ ) और पवन के समान हो (सो) वही (समणी ॥ ५ ॥ ) श्रमण है ॥ ५ ॥ इस लिये 'श्रमण वही हो सकता है जिसका शोभन मत है'। इसी का आगे वर्णन किया जाता है
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(तो समणी) इस लिये वही श्रमण है ( जइ सुमो) यदि शुभ मन हो ( भावे य) और भाव से (ज) अगर ( न होइ पावणो । ) पाप मन वाला न हो, (सयं य ज य समो) स्वजन और सामान्य मनुष्यों में समान (समो माणानमाखे॥ ६ ॥ ) मान और
* श्रद्धि के समान जैसे सर्प स्वयं घर नहीं बनाता लेकिन दूसरों के किये हुए बिल में रहता है, इसी प्रकार साधु भी एक जगह नहीं ठहरते क्यों कि उनके घर तो है ही नहीं, इसी लिये उन्हें उरंग - सर्प की उपमा दी गई है।
समशब्दः सर्वत्र योज्यते ।-सम शब्द का सब जगह सम्बन्ध जानना चाहिये । पर्वत के समान - परीपहों को सहन करने में पर्वत के समान अकम्प |
अग्नि के समान जैसे अग्नि तृण काष्ठ आदि से तृप्त नहीं होती, इसी प्रकार साधु भी सूत्रार्थं से तृप्त नहीं होते ।
सागर के समान-जैसे समुद्र अपनी मर्यादा को नहीं छोड़ता, इसी प्रकार साधुभी ज्ञानादि रत्नयुक्त होने से अपनी मर्यादा उल्लंघन नहीं करते अर्थात् गम्भीर रहते हैं ।
श्राकाश के समान - जैसे कि आकाश का तलिया सब जगह से श्रालम्बन रहित है, इसी प्रकार साधु होते हैं अर्थात् वे कोई श्राश्रय नहीं लेते ।
वृक्षों के समूह समान -
- जैसे टक्षों के सुख दुःख का विकार नहीं दीखता, इसी प्रकार साधु भी सुख दुःख में विकारवान् नहीं होते ।
भ्रमर -- श्रनियत वृत्ति होने से । मृग-संसार के भय से उद्विग्न । पृथिवी - सब खेद सहन करने से । कमल - जल में रहता हुआ भिन्न है, इसी प्रकार साधु विषय रूपी कीचड़ में लिप्त नहीं होते । सूर्य - धर्मास्तिकायादिलोकमधिकृत्या विशेषेण प्रकाशकत्वात्र पवन - श्रप्रतिबद्धविहारी होने से ।
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[ उत्तरार्धम् ] भपमान में समान हो, ( से तं नोभागमो भावसा माइए, ) यही * नोपागम से भाव. सामायिक है, (से त भावसामाइए ।) यही भाव सामायिक है (से त सामाइए ।) यही सामायिक है । (से त नामनिप्फन्ने ।) यही नामनिष्पन्न निक्षेप है।
भावार्थ-जिस वस्तु को नाम रूप निष्पन्न हुआ हो उसे नामनिष्पन्न निक्षेप कहते हैं, जैसे कि सामायिक । इसके चार भेद हैं- नाम स्थापना द्रव्य
और भाव । नाम स्थापना और दव्य सामायिक पूर्ववत् जानना चाहिये । शशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य सामायिक उसे कहते हैं जो पत्र अथवा पुस्तक रूप लिखी हुई हो। इसी को नोआगम से द्रव्य सामायिक अथवा द्रव्य सामायिक कहते हैं।
भाव सामायिक के दो भेद हैं ,-आगम से और नोागम से । जो सामा. यिक शब्द के अर्थ को उपयोग पूर्वक जानता है उसे श्रागम से भाव सामायिक कहते हैं। नो आगम ले भाव सामायिक निम्न प्रकार जानना चाहिये । जैसे--
जिसकी आत्मा सब प्रकार के व्यापार से निवृत्त होकर मूलगुण रूप संयम, उत्तर गुण रूप नियम तथा अनशनादिक तप में लीन है, उसी की सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान् ने प्रतिपादन किया है ॥१॥
जो त्रस और स्थावर आदि सब प्राणियों को अपने समान मानता है उसी की सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान् ने कथन किया है ॥२॥
से कि मुझे किसी जीव की हिंसा करने को, करवाने को अशवा करते हए को अनुमोदन करने का दुःख प्रिय नहीं है, इस प्रकार सर्व जीवों को जान कर समान मानता है, इस कारण वह श्रमण है ॥ ३॥
किसी जीव के साथ द्वेष नहीं है बल्कि सभी के साथ प्रीति है, इससे भी वह श्रमण है । यहां दूसरा पर्याय रूप है ॥ ४॥
तथा जो सर्प, पहाड़, अग्नि, सागर, आकाश का तलिया, वृक्षों के समूह, ___ * "इह च ज्ञानक्रियारूप सामायिकाध्ययनं नोग्रागमतो भावसामायिकं भवत्येव, ज्ञानक्रियासमुदाये श्रागमस्यैकदेशत्तित्वात, नोशब्दस्य च देशवचनत्वाद्, एवं च सति सामायिकवतः साधो. रपीह नोागमतो भावसामायिकत्वेनोपन्यासो न विरुध्यते, सामायिकतद्वतोरभेदोपचारादिति भावः'
अर्थात् यहां पर ज्ञान क्रिया रूप सामायिक अध्ययनको नोभागमसे भावसामायिक जानना चाहिये । क्योंकि ज्ञान और क्रियाएँ छागम की एक देश होने से भावसामायिक होती हैं। तथानोशब्द देशवाचक है। इसी प्रकार सामायिक करने वाला और साधु दोनों ही को नोपागम से भाव सामायिक कहने में कोई विरोधापत्ति नहीं है क्योंकि दोनों ही उक्त सामायिक में हैं।
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[ उत्तरार्धम]
२६१ भंवर, मृग, पृथिवी, कमल, सूर्य, और पवन इत्यादि उपमाओं के समान होता है वही श्रमण है ॥५॥
इस कारण वही श्रमण है जिसका शुभ मन है और जो भाव से भी पाप नहीं करता, तथा जिसका स्वजन और सामान्य मनुष्य, तथा मान और पपमान में सम भाव हो ॥६॥
इसी को नोश्रागम से भाव सामायिक कहते हैं। और यही सामायिक है। यही नामनिष्पन्न निक्षेप है। इसके बाद सूत्राल पकनिष्पन्न निक्षेप इस प्रकार जानना चहिये
सूत्रालायक निष्पन्न निक्षेक। से कि तं सुत्तालावगनिप्फरणे ? इआणि सुत्तालावयनिप्फएणं निक्खेवं इच्छावेइ से अ पत्तलक्खणेऽवि ण णिक्खप्पइ, कम्हा ? लाघवत्थं, अत्थि इओ तहए अणु
ओगदारे अणगमेत्ति,तत्थ णिक्खित्ते इह णिक्खित्ते भवइ, इहं वा णिक्खित्ते तत्थ णिक्खित्ते भवइ, तम्हा इहं ण णिविखप्पइ तहि चेव निक्खिप्पइ, से तं निकखेवे । (सू० १५४)
___ पदार्थ-(से किं तं सुगालावगनिष्फरणे ? ) सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षप किसको कहते हैं ? (सुत्तालावगनिष्करये) 'करेमि भंते सामाइयं' इत्यादि सूत्रालापकों के नाम स्थापनादि भेद भिन्न से जो न्यास है उसे सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेप कहते हैं। (इपाणि) इस समय (सुत्तालावगनिष्करणं निक्खेव) सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेपकी (इच्छावेइ) इच्छा उत्पन्न होती है, (से 'अ पत्तलक्खणे ऽवि ) उसका लक्षण प्राप्त होने पर भी (ण णिक्खप्पड़,) निक्षेप * नहीं किया जाता है, (कम्हा ?) क्यों ? (लाघवत्थं) लाघवार्थ होने से ( अस्थि इश्रो तइए ) इसके आगे तृतीय ( अणु प्रोगदारे) अनुयोगद्वार (अणुगमेत्ति,) अनुगम है (तत्थ णिक्खित्ते) वहां निक्षेप करने से (इहं णिक्खित्ते भवइ,) यहाँ निक्षेप होता है, (इह वा णिक्खित्ते ) अथवा यहां पर निक्षेप करने से (वय शिक्खित्ते भवा,) वहाँ निक्षप होता है, (तम्हा) इस कारण ( इहं ण णिक्लिप्पइ ) यहां पर निक्षेप नहीं
सूत्रानापक निक्षेप के द्वारा वणन नहीं किया जाता।
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२१२
[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] किया जाता (तहिं चेव निक्खिप्पइ,) वहां + पर ही किया जायगा, (से तं निक्खेवे) यही निक्षेप है। (सू० १५३)
___ भावार्थ-'करेमि भंते ! सामाइयं' इत्यादि सूत्रालापकों का नाम स्थापनादि भेदभिन्न जो न्यास है उसे सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेप कहते हैं । इस समय यहां पर इस निक्षेप के कहने की इच्छा होती है, लेकिन लक्षण प्राप्त होजाने पर भी नहीं कहा जाता, क्योंकि लाघवार्थ होने से । इस लिये तृतीय अनुयोग नामक अनुयोगद्वार में वर्णन किया जायगा। वहां पर निक्षेप करने से यहां पर निक्षप होता है, अथवा यहां पर निक्षेप करने से वहां पर होता है । इस लिये यहां पर नहीं करते हुए वहां पर ही इसको निक्षेप किया जायगा। यहां पर निक्षेप नामक द्वितीय अनुयोगद्वार समाप्त होता है। इसके बाद अब तृतीय अनुयोगद्वार इस प्रकार जानना चाहिये
अनुगम। से कि त अणुगमे ? दुविहे पण्णत्ते, त जहा-सुत्ताणगम अनिज्जुत्तिअणुगमे ।
' से किं त निज्जुत्तिअणुगमे ? तिविहे पण्णत्ते, त' जहा-निक्वेवनिज्जुत्तिअणुगमे उवग्घायनिज्जुत्तिअणुगमे सुत्तप्फासिअनिज्जुत्तिअणगमे।
से कि त निक्खेवनिज्जुत्तिअणुगमे ? अणुगए, से त निक्खेवनिज्जुत्तिअणगमे ।
से कि त उवग्घायनिज्जुत्तिअणुगमे ? इमाहिं दोहिं मूलगाहाहि अणुगंतव्वो, त जहा
उद्देस निद्देसे अरनिग्गमे३ खेत्त४ काल५ पुरिसे य६ ।
+ सूत्र का उच्चारण किये बिना सूत्रालापक नहीं हो सकता, इस लिये यहां पर सूत्र का उच्चारण न होने से वर्णन नहीं किया गया । सिर्फ निक्षेप का सामान्य भेद होने से नाम मात्र ग्रहण किया गया है।
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२६३
[ उत्तरार्धम् ] कारण७ पच्चय८ लक्खणह, नए१० समोआरणाणु. मए११ ॥१॥
कि१२ कइविहं १३ कस्स१४ कहि १५,केसु१६ कह१७ किच्चिरं हवइ कालं१८ ।
कइ१६ संतर२० मविरहियं २१. भवा२२ गरिस २३ फासण२४ निरुत्ती२५ ॥ २ ॥ से त उवग्घायनिज्जुत्तिअणुगमे। __पदार्थ-(से किं तं अणुगमे ?) अनुगम किसे कहते हैं ? (अणुगमे) जो सूत्र के अनुकूल व्याख्या हो, अथवा जिसके द्वारा स्त्र को व्याख्या की जाती हो या गुरु वाचनादि देते हों उसे अनुगम कहते हैं, और वह (दुविहे परगत्ते,) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा.) जैसे कि- ( मुत्ताणुगमे अ ) सूत्रानुगम, जो सूत्र का व्याख्यान रूप हो और (निज्जुत्तिअणुगमे अ।) नियुक्त्यनुगम।।
(से किं तं निज्जुत्तिणुगमे ?) नियुक्त्यनुगम किसे कहते हैं ? (निज्जुचिअणुगम) जिस नियुक्ति की व्याख्या की जाय उसे * नियुक्त्यनुगम कहते हैं, और वह (तिविहे पएणत्ते,) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा.) जैसे कि-(निक्वेवनिज्जुत्तिअणु गमे) निक्षेप नियुक्त्यनुगम (उपग्यायनि जुत्तिग्रणु गमे) उपोद्धात नियुक्त यनुगम, और ( । सुत्तप्कासिनिज्जुतिअणुगमे ।) सूत्रस्पर्शिक नियुक्त्यनुगम ।
(से किं तं निक्खेवनिज्जुत्तिअणुगमे ? ) निक्षपनियुक्त्यनुगम किसे कहते हैं ? (निक्खेवनिज्जुरिअणुगमे ) निक्षेपादि द्वारा जिस नियुक्ति की व्याख्या की जाय उसे
* नियुक्त्यनुगमश्च --नितरां युक्ताः-सूत्रेण सह लोलीभावेन सम्बदा नियुक्ता अर्थास्तेषां युक्तिः-स्फुटरूपतापादनम् । एकस्य युक्तशब्दम्य लोपानियुक्तिः-नामस्थापनादिप्रकारैः सूत्रविभननेत्यर्थः, तद्रूपोऽनुगमस्तस्य वा अनुगमो-व्याख्यानं नियुक्त्यनुगमः ।
अर्थात् नामस्थापनादि से अत्यन्त ही सूत्र के साथ अर्थ का जो सम्बन्ध है उसकी व्याख्या करना या नामस्थापनादि द्वारा विस्तारपूर्वक विभागतया जो सूत्र के व्याख्यान की पद्धति हो, उसी को नियुक्त्यनुगम कहते हैं।
अर्थात् जो नियुक्ति सूत्र को स्पर्श करती हो उसे सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगम कहते हैं । सूत्र स्पृशन्तीति सूत्रस्पर्शिका सा चासौ नियुक्तिश्च सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिः ।
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२६४
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् । निक्षप नियुक्त्यनुगम * कहते हैं । ( अणु गए) पूर्ववत् जानना चाहिये । (से तं निक्षेत्र निज्जुत्ति अणुगमे ।) यहो निक्षेप नियुक्त्यनुगम है।
(से कि तं उबग्यायनिज्जुत्तिअणुगमे ? ) उपोद्धात नियुत्तयनुगम किसे कहते हैं ? ( उबग्घायनिज्जुत्तिणुगमे ) व्याख्या किये हुए सूत्र की व्याख्या विधि को समीप करना उसे उपोद्धात कहते हैं उसी की नियुक्ति का व्याख्यान करना उसे उपोद्धात नियु क्ति कहते हैं । इसका स्वरूप (इमाहिं) इन (दोहि मुलगाहाहिं ) दो मूलगाथाओं से (अणुगंतव्यो,) जानना चाहिये, (तं जहा-) जैसे कि
( उद्दे से निह से अ२, निग्गमे३ खेत्त४ काल'५ पुरिसे य६ । कारण७ पञ्चयो८ लक्खण ६, नए १० समोआरणाणुमए११ ॥ १॥ किं १२ कइविह १३ कस्स१४ कहिं१५, केसु२६ कह१७ किञ्चिरं हवा कालं१८ । कइ १६ संतर२० मविरहियं२१, भवा२२ गरिस२३ फासण२४ निरुत्तो२५ ॥२॥)
उहश १, निर्देश २, निर्गम ३, क्षेत्र ४, काल ५, पुरुष ६, कारण ७, प्रत्ययम, लक्षण ६, नय १०, समवतार में अनुमत होना ११, ॥ १ ॥
किसको १२, कितने प्रकार को १६, किसकी १३, कहां पर १५, किस में १७, किस प्रकार १७, कितने समय तक काल होता है १८, कितनी १६, अन्तर सहितपना २०, अविरहपन २१, भात २२, आकर्ष २३, स्पर्शना २१, और निरुक्ति २५, ॥ २ ॥ (से तं उबग्यायनि जुशिअागमे । यहो उपोद्घातनियुलियनुगम है !
भावार्थ-जो ब्यवस्था सूत्र के अनुकूल होतो है, उसे अनुगम कहते हैं। उसके दो भेद हैं, जैसे कि-सूत्रानुगम और नियुक्त्यनुगम । जिस सूत्र के साथ अर्थ को अत्यन्त निकलाना हो पश्चात् उसकी व्याख्या की जाय उसे नियु: सयनुगम कहते हैं । वह तीन प्रकार का है, जैसे कि -निक्षेप निर्युतयनुगम १, उपोद्घात नियुक्त्यनुगम २ और सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगम ३। निक्षेपनियुक्तनुगम पूर्व में प्रतिपादन किया गया है, और उपोद्घात नित्यनुगम उसे कहते हैं जो सूत्र से पूर्व अध्याय फिर उद्दश फिर सूत्र की व्याख्या की जाय जिससे कि
* अत्र व प्रागावश्यकतामायिकादिपदाना नामस्थापनादिनिक्षेपद्वारेण यद्वयाख्यानं कृतं तेन निरंपनियुक् यनुगमोऽनुगतः -- प्रोक्तो दृष्टव्यः ।
अर्थात पूर्व आवश्यक और सामायिकपदों की नामस्थापनादि निक्षेप द्वारा जो व्याख्या की गई है उसे ही निक्षेप नियुक्त्यनुगम जानना चाहिये ।
+ उपोहननं-व्याख्येयस्य सूत्रस्य व्याख्याविधिसमीपोकरणमु गोदातस्तस्य तद्विषया वा नियुक्तिस्तपस्तस्य वा अनुगमः उपोहातनियुक्त्यनुगमः ।
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[ उत्तरार्धम् ]
२६५
सूत्र का बोध सरल हो । उपोद्घात नियुक्त्तयनुगम का स्वरूप यह है कि उसके २५ लक्षण हैं, जो प्रश्नोत्तर के रूप में नीचे दिये जाते हैं
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(१) उद्देश किसे कहते हैं ? जिसका उद्द ेश किया जाय अथवा जो सांमान्य नाम रूप हो उसे उद्देश कहते हैं । जैसे कि -अध्ययन |
(२) निर्देश किस को कहते हैं ? जिसका निर्देश किया जाय अथवा जो विशेष अभिधान पूर्वक हो, जैसे कि सामायिक
(३) निर्गम किसे कहते हैं ? जो वस्तु जहां से निकली हो उसे निर्गम कहते हैं, जैसे कि आवश्यक से सामायिक निकली है।
(४) किस क्षेत्र से सामायिक की उत्पत्ति हुई हैं ? व्यवहार नय से समय
से ।
(५) * किस काल में सामायिक की उत्पत्ति हुई हैं ?
(६) किस पुरुष से सामायिक शब्द निकला है ? सर्वज्ञ पुरुषों ने सामायिक का प्रतिपादन किया है, अथवा व्यवहार नय से भारत वर्ष की अपेक्षा श्री ऋषभदेव भगवान् ने सामायिक चारित्र प्रतिपादन किया है, लेकिन एवम्भूत नय से सामायिक चारित्र अनादि है ।
(७) + किस कारण से गौतमादि गणधरों ने सामायिक को श्रवण किया है ? संयति भाव की सिद्धि के लिये ।
(८) किस प्रत्यय से भगवान् ने इसका उपदेश दिया है ? और किस प्रत्यय से गणधरों ने इसका श्रवण किया है ? - केवल ज्ञानसे भगवान् ने सामा
* सूत्रालापनिष्पन्न निक्षेप का वर्णन आगे किया जायगा । आवश्यक सूत्र में कहा है - " वइसापसुरकारसीए पुव्व हदे सकालम्मि | महसेावज्जाणे श्रणंतर परंपरं सेस" वैशाखशुक्लैकादश्यां पूर्वादेशकाले । महासेनवनोद्याने श्रनन्तरं परम्परं शेषम् ।
अर्थात अनन्तर, परम्पर और शेष, तीनों प्रकार की, वैशाख शुक्ल ग्यारस के दिन महासेन नामक वन के उद्यान- बगीचे में मध्यान्ह के समय की ।
+ "गोयमाई सामाइयं तु किं कारणं निसामिति । " - गौतमादयः सामायिकं तु किं कारणं निशाम्यन्ति ।
܀
"केवलनाणित्ति अहं अरिहा सामाइयं परिकहेइ । तेसिंपि पचश्रो खलु सव्वन्नु तो निसामिति ॥ १॥" - केवलज्ञानीत्यहमर्हन् सामायिकं परिकथयति । तेषामपि प्रत्यया खलु सर्वज्ञस्ततो निशाम्यन्ति ॥ १ ॥
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२९६
[ श्रोमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] यिक चारित्र प्रतिपादन किया है और उसी प्रत्यय से भव्य जीवों ने श्रवण किया है।
() सामायिक का लक्षण क्या है ? * श्रद्धा, विज्ञान, विरति और मिश्र लक्षण होते हैं।
(१०) नयों के मत से सामायिक कैसे होती है ? व्यवहार नय से पाठ प सामायिक होती है, तीन शब्द नयों से जीवादि वस्तु का ज्ञान होना पाठ रूप सामायिक होती है।
(११) नयों में सामायिक का समवतार कैसे होता है ? + अनुपयुक्त सामायिक का समवतार नैगम नय और व्यवहार नय से अनेक द्रव्य रूप है, संग्रह और ऋजुसूत्र नयसे अनुपयुक्त जितने सामायिक के द्रव्य हो उनका एक ही द्रव्य मानते हैं । तीनों शब्द नयों से अनुपयुक्त रूप सामायिक कोई वस्तु नहीं है, लेकिन उपयोग रूा सामायिक तीर्नो नयों से वस्तु रूप है ।
(१२) सामायिक क्या वस्तु है ? जीव का गुण है।
(१३) सामायिक कितने प्रकार से प्रतिपादन की गई है ? तीन प्रकार से जैसेकि
* सम्यक्त्व सामायिक का तत्त्वों पर श्रद्धा रखना, श्रुत सामायिक का जीवादिकों का परिज्ञान होना, चारित्र सामायिक का सावध विरति रूप और देशविरति सामायिक का विरत्यविरति रूप है । तत्वार्थश्रद्वानं सम्यग्दर्शनम् । जोबाजीवाश्रव०-तत्वार्थसूत्र अ० १, सू० २-३ ।
आगम में भी कहा है--'सदसण जाणणा खलु विरई मीसं च लक्खणं कहए'-श्रद्धानं शानं खलु विरतिमिश्रच लक्षणं कथयति ।
' "तबसंजमो अणुमओ, निग्गंधं पवयणं च ववहारो । सदुज्जुसुयाणं पुण निव्वाणं संजमो चेत्र ॥ १ ॥-तपः संयमो ऽनुमतो नैय॒त्थ्यं प्रवचनं च व्यवहारः । शब्द सूत्राणं पुनर्निर्वाण संयमश्चैत्र । अर्थात् व्यबहार नय से तपः, संयम, निर्ग्रन्थ और प्रवचन रूप सामायिक होती है, लेकिन शब्द और ऋजुसूत्र नय के मत से संयम और मोक्ष रूप सामायिक होती है।
+ 'जीवो गुणपडिबन्नो णयस्स दव्वट्टियस्स सामाइयं'-जीवो गुणप्रतिपन्नो नयस्य द्रव्यार्थिकस्य सामायिकम् । “सामाइयं च तिविहं सम्मत्तसुयं तहा चरित्तं च”--सामायिकं च त्रिविधं सम्यक्त्वं श्रुतं तथा चरित्र च । 'जस्स सामाणिो अप्पा'-यस्य सामानिकः (सनिहित) श्रात्मा । "नेचदिसाकालगइभवियसएिणउस्सासदिठिमाहारे"-क्षेत्रदिकालगतिभव्यसंयुच्छवासदृष्टमाहारः।
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
२९७ जैसे कि-सम्यत्तवसामायिक, श्रतसामायिक और चारित्रसामायिक ।
(१४) किस जीव को सामायिक होती है ? जिसकी आत्मा सब प्रकार के व्यापार से निवृत्त हुई हो अर्थात् समभाव युक्त हो।
(१५) सामायिक कहां कहां होती है ? क्षेत्र, दिशा, काल, गति, भव्य, संधी, सम्यग्दृष्टि, श्वासोच्छवास और आहारक आदि अनेक हैं।
(१६) किस किस में सामायिक होती है ? सब द्रव्यों में होती है, लेकिन भुत सामायिक सब द्रव्य और चारित्र सामायिक सब पर्यायों में नहीं होती, देशबिरति में दोनों का ही निषेध किया गया है।।
(१७) किसको सामायिक हो सकती है ? मोनुष भव क्षेत्र, जाति, कुल, अप, आरोग्य, आयु और बुद्धि, ये सामायिक के कारण हैं * |
(१८) कितने काल तक सामायिक रह सकती है ? ६६ सागर पर्यन्त । लेकिन चारित्र सामायिक देश ऊन पूर्व क्रोड़ वर्ष तक होती है।
(१६) सामायिकधारी वर्तमान काल में एक साथ कितने होते हैं ? सम्यक्व देश बेर ते सामायिक वाले पल्य के असंख्यातवें भाग होते हैं।
(२०) सामायिक का अन्तर काल कितना होता है ? एक जीव की अपे वा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अर्द्ध पुद्गल परावर्त देशोन अन्तर बाल होता है।
(२१) बिना अन्तर कितने काम तक सोमायिक ग्रहण करने वाले होते हैं? सम्यक्त्व और श्रुत सामायिक वाले प्रावलिका के असंख्यातवें भाग में होती है। पाठ समय तक चारित्र सामायिक वाले होते हैं, और जघन्य से दो समय तक ही होते हैं।
(२२) कितने भाव पर्यन्त सामायिक रह सकती है ? पल्य के असख्या. त भाग मात्र में सम्यत्त्व देशविरति होती है । आठ भाव पर्यन्त चारित्र सामायिक होती है, और अनन्त काल तक श्रुत सामायिक होती है।
"सव्वगयं सम्म, सुय चरित्ते न पज्जवा सव्वे । देसविरई पडुचा दुराहवि पडि सेहणं कुजा ॥१॥"-सर्वगतं सम्यक्त्वं श्रुते चारित्र न पर्यवः सर्वे । देशविरतिं प्रतीत्य द्वयोरपि प्रतिषेधनं कुर्यात् ॥१॥
*"माणुस्स खेत जाई, कुल रूवारग आठयं बुदि।"--मानुप्यं क्षेत्र जातिः, कुलं समारोग्यमायुबुद्धिः ।
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२६८
[ उत्तरार्धम् ]
(२३) सामायिक के आकर्ष एक भव में वा अनेक भव में कितने होते हैं ? अर्थात् एक भव में वा अनेक भवों में सामायिक कितनी वार धारण की जाती हैं ? तीनों सामायिक का सहस्रपृथक्त्व और देशविरति वालों का शत पृथक्त्व एक भव के आकर्ष होते हैं । जघन्य दो वार, उत्कृष्ट पृथक्त्व सहस्रवार कर्ष अनेक भवों की अपेक्षा से होते हैं ।
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(२४) सामायिक वाला कितने क्षेत्र तक स्पर्श करता है ? सम्यक्त्व और चारित्र के साथ जीव उत्कृष्ट से सर्व लोक का स्पर्श करता है, जघन्य से लोक के सप्त, दश या पांच श्रुत और देशविरति सामायिक का असंख्येयक भाग को पर्श करता है ।
(२५) सामायिक की निरुक्ति क्या है ? जो निश्चित उक्ति-कथन होती. है, वही निरुक्ति होती है । इस लिये सम्यग् दृष्टि, मोह से रहित, शुद्ध स्वभाव वाले, दर्शनबोधी, पाप से रहित इत्यादि सामायिक की निरुक्ति है, अर्थात् सामायिक का जो पूर्ण वर्णन है, वही सामायिक की निरुक्ति होती है ।
इस प्रकार संक्ष ेप से उपोद्घात निरुक्ति का वर्णन किया गया है। विस्तार पूर्वक श्रावश्यक निरुक्ति टीका से जानना चाहिये । इस प्रकार दो गाथाओं का संक्षेप अर्थ है । विस्तृत अर्थ अन्य ग्रन्थों से जानना चाहिये । उपोद्घात निर्युक्ति का सारांश इतना ही है कि-अध्ययन का सर्व सारांश प्रथम ही अवगत करना चाहिये । वह सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति पूर्वक होता है, इस लिये अब सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति का स्वरूप जानना चाहिये। उस में यद्यपि पूर्व सूत्रानुगम प्रतिपादन कर पश्चात् सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति वर्णन की गई है, तथापि यहां पर नियुक्ति के संघात होने से ही दिखलाई जाती है, इस लिये कोई दोषापत्ति नहीं है ।
सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति |
से कि त सुत्तफासियनिज्जुत्तिणुगमे ? सुतं उच्चारेअव्वं अक्खलियं अमिलियं अवच्चामेलि पडिपुराणं पडिपुराणघोसं कंट्रोट्ट विप्प मुक्कं गुरुवायणोवगयं, तो तत्थ राज्जिहिति ससमयपयं वा परसमयपयं वा बंधपर्यं वा मोक्खपयं वा सामाइयपयं वा खोसामाइयपयं वा तत्रो तम्मि उच्चारिए समाणे केसि च भगवंताणं केइ अस्था
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२६8
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् हिगारा अहिगया भवति, केइ अत्थाहिगारा अणहिगया भवंति, ततो तेसि अणहिगयाणं अहिगमणट्टयाए पदं पदेणं वन्नइस्सामि ।
संहिया य पदं चेव, पयत्थो पयविग्गहो।। चालणा य पसिद्धी य, छव्विहं विद्धिलक्खणं ॥१॥
से त सुत्तप्फासियनिज्जुत्तिअणगमे, से त निज्जु. त्तिअणुगमे, से त अणुगमे [सू० १५५]
पदार्थ-(से किं तं सुतप्कासियनिज्जुशिश्रणु गमे ? ) सूत्रस्पशिकनियुक्त्यनुगम किसे कहते हैं ? सुत्तष्काप्तिअनिज्जुत्ति अणुगमे , जो नियुक्ति व्याख्यान रूप सूत्र को स्पर्श करती हो उसे सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगम कहते हैं, जैसे कि-(सुशं. उच्चारेयव्वं ) सूत्र का उच्चारण करना चाहिये (अक्खलियं) अस्खलित (अमिलियं) परस्पर मिले हुए वर्ण न हों ( अबच्चामेलिअं) समाप्त सम्बन्धी सूत्रों के पाठ सहित हों (पडिपुरणं) प्रतिपूर्ण हो (पडिपुराणघोस) प्रतिपूर्ण घोष हो (कठोढविप्पमुक्क) कंठ
और ओष्ठ से अलग हो (गुरुवायणोवगयं ) गुरु को वाचना से उपगत-- प्राप्त हुआ हो ( तो तत्थ ) तत्पश्चात् ( णजिहिति ) जाना जायगा कि यह (ससमय पयं वा) जीवादि पदार्थों का प्रतिपादक रूप स्वसमय का पद है, अथवा (पग्समयपयं वा) । ईश्वरादि को प्रतिपादन किया हुआ परसमय पद है, या (वायं वा) पर समय का पद मिथ्यात्व रूप होने से बंध पद है, या (मोक्खपयं वा) मोक्षपर अर्थात् सद्वोध का कारण कर्म क्षय के करने वाला मोक्ष पद है, या (सामाइयपयं वा) सामा यिक का प्रतिपादन करने वाला सामायिक पद है अथवा गोसामाइयपयं वा ) सामायिक से व्यतिरिक्त नारक तिर्यगादि का बोधक नोसामायिक पद है अथवा (तओ तम्मि) तत्पश्चात् सूत्र के (उच्चारिए समाणे) उसके समान उच्च रण होने से (केसिं च णं भगवंताणं) कितनेक भगवन्तों के-साधुओं के ( केइ अत्याहिगारा ) कितनेक अधिकार (अहिगया) पूरे जाने हुए (भवंति, होते हैं और (केइ) कचिद् (प्रत्याहिगारा) अर्थाधिकार (अणहिगया) नहीं जाने हुए (भवंति) होते हैं, ( तो तेसिं अणहियाणं ) तत्पश्चात
अन्ये तु व्यचक्षते-प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशलक्षगाभेदभिन्नस्य बन्धस्य प्रतिपादकं पदं बन्धपदम् ।
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३००
[ उत्तराधम्] उन नहीं जाने हुए को (अहिगमणट्टाए) जानने के लिये ( पदं पदेणं ) पद पद से ( वनइस्सामि ) वर्णन--व्याख्या करूँगा अर्थात् पद २ की व्याख्या करूंगा।
(* संहिया य) जैसे सहिता-अस्खलितपदों का उच्चारण करना यथा “करोमि भयान्त सामायिकम्" (पदं चेव) और पद से जैसे 'करोमि' द्वितीय पद है । सामायिकम् तृतीय पद है, तृतीय भेद में (पयत्थो) पदार्थ पदों का भिन्न २ अर्थ करना, (पयविग्गहो) पद विग्रह अर्थात् पदों का समास करना-जो समासान्त पद हों उन्हें समासान्त ही कहना चाहिये (चालणा य) और चालना-सूत्र के अर्थ जानने की इच्छा से युक्ति का प्रकाश करना उसे चालना कहते हैं, (पसिद्धी य ) और प्रसिद्धि--प्रथम सत्र अर्थ में शंका दिखलाकर फिर पंचावयव उस शंका का समाधान करना उसे प्रसिद्धि प्रत्यवस्थान कहते हैं, इस लिये (छव्विहं लक्षणं विडि) षट् प्रकार के लक्षण जानना, इस प्रकार सूत्र की व्याख्या करने से सूत्रानुगम की पूर्ति हो जाती है, (से तं सुत्तप्फासियनिज्जुतिअणुगमे ।) यही पूर्वोक्त सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगम है, और ( से तं निज्जुत्तिश्रणुगमे) यही नियुक्त्यनुगम, है, ( से तं अणुगमे । ) तथा यही अनुगम की व्याख्या है।
___ भावार्थ-सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति अनुगम उसे कहते हैं जो सूत्र अस्था. लित अमिलित अन्य सूत्रों के पाठों से अनलंकृत, प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्ण कोष, कंठ और ओष्ठों से विप्रमुक्त और गुरु के मुख से ग्रहण किया हुआ-उच्चारण किया गया हो । क्यों कि
अप्पगंथमहत्थं, बत्तीसादोषविरहियं जंच । लक्खगा जुत्त सुत्त, अट्ठहि य गुणेहि उववेयं ॥१॥
अर्थात् जो अल्प ग्रन्थ और महार्थ युक्त (समाहार द्वन्द्व करने से इस शब्द की सिद्धि होती है, जैसे कि-उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत् इत्यादि सूत्र में ) हो, ३२ दोषों से रहित हो, आठ गुण सहित और लक्षण युक्त हो, वह सूत्र है, जैसे कि
अलियमुवधायजणयं, निरस्थयमवस्थयं छलं दुहिलं । निस्सारमाध्यमूणं, पुणरुत्तं वाहयमजुत्त ॥१॥
* हितते वा । शा० । अ० २ । पा० २ । सू० ७१ । समः हित्तततयोरुत्तरपदयो ग्वा भवति ॥ सहितम् ॥ संहितम् ॥ सततं संततम् । सातत्यमिति प्यणि नित्यं लुक व्यवस्थितविभाषा. त्वात । स्त्री चेत संहिता।
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[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
३०१
३०१ कमभिन्नवयणमिन, विभत्तिभिन्न च लिंगभिन्न च । अणभिहियमपयमेव य, सहावहीणं ववहियं च ॥२॥ कालजतिच्छविदोसो, समयविरुद्धं च वयणमित्त च। अत्थावत्ती दोसो, नेश्रो असमासदोसो य ॥३॥ उवमास्वगदोसो, निसपयत्थसंधिदोसो य। एए अ सुत्तदोला, बत्तीसा हुत्ति नायव्वा ॥ ४ ॥
१ अनृतदोष-असत्य दो प्रकार से होता है, प्रथम अविद्यमान पदार्थों का प्रादुर्भाव, जैसे-जगत् का कत्ती ईश्वर है, द्वितीय विद्यमान पदार्थों का अभाव सिद्ध करना, जैसे - आत्मा पदार्थ नहीं है।
२ उपधातजनक-जीवों का नाश करना, जैसे-वेद में वर्णन की हुई हिंसा धर्म रूप है, अर्थात् वेदवाक्यवत् ।
३ निरर्थकवचन-जिन अक्षरों का अनुक्रम पूर्वक उच्चारण तो मालुम होता है, लेकिन अर्थ सिद्ध कुछ भी नहीं होता, जैसे अश्रा इई उ ऊ ऋऋ तृल इत्यादि । अथवा डित्थवित्थादि असंबद्ध-सम्बन्धरहित निरर्थक वचन दोष होता है, जैसे कि-दश दाडिम, छह अपूप, कुण्ड में बकरा।
४ अनवस्थादोष जिस कथन में अनवस्था दोष की प्राप्ति हो तथा किसी प्रकार की भी जिसमें युक्ति काम न करे, जैसे कि -भाइयव्यो पपसो।
५ छलदोष-जिस में अनिच्छा अर्थ की सिद्धि हो जाय, तथा किये हुए अर्थ को आघात पहुँचे, विवक्षितार्थ का उपघात हो जाय, उस स्थल को छल दोष कहते हैं, जैसे कि-प्राणियों का कल्याण न होने की इच्छा से पापव्यापारपोषक रूप उपदेश करना जैसे नवकम्बलो देवदत्तः।
६ गुहिलक-जिस स्थान पर अतीव वर्णो का संग्रह हो, और वे पापों के पोषक हों, जैसे कि
एतावानेव लोकोऽयं, यावानिन्द्रियगोचरः। भद्र ! वृकपदं पश्य, यद्वदन्त्यबहुश्रुताः॥१॥ पिव खाद च चारुलोचने, यदतीतं वरगात्रि ! तन्न ते । न हि भीरु ! गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ॥२॥
अर्थात् जितना आंखों से दिखाई देता है उतना ही लोक है, इसलिये हे भद्रे ! बगुले का पैर देख जिसे अल्पज्ञानी कहते हैं।
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३०२
[ उत्तरार्धम्]
हे सुन्दर लोचन वालो खाओ पीओ क्योंकि यह श्रेष्ठ शरीर चले जाने से फिर नहीं है । हे डरपोक ! गया हुश्रा शरीर फिर न आयगा यह कलेवर सिर्फ समूह रूप है।
७निःलारवचन -- युक्ति रहित होने से निस्लोरवचन दोष होता है। जैसे-वेदवाक्य तथा मथ्या वचन ।
- अधिक वचन--जिसमें पदादिकों की मात्रा अधिक हो । बैसे किअनित्यः शब्दः कृतकत्वप्रयत्नानन्तरीयकत्वाभ्यां घटपटवत् । इस स्थान पर एक साध्य वस्तु में दो हेतु और दृष्टान्त दिये गये हैं। इस लिये अधिक दोष है। एक की साधना में एक ही हेतु और एक ही दृष्टान्त होना चाहिये । यहां पर दो होने से अधिक हैं ।
हीनवचन-जिसमें पदों के अक्षरों की मात्रा न्यून हो उसे हीनवचन कहते हैं । तथा वस्तु में हेतु या दृष्टान्त की न्यूनता हो उसे भी हीनवचन कहते हैं, जैसे कि-अनित्यः शब्दः घटवत् तथा अनिन्यः शब्दः कृतकत्वात् ।
१० पुनरुक्तदोष--पुनरुक्त दोष के दो भेद हैं । एक शब्द से, और द्वितीय अर्थ से । शब्द से वह है कि जोशब्द एकबार उच्चारण किया गया होफिर उसीको उच्चारण करना। जैसे कि-घटो घटः। अर्थ से वह है. जैसे कि-घटः कुटः कुभः। तथा अर्थापन्न भी पुनरुक्त दोष में गर्भित है। जैसे कि-पीनो देवदत्तो दिवा न भुक्त। अर्थादापन्न रात्रौ भुक्त इति । इस स्थान पर श्रापन्नार्थ के लिये साक्षात्
रूप का ग्रहण करना भी पुनरुक्त दोष है । पीन देवदत्त दिन में नहीं . खायगा अर्थात् रात्रि में खायगा । * ११ अव्याहत दोष-जिस स्थान पर पूर्व वचन से उत्तर वचन व्याख्यान कारी प्राप्त हो उसे अव्याहत दोष कहते हैं, जैसे कि--कर्म चास्ति फलं चास्ति कर्ता न स्वस्ति कर्मणामित्यादि । कर्म और फल दोनों है, लेकिन कर्मों का कर्ता नहीं है।
१२ अयुक्तदोष-जो वचन युक्ति से रहित हो, अथवा युक्ति को सहन भी न कर सके, उसे अयुक्तदोष कहते हैं, जैसे कि--तेषां कटतटभ्रष्टैर्गजानां मदबिन्दुभिः प्रावर्तत नदी घोरा हस्त्यश्वरथवाहिनी।
१३ क्रमभिन्न दोष-जो अनुक्रमता पूर्वक न हो वह क्रमभिन्न दोष होता है, जैसे कि--स्पर्शनरसनधाणचक्षुःश्रोत्राणामाः स्पर्शरसगन्ध रूप शब्दा इति वक्तव्ये स्पर्शरूपशब्दरसगन्धा इति ब्र यात् । उलट पुलट बोले ।
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३०३
[ श्रोमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] १४ वचनभिन्न-जहां पर वचन विपरीत हैं वहाँ वचनभिन्न दोष होता है, जैसे वृक्षा ऋतौ पुष्पितः।
१५ विभक्तिभिन्न-विभक्ति का ठीक न होना, जैसे कि-'वृक्ष पश्य' या वृक्षः पश्य, पेसा कहना विभक्तिभिन्न दोष होता है।
१६ लिंगभिन्न-लिंग के विपरीत होना, जैसे कि-'अयं स्त्री'
१७ अनभिहित दोष -- स्वसिद्धान्त ने जो पदार्थ नहीं ग्रहण किये उन का उपदेश करना, जैसे कि-लप्तमः पदार्थो वैशेषकस्य, प्रकृतिपुरुषाभ्यधिक सांख्यस्य, दुःखसमुदायमार्गनिरोधलक्षणचतुरार्यसत्यातिरिक्त बुद्धस्य ।
१८ अपददोष-अन्य छंद स्थान पर अन्य छंद उच्चारण करना वह अप. ददोष होता है, जैसे कि-प्रार्णपदे अभिधातव्ये वैतालीयं परमभिध्यात् है अर्थात् आर्या छन्द की एवज में वैतालीय पद कहना ।
१६ स्वभावहीनदोष-जिप पदार्थ का जो स्वभाव है उससे विरुद्ध प्रति पादन करना, जैसे कि-शं तो वह्निः, मूर्तिमदाकाशम् अर्थात् अग्नि शीत है, आकाश मूर्तिमान है, ये दोनो ही स्वभाव से हीन हैं।
२० व्यवहितदोष--जिसका प्रारम्भ किया हुआ है उसे छोड़ कर जिस का प्रारम्भ नहीं किया उसकी व्याख्या करके फिर प्रथम प्रारम्भ किए हुए को व्याख्या करना व्यवहितदोष हो जाता है।
२१ कालदोष भूतकाल के वचन को वर्तमान काल से उच्चारण करना । जैसे कि रामो वनं प्रविवेशेति वक्तव्ये, रामो वनं प्रविशति इत्यादि, अर्थात् रामचन्द्रजी ने बन में प्रवेश किया, पेसा कहने के बदले रामचन्द्र जी बन में प्रवेश करते हैं। ___ २२ यतिदोष-बिना स्थान विरति करना। - २३ छविदोष-अलंकारों से शून्य ऐसे पदों का उच्चारण करना अर्थात् नो पद उच्चारण किये जायँ वे अलंकार पूर्वक होने चाहिये।
२४ समयविरुद्ध दोष-स्व सिद्धान्त से विरुद्ध प्रतिपादन करना, जैसे कि-सांख्यस्यासत्कारणे कार्ये वैशेषिकस्य वा सदिति ।
२५ वचनमात्र दोष--निर्हेतुक वचन उच्चारण करना, जैसे कि - कश्चद्यथेच्छया कश्चित्प्रदेशं लोकमध्यतया जनेभ्यः प्ररूपयति, अथात् कोई पुरुष अपनी इच्छा पूर्वक किसी स्थान पर भूमि का मध्य भाग सिद्ध करे ।
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३०४
[ उत्तराधम् ]
२६ श्रर्थापत्ति दोष -जिस स्थान पर अर्थापत्ति करने से अनिष्ट फल की प्राप्ति हो जाए वह अर्थापत्ति दोष होता है। जैसे कि गृहकुक्कटो न हन्तव्यः अर्थात् घरका मुर्गा न मारना चाहिये, इस कथन से अर्थापत्ति होती है । क्योंकि - शेषघातोऽदुष्ट इत्यापतति शेष को मारना चाहिये, ऐसा सिद्ध होता है । अन्य स्थान पर कुक्कुट का वध निर्दोष सिद्ध होता है।
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२७ असमास दोष -जिस स्थान पर जिस समास की प्राप्ति हो उस स्थान पर उस समास को छोड़कर अन्य समास कर देवे तो असमासदोष होता है।
२८ उपमा दोष --हीन उपमा । जैसे कि मेरुः सर्षपोपमाः । अथवा अधिक उपमा - सर्पपो मेरुसनिभः । अथवा अन्य विपरीत उपमा करना, जैसे किमेरुः समुद्रोपमः । यह उपमा दोष होता है ।
२६ रूपक दोष -- स्वरूप को छोड़कर उसके अवयवों का प्रतिपादन करना, जैसे कि -- पर्वत के निरूपण को छोड़ कर शिखर आदि उसके अवयवों का निरूपण करना, या अन्य कोई समुद्र के अवयवों का निरूपण करना ।
३० निर्दोश दोष -- जिस वचन का उच्चारण कर दिया है फिर उसका एक ब्राज्य न करना । जैसे कि -- देवदतः स्थाल्यामोदनं पचति, इत्यभिधातव्ये पचति शब्दं नाभिधत्ते । देवदत्त स्थाली में चांवल पकाता है, ऐसा कहना लेकिन वहां पर पचति नहीं कहना ।
३१ पदार्थ दोष -- जिस वस्तु के पर्याय को एक पदार्थान्तर मानना पदार्थदोष होता है । जैसे कि "सतो भावः" सत्तेति कृत्वा वस्तुपर्याय एव सत्ता, सा च वैशेषिकैः षट्सु पदार्थेषु मध्ये पदार्थान्तरत्वेन कल्प्यन्ते तच्चायुक्तम् । वस्तूनामनन्त पर्यायत्वेन पदार्थानस्यप्रसङ्गादिनि । इस कथन से वस्तु का सत्ता भाष सिद्ध होता है, और वैशेषिक दर्शन ने षट् पदार्थ के अंतर्गत सत्ता मानी है । अतः उनका यह एकान्त कहना अयुक्त है ।
३२ सन्धिदोष-जहां पर सन्धि होना चाहिये, वहां पर सन्धि नहीं करना, अथवा करना तो ग़लत करना, यह सन्धिदोष है । भरतो वन्दितु गच्छति - भरत बन्दन करने जाता है। ऐसा कहते हुए भरतः वन्दितु ं कहना । इन बत्तीस दोष से जो रहित है उसे ही लक्षण युक्त सूत्र कहते हैं, तथा भ्राढ गुणों से जो यक्त है वही लक्षण युक्त सून्न होता है, जैसे कि
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३०५
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] "निहोसं १ सारवंतं च २, हेतुजुत्तम ३ लंकियं । उवणीयं ५ सोवयारं च ६, मियं ७ महुरमेवय ॥१॥"
अर्थात् सब दोषों से रहित १, सारवान् अर्थात् गोशब्द समान बहुत अर्थ युक्त २, अन्वय और व्यतिरेक हेतुओं से युक्त ३, उपमादि अलंकारों से विभूषित ४, उपनय से युक्त अर्थात् दृष्टान्त को दान्तिकतया सिद्ध करना, उसे ही उपनीत कहते हैं ५, संस्कृतादि भाषाओं से युक्त और प्रामीण भाषाओं से वर्जित, इसको सोपचार कहते हैं ६, अक्षरादि के प्रमाण से नियत ७ और जो सुनने में मनोहर हो, उसे मधुर वर्ण युक्त जानना चाहिये ८, जिस में पूर्वोक्त गुण होते हैं, उसे ही सूत्र कहते हैं।
तथा किसी २ आचार्य के मत से पट गुण होते हैं, जैसे कि"अप्प म्वर १ मसंदिद्ध २, सारवं ३ विस्सोमुहं ४। श्रस्थोभ ५ मणवज्जं च ६, सुत्त सम्बएणुभासियं ॥ २॥"
अल्पाक्षर अर्थात् मिताक्षर हो, जैसे सामायिकसूत्र १,संदेहरहित हो क्यों कि सैन्धव शब्दवत् संदेहयुक्त न हो, सैन्धव शब्द लवण, वस्त्र, अश्वादि अनेक अर्थो में व्यवहृत है २, सारवत्-गौ शब्द के समान बहुत अर्थ वाला हो ३, प्रत्येक सूत्र चरणानुयोगादि चार अनुयोग द्वारा सिद्ध है तथा एक शब्द के अनन्त अर्थ होने से उसे विश्वमुख कहते हैं, यथा “धम्मो मंगलमुक्किट्ठ इत्यादि, श्लोके च चारोऽप्यनुयोगा व्याख्यायन्ते" जैसे-धम्मो० इस श्लोक से चारों ही अनुयोगों की व्याख्या होती है ४, चकार वकारादि निपातों से रहित ५ और अनवद्य वाक्य अर्थात् पापोपदेश से रहित हो ६, यह षट गुण पूर्वोक्त आठ गुणों में समवतार हो जाते हैं। संग्रह नयसे आठ गुण षट् गुणों में समवतार हो जाते हैं । इस प्रकार शुद्ध सूत्र का शुद्ध सच्चारण करने से मालूम होता है कि यह पद स्वसिद्धान्त जीवादि पदार्थ का बोधक है, और ईश्वरादि कृत परसमय का पद पर सिद्धान्त का बोधक है। स्वसमय का बोधक पद मोक्ष पद होता है और परसमय का बोधक पद बन्ध पद कहा जाता है। कर्मबन्धन का कारण अथवा कुवासनादि हेतुमों से बन्ध पद, कर्म और सबोध का कारण होने से किये हुए का क्षय रूप कारण सो मोक्ष पद होता है। इसी प्रकार सामायिक का प्रतिपादक सामायिक पद होता है । सामायिक से व्यतिरिक्त अर्थों का बोधक नोसामायिक पद होता है । इस प्रकार सत्र उच्चारण करने से ज्ञान की प्राप्ति सिद्ध की गई है । फिर जब सूत्रोच्चारण किया गया तब
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१०६
[उत्तराधम्] कतिपय मुनियों को अर्थ अधिगत हो जाता है और कतिपय मुनियों को अर्थ अधिगत नहीं भी होता । जिन मुनियों को अर्थ अवगत नहीं हुआ, उनको अव. गत कराने के लिये पद २ की संहिता करनी चाहिये । इसलिये अब व्याख्यान करने की विधि कहते हैं । प्रथम व्याख्या की संहिता करनी चाहिये, जैसे कि-- अस्खलित पदों का उच्चारण करना, "करेमि भंते सामाइयं” फिर सा के पदच्छेद करने चाहिये, जैसे कि-'करेमि" एक पद है, "भंते !” द्वितीय पद है, "सामाइयं तृतीय पद है । भाष्यकार ने भी कहा है
"होइ कयत्थो वोत्तं, सपयच्छेयं सुयं सुयाणुगमो । सुत्तालावगनासो, नामाइन्नासविणिोगं ॥ १।। सुसफासियनिज्जुतिविणियोगो सेसश्रो पयत्थाइ । पायं सोचिय नेगमनयाइमय गोयरो होइ ॥ २॥" "सुत्तं सुशाणुगमो, सुत्तालावयको य निक्खेवो । सुत्तफासियनिज्जुत्ती नया य समगं तु वच्चंति ॥ १ ॥" "भवंति कृतार्थ उक्त्या, सपदच्छेदं सूर्य सूत्रानुगमः । सूत्रालापकन्यालो, नामादिन्यासविरि योगम् ॥ १ ॥ सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिविनियंगः शेषकः पदार्थादिः। प्रायः स एव नैगमनयादिमतगोचरो भवति ।। २ ॥" "सूत्र सूत्रानुगमः, सूालापककृतश्च निक्षेपः । सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति याश्च सपकं तु वजन्ति ॥ १ ॥”
फिर पद का अर्थ करना चाहिये, जैसे कि-"करेमि" क्रियापद प्रहण करने अर्थ में श्राता है, यथा-करता हूँ । “भंते" हे भगवन् ! यह पद गुरु के श्रामत्रण अर्थ में है । “सामाइयं सम्यग ज्ञान दर्शन चारित्रा का जिस से लाभ हो उस सामायिक को। इस प्रकार सर्व सूत्रों का पदार्थ करना चाहिये । पश्चात् जो समासान्त पद हों उन को पदविग्रह से समासान्त करके दिखलाना चाहिये, जैसे कि-भयस्य अंतो भयान्तः, जिनानाम् इन्द्रः जिनेन्द्रः, देवानां राजा देवराजः, जिनानाम् ईश्वरः जिनेश्वरः। अनेक पदों का एक पद कर देना उसे समास कहते हैं, पश्चात प्रश्नोत्तर करके सूत्र की पुष्टि करना चाहिये । तदनन्तर प्रतिज्ञा हेतु उदाहरण उपनय निगमन के द्वारा सूत्र की युक्ति करनी चाहिये । तथा प्रत्यवस्थान के द्वारा प्रथम अन्य युक्ति देकर फिर सत्रोक्त युक्ति को ही सिद्ध करना चाहिये । इस प्रकार संहिता, पदच्छेद, पदार्थ, पदविग्रह,
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[श्रोमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
३०७ चालना और प्रसिद्धि के साथ सूत्र की व्याख्या करना चाहिये । इस में सूत्रो. च्चारण और पदच्छेद करने से सूत्रानुगम का विषय सिद्ध होता है । फिर सूत्रा. च्चार और पदच्छेद करे फिर सर्व पदोंके निक्षेप करने से सबालापक निक्षेप की सिद्धि होती है। शेष पदविग्रह, चालना और प्रसिद्धि यह सर्व सत्रस्पर्शिकनियुक्ति का विषय है । और आगे जो नय को विषय कहा जायेगा, वह भी चालना और प्रसिडि रूप ही है लेकिन सचमुच से तो सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति के अन्तर्गत सात नयों का रूप है । इस प्रकार सूत्र को व्याख्या करने से सूत्रानुगम अल्प काल में ही समाप्त हो जाते हैं। इस प्रकार सत्रस्पर्शिक नियुक्ति का विषय पूर्ण किया गया है । तात्पर्य यह है कि षट् विधि से सूत्राध्ययन करना चाहिये तब ही अर्थ साफल्य को प्राप्त होता और पाठक के मन में किसी प्रकार का भी संदेह नहीं रहता । इस प्रकार तृतीय अनुयोग द्वार की व्याख्या की गई है । अब इसके अनन्तर नय रूप चतुर्थ श्रनुयोग द्वार के विषय में कहते हैं और इसमें विस्तार पूर्वक नयों का विवेचन किया जावेगा क्योंकि स्याद्वादमत अनेक नयात्मक है।
अथ चतुर्थ अनुयोगद्दार । से किं तं णए ? सत्त मूलणया पण्णत्ता, तं जहाणेगमे १, संगहे २, ववहारे ३, उज्जुसुए ४. सद्दे ५, समभिरूढ़े ६, एवंभूए ७, तत्थ---
णेगेहि माणेहि मिणइति गमस्स य निरुत्ती। सेसाणंपि नयागां, लक्खणमिणमो सुणह वोच्छं ॥१ संगहियपिडिअत्थं, संगहवयणं समासओ बिति । बच्चइ विणिच्छिअत्यं, ववहारो सव्वदव्वेसु ॥२॥ पच्चुप्पन्नग्गाही, उज्जुसुओ णयविही मुणेअव्यो । इच्छइ विसेसियतरं, पच्चुप्पण्णं णो सददो ॥ ३ ॥ वत्थूओ संकमणं, होइ अवत्थूनए समभिरूढ़े । वंजणअत्थतदुभयं, एवंभूशो विसेसेइ ॥ ४ ॥
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३०८
[ उत्तरार्धम् ] णायंमि गिरिहअव्वं अगिणिहअव्वमि अत्थंमि । जइअव्वमेव इइ जो, उवएसो सो नो नाम ॥५॥ सव्वेसिपि नयाणं बहुविहवत्तव्वयं निसामित्ता। तं सव्वनयविसुद्ध, जं चरणगुणट्टिओ साहू ॥ ६ ॥ से तं नए। अणुओगद्दारा सम्मत्ता (सू. १५६) सोलससयाणि चउरुत्तराणि होति उइमम्मि गाहाणं । दुसहस्समणुठ्ठ भछंदवित्तप्पमाणओ भणिओ ॥१॥ णयरमहादारा इव उवक्कमदाराणुओगवरदारा ।
भक्खरबिंदुगमत्ता लिहिया दुक्खक्खयट्टाए ॥२॥ गाहा १६०४, अनुष्टुप ग्रन्था २०५, अणुओगदारं सुत्तं समत्तं ॥
पदार्थ-(से कि त णए ?) नय किसे कहते हैं और वह कितने प्रकार से वर्णन किया गया है ? (गए)जो एक अंश लेकर वस्तुके स्वरूप का वर्णन करे उसे नय कहते हैं, और वह ( सत्त मूलग्णया परगत्ता,) सात प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, अर्थात् मूल नय सात होते हैं (तं जहा) जैसे कि - (ने मे १) नगम नय १ (साद २) संग्रह नय २ ( ववहारे ३ ) व्यवहार नय ३ ( उजुसुए ४) ऋजुसूत्र नय ( स ) शब्द नय ५ ( समभिरूड़े ) समभिरूढ़ नय ६ और (एवंभूए) एवंभूत नय ।
अब नैगम नय का स्वरूप वर्णन किया जाता है, (णेगेहि माणेहि) जो अनेक मानों से (मिणइत्ति) वस्तु के स्वरूप को जानता है वा अनेक भावों से वस्तु का निर्णय करता है इस प्रकार से ( नेगमस्स य ) नैगभनय की (निरुत्ति .) निरुक्ति व्युत्पत्ति है.
*णीय प्रापणे धातु से नय शब्द की उत्पत्ति है इसलिये जो वस्तु के स्वरूप को प्राप्त करे उसे ही नय कहते हैं ।
नि उपसर्ग पूर्वक गम्तृ गतौ धातु से नैगम शब्द की सत्ति का पूर्व में पूर्ण विवेचन किया जा चुका है। जैसे कि-लोगे वसामि, इत्यादि, इसी को नैगम नय कहते हैं अथवा नैगम मय को यह भी निरुक्ति है कि न एकः नैकः । निपातनात सिद्धम् ॥
विस्तारपूर्वक वर्णन श्रावश्यकनियुक्तिटीका से जानना चाहिये ।
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम्
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तथा ( सापि ) शेष संप्रहादि ( नया ) नयों का ( लक्खणं) लक्षण (इमो ) इस प्रकार ( सुणह ) श्रवण कर ( वोच्छं ॥१॥ ) मैं तुम को सुनाऊंगा# ॥१॥
#नयों के मूल दो भेद हैं, जैसे कि द्रव्य नय और पर्याय नय । द्रव्य नय द्रव्य को और र्याय नय पर्याय को स्वीकार करते हैं । प्रथम के तीन नय द्रव्य नय कहलाते हैं और शेष पर्याय नय माने जाते हैं । संग्रह नय सामान्य प्रकार से स्वरूप को मानता है । लौकिक में भी घट, कुंभ, पट, इन से भिन्न २ काम लिये जाते हैं तथ कूप चलता है, ग्राम श्रा गया, पर्वत जलता है इत्यादि क्रियाओं के देखने से सामान्य स्वरूप का प्रभाव हो विशेष स्वरूप की प्रतीति होती है । इसलिये व्यवहार नय विशेष स्वरूपतया सब द्रव्यों में विद्यमान रहता है।
1
ऋजुसूत्र नय के मत में भूतकाल त्रिनाश हो चुका है और भविष्यत् श्रविद्यमान है, इसलिये यह वर्त्तमानकालवाडी है । ऋजु नाम है कुटिलता - सरलता का और सूत्र नाम है गून्थने का । श्रतएव जो ऋजुभाव से गून्थे वही ऋजुसूत्र नय है । भिन्नलिङ्ग भिन्नवचनैश्व शब्देरे कमपि वस्त्वभिधीयत इति प्रतिजानीते ऋजुसूत्रनयः । श्रौर इस नय के मत में लिंगभेद भी नहीं है । शप आक्रोशे धातु से शब्द बनता है जिसका अर्थ है बोलना । जो शब्द को मुख्य देखता है वही शब्द नय है । शब्दयते श्रभिधीयते वस्त्वनेनेति शब्दः - इस नय के मत में अर्थ गौणरूप होता है।
क्योंकि 'पुरंदर' शब्द का प्रथं धन्य है, और 'इन्द्र' शब्द का अर्थ धन्य है । एक में अर्थ वाले शब्द में अन्य अर्थं वाला शब्द यदि प्रविष्ट कर दिया जाय तो वह ऋतु हो जाती है । तात्पर्य यह है कि जैसे नाममात्र घट शब्द का उच्चारण करने से घट का ज्ञान हो जाता है और उसी प्रकार उस का अर्थ भी प्राप्त हो जाता है, लेकिन घट चेष्टायां धातु से जो घट शब्द की उत्पत्ति हुई हैं, वह जब ही सफल होगी जब घट स्त्री के शिर पर चेष्टा रूप दृष्टिगोचर होगा । इसलिये इस नय के मत में जल से परिपूर्ण घट और स्त्री के मस्तक पर रक्खा हुआ ही घट 'घट' माना जाता I
शाशपिभ्यां ददनौ उणादि । पा० ४ सू० ६७ ।
तमेव गणी भूतार्थमुख्यतया यो मन्यते स नयोऽप्युपचाराच्छन्दा । शौ तनूकरणे । शप् श्राक्रोशे ॥ श्राभ्यां ददनौ ।
शब्दो निनादः । शब्द वैरेति । पा० वैयाकरणः ॥
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शादः कर्दमशप्ययोः नडशाडाडु वलू च । पा० ४।२८८ | शाब्दलः । पकावस्य वकारः । ४।१।१७ | क्यङ् । शब्दायते शब्दं करोतीति शाब्दिको
बकम् ॥ १॥"
"सुयनाणे अ विउत्तं, केवले तयांतरं । श्रप्पणी य परेसिं च, जम्हा तं परिभावगं ॥ १ ॥ " "श्रुतज्ञानेच नियुक्त, केवलेशे तदनन्तरम् । आत्मनश्च परेषां च यस्मात्तत् परिभा
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३१०:
[ उत्तरार्धम् ]
( * संगहिय) सम्यग् प्रकार से जिसने ग्रहण किया है, ( पिंडिया ) पिंडितार्थ. अर्थात् जिस नय से सामान्य प्रकार से एक जाति रूप अर्थ ग्रहण किया है (संग्रह) संगृहीत - पिंडितर्थि वचन (समास) संक्षेप से (वित्ति) श्रीतीर्थंकरदेव संग्रह का वचन कहते हैं
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(विणिच्छत्थं) दूर हो गया है सामान्य रूप जिस का अर्थात् सामान्य का भाव जिस में (च ) वर्तता है, पृथक २ स्वरूप के विषय उपयोग जिसका अर्थात् पृथक २ वस्तु का स्वरूप माना जाता है जिस में उसी को व्यवहार नय कहते हैं और विशेष स्वरूप से ( ववहारो) व्यवहार से विशेष स्वरूप देखा जाता है ( |॥२॥ ) सर्व द्रव्यों ॥ २ ॥
( पप्पाही ) वर्तमान काल को ही ग्रहण करने वाला ( उज्जुसुग्री ) ऋजुसूत्र नय है, (गयविही) ऋजुसूत्र की नय विधि (पुणे) जानना चाहिये ।
यह ऋजुसूत्र नय (विसेसियतरं ) विशेषतर है और ( पच्च परणे) वर्तमान काल को (इच्छ) मानता है । ( गयो सहो ॥ ३ ॥ ) वह शब्द नय है ॥ ३ ॥
* यह पत्रादिक सूत्र है, "ग्रासज्ज उ सोयारं नए नयविसार श्री वृया " " M तु श्रोतारं नयान् नयविशारदो ब्रूयात् ।”
श्रपि प्रकम् - "पहनाएं तो दया प्रथमं ज्ञानं तो दया ।" ग्रागम में भी कहा है -- प्रथम ज्ञान पश्चात् दया |
“जं अन्नाणी कम्मं खबेई”, जैसे कि ज्ञानी कितने ही काल के कर्म को तय करता है । "पात्राको वियत्ती पत्ता तह य कुसलपक्खग्मि । विग्ग्यस्स य पडिवत्ती, तिन्निविना समाप्यति ॥ १ ॥” “पापाद्विनिवृत्ति: प्रवर्त्तना तथा च कुशलपक्षे ।। विनयस्य च प्रतिपत्तिः, त्रीण्यपि ज्ञानात् समाप्यन्ते ॥ १ ॥ "
" गीयत्थो य विहारी, बीग्रो गीयत्थमीसिश्रो भणिश्रो ! इतो तइयविहारो, नान्नायो जिनवरेहिं ॥ १ ॥” "गीतार्थश्च विहारो, द्वितीयो गोतार्थमिश्रितो भणितः । ताम्यां तृतीयो बिहारी, नानुज्ञातो जिनवरैः ॥ १ ॥
भाव
साधु दोनों मिलकर मोक्ष का साधन होते हैं, एकर मोक्ष के साधन नहीं होते, साधु वही है, जो दोनों के स्वरूप में स्थित है ।
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[ श्रोमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
-३११ ( वत्थूनो संकमणं हाइ ) वस्तु का इन्द्रादि में संक्रमण होता है, अर्थात् जिस नय के मत में शब्दानुकूल अर्थ होते हैं और जितने शब्द हो उतने ही अर्थ होते हैं, यदि इन्द्र शब्द को पुरन्दर कहा जाय तब जिस नय के मत में (अवत्थू) अवस्तु हो जाता है, ( नए समभिल्टे) उसे स निरूढ ना कहते हैं।
(वंजण ) शब्द ( अत्थ ) शब्द की अभिधेय वस्तु ( तदुभए , व्यंजन और अर्थ दोनों ही ( एवंभूयो ) चेष्टारूप को जो प्राप्त हो गया हो उसे एवम्भूत नय कहते हैं । ( विसेसेइ ॥ ४॥) यही इस नय का विशेष है ॥४॥
अब ज्ञान क्रिया दोनों ही युगपत् मोक्ष का कारण है, इस विषय में कहते हैं
(णायंमि ) सम्यक जानकर ही ( गिहिग्रव्ये ' ग्रहण करने वाले अर्थ में (चेय) और (अगिरिहग्रव्यं मि) अग्रहणीय ( *[ २ .'मि ) अर्थ में भी होता है सो इस लोक सम्बन्धी अर्थके विषय वा परलोक सम्बन्धी अर्थ के विषय (जइयत्वमेव) यत्न करना चाहिये ( इइ जो) इस प्रकार जो सद्व्यबहार के ज्ञान का कारण (उवएसो) उपदेश है, (सो नरो नाम ५॥) वह प्रस्ताव से ज्ञान नय कहा जाता है।
अब इसी विषय में कहते हैं
(सव्वेसिपि) सो सभो (नयाणं) नयों के (बहुविहां वक्तव्वयं) नाना प्रकार की वक्त. व्यताओं को (निसामित्ता) सुनकर (सव्वनर्यावसुद्ध) सत्र नयों में विशुद्ध (तं) वही है, (जं) जो (साह्र) साधु (चरण) चारित्र और ( गुणटियो ) ज्ञान के विषय स्थित है
* एव शब्द अवधारण अर्थ में ग्रहण किया है।
+नाम शब्द शिष्य के आमन्त्रण अर्थ में ग्रहण किया गया है। सारांश केवल इतना ही है कि ज्ञानद्वार। उपादेय, हेय, ज्ञेय परार्थों का बोध होता है, फिर तादृश यत्न किया जाता है, ऐसा जो उपदेश है उसी को ज्ञान नय कहते हैं । और क्रियावादी इस गाथा का अर्थ केवल क्रिया में ही करता है,जैसे कि--उपादेय पदार्थो को जान कर जो यत्न करता है वह गौण रूप है । इस प्रकार जो उपदेश करे वह क्रिया नय हो जाता है। तब कोई एक ही मोक्ष का कारण नहीं होता, लेकिन दोनों एकत्रित होकर मोक्ष का कारण हो जाते हैं । अपि शब्द समुच्चय अर्थ में है।
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३१२
[ उत्तरार्धम् । (से तं गए) यही नय का वणन है । और यहीं (अणु प्रोगादरा सम्मता ।) अनु. योगद्वार का वर्णन भी पूर्ण हो गया।
भावार्थ-जो एक अंश लेकर वस्तु का स्वरूप प्रतिपादन करे उसे नय कहते हैं । इस के सात भेद हैं, जैसे कि-नैगमनय १, संप्रहनय २, यवहारनय ३, ऋजुसूत्रनय ४, शब् इनय ५, समभिरूढ़नय ६, और एवम्भूतनय ७ । अब अनु. क्रम पूर्वक सातों नयों का वर्णन किया जाता है
जिस का नहीं है एक मान अर्थात् महाससा, उसे नैगम नय कहते हैं। तथा निगम शब्द से वसति का अर्थ प्राण करने से, जो पूर्व में "लोके घसामि" इत्यादि दृष्टान्त से नैगमनय का स्वरूप प्रतिपादन किया गया है, उसे भी नैगमनय कहते हैं, अथा निगम नाम है,अर्थ के ज्ञान का अनेक प्रकार से जो अर्थ के ज्ञान को माने वा बहुत से गमा होने से भी इसे नैगमनय कहते हैं, और इस नय के मत में से सामान्य और विशेष रूप वस्तु दोनों ही भिन्न २ हैं,क्यों कि सभी वस्तुओं में विद्यमान भाव एक है,इसलिये इसे द्रव्यनय कहते हैं । इसीलिये सात नयों में से प्रथम के चार नय द्रव्यनय कहलाते हैं, क्यों कि ये द्रव्य को ही प्रधानता से मानते हैं। और शेष तीन नय पर्यायाधित होने से पर्याय नय कहलाते हैं । तथा यह नय भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों काल के पदार्थों को ग्रहण करता है । इस मय के मत में तीनों काल की अस्ति है । जैसे किभूत काल, भविष्यत् काल और वर्तमान काल ।
जिस ने भली प्रकार एक जाति रूप अर्थ को ग्रहण किया है, उसी को संग्रह नय कहते हैं। कारण कि यह नय घस्तु का सामान्य ही मानता है, विशेष नहीं । इस का वचन संग्रह किये हुये का सामान्य अर्थ में ही होता है। इस लिये संग्रह कर पश्चात् सामान्य रूप से सब वस्तुओं को जो सिद्ध करता है उसे संग्रह नय कहते हैं । रूप वस्तु से भिन्न है किम्बा अभिन्न है? यदि प्रथम पक्ष प्रहण किया जाय तो सप सामान्य स्वरूप से भिन्न असद्रूप सिद्ध होगा।
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[ श्रीमदनुयागद्वारसूत्रम् ]
३१३
अतः अलद्रूप खपुष्पवत् होता है । यदि द्वितीय पक्ष अभेद रूप स्वीकृत किया जाय तब सामान्य स्वरूप ही सिद्ध हो गया, क्यों कि - विशेष सामान्य स्वरूप से पृथक नहीं है । इस लिये एक ही सिद्ध हुआ । इस प्रकार संग्रह नय के मत में केवल एक सामान्य स्वरूप ही माना जाता है ।
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सामान्य स्वरूप का अभाव सिद्ध करने वाला व्यवहार नय है, अर्थात् सर्वदा जिस का द्रव्यों में विशेष भाव हो । जैसे कि घटादि पदार्थ जलादि से भरे हुये अपनी २ क्रिया करते दिखाई देते हैं, लेकिन उस से अतिरिक्त सामा न्य नहीं होता । इस लिये सामान्य स्वरूप को लोक व्यवहार भी अंगीकार नहीं करता । सामान्य स्वरूप से लौकिक व्यवहार की प्रवृत्ति भी नहीं हो सकती । इस सर्व प्रकार से सामान्य स्वरूप सिद्ध नहीं होता है अतः लौकिक व्यवहार में प्रधान नय होने से मात्र हो सिद्ध रूप है और इसे व्यवहार नय कहते हैं । विशेष से सामान्य स्वरूप पृथकू मो नहीं हैं अथवा विशेषतया जिल का निश्चय किया जाता है उसे विनिश्वय कहते हैं ।
"सुयनाणे निउत्त, केवले तयांतरं ।
अपणो य परेसिं च, जम्हा तं परिभावगं ॥ २ ॥” श्रुतज्ञाने च नियुक्त, केवले तदनन्तरम् । श्रात्मनश्च परेषां च यस्मात्तत्परिभावकम् ॥ १॥
एक ही वस्तु भिन्न २ लिंग और भिन्न २ वचन से कही जाती है, मानों इस नय का मत ही निराला है । कोई लिंग वचन का भेद ही नहीं होता । इस में यह शंका भी उत्पन्न होती है कि
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सामान्य स्वरूप विशेष स्वरूप से भिन्न है या अभिन्न ?
यदि भिन्न माना जाय तब विशेष स्वरूप से सामान्य स्वरूप पृथक् दृष्टि गोचर होना चाहिये, लेकिन होता नहीं । इस लिये प्रथम पक्ष ग्राह्य हो जाता है ! यदि द्वितीय अभिन्न पक्ष स्वीकार किया जाय तब विशेष स्वरूप की सिद्धि हो गई, क्योंकि विशेष स्वरूप से सामान्य स्वरूप पृथकू नहीं है, इस लिये एक ही रूप हुए । अतः व्यवहार नय का यह मन्तव्य सिद्ध हो गया कि जो वस्तु व्यवहार से ग्राह्य है उसी भाव को विद्यमान माना जाता है। जो भाव विद्यमान अयो ग्य तो है लेकिन व्यवहार में उस का महण नहीं होता, वह उपकारक न होने से भाव व्यवहार में माननीय होने से प्रयोग्य है । जैसे परमाणुओं के समूहों से घट की उत्पत्ति है । घट का विचार कल्पनीय है, परन्तु परमाणुओं का विचार
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[ उत्तरार्धम्] अकल्पनीय है । क्यों कि उस में प्रमाण नहीं है और व्यवहार मुख्य होता है, जैसे घटादि पदार्थों में ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस, स्पर्श होते हैं । तथापि जिस वर्ण की अतीव मुख्यता होगी वहीं वर्ण व्यवहार में उपयोगी होता है । जैसे-नील घट, इत्यादि । यदि सामान्य स्वरूप ही माना जाय जैसे कि घट व्यवहार से अकल्लीय होगा तो प्रकृति असत् हो जायगी। इस लिये व्यवहार से जो सिद्ध हो जाता है वही लोक व्यवहार होने से सब गव्यों में विद्यमान है।
ऋजुसूत्र नय के मत में वर्तमान काल ही ग्रहणीय है । जो तत्काल उत्पन्न हुश्रा हो उसे प्रत्युत्पन्न अर्थात् वर्तमान कहते हैं । भूत और भविष्यत् , य दोनों काल वर्तमान ही सूचन करते हैं। और जो इस को ग्रहण करता है उसे प्रत्युत्पन्नग्राही कहते हैं । भूत और भविष्यत् वर्तमान काल में असद्रूर है, क्योंकि भूत काल हो चुका है और भविष्यत् उत्पन्न ही नहीं था। इस लिये ये दोनों असत् हैं । इस नय को केवल श्रुतज्ञान ही उपादेय है । अथवा जु याने सरलता अर्थात् जिल का सरल श्रुत ही उसे ऋजुन त कहते हैं । इस स सिद्ध हुआ कि जो वक्रता से रहित होकर वर्तमान काल को स्वीकार करे वही ऋजुसूत्र नय है इसमें विशेष इतना जानना चाहिये कि इस नय के मत में लिंग वचनादि अनेक भेद भिन्न रूप एक ही वस्तु मानी जाती है। इस से व्यतिरिक्त वस्तु अवस्तुरूप है । अतः भूत काल उत्पन्न वस्तु वर्तमान में अवस्तु है, वर्तमान काल में उस का विनाश है तथा भविष्यकाल की वस्तु वर्त: मान में अनुत्पन्न है, इस लिये वह भो अवस्तु हो है और परसम्बन्धी वस्तु स्वकार्य में साधक नहीं होने से अवस्तु है। अतः इस लिये वह भी आकाश. पुष्पवत् है । तथा जो वर्तमान काल में वस्तु है वही सद्रूप है । यद्य पलिंग भेद तो है, परन्तु यह अपने गुण को नहीं छोड़ती। इस नय के मत में नाम स्थापनादि द्रव्य इन्द्रादि वस्तु नहीं है क्यों कि भूतकाल का विनाश है और भविष्यत् काल अनुत्पन्न है, केवल वर्तमान काल में तण रूप है क्यों कि जो वस्तु शक्ति कर नहीं होती वह अथ क्रिया भी नहीं कर सकती अतः जो अर्थ क्रिया करने में अशक्त है वह अयस्तु रूप है । जो वत्त मान में क्रिया करे वही वस्तु होती है । यदि अंश रहित वस्तु मानी जाय तब युक्ति से असंगत सिद्ध होती है क्या कि एक स्वभाव रूप वस्तु का अनेक स्वभाव वाला हो जाना बिना देश प्रदेश के माने असिद्ध है । यदि ऐसे माना जाय कि वस्तु ह. अनेक स्वभाव रूप है सो वह अयुक्त है, परस्पर विरोध होने के कारण से। जैसे कि
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[ श्रीमवनुयोगद्वारसूत्रम् ]
३१५ एक स्वभाव अनेक स्वभाव को त्याग कर स्वयं स्थित है और अपने स्वभाव में सर्व पदार्थ विद्यमान हैं। जैसे कि-परमाणु नित्य होने पर भी समूह रूप होकर घटादि कार्य बन जाते हैं परन्तु घटादि के होने पर भी परमाणु स्वभाव में स्थित रहते हैं । इस लिये वर्तमानकालग्रोही ऋजुसून नय है।
शव आक्रोशे धातु से 'शब्द' शब्द की उत्पत्ति होती है जिसका अर्थ है कि जो उच्चारण किया जाय उसे शब्द कहते हैं । इस नय में शब्द प्रधान और अर्थ गौड़ रूप माना जाता है । इस लिये यह नय जुसूत्र नय से विशेषतर वर्तमानग्राही है । जैसे कि- ऋजुसूत्र के मत में लिंगभेद होने पर भी अभेद रूप शब्द माने जाते थे किन्तु इस नय के मन्तव्य में लिंगभेद के साथ ही अर्थ. भेद भी माना जाता है। जैसे कि--तट:---तटी--तटम्, गुरुः--गुरू--गुरुषः, पुरुषः--पुरुषौ--पुरुषाः इत्यादि । फिर इस नय में नाम स्थापना द्रव्यादि को भी वस्तु नहीं माना जाता क्योंकि वे कार्य करने में असमर्थ हैं । इस लिये भावप्रधान है। भाव से ही क र्यसिद्धि होती है । नाम, स्थापना, द्रव्य और श्रप्रमाण हैं । उनले कार्य की सिद्धि नहीं है सो प्रसंगवशातू इन दोनों नयों के मत से चार निक्षेगे का किंचित् स्वरूप यहां लिखा जाता है।
सब वस्तुएं नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव से युक्त हैं। ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जिस के चार निक्षेप न हो सके। नाम नय का मन्तव्य है कि--जो वस्तु है वह सर्व नाम रूप है। बिना नाम कोई भी वस्तु नहीं है और नाम विना वस्तु ग्रहण भी नहीं हो सकती इस लिये सर्व वस्तुएं नाम रूप है। जैसे कि--मृत्तिका से घट की उत्पत्ति है फिर वह घट मृत्तिका के ही नाम से बोला जाता है और नाम विना संशय हो जाता है इस लिये नाम रूप वस्तु का मानना ही ठीक है। स्थापना नय का मन्तव्य है कि सर्व वस्तु स्थापना रूप है । बिना आकार कोई भी वस्तु नहीं है। स्थापना में ना रूप वस्तु नहीं होती : जो वस्तु है श्राकार रू: है और आकार के विना नाम होना ही असंभव है। इस लिये सर्व वस्त स्थापना रूप है । द्रव्य नय का मन्तव्य है कि सर्व वस्तु द्रव्य रूप है । क्यों कि जैसे श्राकार बिना नाम नहीं हो सकता उसी प्रकार द्रव्य बिना स्थापना नहीं हो सकती । इस लिये स्थापना रूप वस्तु नहीं है किन्तु द्रव्य रूप वस्तु है। भाव नय का मन्तव्य है कि द्रव्य रूप वस्तु नहीं है, अपि तु भाव रूप वस्तु है क्यों कि सर्व प्रकार से विचार करने से अंतिम भाव की ही सिद्धि होती है किन्तु भूत भविष्यत् के भाव अप्रगट हैं इस लिये वर्तमान काल के हो भाव का ग्रहण करना चाहिये जो कि प्रगट हैं।
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३१६
[उत्तरार्धम्] इस प्रकार ऋजसूत्र और शब्द इन दोनों नयों का मन्तव्य है । इन नयों के मत में भाव निक्षेप ही माननीय है, अन्य नहीं । अन्य निक्षेप द्रव्य नयों को माननीय हैं, पर्यायार्थिक नय तो भाव पर आरूढ हैं । परन्तु शब्द नय ऋजुसूत्र से विशेषतर वर्तमान काल में आरूढ है। जैसे कि-लश लिंग वचन से भाषण करना शब्द नय को उपादेय है तथा इन्द्रः शकः पुरंदरः तथा घटः कुटः कंभः इत्यादि । सो शब्द नय के मतमै शब्द प्रधान और अर्थ गौण रूप होता है।
___समभिरूढ नय के मत में वस्तु स्वगुण में प्रवेश करतो है । यदि एक शब्द में अन्य शब्द एकत्व किया जाय तब वह अवस्तु रूप हो जाता है । जैसे किइन्द्र को शक कहना । यद्यपि ये दोनों पर्याय नाम हैं किन्तु अर्थभेद अवश्य है। यथा-इन्दतीति इन्द्रः, शक्नोतीति शक्रः, पुरं दारयतीति पुरंदरः इत्यादि । सो इस नय के मत में शब्द भिन्न होने से अर्थ मिन्न अवश्य होता है नहीं तो शब्द एक होने से प्रति प्रसंग दोष को प्राप्ति होगी। इस नय के मत से इन्द्र से शक शब्द उतना ही भिन्न है जितना कि घट से पट और अश्व से हस्ति, इस लिये भिन्न २ शब्द के भिन्न २ अर्थ इस नय को स्वीकार हैं । तात्पर्य यह हुआ कि एक वस्तु के अनेक नामाइस को सम्मत नहीं है क्यों कि समभिरूढ़ नय का अर्थ यही है कि नाम के भेद होने से वस्तु का भेद होता है । इस प्रकार समभिरूढ नय का विवरण होने पर एवंभूत नय के विषय में कहते हैं
एवंभूत के मत में व्यसन और अर्थ के युगपत् होने से वस्तु के स्वरूप को अंगीकार किया जाता है। जैसे कि-व्यञ्जन नाम है शब्द को सो शब्दसे जो वस्तु का प्रभिधेय अर्थ है उसको प्रगट किया जाय, उसे ही एवंभूतनय कहते हैं। पथा घट चेष्टायां धातु से घट शब्द की उत्पत्ति है। सो जब घट पूर्ण जल से भरा हुआ स्त्री के मस्तक पर होता है तभी उसको घट कहा जाता है, अन्यत्र नहीं। इस लिये वस्तु का जिस समय पूर्ण गुण उस वस्तुमे प्राप्त हो उसी समय एवंभूत नय के मत से उसकी वस्तु माना जाता है।
___ यहां यदि ऐसे कहा जाय कि-मत और भविष्यत् काल की चेष्टा को अंगीकार करके समुश्च य रूप में उसे घट क्यों नहीं माना जाता ? इसका उत्तर यह है कि-भूतकाल की चेष्टा विनाशरूप है और भविष्यत् काल की चेष्टा अनुत्पन्न है। इस लिये ये दोनों चेष्टाएं शश-गवत् होने से अमाननीय हैं। क्यों कि-यदि इस अपेक्षा से ही घट मानना है तब मृपिंड को भी घट संवा प्राप्त हो जायगी तथा प्रसंगवशात् अन्य पदार्थ भी घट संबक होंगे इसलिये
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[श्रीमपनुयोगद्वारसूत्रम् ] सिद्ध हुआ कि सम्पूर्ण भाव ही एवंभूत नय को उपादेय हैं क्योंकि एवं नाम है चेष्टादि का और भूत नाम है प्राप्त होने का । तब दोनों के मिलने से एवंभूत शब्द की सिद्धि हो गई है। इस प्रकार एवंभूत नय का मन्तव्य दिखलाया गया। सो सात ही नए साधारण रूप में एकान्त पक्षी होने से दुर्नय कहे जाते है।
और अनेकान्त रूप होने से सुनय होते हैं। फिर सुनयों के मिलने से स्यावाद (जैन) मत बन जाता है अर्थात् सुनयों के समूह का नाम स्याद्वाद (जैन) मत है सो प्रसंगवशात् दुर्नय, नय, और प्रमाण का किंचित विवरण दिखलाते हैं___सदेव सत्स्यात्सदिति त्रिधार्थो, मीयेत दुर्णीतिनयप्रमाणैः ।
यथार्थदर्शी तु नयप्रमाणपथेन दुर्णीतिपथं त्वमास्त्व १॥"
अर्थात्-पदार्थों का निर्णय तीन प्रकार से होता है-दुनय, नय और प्रमोण से । सत् यह नपुन्सक लिंगीय शन्द दुर्नय का बाधक है और सत् शम ही सुनय का बोधक है । स्यात् सत् यह शब्द प्रमाण का वाचक है । एकान्त वस्तु का मानना दुर्नय है और अस्ति शब्द के साथ वस्तु स्वरूप का कथन करना सुनय का लक्षण है । स्यात् सत् शब्द से वस्तु का स्वरूप कथन करना प्रमाण का लक्षण है । जैसे कि-स्यात् अस्ति घटः, इत्यादि। क्योंकि इस प्रकार से किसी भी वस्त के साथ विरोध भाव नहीं होता। इसी प्रकार सत्व स्वरूप असरव स्वरू; नित्य स्वरूप, अनित्य स्वरूप; उपक्त, अव्यक्त,व्यक्ताव्यक स्वरूप; सामान्य स्वरूप, विशेष स्वरूप इत्यादि अनेक धर्म दुर्नय, नय और प्रमाण से वर्णन किये जाते हैं । स्तुतिकार कहते हैं कि हे जिनेन्द्र ! दुर्नयों के निरा. करण में प्रापई समर्थ हैं; अन्य कोई भी वादी दुर्नयों का मार्ग निराकरण नहीं कर सकते और हे प्रभो! नय और प्रमाण से आपने ही दुर्नयों के मार्ग को सुमार्ग बना दिया है । इस लिये हे नाथ ! आप यथार्थदर्शी हैं, अन्य कोई भी वादी आप के समान शानयुक नहीं है। और जो नय को प्रमाण तुल्य वर्णन किया है वह अनुयोगद्वार की व्याख्या की सिद्धिके लिये ही है। क्योंकि अनुयोगद्वार के चार मुख्य द्वार हैं । जैसे कि - उपक्रम १, निक्षेप २, अनुगम ३ और नय ४।
अथ दुर्नयों के बोध के वास्ते प्रथम नय का विवरण किया जाता है
जो अनन्त धर्मात्मक वस्तु को एक अंश से वर्णन करे उसे ही नय कहते हैं। इस प्रकार अनन्त नय सिद्ध होते हैं । इस में वृद्धवाक्य की प्रमाणता
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३१०
[ उत्तरार्धम् । है । जैसे कि-"जावइया वयणपहो तावइया चेव हुँति नयवाया" यावन्मात्र वचन के मार्ग हैं तावन्मात्र ही नय वाक्य है तथापि मूल सूत्र में मूल सात ही नय वर्णन किये गये हैं। जैसे कि-नैगम १, संग्रह २, व्यवहार ३, ऋजुसूत्र ४, शब्द ६, समभिरूढ ६ और एवंभूत ७ । इन के मुख्य दो द्वार हैं । जैसे कि-- अर्थ द्वार और शब्द द्वार । प्रथम चार अर्थ नय है, तीन पिछले शब्द नय हैं।
और दुर्नय उसे कहते हैं जो एकान्त वाद को मानते हो और अनेकान्त वाद का निषेध करें । जैसे कि-गम नय से नैयायिक और वैशेषिक दर्शन उत्पन्न हुये हैं संग्रह नय से अद्वैतवाद, सांख्य और मांसक दर्शन मी उत्पन्न हुए हैं, व्यवहार नय से चार्वाकमत प्रचलित हुआ है, ऋजुसूत्र के आश्रित बौद्ध दर्शन हैं । शब्दादि तीन नयों के आश्रित चैयाकरणादि हैं।
नय और सुनय का विवरण पंधों में इस प्रकार से भी किया गया है। जैसे कि--नेगम, संग्रह और व्यवहार, इनके अनेक भेद किये गये हैं। यथा धर्म धर्मी से प्रधान भाव ले भाषण करना । उले नैगम नय कहते हैं । जैसे कि श्रात्मा में चेतन गुण है सो श्रात्मा मुख्य है, चेतन उसका गुण है । जब दोनों धर्मो का प्रधान भाव सिद्ध हुआ तब उसको द्रव्य और पर्याय स्वतः सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार नेगम नय का सिद्धान्त है जब दोनों को एकान्त भाव से कथन किये जाये तब नैगमाभास हो जाता है जैसे कि--प्रात्मा और चेतन मिन्न २ पदार्थ हैं। इसी को नैगम दुर्नय कहते हैं।
जो सामान्य मात्र से पदार्थों का वर्णन करे उसे संग्रह नय कहते हैं जिस के मुख्य दो भेद है जैसे कि - पर संग्रह और अपरसंग्रह । सामान्य प्रकार से सर्व वस्तु को एक रू' मानना, परसंग्रह होता है फिर उसी को एकान्त रूप मानना उसे परसंग्रहाभास कहते हैं तथा द्रव्यत्व,गुणत्व, कर्मत्व श्रादि को अवान्तर सामान्य प्रकार से मानना-उसका विशेष कुछ भी कथन करना उसे अपरसंग्रह कहते हैं। जब धर्म, अधर्म, श्राकाश, काल और पुद्गल द्रव्य को एकान्त से एक रूप माना जाय तब वह अपरसंग्रहाभास हो जाता है।
__ संग्रह नय के कथन को निर्मूल करता हुश्रा द्रव्य और पर्याय को ठीक २ मानने वाला व्यवहार नय होता है जो द्रव्य और पर्याय का एकान्त रूप से भेद मानता हो उसे व्यवहार नयाभाल कहते हैं । इस नय के आश्रित चार्वाक दर्शन है।
इस प्रकार व्यवहार नय और पवहार दुर्नय का विवरण किया गया है।
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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् |
३१६ द्रव्य नय के पश्चात् चार पर्याय नयों का यह भन्तव्य है कि ऋजुसूत्र नय वर्तमान काल को सुख को सुख दुःख को दुःख स्वीकार करता है और अन्य द्रव्य के उत्थप करने से ऋजुसूधाभास हो जाता है । इस नय के मानने वाला बौद्ध दर्शन है जो कि एकान्त वर्तमान काल की पर्याय में आरूढ है कालादि के भेद होने से शब्द के अर्थ का भेद होता है उसे ही शब्द नय कहते हैं किन्तु उस अर्थभेद को एकान्त भिन्न रूप मानने से शब्द नयाभास हो जाता है। पर्याय के अनुकूल अर्थ का मानना समभिरूढ नय का मन्तव्य है । जैसे कि--इन्दनात् इन्द्रः, शकनात् शक्रः, पुर्दारणात् पुरंदरः इत्यादि। यदि इन्हीं शब्दों को एकान्त रूप से भिन्न २ पदाथ माने जाये तब समभिरूढ नयाभास हो जाता है । शब्द के अनुकूल क्रिया का होना एवंभूत नयाभीष्ट है जैसे कि--इदका स्वरूप अनुभव करने से इन्द्र कहा जाता है, शकनयुक्त होने से शक है, (दत्यों के ) पुर (नमर) विदारण से पुरंदर है इत्यादि । यदि क्रिया रहित वस्तु को उस २.०६ से न उच्चारण करना चाहिये ऐसा एकान्त निषेध करे तब एवंभूत नयामास होता है । जैसे कि--विशिष्ट चेष्टा शून्य घट रूप वस्तु को घट न कहना।
इन सात नयों में प्रथम चार अर्थ नय कहे जाते हैं पिछले तीन नए शब्द रूप से माने जाते हैं और सातों नयों का उत्तरोत्तर विषय अल्प है जैसे कि-- नैगम नय से संग्रह नय का विषय अल्प है और संग्रह नय से व्यवहार नय का विषय स्तोक है । इसी प्रकार लमभिरूढ नय से पबभूत नय का विषय स्वल्प है इसका कारण पीछे कहा जा चुका है इसी लिये उसी अपेक्षा से जानना चाहिये और इन्ही नय वाक्यों से सप्तभंगी की सिद्धि होती है अतः सप्तभंगी का स्वरूप अन्य जैन न्याय ग्रन्थों से जानना चाहिये ।
_तृतीय द्वार प्रमाण का है । सो प्रमाण के मुख्य दो भेद है-प्रत्यक्ष और परोक्ष फिर सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और निश्चयिक प्रत्यक्ष, इस प्रकार प्रत्यक्ष के दो भेद कहे गये है फिर इन्द्रिय प्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष, इस प्रकार सांव्यवहारिक के दो भेद होते हैं किन्तु इनके भी अग्रह, ईहा, अवाय अंर धारणा, इस प्रकार चार भेद बन जाते हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण क्षयोपशमिक और क्षायिक भाव से होता है। अवधिज्ञान और मन:पर्यायवान वायोपशमिक भाव से उत्पन्न है। केवल शान नायिक भाव
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३२०
[ उत्तरार्धम् ] से ही होता है । परोक्ष ज्ञान के पांच भेद हैं । जैसे कि-स्मृति , प्रत्यभिज्ञान २, ऊह ३, अनुमान ४ ओर आगम !, पूर्व संस्कारोत्पन्न स्मृति ज्ञान है। स्मृति और अनुभव से उत्पन्न प्रत्यभिज्ञान होता है। जैसे कि यह वहो देवदत्त है जिसको मैंने पूर्व में अमुक स्थान पर देखा था। त्रिकाल के साध्य और साधन ज्ञान से ऊह शान होता है तथा इस का द्वितीय नाम तर्क ज्ञान भी है । अनुमान के दो भेद हैं स्वार्थानुमान और परार्थानुमान। स्वार्थानुमान अन्यथानुम्पत्ति लक्षण हेतु प्रह संबन्ध स्मरणहेतुक साध्य ज्ञान होता है, परार्थानुमान पक्ष हेतु दृष्टान्त उपनय और निगमन कर पांच अवयत्री होता है। श्री अहत् देव के वचन से उत्पन्न हुए ज्ञान को आगमानुमान कहते हैं तथा उपवार स सर्वज्ञ के वचन को हो आगमानुमान कहते हैं। इस प्रकार नप प्रमाण पूर्वक प्रमाण वचन होता है,अन्य. था वह दुर्नप है। इस घास। एकान्तवाद मिथ मारूर है, अनेकान्तवाद लम्यम् दर्शन है । श्रीजिनेन्द्र देव के स्थाद्वादरूप दर्शन में सर्व नय भुक्ताहारवत् सुन्दरता को प्राप्त है और इनका परसर स्याद्वार दशन में विरोध मिट जाता है जैसे कि मध्यस्थ के सन्मुख वादी प्रतिवादी शान्त हो जाते हैं । इसो प्रकार श्रोजिनेन्द्र देव के ' स्यात्' इस पवित्र वचन से सर्व नय विवाद रहित होकर मैत्री भाव से परस्पर निवास करते हैं ! ___ यहां यदि यह शंका की जाय कि जब सर्व दर्शन स्याद्वाद दर्शन में विद्यमान हैं तब स्थाद्वाद दर्शन अन्य दर्शनों में क्यों नहीं माना जाता ? तो इसका उत्तर यह है कि समुद्र तो सर्वनदीमय है किन्तु पृथक् २ नदियों में समुद्र प्राप्त नहीं होता। इसी प्रकार स्याद्वाद दर्शनके विषय में भी जानना चाहिये क्यों कि एक वस्तु का स्यावाद मत के अनुसार मानने से जीव सम्बग दृष्टि होता है
और एकान्त एक २ नय के मानने से जीव मिथ्याइष्टि हो जाता है। इन नयों के कथन करने का मुख्य प्रयोजन इतना ही है कि सामायिकाध्ययन जब उपक्रम नि. क्षेप अनगमादि के द्वारा वर्णन किये गये हों तो फिर उनको नयों द्वारा वर्णनकरना चाहिये-एक सूत्रमात्र को तथा सर्व अध्ययन को भी नयों द्वारा वर्णन करना चाहिये । एक सूत्र, जैसे "रागे आया" इत्यादि सूत्र की भी नयों द्वारा व्याख्या करनी चाहिये और सर्व अध्ययन की भी नयों द्वारा व्याख्या करनी चाहिये ।
यद्यपि नयोंके अनेक भेद हैं । जैसे कि यावन्मात्र वचन मार्म हैं नावन्मात्र नय हैं तथा सात नेगपादि मूल नय हैं वा द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक वा शान नय, क्रिया
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३२१
[ श्रीमानुयोगद्वारसूत्रम् ] नया निश्चय नय, व्यवरार नय; शब्द नय, अर्थ नय त्यादि नयोंके अनेक भेद है। तथापि सर्व अध्ययन का विचार शान नय और क्रिया से करना चाहिये क्योंकि ये मोक्ष के कारण हैं। इसी लिये हम यहां अब शान और क्रिया के विषय में कुछ कहते हैं । क्योंकि इस समय इन दोनों की ही उपयोगिता है, अन्य नयों का प्रस्ताव नहीं है।
पदार्थों के स्वरूप को जो “ उपादेय" हो उसे प्रहण करना चाहिये, जो "हेय रूप हो उन्हें हांग करना चाहिये और जो "शेय" रूप (जानने योग्य) हो उन्हें मध्यस्थ भाव से देखना चाहिये । इस लोक सम्रन्धी पुस्खादि सामग्री ग्रहण योग्य है, विषादि पनार्थ त्यागने योग्य है और तृणादि पदार्थ उपेक्षणीय हैं । यदि परलोक सम्बन्धी विचार किया जाय तब सम्यग दर्श नादि ग्रहण करने योग्य है, मिथ्यात्वानि क्रिया त्यागने योग्य हैं और स्वर्गीय सुख उपेक्षणीय हैं । इस प्रकार तीनों प्रकारके अर्थों में यत्न करना चाहिये। क्योंकि ज्ञान नय का मन्तव्य है कि-हे मार्यो ! जान बिना किसी भी कार्य की सिद्धि नहीं होती । हानी पुरुष ही मोत के फल को अनुभव कर सकते हैं। अन्ध पुरुष अन्ध के पश्चात् गमन करने से वांछित अर्थ को प्राप्त नहीं कर सकता । जैसे बीज बिना अंकुरोत्पत्ति नहीं है इसी प्रकार ज्ञान बिना पुरुगर्य की सिद्धि नहीं है फिर शान से सववत, देशवन, क्षायिक सम्यक्त मादि अमूल्य पदार्थों की प्राप्ति हो मकनी है अत एव सर्व का मूल कारण हान ही है । क्रिया नय का मन्तव्य है कि सर्व का मुख्य कारण क्रिया हो है जैसे कि-तीनों प्रकार के अर्थों का जान कर उन में फिर यत्न करना हमी कथन मे क्रिया को पिद्धि की गई है। शान तो क्रिया को उपकरण है इसलिये क्रिया मुख्य और ज्ञान गौण रूप है । इस प्रकार किया नय का उपदेश है कि क्रिया ही मुख्य है जैसे कि क्रिया से रहित ज्ञान खर के समान चन्दन के मारवत् है नथा ज्ञान से जीव सुख नहीं पाते तथा ज्ञान से पुत्रोत्पत्ति नहीं हो सकती, नोर्थकर देव भी अन्तिम समय पर्यन्त क्रिया के हो प्राश्रित रहते हैं। बीज को भी बाहिर की सामग्री की अत्यन्त प्रावश्यकता है तबही अंकुरोत्पनि होती है। इसलिये सब का मुख्य कारण क्रिया हो है । इस प्र. कार किया नय का मन्तव्य है किन्तु एकान्न पक्ष में मोक्ष प्राप्ति का प्रभाव है ।
इसलिये अब मान्य पक्ष के विषय में कहते हैं कि सर्व नयों के नाना प्रकार के वक्तव्य को सुनकर सम्यव सामायिक पौर श्रत सामायिक को शान प्रधान नय मानते हैं, अन्य दोनों के मत में गौण रूप हैं. इस प्रकार नयों के परस्पर विरोध जनक भाव को सुनकर जो पाधु शान और क्रिया में स्थित है वही मोक्ष का साधक होता है। कारण कि एकान्त पन मिथ्या रूप है । इस लिये शान और क्रिया युगपत् मोत के साधक हैं क्योंकि केवल शान से और केवल क्रिया से कार्यसिद्धि नहीं होती। जैसे कि अन्नादि के ज्ञान से भी बिना क्रिया किये उदरपोषणादि नहीं हो सकते । इस वास्ते श्रीतीर्थ कर केवलहान और यथाख्यात चरित्रयुक्त होते हैं। फिर केवल क्रिया से भी कार्य सिद्धि नहीं होती तथा
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३१३
[उत्तरार्धम्] जब क्रिया हो जाती है तब उस का ज्ञान प्रथम ही होता है इसलिए किया झानपूर्वक होना सिद्ध हुओ। इसलिवे सिद्ध शकि-मान और क्रिया दोनों के समकालीन होने पर ही मोक्ष के फल की प्राटिनोती है। जैसे कि-क्रिश से रहित ज्ञान निष्फल हो जाता है, क्रिया ज्ञान से रहित होने से शून्य हो जाती है, तो वोचित सिद्धि नहीं हो सकती जैसे कि-पंगुला और बंध भागते एए सुमार्ग को नहीं प्राप्त होते तया वृक्ष के फल को नहीं ले सकतम जैसे एक चक्र से शकट नगर को प्राप्त नहीं हो सकता हलो प्रकार अमेले सार और अकेले किया से सिद्धि नहीं, अपि तु दोनों से सिद्धि होती है। . यहां यदि ऐसी शका को जाय कि जब में पृथक २ भाव मुक्तिसाधन को शक्ति नहीं है तो युगपत् में वह शक्ति कहाँ से डरसन होमी १हर का र है कि ज्ञान और कि पृथक् २ मात्र में देम उरकारी होने हैं, दुगाव मिलने से सर्व उपकारी बन जाते हैं। जैसे एक सर्पर तैन की प्रामा पल नहीं कर सकता और यदि सर्पयों का समूह हो जाय तो तेग की गाथा पूर्ण हो. जाती है। इसी प्रकार ज्ञान और क्रिया दो में से मोक्ष की प्रालि हो जाती है, एक २ से नहीं । इस प्रकार मानने और ग्रहण करने से भारसाधु होता है।
. इस तरह नय द्वार की समाहित होते हुए चतुर्थ अनुयोगदार को भी समाप्ति होती है। चतुर्थ अनुयोगद्वार के पूर्ण होने से श्रीमनुशागद्वारसूत्र को भी पूर्ति होती है क्यों कि.अनुयोगद्वार सूत्र के चार भुवन द्वार हैं तो चारों की पूर्ति होने से अनुमोगद्वार सूत्र की पूर्ति हो गई।
कतिपय प्रतियों में अनुयोगद्वार सूत्र की पूर्ति के पश्चात् निम्न लिखित दो गाथाएं भी लिखी हुई मिलती हैं
"सोलसयाणि चउरुत्तराणि होति उदमंमि गाहाणं । दुसहस्समदमछंदवित्तपमाणमो. भणियो। १॥ णयरमहादरा इव उवकमदराणुप्रोगबरदारा । अस्वरबिंदुगमता लिहिया दुक्सानहाए ॥२॥
इन गाथाओं का सारांश इतना ही है कि श्रीमरमुरोगद्वार सू की, १६०१ गाथाएं हैं और २.८५ अनुष्ट छन्द हैं ॥१॥ जैसे महानगर के मुश मुखर चार द्वार होते हैं उसी प्रकार श्रीमनु गेगद्वार सूत्र. के. उरकमारिकार द्वार हैं और इस सूत्र का अनर, बिंदु और मात्रायें जो लिखी गई है वे सर्व दुखों के क्षय करने के वास्ते ही हैं।
. यद्यपि ये गाथायें मूल स्त्र में नहीं हैं, वृत्तिकारों ने इन की वृति-भोः नहीं लिखी है तथापि इन का सारांश अब्छा हाने से तथाकतिपय प्रतियो में ये गाथायें लिखी हुई हैं इसलिये मैं ने भी यहां परमिककी है।
यदि प्रमाद वश अज्ञान भाव से सूत्र से किंचित मात्र भी मेरे से पिर लिखा गया हो तो मैं "मिच्छामि दुकार" प्रहण करता।
इति श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रस्य दिलीपराध मालामा
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“श्रीजैनागम प्रकाशक मण्डल” जौहरी बाजार श्रागरा ।
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संसार में आज कल प्रायः सभी सम्प्रदायों का साहित्य बड़ी उत्तमता, सुन्दरता और विशालता के साथ प्रकाशित होकर जनता में अपना-अपना प्रचार कर रहा है। धर्म-प्रचार के सब साधनों में से आजकल सिर्फ उच्च कोटि का साहित्य प्रकाशित करना ही सर्व श्रेष्ठ साधन गिना जाता है। ज्ञातव्य-ज्ञातव्य बातों से भरा हुआ, सर्वाङ्गपूर्ण, एक से एक नयनाभिराम और बहुज्ञों द्वारा सम्पादित करा कर आजकल जैसा विशाल साहित्य अन्य समाज की सुदृढ़ संस्थाएं कर रही हैं, • उसे देख कर हमें चकित रह जाना पड़ता है ।
जैन समाज में ऐसी संस्थाओं का सर्वथा अभाव देखकर हमें बड़ा खेद खिन्न और लज्जित होना पड़ता है और धर्मप्रचार के कामों में अन्य समाजों के सामने हमें अपनी कमी अनुभव में आती है। इसी बात को महसूस करके हम ने उक्त नाम की संस्था की नींव डाली है। तदनुसार उस को देख रेख से निम्न लिखित छोटे, पर अच्छे पुराने ढंग के, पर नये रूपसे तीन ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं
१ - " उवएस - रयण-माला”
२- "जीव-विचार"
३ – “समस्या पूर्ति - सुमनमाला”
उक्त तीनों प्रन्थ सुन्दर कागज पर काफा संशोधन पूर्वक नये टाईपों में छापे गए हैं । पहिला संस्करण प्रायः समाप्त होने को आया। प्रत्येक जैन साहित्य को. प्रकाशित कराने वाले अनुरागी बन्धुओं से निवेदन है कि आप जो भी ग्रन्थ प्रकाशित करावें वह इस मण्डल की देख रेख के नोचे प्रकाशित करावें । अब तक इस मण्डल की देख रेख में दो तीन यह साधारण ग्रन्थ ही प्रकाशित हो सके थे । परन्तु अब इस मण्डल ने जैन सूत्रों को प्रकाशित कराने का काम अपने हाथ में लेकर सब से प्रथम उपाध्यायजी श्री आत्मारामजी महाराज का अनुवाद किया "श्रीदशवैकालिकसूत्र” को प्रकाशित कराने का काम अपने हाथ में लिया
आधे से अधिक छप चुका है। यह सूत्र किस रंग ढंग से प्रकाशित हो रहा उस का थोड़ा सा ज्ञान तो पाठकों को नीचे के विज्ञान से हो जायेगा और पूरा परिचय जब पाठकों के हाथ में पहुँचेगा तब मिलेगा ।
निवेदक:पद्मसिंह जैन
व्यवस्थापक- "श्री जैनागमप्रकाशक मण्डल". जौहरी बाजार, आग ।
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छ। रहा !! छप रहा है! !!. क्या? क्या ? क्या? जैनमुनि उपाध्याय श्रीआत्मारामजो महाराज द्वारा अनुवाद किया हुआ "श्रीदशवकालिकसूत्रम्" (मूलपाठ, संस्कृतछाया, शब्दार्थ, भावार्थ, सरल-हिन्दी-विशेषार्थ, पाइटिप्पणि आदि आदि सहित) हैदराबादनिवासी राजाबहादुर श्रीमान् लाला सुखदेवसहाय जी के सुपुत्र श्रीमान् लाला ज्वालाप्रसादजी को सहायता से / ग्रन्थ बहुत बड़ा होगा, बड़े बड़े करीब हजार-पाउसौ पृष्ठ होंगे। जिस समय यह सूत्र अपनी विशेषता प्रों से सुसज्जित होकर जनता के हाथों में अलंकृत। होगा, उस समय इस की सभी महत्वपर्ण और निराली बातों से जनता को चकित हो जाना पड़ेगा। पत्र व्यवहार का पता पद्मसिंह जैन, अध्यक्ष-"श्रामज्जैनशास्त्रोद्धार प्रिंटिंग प्रेस” जौहरी बाजार-आगरा। Se9865-669 जैन सागरा में हर प्रकार की छपाई रंगीन तथा सादी, हिन्दी, उर्द, अंग्रेजी में शुद्धता पूर्वक होतो ना है, और काम समय पर छाप कर दिया जाता है, एक बार अवश्य परीक्षा कीजिये। क्या आपनेहिन्दी “जैन-पथ प्रदर्शक.” साप्ताहिक पत्रे को जो आगरे से प्रः बुधवार को प्रकाशित Sering Jin.Shasan नहीं देखा हो तो आज ही M4) रु० का मनिआर्डर लिखाइये पत्रके ग्राहकों 3 को हर वर्ष कई ग्रन्थ में 094851 gyanmandir@kobatirth.org वह वहार का पर पद्मसिंह जैन, प्रोपाईटर - जैन-पथ-प्रदर्शक व जैन प्रेस, जौहरी बाजार-आगरा।। वाब ज For Private and Personal Use Only