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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०९ [उत्तरार्धम् ] महाविमाणे देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! अजहरणमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं, से तं सुहमे अद्धापलिओवमे से तं अद्धापलिओवमे। सू०१४२ पदार्थ-(वेनाणिया णं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ते ?) हे भगवन् ! वैमानिक देवों की स्थिति किसने काल की प्रतिपादन की गई है ? (गोयमा ! जहणणेणं पलिश्रोवम कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमा,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति एक पल्योपम की और उत्कृष्ट ३३ सागरोपम की होती है, (वेमाणिया णं भंते ! देवी केवडयं कालं ठिई पएणता ?) हे भगवन् !वैमानिक देवियों की स्थिति कितने कालकी प्रतिपादन की गई है ? (गोयमा ! जण्हणेणं पलिग्रोवमं उक्कोसेणं पणपण्ण पनि ग्रोवमाई,) हे गौतम जघन्य स्थिति एक पल्योपम की और उत्कृष्ट ५५ पल्योपम की होती है । * अब अनुक्रम से कल्प और कल्पातीत देवों की स्थिति का वर्णन किया जाता है । जैसे कि (सोहम्मे णं भंते ! कप्पे देवाणं के०?) हे भगवन् ! सौधर्म देव लोकके देवों की स्थिति कितने काल की प्रतिपादन की गई है ? (गोयमा ! जगणेणं पलिग्रोवम) हे गौतम ! जघन्य स्थिति एक पल्योपमको और (उक्कोसेणं दो सागगेवमाई.) उत्कृष्ट दो सागरोपम की होती है, (सोहम्मेणं भंते ! क-पे परिग्गहियादेवीणं जाव) हे भगवन ! सं धर्म देव लोकके परिगृहीत देवियोंकी स्थिति कितने काल की प्रतिपादन को गई है ? (गोपा! महगां पन्निोरम उकासेणं सत्त पलिग्रोवमाई,) हे गौतम ! जघन्य स्थिति एक पल्पोपम की और उत्कृष्ट सात पल्योपम की होती है, (सोहम्मेणं कप्पे अाराहिय देवीणं भंते ! कंवइयं ?) हे भगवन ! सौ. धर्म कल्प के अपरिगृहोत देवियों की स्थिति कितने काल की प्रति पादन को गई है ? (गोयमा ! जहएणणं पलि ग्रोवमं उकोमेणं पण्णासं पलिश्रोत्रमं.) हे गौतम !जघन्य स्थिति एक पल्योपम की और उत्कृष्ट ५० पल्योपम की होती है (ईसाणेणं भंते ! कप्पे देवाणं पुच्छा,) हे भगवन् ईशान कल्प के देवों की स्थिति कितने काल की प्रति पादन की गई है ? (गोयमा ! जहरणेणं साइरेगं पलिग्रोवम) हेगौतम ! जघन्य स्थिति एक एक पल्योपमसे कुछ अधिक और (उकोसेणं साइरेगाई दो सागगेवमाई,) उत्कृष्ट दो सागरोपम से कुछ अधिक होती है, (ईसाणेण भंते ! कप्पे परिगहियादेवीण जाव ) हे भगवन् ! ईशान कल्पके परिगृहीत देवियोंकी स्थिति कितने कालकी होती है ? (गोयमा ! उहणणेण साइरेरा पलिशोवर्म) हेगौतम ! जन्घयसे एक पल्योपमसे कुछ अधिक और (उकोसेण नव पलिग्रोवम,) लत्कृष्ट नव पल्योपमकी होती है, (अपरिग्गहिया देवीण भंते ! के० ?) हे भगवन् ! ईशान * इन दोनों को प्रोधिक सूत्र कहते हैं । For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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