SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१२ [ उत्तरार्धम् । (से तं गए) यही नय का वणन है । और यहीं (अणु प्रोगादरा सम्मता ।) अनु. योगद्वार का वर्णन भी पूर्ण हो गया। भावार्थ-जो एक अंश लेकर वस्तु का स्वरूप प्रतिपादन करे उसे नय कहते हैं । इस के सात भेद हैं, जैसे कि-नैगमनय १, संप्रहनय २, यवहारनय ३, ऋजुसूत्रनय ४, शब् इनय ५, समभिरूढ़नय ६, और एवम्भूतनय ७ । अब अनु. क्रम पूर्वक सातों नयों का वर्णन किया जाता है जिस का नहीं है एक मान अर्थात् महाससा, उसे नैगम नय कहते हैं। तथा निगम शब्द से वसति का अर्थ प्राण करने से, जो पूर्व में "लोके घसामि" इत्यादि दृष्टान्त से नैगमनय का स्वरूप प्रतिपादन किया गया है, उसे भी नैगमनय कहते हैं, अथा निगम नाम है,अर्थ के ज्ञान का अनेक प्रकार से जो अर्थ के ज्ञान को माने वा बहुत से गमा होने से भी इसे नैगमनय कहते हैं, और इस नय के मत में से सामान्य और विशेष रूप वस्तु दोनों ही भिन्न २ हैं,क्यों कि सभी वस्तुओं में विद्यमान भाव एक है,इसलिये इसे द्रव्यनय कहते हैं । इसीलिये सात नयों में से प्रथम के चार नय द्रव्यनय कहलाते हैं, क्यों कि ये द्रव्य को ही प्रधानता से मानते हैं। और शेष तीन नय पर्यायाधित होने से पर्याय नय कहलाते हैं । तथा यह नय भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों काल के पदार्थों को ग्रहण करता है । इस मय के मत में तीनों काल की अस्ति है । जैसे किभूत काल, भविष्यत् काल और वर्तमान काल । जिस ने भली प्रकार एक जाति रूप अर्थ को ग्रहण किया है, उसी को संग्रह नय कहते हैं। कारण कि यह नय घस्तु का सामान्य ही मानता है, विशेष नहीं । इस का वचन संग्रह किये हुये का सामान्य अर्थ में ही होता है। इस लिये संग्रह कर पश्चात् सामान्य रूप से सब वस्तुओं को जो सिद्ध करता है उसे संग्रह नय कहते हैं । रूप वस्तु से भिन्न है किम्बा अभिन्न है? यदि प्रथम पक्ष प्रहण किया जाय तो सप सामान्य स्वरूप से भिन्न असद्रूप सिद्ध होगा। For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy