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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९३ [ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] पदार्थ-( से किं तं यागमे ? ) = आगम प्रमाण किसे कहते हैं ? (अागमे) जो गुरु परम्परा से आया हो अथवा जिससे सत्र प्रकार के जीवादि पदार्थ जाने जायं, उसे आगम कहते हैं, और वह ( दुविहे पण्णत्ते, ) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा- जैसे कि-(लोइए अ) लौकिक और (लोउत्तरिए अ।) लोकोत्तरिक।। (से किं तं लोइए ?) लौकिक आगम किसे कहते हैं, ( + लोइए) जिसको लोगों ने रचा हो, जैसे कि-(जएणं इम) जिन को इन (अण्णाणिएहि मिच्छादिहीपहि) अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों ने ( + सच्छदबुद्धिमइविगप्पियं,) स्वच्छन्द बुद्धि और मति से रचा हो (तं जहा- ) जैसे कि-भारह) महाभारत (रामायण) रामायण (जाव चत्तारि वेया संगो. वंगा x ) और साङ्गोपाङ्ग चारों वेद (से तं लोइए श्रागमे ।) यही लौकिक आगम है। (से किं तं लोउत्तगिए ? . लोकोत्तरिक आगम किसे कहते हैं ? (लोउत्तरिए) जो लोकोत्तर पुरुषों ने रचे हों, जैसे कि-(मरण इम) जिन को इन (अरिहंतेहिं भगवंतेहिं उप्परगणाणदसणथरेहिं) संपूर्ण ज्ञान, दर्शन को धारन करने वाले श्री अरिहंत भगवान् जो कि (तीय पच्छुपाए ण णायलागाए हैं) भूत, भविष्यत् और वर्तमान के जानने वाले, तथा (तिलुककैयहि अमहियाँ ) त्रिलोकवासा जीवा से सहर्ष पूजित ऐसे (सम्बएण हे सव्वदरसीहिं ) सर्वथा सर्वदर्शियों ने (पणीयं दुवालसंग गणिपिडगं,) जो कि द्वादशांग रूप गणिपिटक रचना को, (नं जहा-, जैत कि-(अायारो : जाव दिहिवाग्री) आचारांग से लगाकर दृष्टिवाद तक । ये ही लाकोत्तरिक-प्रधान आगम हैं। = गुरु (प्राचार्य) पारम्पयनागच्छत्तीत्यागमः, श्रा-समन्ताद्गभ्यन्ते-ज्ञायन्ते जीवादयः पदार्था अनेनेति वां आगमः । * लोकः प्रणीतं लौकिकम् । + स्वच्छन्दबुद्धिमतिविकल्पितं-स्यबुद्धिविकल्पनाशिल्पिनिर्मितम् । x तत्राङ्गानि-शिक्षा १, कल्य २, व्याकरण ३, च्छन्दो ४, निरुक्त ५, ज्योतिटकायन ६; उपाङ्गानि तद्व्याख्यारूपाणि, तैः सह वर्तन्ते इति साङ्गो गङ्गाः अर्थात् शिक्षा १, कल्प २, याकरण ३, च्छन्द ४, निरुत ५, और ज्योतिप्कायन ६, ये अङ्ग हैं, इनकी व्याख्या रूप ग्रन्थ उपाङ्ग हैं, इन सहित वेद, 'साङ्गोपाङ्ग वेद' कहलाते हैं । * वहिय' त्ति-विगलबहलानन्दाश्रुदृष्टिभिः सहर्ष निरीक्षिता यथावस्थितानन्यसाधारणगुणोत्कीर्तनलक्षणेन भावस्तवेन । नगणिपिटक-गुणगणोऽस्यात्तीति गणी-प्राचार्य--स्तस्य पिटक-सर्वस्वं गणिपिटकम् । अर्थात् जिसमें सभी प्रकार के गुणों के समुदाय हो, उसे 'गणिपिटक' कहते हैं। यावत् शब्द से सूत्रकृत् १, स्थानाङ्ग २, समवायाङ्ग ३, व्याख्याप्रज्ञप्ति-भगवती सूत्र ४, For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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