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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ उत्तरार्धम् । २५३ (ससमयवत्तव्वया) स्वसमयवक्तव्यता है ( सा ससमय पविट्ठा,) वह स्वसमय प्रविष्ट हो जाती है, अर्थात् प्रथम वक्तव्यता के अन्तर्भूत है, और ( जा सा परसमयवतव्वया ) जो परसमय की वक्तव्यता है (सा परसमय पविट्ठा,) वह परसमय में प्रविष्ट होती है, अर्थात द्वितीय वक्तव्यता के अन्तर्भूत होती है, (तम्हा दुविहा वाव्वया,) इस लिये यह दो ही प्रकार की वक्तव्यता को ग्रहण करता है, नित्य तिलिहा वत्त व्यया) तीनों प्रकार की वक्त. व्यताओं को नहीं। तिषिण ) तीनों ( सद्दणय ) शब्द नय ( एगं ससमयं वत्तव्वय) एक स्वसमय वक्तव्यता को हो (इच्छति) मानते हैं, क्योंकि तीनों नय के मत में] (नत्थि परसमयवरावया,) परसमय को वक्तव्यता नहीं होती, ( कम्हा ? ) क्यों ? (जम्मा) इस लिये कि--(पासमय) परसमय का जो कथन है वह (श्रण) अनर्थ रूप है, अर्थात् कतिपय वादी आत्मादि पदार्थों की ही नास्ति कहतें है, और ( अहेऊ ) अहेतु रूप है तथा (असम्भावे) असद्भाव रूप भी है, और (अकरेए) अक्रिया रूप है और (उम्मग्गे) परसमय उन्मार्ग भी है, ( अणुवएसे ) अनुपदेश रूप भी है, (मिच्छादसिणमिति कटु,) परसमय मिथ्यारूप है, इस करके; (तम्हा) और इसी लिये (ससमययतव्यया) स्वसमय की ही वक्तव्यता है, (णतिय परसमयवतव्वया) परसमय की वक्तव्यता नहीं होती, (से तं वरालया) यही वक्त पता है। भावार्थ-अध्ययनादि के विषय-प्रतिनियत अर्थ को वक्तव्यता कहते हैं, इसके तीन भेद हैं, जैसे कि-स्वसमयवक्तव्य ता, परसमयवक्तव्यता और उभयसमयवक्तव्यता। स्वसमय की वक्तव्यता उसे कहते हैं जैसे-पंचास्तिकाय का वर्णन करना और परसमय की वक्तव्यता उसका नाम है जो स्वमत के अतिरिक्त अन्य मतों की व्याख्या करनी और उभय मत की वक्तव्यता वह है, जैसे कि-"प्रागारमावसंता वा, अरण्णा वावि पब्वया । इमं दरसणंमाघन्ना सम्बदुक्खा विमुच्चइ ॥१॥" इस गाथा का तात्पर्य यह है कि घर में वा अटवी में बसता हुआ अथवा दीक्षित होकर हमारे मत को ग्रहण करने वाला दुखों से विमुक्त हो जाता है । इस गाथा का जो अर्थ है वह उसी के मतानुसार हो जाता है । इस लिये यह उभयसमयों की वक्त ब्यता है, फिर नैगम १, संग्रह, २ और व्यवहार ३, इन तीनों नयों के मत में तीनों ही वक्तव्यता होती हैं । ऋजुसूत्र नयके मतमें दो वक्तव्यता और तीनों शब्द नयों के मत में केवल स्वसमय की ही वक्तव्यता है । क्योंकि सातों नयों में पूर्व नयों से उत्तर नय विशुद्ध हैं। अब इसके अनन्तर अर्थाधिकार के विषय में कहते हैं For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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