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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ उत्तराधम् ] २५७ (बत्तीसिआ) द्वात्रिंशिका (आयसमोयारेणं) आत्मसमवतार से (प्रायभाव) आत्मभाव में ( समोयरइ,) समवतीर्ण होती है, और (तदुभयसमोयारणं) तदुभयसमवतार से (सोल. सिमाए) पोडशिका-१६ पल प्रमाण ( समोयरइ प्रायभाव अ,) आत्मभाव में समवतीर्ण होती है, फिर (सोलसिया) षोडशिका ( प्रायसमोयारेणं ) आत्मसमवतार से (प्रायभावे) आत्मभाव में (समोयरइ) समवतीर्ण होती है, और (तदुभयसमोयारेणं) तदा भय समवतार से ( अट भाइयाए ) अष्टभागिका ( समीपरइ यायभावे श्र,) आत्मभाव में समवतीर्ण होतो है, फिर (अहभाइया) अष्टभागिका (आयसमोपारेणं) आत्मसमवतार से ( प्रायभावे ) आत्मभाव में (समोघरइ) समवतीण होता है, लेकिन (नदुभयसमोपारेणं) तदुभयसमवतार से ( चरभाइयाए ) चतुर्भागिका-६४ पल प्रमाण (समोयरट अायभावे , ) और अात्मभाव में समवतीर्ण होती है, ( चउभाइ या ) चतुर्भागिका (श्रायसमोपारेणं) आत्मसभवतार से (प्रायभावे) आत्मभाव में (समोयर ५,) समवतोर्ण होती है, और (तदुभयसनोयारेणं) तदुभयसमवतार से (अदमाणीए) अर्द्ध माणिका--- १२८ पल प्रमाण में ( समायरइ अायभावे य, ) और आत्मभाव में समवतीर्ण होती है, ( अद्धमाना ) अर्द्ध माणिका (अयसमीयारेणं) आत्मसमवतार से ( आयभावे समोयरद ) आत्मभाव में समवतोण होती है, (तदुभयसमोयारेण:) तदुभयसमवतार से ( माणीए ) माणिका १५६ पल प्रमाण में ( समोपरइ अायभावे अ.) और प्रात्मभाव में समवतीर्ण होती है, ( से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरिने व्वसमीपारे ।) यही पूर्वोक्त ज्ञशरीर, भव्यशरीर, व्यतिरिक्त द्रव्यसमवतार है, और ( से तं गोमागमो दव्वसमोयारे । ) यहो नोमागम से द्रव्यसमवतार है । तथा (से तं दब्बसमोयारे ।) यही द्रव्यसमवतार है। भावार्थ-किसा भी वस्तु का स्वरूप आत्मभाव, परभाव अथवा तदुभय भाव में समवतरण हो उसे समवतार कहते है । इसक ६ भेद हैं, जैस कि-नाम समवतार १, स्थापनासपमतार २, द्रव्यसमवतार ३, क्षेत्रसमवतार ४, कालस. मवतार ५, और भावसमवतार ६ ! नाम और स्थापना का वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिय । शरीर, भव्यशरार और व्यतिरिक्त द्रव्यसमवतार भो तोन प्रकार से वणन किया गया है, जैसे कि-सब द्रव्य अपन गुण को अपेक्षा प्रात्मभाव में समवतार्ण होते हैं, किन्तु व्यवहारनय की अपेक्षा परस्वरूप में भी समवतीर्ण होते हैं, जैसे कि-कुंड में बदरी फल, अथवा घर में स्तम्भ । इस प्रकार उभय स्वरूप में भी समवतीर्ण होते हैं। परन्तु श्रात्मभाव में पेसं समवतरण होते हैं, + निश्चय से सभी द्रव्य अपने ही स्वरूप में होते हैं पृथक् कोई नहीं होता, लेकिन व्यवहार से पृथक् भी होते हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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