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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६ [उत्तराधम्] कतिपय मुनियों को अर्थ अधिगत हो जाता है और कतिपय मुनियों को अर्थ अधिगत नहीं भी होता । जिन मुनियों को अर्थ अवगत नहीं हुआ, उनको अव. गत कराने के लिये पद २ की संहिता करनी चाहिये । इसलिये अब व्याख्यान करने की विधि कहते हैं । प्रथम व्याख्या की संहिता करनी चाहिये, जैसे कि-- अस्खलित पदों का उच्चारण करना, "करेमि भंते सामाइयं” फिर सा के पदच्छेद करने चाहिये, जैसे कि-'करेमि" एक पद है, "भंते !” द्वितीय पद है, "सामाइयं तृतीय पद है । भाष्यकार ने भी कहा है "होइ कयत्थो वोत्तं, सपयच्छेयं सुयं सुयाणुगमो । सुत्तालावगनासो, नामाइन्नासविणिोगं ॥ १।। सुसफासियनिज्जुतिविणियोगो सेसश्रो पयत्थाइ । पायं सोचिय नेगमनयाइमय गोयरो होइ ॥ २॥" "सुत्तं सुशाणुगमो, सुत्तालावयको य निक्खेवो । सुत्तफासियनिज्जुत्ती नया य समगं तु वच्चंति ॥ १ ॥" "भवंति कृतार्थ उक्त्या, सपदच्छेदं सूर्य सूत्रानुगमः । सूत्रालापकन्यालो, नामादिन्यासविरि योगम् ॥ १ ॥ सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिविनियंगः शेषकः पदार्थादिः। प्रायः स एव नैगमनयादिमतगोचरो भवति ।। २ ॥" "सूत्र सूत्रानुगमः, सूालापककृतश्च निक्षेपः । सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति याश्च सपकं तु वजन्ति ॥ १ ॥” फिर पद का अर्थ करना चाहिये, जैसे कि-"करेमि" क्रियापद प्रहण करने अर्थ में श्राता है, यथा-करता हूँ । “भंते" हे भगवन् ! यह पद गुरु के श्रामत्रण अर्थ में है । “सामाइयं सम्यग ज्ञान दर्शन चारित्रा का जिस से लाभ हो उस सामायिक को। इस प्रकार सर्व सूत्रों का पदार्थ करना चाहिये । पश्चात् जो समासान्त पद हों उन को पदविग्रह से समासान्त करके दिखलाना चाहिये, जैसे कि-भयस्य अंतो भयान्तः, जिनानाम् इन्द्रः जिनेन्द्रः, देवानां राजा देवराजः, जिनानाम् ईश्वरः जिनेश्वरः। अनेक पदों का एक पद कर देना उसे समास कहते हैं, पश्चात प्रश्नोत्तर करके सूत्र की पुष्टि करना चाहिये । तदनन्तर प्रतिज्ञा हेतु उदाहरण उपनय निगमन के द्वारा सूत्र की युक्ति करनी चाहिये । तथा प्रत्यवस्थान के द्वारा प्रथम अन्य युक्ति देकर फिर सत्रोक्त युक्ति को ही सिद्ध करना चाहिये । इस प्रकार संहिता, पदच्छेद, पदार्थ, पदविग्रह, For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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