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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
य
पदार्थ - (से किं तं प्यमाणे ? चडलिहे पत्रत्ते, तं जहा ) प्रमाण किसे कहते हैं ? 'परिमीयते परिच्छिद्यते धान्यद्रव्याद्यनेनेति प्रमाणमसतिप्रसृत्यादि' || जिसके द्वारा धान्यादि वस्तुओं का प्रमाण किया जाय उसे 'प्रमाण' कहते हैं । अथवा प्रत्येक पदार्थों का जिसके द्वारा प्रमाण किया जाता है उसे 'प्रमाण कहते हैं । यह करणसाधन है और चार प्रकार से प्रतिपादन किया गया है। जैसे कि - ( दव्वप्यमाणे ) द्रव्य के विषय में जो प्रमाण किया जाय उसे 'द्रव्य प्रमाण' कहते हैं । इसी प्रकार ( खेत्तप्पमाणे) क्षेत्र प्रमाण ( कालप्यमाणे ) काल प्रमाण ( भावप्पमाणे ) भाव प्रमाण (से किं तंत्रमाणे ? दुविहे पत्रत्ते, तं जहा ) द्रव्य प्रमाण किसे कहते हैं ? द्रव्यों का जो प्रमाण किया जाय उसे 'द्रव्य प्रमाण' कहते हैं । वह दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है। जैसे कि-- ( परसनिष्फन विभागनिष्कत्र ेय ) प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न (से किं तं परसनिन ) प्रदेशनिष्पन्न किसे कहते हैं ? जो प्रदेशों के द्वारा निष्पन्न हो । जैसे कि - (परमाणु पग्ले) परमाणु पुद्गल और (दुपएसए) द्विप्रदेशिक निष्पन्न स्कन्ध (दतपरसिए जान) दशप्रदेशिक स्कन्ध ( संखेज्नपएसिए) संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध (असंखेज्जपएसिए) असंख्यात प्रदेशिक स्कंध (अप एसिए) अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध (से से पएस (निप्फत्र) सो इसे ही 'प्रदेश निष्पन्न' कहते हैं । ( से किं तं विभागनिष्फल ? पंचविहं पण्णत्ते, तं जहा ) विभागनिष्पन्न किसे कहते हैं ? जो विशिष्ट प्रकारों तथा नाना प्रकार के असति प्रसृत्यादि द्वारा विभाग किया जाय वह 'विभागनिष्पन्न' होता है । वह पांच प्रकार से प्रतिपादन किया गया है। जैसे कि - (माणे १, उम्माणे २, श्रवमाणे ३, गणिमे ४, परिमाणे ५) मान प्रमाण १, उन्मान प्रमाण २, अवमान प्रमाण ३, गणित प्रमाण ४ और प्रतिमान प्रमाण ५, (से किं तं माणे ? दुविहं पण्णत्ते, जहा ) मान प्रमाण कितने प्रकारका है ? मान प्रमाण दो प्रकार का है। जैसे कि -- ( धनमाणे ) धान्यमान प्रमाण और (रसनाथ ) रसमान प्रमाण अर्थात् जिसके द्वारा धान्योंका प्रमाण किया जाय वह 'धान्यमान प्रमाण' और जिसके द्वारा रसों का प्रमाण किया जाय वह । 'रसमान प्रमाण' है (से किं तं धण्णमा य ? ) धान्य प्रमाण किस प्रकार से किया जाता है ? (दो असइयो पसइ) दो असृति की एक प्रसृति होती है । सृति उसे कहते हैं जो एक हथेली भर में धान्य आजावे अथवा एक मुष्टि प्रमाण । यह अति सर्व मानोंकी आदिभूत होती है । दो सृतियों की एक प्रसृति होती है अर्थात् एक प्राञ्जलि अथवा दोनों हाथों का नावाकार जो संपुट होता है उसे 'प्रसृति ' कहते हैं । सो इसी प्रकार ( दो पसइओ सेईय ) दो प्रसृतियों की एक 'सेतिका' होती है ( चत्तारि लेडया श्री ओ) चार सेतियों का एक 'कुडव' होता है ( चत्तारि कुलयो पत्थो ) और चार कुड़वों
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