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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१२ [श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] खेड़, शहर, मण्डप, द्रोणमुख, पतन, आश्रम, संवाह, सन्निवेश । श्रादि स्थान हैं, तो क्या आप उन सभी में निवास करते हैं ? प्रमोदचन्द्र--हे सखे ! मैं *पाटलिपुत्र में घसता हूँ (यह विशुद्धतर०) देवचन्द्र--प्रियवर ! पाटलिपुत्र में अनेक घर है, तो क्या आप उन सभी में बसते हैं ? प्रमोदचन्द्र"हे पयस्य ! मैं देवदत्त के घर में बसता हूँ। (यह विशुद्धतर०) देवचन्द्र--हे प्रीतिवर्द्धक ! देवदत्त के घर में अनेक-कोठे-कमरे हैं, तो क्या आप उन सभी में बसते हैं ? प्रमोदचन्द्र--मैं देवदत्त के गर्भ घर में बसता हूँ। (यह विशुद्धतर०) इस प्रकार पूर्वपूर्वापेक्षया विशुद्धतर नैगम नय के मत से बसते हुए को बसता हुआ माना जाता है। यदि वह अन्यत्र स्थान को चला गया हो तब भी जहां निवास करेगा वहीं उस को बसता हुआ माना जायगा। ___ इसी प्रकार व्यवहार नय का मन्तव्य है। किन्तु विशेष इतना है कि जहां तक वह अन्यत्र अपना स्थान निश्चय न कर लेवे वहां तक उसके लिये यह शब्द उच्चारण किया जाता है कि-"अमुक पुरुष इस समय पाटलिपुत्र में नहीं है।" और जहां पर जाता है वहां पर ऐसा कहते हैं कि-"पाटलिपुत्र के बसने वाला अनुक पुरुष यहाँ पर शाया हुआ है, लेकिन बसते हुए को बसता हुआ मानना, यह दोनों नयों का मन्तव्य है। ___ संग्रह नय से जब कोई स्वशय्या में शयन करे तभी बसता हुआ माना जाता है, क्योंकि चलनादि क्रिया से रहित होकर शयन करने के समय को ही संग्रह नय बसता हुआ मानता है । यह सामान्यवादी है, इस लिये इसके मत से सभी शय्याएं एक समान हैं, चाहे वे फिर कहीं पर ही क्यों न हो। + आकर लोहाद्यु तत्तिस्थानम् । नगरं कररहिम् । खेट-बूलीमयप्राकारोपेतम् । कर्टनगरम् । मडम्ब--सर्वतो दूरवर्तिसनिवेशान्तरम् अथवा यस्य पार्श्वत आसन्नमपरं ग्रामनगरादिक नास्ति, तत्सर्वतश्छिन्नजनाश्रयविशेषरूपं मढम्वमुच्यते । द्रोणमुखं-जलपथस्थलपथोपेतम् । पचनम् नानादेशागतपण्यस्थानम् । तच्च द्विधा, जलपत्तनं स्थलपत्तनं च । रत्नभूमिरित्यन्ये । पाश्रमःतापसादि स्थानं, अतिवहुप्रकारलोकसङ्गीणस्थानविशेषः । सन्निवेशाः- घोपादिग्थवा ग्रामदीनां द्वन्द्व ते च ते सन्निवेशाश्चेत्येव योज्यते । * वर्तमान में इसको 'पटना' कहते हैं जो कि विहार और उड़ीसा की राजधानी है। For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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