SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५४ [ श्रीमदनुयोगद्वार सूत्रम् ] चेत्र) जैसे इनके (वेडव्यियसरी ) वैक्रिय शरीर होते हैं, (नहा भाणिया ।) उसी प्रकार कहना चाहिये । ( वैमाणियां भंते ! ) हे भगवन् ! वैमानिक देवों के ( केवइया ओरालिसरीरा पणता ?) कितने प्रकार से औदारिक शरीर प्रतिपादन किये गये हैं ? (गोयमा !) हे गौतम ! (जहानेर ) जिस प्रकार नारकियों के होते हैं ( तहा भाणियन्त्रा ।) उसो प्रकार कहना चाहिये । ( वेणियाणं भंते ! ) हे भगवन् ! वैमानिक देवों के (केवइया वेडनियसरीश पण्णत्ता) कितने प्रकार से वैक्रिय शरीर प्रतिशदन किये गये हैं? ( गोयमा !) हे गौतम! ( दुबिहा पत्ता.) दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, (तंजहा-) जैसे कि ~~ ( तया य) बद्ध और (मुल्लया य) मुक्त । (तथं जे ते बद्ध ल्या) उन में जो वे बद्ध शरीर हैं (ते संखिजा) वे असंख्येय हैं, क्योंकि - (संखिजाहिं ) असंख्येय (ह्स्पधिरणीश्रोराप्पिणीहिं) उत्सर्पिणियों और श्रवसपिणियों के (हीरति कालओ) काल से अपहरण होते हैं । (खेती) क्षेत्र से (असंखिजायो नेदीयां) असंख्येय श्रेणियां, जो कि (संभागो) प्रतर के असंख्यातवें भाग में हो, (तासगं सेठों) उन श्रेणियों की (विक्खभसुई) विषम्भसूचि (अंगुलीयन) प्रमाणांगुल के द्वितीय वर्ग मूल को पटुप ) * तृतीय वर्ग मूल के साथ गुणा करने से होती है ( ग्रहवणं) अथवा ( अंगुल ) प्रमाांगुल के तृतीय वर्ग मूल के (घप्पमाम्मेताओं) सिर्फ +घन प्रमाण (सेडीयो ) श्र ेणियां हों, (मुकतया य) मुक्त वैक्रिय शरीर ( जहा ओहिया श्ररातियाणं ) जैसे अधिक श्रदारिक शरीर होते हैं ( तहा भाणिया ।) उसी प्रकार कहना चाहिये । ( ग्राहाय्यसरी ) आहारक शरीर ( जहा नेपइयाणं ) नारकियों के समान होते हैं, (तेाकम्मसरीरा) तैजस और कार्मण शरीर ( जहा एएसिं क्षेत्र) जैसे इनके (वेजियसीरा) वैक्रिय शरीर होते हैं ( तहा मायिना ।) उसी प्रकार कहना चाहिये । ( से तं सुहुमे खेत्तपलिग्रीवमे ) यही सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम है, ( से त खेत्त लियोमे) और यही क्षेत्र पल्योपम है तथा (मं तं पलिओ मे ) यही पस्योपम है और ( तं विभागणिकरणे ) यही विभागनिष्पन्न और ( से तं कालामा ) यही काल प्रमाण | है ( सू० १४४ ) * प्रमाणाकुल प्रतर क्षेत्र की अपेक्षा सकल्पना से असंख्येय श्र ेणियां होती हैं, लेकिन असत्कल्पना के द्वारा यदि २५६ श्रेणियां मान ली जायें तो इसका प्रथम वर्गमूल १६, द्वितीय ४, और तृतीय २ है । अतः द्वितीय वर्ग सूत्र ४ को तृतीय वर्ग मृत २ के साथ गुणा करने पर ४ x २ = = होते हैं । यही प्रमाण विकम्भसूचि का जानना चाहिये । + अर्थात् तीसरे वर्ग मूल को घन रूप करने से २x२x२=८ ही होते हैं । इसलिये यही विकम्भसूचि यहां पर ग्रहण करना चाहिये । For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy