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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] २८६ नहीं है (पिश्रो य सव्वेतु चेत्र ( णत्थि य से कोइ वेसो) किसो के साथ उसका द्वेष जीवे ।) और सब जोवों के साथ प्रेम है। एए) इस कारण ( होइ समणो ) श्रमण होता है (एसो) यह (अण्णोऽवि पजाओ ॥ ४ ॥ ) भी दूसरा पर्याय है ॥ ४ ॥ अब अन्य प्रकार से साधु की उपमा घटाते हैं । *(उरग) सर्पके समान (गिरि) पर्वत के समान ( जणय) अग्नि के समान (सागर) समुद्र के समान (नहतल ) आकाश के तुल्य ( तरुणसमग्र जो होइ । ) बृक्षों के समूह के समान जो हो । और ( अमर ) भ्रमर समान (मिय) मृग समान (धरण) पृथि - वी समान (जलरुह ) कमल समान (रवि) सूर्य समान (पत्रसमो अ ) और पवन के समान हो (सो) वही (समणी ॥ ५ ॥ ) श्रमण है ॥ ५ ॥ इस लिये 'श्रमण वही हो सकता है जिसका शोभन मत है'। इसी का आगे वर्णन किया जाता है ----- (तो समणी) इस लिये वही श्रमण है ( जइ सुमो) यदि शुभ मन हो ( भावे य) और भाव से (ज) अगर ( न होइ पावणो । ) पाप मन वाला न हो, (सयं य ज य समो) स्वजन और सामान्य मनुष्यों में समान (समो माणानमाखे॥ ६ ॥ ) मान और * श्रद्धि के समान जैसे सर्प स्वयं घर नहीं बनाता लेकिन दूसरों के किये हुए बिल में रहता है, इसी प्रकार साधु भी एक जगह नहीं ठहरते क्यों कि उनके घर तो है ही नहीं, इसी लिये उन्हें उरंग - सर्प की उपमा दी गई है। समशब्दः सर्वत्र योज्यते ।-सम शब्द का सब जगह सम्बन्ध जानना चाहिये । पर्वत के समान - परीपहों को सहन करने में पर्वत के समान अकम्प | अग्नि के समान जैसे अग्नि तृण काष्ठ आदि से तृप्त नहीं होती, इसी प्रकार साधु भी सूत्रार्थं से तृप्त नहीं होते । सागर के समान-जैसे समुद्र अपनी मर्यादा को नहीं छोड़ता, इसी प्रकार साधुभी ज्ञानादि रत्नयुक्त होने से अपनी मर्यादा उल्लंघन नहीं करते अर्थात् गम्भीर रहते हैं । श्राकाश के समान - जैसे कि आकाश का तलिया सब जगह से श्रालम्बन रहित है, इसी प्रकार साधु होते हैं अर्थात् वे कोई श्राश्रय नहीं लेते । वृक्षों के समूह समान - - जैसे टक्षों के सुख दुःख का विकार नहीं दीखता, इसी प्रकार साधु भी सुख दुःख में विकारवान् नहीं होते । भ्रमर -- श्रनियत वृत्ति होने से । मृग-संसार के भय से उद्विग्न । पृथिवी - सब खेद सहन करने से । कमल - जल में रहता हुआ भिन्न है, इसी प्रकार साधु विषय रूपी कीचड़ में लिप्त नहीं होते । सूर्य - धर्मास्तिकायादिलोकमधिकृत्या विशेषेण प्रकाशकत्वात्र पवन - श्रप्रतिबद्धविहारी होने से । For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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