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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४० [ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] नन्तर अनवस्थित पल्य को रख कर शलाका पल्य को उठा कर शेष द्वीप समुद्रों में सर्पप प्रक्ष प करें। जब एक सर्षप शेष रह जाय तब प्रतिशलाका पल्य में उसे प्रक्षेप करें ।पश्चात् अनवस्थित पत्य के द्वारा प्रथम शलाका पल्य को भरना चाहिये । जब अनवस्थित और शलोका पल्य दोनों ही भर जाय तब फिर शला. का पल्य में से दूसरे द्वीप समुद्रों में सर्षप प्रक्षेप किया जाय । जब एक सर्षप रह जाय तब उसे प्रतिशलाका पल्य में प्रक्षेप कर दिया जाय । इस प्रकार अनवस्थित पल्य से शलाका पल्य भर दिया जाय और शलाका से प्रतिशलाका । पश्चात् प्रतिशलाका के सर्षप के बीज उठाकर अन्य द्वीप समुद्रों में प्रक्षेप किया जाय । जब शेष एक सर्षप रह जाय तब उसे महाशलाका नामक पल्य में रख देना चाहिये । पश्चात् शलाका पल्य में से उठा कर दूसरे द्वीप समुद्रों में बीज प्रक्षेप करने चाहिये । फिर उसका एक शेष सर्पप प्रतिशलाका में रखनाचाहिये, अर्थात् इतने परिमाण का श्रानवस्थित पल्य कल्पित कर लेना चाहिये, और उसके द्वारा पूर्ववत् प्रथम शलाका पल्य भरना • चाहिये ।। इसी प्रकार शलाका से प्रतिशलाका को और प्रतिशलाका से महाशलाका भरना चहिये । जब चारों पल्य भर जायं तब उनके सर्षपो की एक राशि कर लेना चाहिये । क्योंकि-जब तृतीय पल्य के द्वारा भरा जाय तब द्वितीय पल्य को उसे पहले के द्वारा भरना चाहिये, और प्रथम पल्य को अनवस्थित पल्य से भरना चाहिये जब तीनों भर जायं तब अनवस्थित को भर कर पुनः चारों को एक राशि कर लेनी चाहिये, उस राशि के एक रूप अधिक को उत्कृष्ट संख्येयक कहते हैं । क्योंकि दो जघन्य संख्येयक हैं । जघन्य से अधिक उत्कृष्ट से न्यून मध्यम संख्येयक जानना चाहिये । सूत्र में जहां २ पर संख्येयक को वर्णन आता है वहां २ पर मध्यम संख्येयक ही जानना चाहिये । तथा जब उत्कृष्ट संख्ययक में एक रूप अधिक प्रक्षप किया जाय तब उस राशि को जघन्य परीत असंख्येयक कहते हैं। अब शेष असंख्येयक का निरूपण कियाजाता है • जब तृतीय पल्य द्वितीय पल्य के द्वारा पूर्णतया भर दिया जाय तो अनवस्थित पल्य के साथ २ प्रथम शलाका पल्य भी भर देना चाहिये । जब शलाका पल्य भी पूर्णतया भर जाय । तहफिर अनवस्थित के साथ ही प्रतिशलाका पल्य भरना चाहिये । जब वह भी पूर्ण भर जाय तब अनवस्थित को भी भर कर चारों की एक राशि कर लेनी चाहिये, उस राशि में से एक सांप न्यून करने से उत्कृष्ट संख्येयक होता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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