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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [उत्तरार्धम् ] जैसे कि--(पहिवाई अ) प्रतिपाति और (अपडिवाई न ।) + अप्रतिपाति (+ ग्रहक्खायचरिचगुणप्पमाणे) यथाख्यात चारित्र गुण प्रमाण (दुविहे पण्णत्ते,) दो प्रकार से प्रति पादन किया गया है, ( तं जहा- ) जैसे कि--( छउमथिए अ) x छाद्मस्थिक और (केवलिए श्र।) केवलिक । (से तं चरित्तगुणप्पमाणे) वही चारित्र गुण प्रमाण है और (से तं जीवगुणप्पमाणे,) यही जोव गुण प्रमाण है, और (से 6 गुणप्पमाणे । ) यही गुणप्रमाण है । (सू० १४७) भावार्थ--जो सम्यक्प्रकार से-अनिन्दितपने से आचरण किया जाय वही सच्चारित्र कहलाता है, और उस का जो प्रमाण हो उसे चारित्र गुण प्रमाण कहते हैं । इसके पांच भेद हैं, जैसे कि-सामायिक चारित्र गुण प्रमाण १, छेदोपस्थापनीय चारित्र गुण प्रमाण २, परिहार विशुद्ध चारित्र गुण प्रमाण ३, सूक्ष्मसम्पराय चारित्र गुण प्रमाण ४, और यथाख्यात चारित्र गुण प्रमाण ५। जीव को सम्यक् प्रकार से ज्ञानादि का जो लाभ होता है उसे सामायिक चारित्र कहत हैं, और वह 'रेमि भले ! सापाइयं' इत्यादि सूत्र से धारण किया जाता है । मुख्यतया इसके दो भेद हैं, जैसे कि इत्वरिक-स्वल्पकालिक और यावत्कथिक-जीवन पर्यन्त । छेदोपस्थापनीय चारित्र उसे कहते हैं जो पूर्व पर्यायों को छेद कर प्रायश्चित्त के द्वारा पञ्च महाव्रत में प्रारोपण करे । यह दो प्रकार का है, साति चार और निरतिचार ! प्रथम और चरम जिनेश्वर भगवान के समय के साधुओं को सामायिक चारित्र के पश्चात् ७ दिन अथवा ४ या ६ मास के अनन्तर * श्रोणि से गिरते हुए को प्रतिपाती-संक्लिश्यमानक कहते हैं। भोणि चढ़ते हुए को अप्रतिपती-विशुद्धयमान कहते हैं । +प्राकृत में इसको जो 'ग्रहक्वाय चारित्र' कहते हैं, उसकी शब्दव्युत्पत्ति इस प्रकार जानना चाहिये-'अह' 'आ' 'अक्खाय' यहां पर अथ शब्द याथातथ्य अर्थ में, तथा 'पा' उपसर्ग अभिविवि अर्थ में होता है, 'अक्खाय' क्रिया पद है, जिसकी सन्धि होने से 'अहाक्खाय' पद होता है, फिर 'द्वस्वः संयोगे' इस सूत्र से आकार हस्व होने से "ग्रहक्खाय” पद बन जाता है। 'प्रादेयों जः' इत्यनेन पदार्थस्य जो भवति । बहुलाधिकारात्सोपसर्गस्थानादेरपि; यथा 'संजोगो' पार्षे लोपोऽपि, यथाख्यातम-अहक्खायं । ' x ग्यारहवें गुणस्थान तक यथाख्यात चारित्र प्रतिपाती और बारहवें में अप्रतिपाती होता है। उपशान्तमोहनीय, क्षीणमोहनीय और छद्मस्थ केवली भगवान् के यह चारित्र होता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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