SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ उत्तरार्धम् ] , भाणियवा,) औदारिक शरीर होते हैं उसी प्रकार वर्णन कहना चाहिये, (नेर इपाणं भंते ! केवइया भाहारगसरीरा पएणत्ता ?) हे भगवन् ! नारकियों के आहारक शरीर कितने प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं ? (गोयमा! दुविहा परगत्ता, तंजहा-) हे गौतम ! दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, जैसे कि-(बद्धरु या य मुक्केल्लया य,) बद्ध आहारक शरीर और मुक्त आहारक शरीर, तत्थ णं जे ते बदल्लया) उन दोनों में जो बद्ध शरीर हैं ( तेणं नस्थि,) वे *वर्तमान में नहीं हैं, (तत्य णं जे ते मुकल्लया) तथा-उन दोनों में जो मुक्त आहारक शरीर हैं ( ते जहा प्रोहिया ओरालिया ) वे जैसे औधिक औदारिक शरीर होते हैं, (तहा भाणियव्वा,) उसी प्रकार कहना-जानना चाहिये । ( तेयगकम्मगसर्गग ) तैजस और कार्मण्य शरीर ( जहा एएसि चेच ) जैसे इनके ( वेउब्वियसरीग) वैक्रिय शरीर होते हैं (तहा भाणियव्या ।) उसी प्रकार जानना चाहिये, ( अमुरकुमागणं भंते ! केवइया प्रोगलियस,रा पण्णता ? ) हे भगवन् ! असुरकुमार देवों के कितने औदारिक शरीर प्रतिपादन किये गये हैं ? ( गोयमा ! जह मेरइयाणं ) हे गौतम ! जैसे नारकियों के प्रोगनियसरी ।) औदारिक शरीर होते हैं ( तहा भाणियव्या, ) उसी प्रकार असुर कुमारों के शरीरों का वर्णन कहना चाहिये, (असुरकुमाराणं भो ! केवइया वेउब्धियसरीरा पण्णत्ता ?) हे भगवन् ! असुरकुमार देवों के वैक्रिय शरीर कितने प्रकारसे प्रतिपादन किये गये हैं? (गोयमा ! दुविहा परणत्ता, तंजहा-) हे गौतम ! दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, जैसे कि-( वल्लया य मुक्केल्लया य,) बद्ध वैक्रिय शरीर और मुक्त वैक्रिय शरीर, ( ताथ णं जे ते वदल्लया ) उन दोनों में जो बद्ध वैक्रिय शरीर हैं (ते णं असंखेज्जा) वे असंख्येय हैं, लेकिन नारकियों से स्तोक हैं। इस लिये इनका प्रमाण निम्न प्रकार से है-(असंखेजाहिं) असंख्येय (उस्सप्पिणी प्रोसप्पिणीहिं) उत्सर्पिणी और असपिणियोंके (अहीरंति कालो) कालसे अपहरण किये जा सकते हैं, अपितु ( खेत्तो ) क्षेत्र से (असंखेना प्रो) असंख्येय (सेढी यो) श्रेणियों के (पयरस्स) प्रतर का ( असंखे जइभागो, ) असंख्यातवां भाग, फिर ( तासिणं सेढीणं ) उन श्रेणियों की ( विक्वम्भसुई ) विष्कम्भ सूचि अर्थात् विस्तार श्रेणि ( अंगुलपढमवग्ग. मुलस्त ) अंगुल प्रमाण वर्ग मूल का ( असंखेजइभागो,) असंख्यातवां भाग है, और * क्योंकि यह शरीर चतुर्दश पूर्व धारी को ही होता है। पहिले वैक्रिय शरीरों का वर्णन किया गया है उसी प्रकार तैजस और कार्मण्य शरीरों का भी वर्णन जानना चाहिये, जैसे कि बड भसंख्येय और मुक्त अनन्त हैं। + इनमें से प्रतर के अङ्गल प्रमाण क्षेत्र में प्रथम वर्ग मूल के असंख्येय भाग में जितनी आकाश प्रदेशकी श्रेणियां हैं उसी प्रमाण की विस्तार सूचि यहां पर ग्रहण करनी चाहिये और वह मारकोक्त सूचि के असंख्यातवें भाग में सिद्ध होती है, इस लिये असुरकुमार नारकियों के प्रसं. ख्येय भाग में सिद्ध होते हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy