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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३८ [ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] (मुक्केल्लया) मुक्त वैक्रिय शरीर ( जहा ओहिया ओरालियस रा ) जैसे औधिक श्रदारिक शरीर होते हैं उसी प्रकार यहां भी जानना चाहिये । ( सुरकुमाराणं भंते! केवइया श्राहारगतीरा पण्णत्ता ? ) हे भगवन् ! असुरकुमारों के आहारक शरीर कितने प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं ? (गोयमा ! दुबिहा परणत्ता, तंजहा-) हे गौतम! दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, जैसे कि - (बद्ध ल्लया य मुक्केल्लया य) बद्ध आहारक शरीर और मुक्त आहारक शरीर, (जहा एएसिं चेत्र) जैसे इनके (ओरालियरींग तहा भाणि औदारिक शरीर होते हैं, उसी प्रकार आहारक शरीरों का भी वर्णन जानना चाहिये, तथा — (तेयवकम्म गसरीश ) तैजस और कार्मण शरीर ( जहा एएसि चैत्र सिरीश) जैसे इनके वैक्रिय शरीर होते हैं ( तहा भाणिया, ) उसी प्रकार तैस और कार्मण शरीरों का वर्णन जानना चाहिये। ( जहा असुरकुमाराणं) जैसा असुरकुमारों का वर्णन है, (तहा जाय ) उसी प्रकार यावत् ( श्रण्यिकुमारखं ताव भाणियच्या, ) स्तनित्कुमारों तक की व्याख्या कहनी चाहिये, अर्थात् असुरकुमार वत् नव निकाय के देवों का वर्णन है । भावार्थ- नारकियों के औदारिक शरीर दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, जसे कि बद्ध और मुक्त, वद्धती होते ही नहीं, किन्तु मुक्त जैसे श्रधिक श्रदारिक शरीर होते हैं उसी प्रकार जानने चाहिये, इसी प्रकार वैक्रिय शरीर भी होते हैं, लेकिन बद्ध वैक्रिय शरीर काल से असंख्येय काल चक्रों के समय प्रमाण हैं, और क्षेत्र से जो असंख्य योजनों की श्रं शियें हैं उन यों के प्रतर से असंये भाग प्रमाण, फिर उस अंगुल प्रमाण प्रतर के श्रेणियों की विष्कंभ सूचि करने से प्रथम वर्ग भूल को द्वितीय वर्ग मूल के साथ गुणा किया जाय तो जितने उसमें आकाश प्रदेश हैं उतने ही बद्ध वैक्रिय शरीर होते हैं । अथवा एक अंत मात्र प्रतर प्रथम वर्ग को घन रूप करें तो जितनी उसमें श्रेणियाँ हैं उतने ही उसमें आकाश प्रदेश हैं तो इतने ही नारकियों के बद्ध वैक्रिय शरीर १६ अंक हैं इनको होते हैं, जैसे कि -असत्कल्पना के द्वारा प्रथम वर्ग मूल के चार गुणा करने से घन रूप ६४ होजाते हैं, इसी को घन प्रमाण कहते हैं । मुक्त वैक्रिय शरीर श्रौधिक श्रदारिक शरीर वत् होते हैं। तथा नारकियों के बद्ध श्राहारक शरीर तो होते ही नहीं, किन्तु मुक्त आहारक शरीर मक्त श्रधिक औदारिक + प्रज्ञावना सूत्र के महादण्डक में कहा है कि- " भवनवत्यादि सिर्फ रत्नप्रभानारकी से असंख्यात भाग में हैं, तो फिर असुरकुमारों की तो बात ही क्या । " For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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