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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .२४८ [ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] गशि को (अण्णमएणभासो) परस्पर अभ्यास करने से (पडि पुराणो) प्रतिपूर्ण (जहएणयं) जघन्य (जुताणतय) युक्त अनन्तक (होइ,) होता है, (अहवा) अथवा (उचोसए) उत्कृष्ट (परित्ताणतए) परीत अनन्तक में ( स्वं परिखस) एक रूप प्रक्षेप करने से (जहएण्य) जघन्य ( जुधाणतय) युक्त अनन्तक (होइ,) होता है, तथा (अभवसिहियावि तत्तिया होड,) अभव्यसिद्धि क जीव भी उतने ही होते हैं, (तेणं परं ) उसके पश्चात (अजह एणमणुकोसयाई ठाणाई) अजघन्योत्कृष्ट स्थान हैं ( जाव ) यावत् पर्यन्त ( कोसयौं जुनाणंतय ) उत्कृष्ट रक्त अनन्तक को (न पावइ ।) नहीं प्राप्त होता । (कोसयौं जुत्ताणतय') उत्कृष्ट युक्तानन्तक (केवइयं होइ ?) कितने प्रमाण में होता है ? ( जहएणएणं जुत्ताणंतरण ) जघन्य युक्त अनन्तक के साथ ( अभवसिद्धिया गुणिया अरणमएणब्भासो ) अभव्य सिद्धिक जीवों की राशि को परस्पर गुणा करनेसे (रूवूणो) एक रूप न्यून (उक्कोसयं) उत्कृष्ट ( जुत्ताणतयं) युक्त अनन्तक (होइ,) होता है, (अहवा) अथवा ( रूपूण) एक रूप न्यून (जहएणयं ) जघन्य (अणंताणंतय ) अनन्तानन्तक (उकोसयं) उत्कृष्ट (जुत्ताणतय) युक्त अनन्तक (होइ,) होता है। (जहएण्यं ) जघन्य (अणंतागतयं ) अनन्तानन्तक (केवइय) कितने प्रमाण में (होइ?) होता ? (जहएणए जुत्ताण्तरणं ) जघन्य रक्तानन्तक के साथ (मभवसिहिया गुणिया अएणमएणभासो) अभव्य सिद्धिक जीवों के प्रमाण को परस्पर गुणा करने से (पडिपुराणो) प्रतिपूर्ण (जहएणयं अगताणत्य) जघन्य अनन्तानन्तक (होइ,) होता है, (अहवा) अथवा (कोसए) उत्कृष्ट (जुत्ताणांतए) युक्त अनन्तक में (रुवं पक्खित्त) एक रूप प्रक्षेप करने से (जहएणय) जघन्य (अपंतारातयः) अनन्तानन्तक (होइ,) होता है, (तेण परं) तत्पश्चात (अजहएणमणु कोसयाई ठाणाई) अजघन्योत्कृष्ट-मध्यम स्थान होते हैं, अर्थात मध्यम अनन्तानन्तक होते हैं । (से तं गणणासंखा) यही गणना संख्या है। यद्यपि किसी । आचार्य के मत में अनन्तों के नव ही भेद वर्णन किये गये हैं लेकिन वे सुत्रविहित नहीं है, और सूत्र में जहां कहीं अनन्तों का वर्णन किया गया है वहां पर मध्यम अनन्तों का ही स्वरूप जानना चाहिये। भावार्थ-जघन्य संख्येयासंख्येयक मात्र राशि को परस्पर गुणा करने से जो प्रतिपूर्ण अंक हो वे जघन्य परीत अनन्तक होते हैं, अथवा उत्कृष्ट असंख्येयासंख्येयक राशि में एक रूप और प्रक्षेप कर दिया जाय तो भी परीत अनन्तक होता है । तथा-जहां तक उत्कृष्ट परीत अनन्तक नहीं होता यहां तक मध्यम परीत अनन्तक ही रहता है। उत्कृष्ट परीत अनन्तक को जघन्य परीत अनन्तक राशि के साथ परस्पर For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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