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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ उत्तरार्धम् ] २२१ नैगम नय कहता है कि प्रदेश छह हैं-धर्म प्रदेश १, अधर्मप्रदेश २,श्रीकाश प्रदेश ३, जीवप्रदेश ४, स्कन्ध प्रदेश ५ और देश प्रदेश ६। इस प्रकार नैगम नय के वचन को सुन कर संग्रह नय ने कहा कि जो तूने षट् प्रदेश माने हैं वे ठीक नहीं है, क्योंकि जो तूने देश का भी प्रदेश मान लिया है वह युक्ति संगत इस लिये नहीं है कि जब द्रव्य का देश और फिर प्रदेश है तो वास्तव में वह द्रव्य ही का है, जैसे कि किसी ने कहा कि- मेरे दास ने गधा खरीद लिया यहां पर दास भी उसी का है और गधा भी उसी का है । इस लिये षट् प्रदे न कहना चाहिये.किन्तु पांच ही प्रदेश कहना चाहिये । जैसे कि-धर्म प्रदेश १, अधर्म प्रदेश २, अाकाश प्रदेश ३, जीव प्रदेश ४ और स्कन्ध प्रदेश ५ । इस प्रकार अविशुद्ध संग्रह नय के वचन को सुन कर ___ व्यवहार नय ने कहा कि जो तू ने पांच प्रदेश प्रतिपादन किये हैं वे भी ठीक नहीं है, जैसे कि - पांच गोष्टिक पुरुषों का कई जाति का द्रव्य जैसे हिरराय, सुवर्ण, धन अथवा धान्य साधारण साझी हो, यदि उसी प्रकार पांच प्रदेश साधारण हो, तब तो तेरा कहना युक्ति संगत है, लेकिन वे तो पृथक् २ हैं, इस लिये तेरा कहना युक्ति संगत नहीं है, किन्तु पांच प्रकार से प्रदेश कहने चाहिये, जैसे कि-धर्म प्रदेश यावत् स्कन्ध प्रदेश । इस प्रकार व्यवहार नय के वचन को सुन कर... ऋजु सूत्र नय ने कहा कि-तेरा वाक्य भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक २ द्रव्य के पांच २ प्रदेश मानने से २५ हो जाते हैं, इस लिये यह कथन सिद्धान्त बाधित है । इस लिये ऐसा न कहना चाहिये, किन्तु मध्य में 'स्यात्' शब्द का प्रयोग करना चाहिये । जैसे कि-स्यात् धर्म प्रदेश यावत् स्यात् स्कन्ध प्रदेश । क्योंकि वर्तमान में जिसकी अस्ति है उसी की अस्ति है, जिसकी नास्ति है उसी की नास्ति है। जो पदार्थ है, वह अपने मुण में सदैव काल विद्यमान है, क्योंकि पांचों द्रव्य साधारण नहीं हैं, इस लिये स्यात् शब्द का प्रयोग करना चाहिये । इस प्रकार ऋजुसूत्र नय के वचन को सुन कर शब्द नय ने कहा कि-यदि स्यात् शब्द का ही सर्वत्र प्रयोग किया जायगा तो अनवस्था दोष की प्राप्ति होजायगी। जैसे कि-स्यात् धर्म प्रदेश, स्यात् अधर्म प्रदेश इत्यादि । जैसे देवदत्त राजा का भी भृत्य है और वही अमात्य का भी है। * विशुद्ध संग्रह नय भेद को विकल्प नहीं मानता । For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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