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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२० [ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] C जैसे कि - ( धम्मे से एसे अ + ) धर्म और उसका जो प्रदेश है (से पसे घम्मे) वही प्रदेश धर्मास्तिकाय है, इसी प्रकार ( अहम् य से पएसे ) अधर्म और उसका जो प्रदेश है (से पएसे हम्मे) वही प्रदेश अधर्मात्मक है, (गासे से पहले श्र) आकाश और उसका जो प्रदेश है ( से पए से आगासे ) वही प्रदेश आकाश है, (जीवे से प अ) जीव और उसका जो प्रदेश है (से पर से नोजीव) वही प्रदेश नोजीवात्मक है, (खंधे से पसे अ) स्कन्ध और उसका जो प्रदेश है ( से पएसे नोबंध ) वही प्रदेश स्कधात्मक है, ( एवं वयं तं ) इस प्रकार करते हुए (समभिरूढं समभिरूढनय को (संपइ एवंभू श्री ) सम्प्रति एवम्भूत नय (भाइ - ) कहता है - ( जं जं भस ) जो २ ते ने धर्मास्तिकायादि पदार्थों का स्वरूप कहा है ( तं तं सव्वं ) वे सब (कसिणं) देश प्रदेश के कल्पना रहित तथा - ( पडिपुराणं ) प्रतिपूर्ण - आत्मस्वरूप से अविकल और (निरवसेस) अवयव रहित ( ए गगह गहियं) एक नाम से ग्रहण की गई है, * (देवि मे वत्थू ) मेरे मत में देश भी है, और (सेवि मे अवत्थू) प्रदेश भी मेरे मत में दिट्ठे तेणं । ) यही प्रदेशों का दृष्टान्त है । (से तं नयप्पमाणे) और यही नियों के प्रमाण हैं । (सू० १४८) वस्तु हैं । (से ं पएस भावार्थ- प्रदेशों के दृष्टान्त से नयों का जो स्वरूप अवगत हो, उसे प्रदे दृष्टान्त कहते हैं। जैसे कि -- + समानाधिकरण कर्मधारय मानने से सब शंकाए दूर हो जाती हैं क्योंकि धर्मास्तिकाय से वह प्रदेश पृथक् तो हैं लेकिन देश से पृथक् नहीं है । * वस्तु एक नाम युक्त ही होती है, अनेक नाम युक्त नहीं होगी, क्योंकि पृथक् २ नाम होने से मतभेद अवश्य ही होगा। इस लिये वस्तु को देश प्रदेश न कहना चाहिये । + अर्थात् मेरे मत में परिपूर्णात्मक रूप हो वस्तु है । प्रदेश और प्रदेशी का भेद नहीं है यदि प्रदेश मान लिया जाय तो दो पदार्थ हो जाएँगे, लेकिन दो होते नहीं हैं । अथवा प्रदेशी मान लिया जाय तो धर्म और प्रदेश शब्द पर्याय रूप हो जायँगे, और फिर दोनों का एक ही साथ उच्चारण करना पड़ेगा, जो कि युक्ति से प्रसिद्ध हैं, इस लिये सम्पूर्ण वस्तु को ही वस्तु मानना चाहिये । * यहां पर संक्षेप मात्र वर्णन किया गया है, विशेष वर्णन श्रागे 'नय द्वार' से जानना चाहिये । यद्यपि नयप्रमाण गुणप्रमाण के ही अन्तर्गत है, तथापि स्थान २ में ऋत्युपयोगी और अतिगहन विषय होने से इसका पृथक् वर्णन किया गया 1 1 For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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