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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२२ [ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] इसी प्रकार श्राकाशादि प्रदेश भी जानना चाहिये । इस लिये ऐसान कहना चाहिये, किन्तु ऐसा कहना चाहिये कि जो धर्म प्रदेश है वह प्रदेश ही धर्मात्मक है इसी प्रकार जो स्कन्ध है वह प्रदेश नोस्कन्धात्मक है । इत्यादि इस प्रकार शब्द नय के वचनों को सुन कर स्मभिरूढ़ नय ने कहा कि-यह भी वाक्य युक्ति युक्त नहीं है, क्योंकि इस स्थान पर दो समासों की प्राप्ति है, जैसे कि-तत्पुरुष और कर्मधारय । क्योकि-'धम्मे पएसे-से पएसे धम्मे-इन वाक्यों में दो समासोंका बोध होता है। यदि धर्म शब्द को सप्तम्यन्त माना जाय तब तत्पुरुष समास होता है। जैसे कि-'बने हस्ती' इत्यादि । यदि प्रथमान्त माना जाय तब कर्मधारय समास होता है। जैसे कि-'नीलेसु उत्पलेसु नीलोत्पलम्' अलुक् समास की अपेक्षा से भी दो समास सिद्ध होते हैं । जैसे कि-'कण्ठे कालः।' इत्यादि । इस लिये नहीं जाना जाता, कि तू कौन से समास के श्राश्रय होकर प्रतिपादन करता है ? क्योंकि-यदि तत्पुरुष मान लिया जाय तब दोषापत्ति आती है, जैसे कि 'धम्मे पएसे' धर्म शब्द को सप्तम्यन्त तत्पुरुष के मानने से भेदापत्ति सिद्ध होती है, यथा 'कुण्डे बदराणि ।' इत्यादि । यदि अभेद में सप्तमी मानी जाय यथा--'घटे रूपम् तब दोनों पद सप्तम्यन्त मालूम होने से संशयात्मक दोष उत्पन्न होता है, इस लिये तत्पुरुष समास तो किसी प्रकार सिद्ध ही नहीं हो सकता। यदि कर्मधारय है तो विशेष से कहना चाहिये । जैसे कि-- धर्मश्च स प्रदेशश्च स इति । 'समानाधिकरणः कर्मधारयः' इति वचनात् । इस लिये ऐसा कहना चाहिये कि-मेरे मत में प्रदेश धर्मास्तिकाय है, क्योंकि वह उस से तो पृथक् है, लेकिन उसके देश से पृथक् नहीं है । इसी प्रकार नोस्कन्ध पर्यन्त जानना चाहिये । इस प्रकार समभिरूढ नय के वचन को सुन कर एवंभूत नय ने कहा कि-जो जो तू ने सब संपूर्ण प्रतिपूर्ण निरविशेष एक ग्रहण वस्तु वर्णन की हैं वे सभी एक ही नामसे मेरे मत में ग्राह्य हैं, क्योंकि मेरे मत में देश और प्रदेश दोनों ही अवस्तु हैं, भेद है नहीं । यदि द्वितीय पक्ष ग्राह्य है तब धर्म शब्द और प्रदेश शब्द पर्यायवाची सिद्ध हुए । दोनों शब्दों का युगपत् उच्चारण करना युक्ति से बोधित है । क्योंकि दोनों एक ही अर्थ के बोधक हैं, और एक उच्चारण करने से द्वितीय शब्द निरर्थक हो जावेगा। इस लिये एक अखंडरूप वस्तु ही प्राह्य हो सकती है। For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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