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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९० [ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] है (न तहा बाहुलेरो,) उसी प्रकार श्वेत गौ का बछड़ा नहीं है, और (जहा बाहुलेरो) जैसे श्वेत गौ का बछड़ा होता है, (न तहा सामलेगे,) उसो प्रकार श्याम गौ का बछड़ा नहीं होता * (से तं किंचिवेहम्मे ।) यही किंचिद्वैधर्म्य है। - (से किं तं पायवेहम्मे ?) प्रायः वैधर्म्य किसे कहते हैं ? (पाथवेहम्मे) जिसमें करीब २ वैधर्म्यता हो, यथा-(जहा वायप्तो) जिस प्रकार कौआ होता है (न तहा पायसो,) उसी प्रकार दूध नहीं होता, और (जहा पायसो) जिस प्रकार होता है (न तहा वायसो) तद्वत् कौश्रा नहीं होता । (से तं पायवेहम्मे ।) यही प्राय:वैधर्म्य है । (मे किं तं सव्ववेहम्मे !) सर्ववैधर्म्य किसे कहते हैं ? (सव्ववेहम्मे) जिसमें किसी प्रकार की भी सजातीयता न हो, यद्यपि (मञ्चवेहम्मे) सर्ववैधर्म्यपने में । (प्रोवम्मे नत्थि) उपमा नहीं होतो, (तहावि) तथापि (तेणेव तस्स) उस को उसी के साथ (अोवम्मं कीरइ,) उपमा की जाती है, ( जहा:-) जेसे-(णीएण एीअसरिसं कयं, ) नीव ने नीच के समान किया, (दासेण दाससरिसं कयं,) दास-सेवक ने दासके समान किया, और (काकण काकसरिसं कयं,) कौए ने कौए जैसा किया, (साणेण साणसरिसं कयं,) श्वान-कुत्त ने श्वान ___ * अत्र च शेषवस्तुल्यत्वाद्भिननिमित्तजन्मादिमावस्तु वैलक्षण्यात किंचिद्वधम् भावनीयम् । अर्थात् यहां पर गोपन में तो कुछ भेद नहीं है लेकिन माता के गृथक भाव होने से वर्ण भेद अवश्य है। इसी कारण उसकी किंचिव चयंता सिद्ध को गई है। - अत्र वायसपायसयोः सचेतनत्वाचेतनत्वादिभिर्वहुभिर्धमविसंवादात अभिवानगतवर्णद्वयेन सत्यादिनात्रतश्च साग्यात्प्रायोवैवयंता भावनीया । अर्थात् 'वायस' कौए का और 'पायस' दूध का नाम है, इस लिये दोनों में साम्यता नहीं हो सकती । कारण कि 'वायस' चैतन्य है और 'पायस' जड पदार्थ है। सिर्फ इनके नामों में दो दो वर्षों की सान्यता है । अतः यहां पर प्रायःवै. धम्ता जाननी चाहिये। सर्यवेवम्यं तु न कस्यचित्केनापि सम्भवति, सत्त्वप्रमेयत्वादिभिः सर्वभावानां समानत्वात्, तैरप्यसमानत्वे ऽसत्त्वप्रसङ्गात् । तथापि तृतीयभेदोपन्यासवैवर्थ्यमाशङक्याह । अर्थात् सर्ववैधर्म्य तो वास्तव में किसी का किसी के साथ नहीं हो सकता । क्योंकि कम से कम सत्व और प्रमेयत्व आदि गुणों से तो संपूर्ण पदार्थ परस्पर में समान ही हैं । यदि इनसे भी असमानता हो तो पसार्थ के अप्सत्व-प्रभाव का ही प्रसङ्ग हो जाय । तो भी तीसरे भेद सर्ववैवयं की व्यर्थता को दूर करने के लिये कहते हैं । 'इस ने गुरु मतादि जैसे अत्यन्त खराब काम किये हैं, जिसको नीच से नीच भी नहीं कर सकता।' इसी प्रकार दासादि के उदाहरण भी जानने चाहिये। For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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