________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
[ उत्तरार्धम् ]
२२५ भावार्थ-जिसके द्वारा संख्या-गणना की जाय उसे संख्या प्रमाण कहते हैं और वह आठ प्रकार से वर्णन किया गया है। जैसे कि-नाम संख्या १, स्थापना संख्या २, द्रव्य संख्या ३, उपमान संख्या ४, परिमाण संख्या ५, शान संख्या ६, गणना संख्या ७, और भाव संख्या ८ । नाम संख्या और स्थापना संख्या का स्वरूप पूर्व कथित आवश्यक स्वरूप की तरह जानना चाहिये।
द्रव्य संख्या भी अागम से और नो पागम से वर्णन की गई है । तथा शशरीर, भव्यशरीर और व्यतिरिक्त द्रव्य संख्या तीन प्रकार से वर्णित है। जैसे कि-जिसे एकभव के अनन्तर मृत्यु प्राप्त कर शंख में उत्पन्न होना है उसे एकभविक शंख कहते हैं । इसमें द्विभविक त्रिभविकादि भवों की गणना नहीं है, क्यों कि वह भोव शंख के बहुत ही अन्तर पर है ? तथा जिसने शंख आयु का बन्धन कर लिया है उसे बद्धायक शंख कहते हैं और जो भाष शंख के सन्मुख है उसे अभिमुखनामगोत्रकर्मपूर्वक शंख कहते हैं। ___एकभविक शंख की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट कोर पूर्व वर्ष की होती है । बद्धायुष्क की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट क्रोड पूर्व के तीसरे भाग की होती है । तथा असंख्येय वर्षों की स्थिति वाले जीव मृत्यु प्राप्तकर देवयोनि में ही प्राप्त होते हैं, शंखमें नहीं । इसी लिये उत्कृष्ट पद में पूर्व क्रोड उपादोन कारण है। अभिमुखनामगोत्र पूर्वक जीव जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण रह कर भाव शंख को प्राप्त हो जाता है।
नैगम, संग्रह और व्यववहार नय स्थूल दृष्टि से तीनों शंखो को मानते हैं। जुसत्र नय के मत में दो शंख और शेष तीन शब्द नयों के मन में केवल तृतीय शंख ही प्राह्य है, क्योंकि वही भाव शंख प्राप्त होने योग्य है।
इस प्रमाण से केवली तीन काल के शाता सिद्ध किये गये हैं। क्योंकि कतिपय मत सर्वच को तीन काल के शाता नहीं मानते ।
संख्या प्रमाण के अनन्तर अब उपमान प्रमाण को वर्णन किया गया जाता है
प्रौपम्य संख्या प्रमाणा। से किं तं ओवम्मसंखा ? चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-अस्थि संतयं संतएणं उवमिजइ, अस्थि संतयं असं
For Private and Personal Use Only