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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
वन् ! क्या वह परमाण गंगा महानदी के प्रतिश्रोत की ओर होता हुआ शीघ्र ही श्र सकता है ? (हंता हय्वमारच्छेज्जा) हां, शीघ्र श्रा सकता है अर्थात् यदि पूर्व की ओर गंगा बहती हो तो वह परमाण पश्चिम की ओर आ सकता है । (से गं तत्थ विधायावज्जेज्जा ?) हे भगवन् ! क्या वह परमाणु वहां जल रूप हो सकता है ? (नो इट्ठे समट्ठे, नो खलु तत्थ साथं कम ) यह अर्थ समर्थ नहीं है । उसको निश्चय ही पानी रूप शस्त्र अतिक्रम नहीं कर सकता ( से गं भंते ! उदयावत्तं वा उदगबिंदु वा उग्गहेजा ? ) हे भगवन् ! क्या वह परमाण उदकावर्तन में अथवा उदकविन्दु में अवगाहन कर सकता है ? (हंता उगाहेजा ) हां, अवगाहन कर सकता है । ( से गं तथ कुच्छेज्ज वा परियावज्जज्जा वा ?) हे भगवन् ! क्या वह परमाणु उस स्थान पर पर्याय परिवर्तन कर सकता है अर्थात् क्या वह परमाण जलरूप हो सकता है ? (णो इट्ठे समट्ठे, नो खलु तत्थ सत्थं कमड) यह तुम्हारा कथन यथार्थ नहीं है । उस परमाणु को जलरूपी शस्त्र अतिक्रम नहीं कर सकता (सत्थेण सुतिक्ख विछेत्तु भेत्तु च जं किरन सक्का) सुतीक्ष्ण शस्त्र से कोई भी उस परमाणु को छेदन भेदन करने में समर्थ नहीं है ( तं परमाणु सिद्धा वरंति आई पमायाणं ) उस परमाणु को सिद्ध भगवान् आदि प्रमाण कहते हैं अर्थात् व्यावहारिक गणना में वह परमाण आदिभूत है और ( श्रताणं ववहारिश्रपरमाणु पांगलां समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा उस्सरह सारख्या इब) अनन्त व्यावहारिक पुद्गलों के समुदाय के एकत्र होने से एक 'उत्श्लक्ष्ण' नामक करण उत्पन्न होता है ( सरहसहिया इवां) उस से फिर 'श्लक्ष्णलक्ष्णिका' नामक करण होता है (रेणू तिवा) उध्वरेणु (तसरं ति वा ) त्रसरेणु (रहरेणू तिा) रथरेणु होता है ( श्रद्ध उसरहरिहयाश्री सा एगा सहसहिया) आठ उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिकाओं की एक श्लक्ष्णका होती. है ( श्रद्ध सरहस, हयाओ सा एगा उडूरेणु) आठ श्लक्ष्णश्लक्ष्णकाओं का एक ऊर्ध्वरेणु और ( उडरे सा एगा तसरेणु) आठ ऊर्ध्वरेणुओं का एक त्रसरेण (टु तसरेणुथ्रो सा एगा रहरेणु) आठ त्रसरेणओं का एक रथरेण ( ऋ रहरेको देव कुरुउत्तर कुरुगाणं मणुयाणं से एगे बालग्गे ) आठ रथरे णुओं का देवकुरु- उत्तरकुरु के मनुष्यों का एक बालाम होता है ( देवकुरु उत्तरकुरुगाणं मणुयाणं बालग्गा हरिवासरम्मगवासां मस्सां से एगे बालगे) फिर
भेदन करने में समर्थ
* 'किर' शब्द किलार्थ में है अर्थात निश्चय ही कोई छेदन नहीं है । + 'सिद्ध' शब्द का अर्थ यहां पर ज्ञानसिद्ध है । यथा केवली; क्योंकि भवस्थ भगवान् सिद्ध होते हैं । मुक्ति में विराजमान जो सिद्ध भगवान् हैं, वे वचनयोग से रहित हैं। इसलिये सिद्ध
शब्द का सम्बन्ध यहां पर भवस्थ केवली भगवान् से जानना चाहिये ।
† 'वा' शब्द उत्तरापेक्ष है और 'उत्' शब्द प्राबल्य अर्थ में होता है ।
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