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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३३ [ उत्तरार्धम् ] तेजस शरीर भी सभी जीवों के अनंत भाग में है । तुल्य का वर्णन इस लिये नहीं किया गया कि असंख्यात काल के पश्चात् तैजस शरीर के पुद्गल अपने २ परिणाम को छोड़ कर अन्य भाव में परिणमित होते हैं, इसलिये अनन्तों के अनंत भेद होते हैं ४ । ( केवइयाणं भंते ! कम्मगसर्गरा पएणता ? ) हे भगवन् ! कार्मण्य शरीर कितने प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? (गोयमा ! दुविहा पराण ता, ) हे गौतम ! दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया हैं, (तंज हा.) जैसे कि-(बदल्लया य) बद्ध कार्मण्य शरीर और (मुकल्लया य) मुक्त कार्मण्य शरीर, (जहा) जैसे (तयर.सरीग, तैजस शरीर होते हैं ( तहा कम्मगसरीगवि भाणियव्वा । ) उसी प्रकार कार्मण्य शरीर के भी भेद कहने चाहिये, अर्थात् ते जसशरीर के तुल्य ही कार्मण्य शरीर होता है ।५। भावार्थ-शरीर के पाँच भेद हैं, जैसे कि-औदारिक १ वैविय २ श्राहा. रक ३ तेजस ४ और कार्मण्य ५ इन पाँच शरीरों में से नारकीय दस भवनपति व्यन्तर, ज्योतिषो, और वैमानिक देवों के वैक्रिय तैजस और कार्मण्य ये तीन शरीर होते हैं, तथा-चार स्थावर और विकलेन्द्रिय के तीन, पंचेन्द्रिय तिर्यके और वायु काय के चार, तथा मनुष्यों के पांच शरीर होते हैं । श्रौदारिक शरीर के दो भेद हैं, जैसे कि बद्ध और मुक्त । औदारिक शरीर यदि असत्कल्पना के द्वारा प्रति समय ए.२ अपहरण किया जाय तो असंख्येय उत्सरिणी और अवसपिणी काल से अपहरण किये जाते हैं, यह काल प्रमाण वताया या है, लेकिन क्षेत्र से असंख्यात लोकों के प्रदेशों के तुल्य है. तथा जो मुक्त औदारिक शरीर है, वे अनंत हैं, काल से जितने अनन्त काल चक्रों के समय हैं उतने मुक्त औदारिक शरीर हैं, तथा क्षेत्र से अनन्त लोक के जितने देश हैं उतने उक्त शरीर है जो कि अभव्यों से अनन्त गुणे और सिद्धों के अनंतवें भाग में हैं १ । चैक्रि र शरीर के भी दो भेद हैं, बद्ध और मक्त, बद्व तो असंख्येय है जो कि प्रतर के असंख्यातवें भाग के प्रदेशों के तुल्य हैं, और काल से असंख्येय काल चक्रों के समयों के समान है । तथा-मुक्त वैकिय शरीर रक्त औदारिक शरीर के सदृश है २ । तथा-बद्ध श्राहारक शरीर कदाचितू होते हैं कदाचित् नहीं होते, यदि हो तो जघन्य से एक या दो या तीन और उत्क्रप्ट से पृथक सहस्र तक होते हैं। और मुक्त आहारक शरीर मुक्त औदारिक शरीरवत् जानना चाहिये ३ । तैजस * बद्ध आहारक शरीर चतुर्दश विद को ही होता है, इसया न्तर काल जघन्य से एक समय का औ र उत्कृष्ट से छः मास तक होता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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