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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ उत्तरार्धम् ] २२६ विद्यमान पदार्थ से ( उवमिज्जइ ) उपमा दी जाती है २, ( श्रत्थि श्रसंतयं ) अविद्यमान पदार्थ को (i) अविद्यमान पदार्थ से ( उवमिज्जइ ) उपमा दी जाती है ३, ( अस्थि संतयं ) अविद्यमान पदार्थ को (संत) अविद्यमान पदार्थ से ( उवमिज्जा ) उपमा दी जाती है ४ । (तत्थ संतयं) अब इनमें से विद्यमान पदार्थ को (संतए) विद्यमान पदार्थ से ( अवमिज्जइ ) उपमा दी जाती है (जहा) जैसे कि - ( संता श्ररिता) विद्यमान अर्हन्तको (संतएहिं पुरवरेहिं) विद्यमान प्रधान नगरों के (संतएहिं कबाडेहिं ) विद्यमान कपाटों-दरवाजों के (संत वच्छ हिं) विद्यमान वक्षःस्थल से (उवमिजर) उपमा दो जाती है, (तं जहा - ) जैसे कि ( पुरवरकवाडवच्छा, फलिहभुआ दुंदुहित्थणि घोसा ! ) (सिविच्छ विच्छा, सव्वेऽवि जिया चव्वीसं ॥ १ ॥ ) प्रधान नगरके कपाटों के समान जिनके वक्षः स्थल, अर्गला के समान भुजाएं, देवदुन्दुभि या स्तनित - विद्युत् के समान शब्द और जिनका वक्षः स्थल स्वस्तिक से अङ्कित है, इसी प्रकार चौवीस तीर्थङ्कर हैं १ । (संत) विद्यमान पदार्थ को ( श्रसंत ) अविद्यमान पदार्थ से ( उवमिज्जर, ) उपमा दी जाती है, ( जहा-) जैसे कि (संताइं नेश्इअतिरिक्खजोणिश्रम गुस्सदेवाणं श्राड्याई ) नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवताओं की विद्यमान आयु (असं एहिं पविसावशेत्रमे हि) श्रविद्यमान जो पल्योपम और सागरोपम हैं उन से ( उपमिति, ) उपमाएं दी जाती हैं। (संत संत) श्रविद्यमान को विद्यमान से ( उवमिज्जइ) उपमा दी जाती है, ( जहा-) जैसे कि -- (परिजूरिपेतं, चलंतबिंटं पतनिच्छीरं । ) (पत्तं च वसणपत्तं, कालप्पत्तं भाई गाई ॥१॥ ) वसमत समय में जो अतिजीर्ण कल्प है वह दूध रहित परिपक्व होनेके कारण बींट से नीचे गिर जाता है । पुनः पत्र वियोग रूपी व्यसन से नष्ट हो जाता है, ऐसे गाथा कहती है ॥ १ ॥ (जह तुम्भे तह श्रम्हे, तुम्हेऽवि श्र होहिहा जहा अम्हे | ) (अप्पा पतं, पंडुप किसलयाणं ॥ २ ॥ ) कोई जीर्ण पत्र वृक्ष से गिरता हुआ अभिनव कान्ति रूप किशलय को कहता है कि- जैसे तुम हो वैसे ही हम पहले थे और तुम भी अब हमारे जैसे हो जायोगे । किसलयों को कहता हुआ जोर्ण पत्र नीचे गिर जाता है ॥ २ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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