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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६२ [ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् समोयरइ आयभावे अ, एवं माणे माया लोभे रागे मोहणिज्जे अटकम्मपयडीओ आयसमोआरेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोआरेणं छव्विहे भावे समोयरइ आयभावे अ, एवं छविहे भावे, जीवे जोवस्थिकाए आयसमोआरेणं प्रायभावे समोयरइ, तदुभयसमोआरेणं सव्वदव्वेसुसमोअग्इ आयभावे । एत्थ मंगहणीगाहा-- कोहे माणे माया, लोभे रागे य मोहणिज्जे अ। पगडीभावे जोवे, जीवस्थिकाय दव्वा य ॥११॥ से तं भावसमोआरे । से तं समोआरे । से तं उवकमे | उवक्कम इति पठमं दारं (सू. १५३) ___ पदार्थ ( से किं सं भावममा पारे ? ) भावसमवतार किसे कहते हैं ? (भावसमा. पारे) भावसमवतार (दुविहे पएणते.) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा.) जैसे कि-(आयसमोसारे अ) आत्मसमवतार और (तदुभयसमोसारे अ,) तदुभयसमवतार (कोहे) क्रोध (आयसमोारेणं, आत्मसमवतार से ( आयभावे ) आत्मभाव में (समोयरइ) समवतीर्ण होता है, और (नदुभयममोकारेण) तदुभयसमवतार से (माणे) मान में ( समोयरइ पायाभावे श्र,) और आत्मभाव में समवतोर्ण होता है (एवं) इसी प्रकार (माणे माया लोभे रागे ) मान, माया लोभ, राग को जानना चाहिये, तथा( गोहणिज्ने अटक मपयड ओ ) मोहनीय कर्म की आठ कर्म प्रकृतियें (आयसपोयारेणं) आत्मसमवतार से (प्रायभावे) आत्मभाव में (समोयाइ.) समवतीर्ण होती हैं, और (तदुभयसमो पारेणं) तदुभयसमवतार से (छविहे भाव) क्षायोपशमिकादि छह प्रकार के भाव में (समोयरइ अायभावे अ,) और आत्मभाव में समवतोर्ण होती है (एवं छबिहे भावे,) इसी तरह छह प्रकार के भाव जानने चाहिये, (जीवे) जीव (जीवधिकार) जीवास्तिकाय ' प्रायसमोआरेणं ) आत्मसमवतार से ( श्रायभावे ) आत्मभाव में (समोयरड,) समवतीर्ण होती है, और (तदुभयप्स मोअरेणं) तदुभयसमवतार से (सबवे समापार प्रायभावे अ) सब द्रव्य और आत्मभात्र में समवतीर्ण होतो हैं, (एस्य संगठणीगाहा--) यहां पर एक संग्रह गोथा + भो है + जिन अधिकारों का संग्रह कर के गाथा रूप में संक्षेप से वर्णन किया जाता है उसे संग्रहणी गाथा कहते हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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